उसका सिर तेज दर्द से फटा जा रहा था। उसने पटरी से कान लगा कर रेलगाड़ी की आवाज सुननी चाही। कहीं कुछ नहीं था। उसने जब-जब जो-जो चाहा, उसे नहीं मिला। फिर आज उसकी इच्छा कैसे पूरी हो सकती थी। पटरी पर लेटे-लेटे उसने कलाई-घड़ी देखी। आधा घंटा ऊपर हो चुका था पर इंटरसिटी एक्सप्रेस का कोई अता-पता नहीं था। इंटरसिटी एक्सप्रेस न सही, कोई पैसेंजर गाड़ी ही सही। कोई मालगाड़ी ही सही। मरने वाले को इससे क्या लेना-देना कि वह किस गाड़ी के नीचे कट कर मरेगा।

उसके सिर के भीतर कोई हथौड़े चला रहा था। ट्रेन उसे क्या मारेगी, यह सिर-दर्द ही उसकी जान ले लेगा – उसने सोचा। शोर भरी गली में एक लंबे सिर-दर्द का नाम जिंदगी है। इस खयाल से ही उसके मुँह में एक कसैला स्वाद भर गया। मरने के समय मैं भी स्साला फिलॉस्फर हो गया हूँ – सोचकर वह पटरी पर लेटे-लेटे ही मुस्कराया।

उसका हाथ उसके पतलून की बाईं जेब में गया। एक अंतिम सिगरेट सुलगा लूँ। हाथ विल्स का पैकेट लिए बाहर आया पर पैकेट खाली था। दफ्तर से चलने से पहले ही उसने पैकेट की अंतिम सिगरेट पी ली थी – उसे याद आया। उसके होठों पर गाली आते-आते रह गई।

आज सुबह से ही दिन जैसे उसका बैरी हो गया था। सुबह पहले पत्नी से खट-पट हुई। फिर किसी बात पर उसने बेटे को पीट दिया। दफ्तर के लिए निकला तो बस छूट गई। किसी तरह दफ्तर पहुँचा तो देर से आने पर बॉस ने मेमो दे दिया। पे-स्लिप आई तो उसने पाया कि आधा से ज्यादा वेतन इन्कम-टैक्स में कट गया था।

फिर शुक्ला ने सबके सामने उसे जलील किया। गाली-गलौज हुई। नौबत हाथा-पाई तक पहुँची। और शुक्ला ने उसे कुर्सी दे मारी।

पटरी पर लेटे-लेटे उसका बायाँ हाथ उसके दाहिने घुटने को सहलाने लगा जहाँ शुक्ला की मारी कुर्सी उसे लगी थी। दर्द फिर हरा हो गया।

असल में यह नौकरी उसके लायक थी ही नहीं – उसने सोचा। ऑफिस में ऊपर से नीचे तक गधे भरे हुए थे। हर सुबह बैग और टिफिन लिए दफ्तर आ जाते थे। दोपहर का खाना खा कर ताश खेलते थे। काम के समय ऑफिस में सीट पर ऊँघते थे या सीट से गायब रहते थे। दिन में कई बार कैंटीन में चाय-काफी पीते थे। और बाकी बचे समय में एक-दूसरे की जड़ काटते थे। इसको उससे लड़ाना। उसको इसकी नजरों में गिराना। इसका-उसका पत्ता काटना। बॉस की चमचागिरी में प्रागैतिहासिक काल में पूर्वजों के पास पाई जाने वाली अपनी लुप्त पूँछ हिलाना। और महिला सहकर्मियों को देख कर लार टपकाना।

उसका दम यहाँ घुटता था। वह इन चीजों के लिए नहीं बना था। यहाँ ‘टेलेंट’ की कोई कदर नहीं थी। आपके गुण यहाँ अवगुण थे, अवगुण ही गुण थे – उसने सोचा।

