मृत्युबोध | अशोक कुमार पाण्डेय
मृत्युबोध | अशोक कुमार पाण्डेय

मृत्युबोध | अशोक कुमार पाण्डेय

मृत्युबोध | अशोक कुमार पाण्डेय

एक

कहीं दूर गुजरी ट्रेन की धीमी रहगुजर सी
मौत की पदचाप सुनाई देने लगी है इन दिनों
साँसों की आवाज में एक थकन का उदास संगीत
हर तरफ बिखरे जिंदगी के निशानों में लग रही है जंग धीरे-धीरे

कुछ है जो घुट रहा है सीने के भीतर
कुछ है जो पलकों में दम तोड़ रहा है
जीवन से भरे-भरे इस उदास से घर में
एक खाली कोना है सहमा हुआ
बस गुजर जाता रहा हूँ अब तक उधर से अपनी ही धुन में
अब घुटनों में सर दिए बैठा हूँ वहीं
अपनी तमाम ख्वाहिशों के साथ चुपचाप

इस खाली कोने में हैं पुरुष की क्रूरताओं का इतिहास
कई औरतों और बच्चों के समवेत आँसुओं के निशान हैं यहाँ खुरदुरे
ख्वाहिशों के बोझ से दबी इच्छाएँ हैं कितनी ही छोटी-छोटी
मैं उनसे निगाहें मिलाने में नाकामयाब हूँ अब भी
ख्वाहिशों की गठरी चुपचाप वहाँ रख चला जाना चाहता हूँ किसी लंबी यात्रा पर
मिल जाए तो नींद ही भर लेना चाहता हूँ आँखों में हींक भर

यह रात का तीसरा पहर है
और सूरज के आने की आहट आँखों में उतर रही है
एक आदत में तब्दील हो चुका है सूर्योदय
और उम्मीद को नहीं देख पाता उससे जोड़कर

दो

‘मैं मृत्यु से नहीं डरता’

यह कहते हुए डरता हूँ कई बार
और फिर कहता हूँ इसे एक झूठे सच की तरह

चाँद एक नाराज दोस्त की तरह घूरता है मुझे
सूरज एक प्रसन्न दुश्मन की तरह
मैं इस झूठ का बोझ लिए काँधे पर नजरें झुकाए फिरता हूँ

तुम एक कवि हो और कवि को बचना चाहिए उदासी से
जनता देख रही है तुम्हारी ओर उम्मीद भरी नजरों से
तुम अपनी उदासियाँ जला कर रोशनी दो उसे

मेरी उदासियों का रंग इतना गाढ़ा है इन दिनों
मैं जलाता हूँ उसे तो आग नहीं सिर्फ धुआँ निकलता है

तीन

मैं तुम्हारे काँधे पर सर रखकर रोने आना चाहता हूँ एक बार
क्या एक बार आँखों में आँसू आए तो अग्नि धुल जाएगी हमेशा के लिए?

चार

एक जलती चिता के पास खड़ा सुनता हूँ
चटकती हड्डियों और लकड़ियों की समवेत आवाजों के बीच
धुँधलाए से शब्द – यही अंतिम सच है जीवन का…

जहाँ खत्म हो जाता है जीवन वहाँ से शुरू होता है सच?

मैं जिंदा हूँ और सच की तलाश में हूँ
मरने से पहले पा लेना चाहता हूँ सच को
रात के तीसरे पहर अचानक देखता हूँ अपनी नब्ज
और ठंडा पानी उतारता हूँ हलक से आश्वस्ति की तरह
किताबों से भरे मेरे कमरे में जिंदगी है गले तक भरी
सच के बारे में नहीं ऐसी आश्वस्ति।

एक कविता है इस दुर्गम एकांत में मेरे साथ
और मेरी हजार ख्वाहिशें जो हर रात लौट आती हैं मेरे पास
दम का क्या है… निकले तो निकले

डरता हूँ यह कहते हुए
पर कहता हूँ फिर एक बार।

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