गुमसुम से बैठ गए
मिट्टी के दीप,
दीप-पर्व
बिजली से साँठ-गाँठ कर रहे।

संपत को याद आए
चाक वाले दिन,
दौड़ ये विकास की
चुभो रही है पिन,
वंध्या सी हो गईं
ये मन की सीपियाँ,
स्वाति बूँद स्वप्न हुई
दर्द ही उभर रहे।

सहसा चौंका दिया
अभावों ने आके,
रात दिन बीत रहे
कर कर के फाके,
हर घड़ी डराते है
भूख के पटाखे,
कहने को जिंदा हैं,
किंतु नित्य मर रहे।

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गूँगा परिवेश हुआ
गाँव हुआ बहरा,
संस्कृति के द्वार पर
धनिकों का पहरा,
वणिकों के संधि-पत्र
श्रमिक के अँगूठे,
जीवन की नदिया में
प्यास लिए डर रहे।