बचपन में माँ ने सिखाया था – बेटा, झूठ बोलना बुरी बात होती है। पर सारी दुनिया धड़ल्ले से झूठ बोलती थी और ऐश करती थी। पिताजी कहते थे – रिश्वत लेने और देने वाले, दोनों ही अपनी नजरों में गिर जाते हैं। पर यहाँ दोनों मजे में थे। स्कूल में टीचर कहते थे – शराब आदमी का पतन करती है। पर यहाँ दारू पीने और पिलाने वाले, दोनों का ही उत्थान होता था। पिताजी कहते थे – दफ्तर में चुगली-निंदा से दूर रहना, बेटा। पर यहाँ चुगली-निंदा समूचे दफ्तर का टॉनिक थी। दादाजी कहते थे – मेहनती और ईमानदार आदमी का भगवान होता है। पर यहाँ भगवान मेहनती और ईमानदार को शैतान की कृपा पर छोड़कर न जाने कहाँ गुम हो गया था। आप लोगों ने मुझे यह क्या सिखाया – उसने पटरी पर लेटे-लेटे सोचा। वह यहाँ ‘मिसफिट’ था। दफ्तर में ही नहीं, घर में भी।

वह चाहता था कि पत्नी उसका सुख-दुख बाँटे। पर पत्नी को पैसा चाहिए था और पैसे से खरीदे जाने वाले सभी ऐशो-आराम।

दत्ताजी भी तो आपके साथ काम करते हैं – वह कहती। उनके पास टाटा-सफारी है। दत्ताजी ही क्यों, शुक्लाजी, सिंह साहब, खान साहब – सबके यहाँ गाड़ियाँ हैं। और आप ‘हमारा बजाज’ से ऊपर ही नहीं उठ पाते। ऐसी ईमानदारी का मैं क्या अचार डालूँ – वह कहती। आज की दुनिया में रिश्वत नाम की कोई चीज नहीं होती। गिफ्ट्स होते हैं। लोगों का काम करो और उनसे गिफ्ट्स लो – उसका कहना था।

क्या पापा, मेरे सब दोस्त नई-नई गाड़ियों में स्कूल आते हैं। उन सबके पास उनका अपना मोबाइल फोन होता है। उन्हें डेली कम-से-कम सौ रुपए जेब-खर्च मिलता है। इन सबके बिना स्कूल में आपके बेटे की इमेज खराब होती है – बेटा शिकायत करता। उधर पत्नी ताना मारती – इनसे कुछ नहीं होगा। ये तो राजा हरिश्चंद्र हैं।

पूरी दुनिया में एक भी आदमी नहीं था जो उसे समझता। बचपन में पिताजी उसे बहुत प्यार करते थे। माँ उसे बहुत चाहती थी। वह दादाजी का लाड़ला था। स्कूल में उसके टीचर कक्षा में फर्स्ट आने पर हमेशा उसकी पीठ ठोकते थे। पर शायद वे सब उसे इस दुनिया के लायक नहीं बना सके – उसने सोचा। उसने किस-किस के लिए क्या-क्या नहीं किया। पर अपना मतलब निकाल कर सब उसे ठेंगा दिखा गए।

शायद इसी को ‘प्रैक्टिकल’ होना कहते हैं। वह आज भी ‘प्रैक्टिकल’ नहीं हो पाया। के.के. कह रहा था – ”तुम्हारी समस्या यह है कि तुम दिमाग से नहीं, दिल से जीते हो। इसलिए तुम यहाँ ‘मिसफिट’ हो।” क्या इस दुनिया में दिल से जीना गुनाह है – उसने सोचा। दिमाग से जीने वालों ने इस दुनिया को क्या बना दिया है। लोग सुबह पीठ पीछे किसी को गाली देते थे। दोपहर में उसी के साथ ‘हें-हें’ करते हुए खाना खाते थे। लोग अपना काम निकालने के लिए गधे को बाप कहते थे। और बाप को गधा। वह ऐसा नहीं कर पाता था। इसलिए ‘सीधा’ था। ‘मिसफिट’ था। मंदिर में पुजारी भगवान के नाम पर लूटते थे। सड़कों पर भिखारी इनसानियत के नाम पर लूटते थे। आजाद भारत में चारों ओर अंधेरगर्दी मची थी। ईमानदार सस्पेंड होते जा रहे थे। कामचोर प्रोमोशन पा रहे थे। धर्म और जाति के नाम पर नेता देश को लूट कर खा रहे थे। हर ओर चोर और बेईमान भरे हुए थे। फर्क सिर्फ इतना था कि कोई सौ रुपए की चोरी कर रहा था, कोई हजार की, कोई लाख की और कोई करोड़ की। इन सबके बीच वह एक लुप्तप्राय अजनबी था।

दूर कहीं से रेलगाड़ी के इंजन की मद्धिम आवाज सुनाई दी। उसने पटरी से कान लगाया। पटरियों में रेलगाड़ी के पहियों का संगीत बजने लगा था।

तो इसे ऐसे खत्म होना था। जीवन को पटरियों पर। रेलगाड़ी के पहियों से कट कर। अच्छा है, इस जीवन से मुक्ति मिलेगी। हैरानी की बात यह थी कि उसका सिर-दर्द अचानक ठीक हो गया। वह रहे या न रहे, किसी को क्या फर्क पड़ेगा। उसकी मौत कल अखबार के भीतरी पन्ने में एक छोटी-सी हेडलाइन होगी। या शायद वह भी नहीं – उसने सोचा।

वह पैर फैला कर पटरी पर पीठ के बल लेट गया। ऊपर हाइ-टेंशन वायरों से घिरा मटमैला आकाश था। उनसे ऊपर, नीचे उड़ रही एक चील को चार-पाँच कौए सता रहे थे। इंजन की आवाज अब करीब आती जा रही थी। उसने आँखें बंद कर लीं। इंजन की आवाज अब बहुत पास आ गई थी। पास। और पास। पटरी और पहियों के बीच का संगीत अब कर्कश और बेसुरा लगने लगा था। उसने एक लंबी साँस ली। पल भर और। इंजन उसके ऊपर से गुजरने वाला था। हैरानी की बात यह थी कि उसे डर नहीं लग रहा था।

एक पल के लिए जैसे उसका वजूद इंजन के शोर में डूब गया। सैकड़ों टन लोहा जैसे उसके ऊपर से गुजर गया। उसकी आँखें खुल गईं। क्या मैं जीवित हूँ – उसके दिमाग में कौंधा।

उसने सिर मोड़ कर देखा – साथ वाली पटरी पर एक अकेला इंजन उससे दूर जा रहा था। दूर… और दूर।

एक पल के लिए उसे विश्वास नहीं हुआ। मौत उसे करीब से सूँघ कर जा चुकी थी। अभी उसे जीना था। कहीं कोई था जो चाहता था कि वह अभी रहे।

लड़खड़ाता हुआ वह पटरी से उठ खड़ा हुआ। उसे लगा जैसे वह कोई सपना देख रहा हो। इंजन अब क्षितिज पर एक घटता हुआ धब्बा रह गया था। मौत उसे छू कर निकल गई थी। पहली बार उसे कँपकँपी-सी महसूस हुई। उसे लगा जैसे उसके हाथ-पैरों में जान नहीं रही। संयत होने में उसे कुछ समय लग गया। आखिर कपड़ों से धूल झाड़ कर वह घर की ओर चल दिया।

रास्ते में उसे कई लोग मिले। वह उन्हें बताना चाहता था कि आज उसने मौत को कितने करीब से देखा था। पर किसी ने उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। सब अपनी दुनिया में मस्त थे। चौक पर ट्रैफिक-लाइट नहीं थी, और दो ट्रैफिक पुलिसवाले यातायात को भाग्य-भरोसे छोड़कर एक ट्रकवाले को डरा-धमका कर उससे कुछ रुपए ऐंठने में व्यस्त थे। घर के पास नुक्कड़ वाली चाय की दुकान पर कुछ शोहदेनुमा लड़के आती-जाती लड़कियों को छेड़कर मजे ले रहे थे। उसने बगल के पानवाले से एक पैकेट सिगरेट खरीदी और एक सिगरेट सुलगा ली। आराम मिला।

बड़ी जल्दी आ गए आज – घर में घुसते ही टी.वी. पर ‘सास-बहू’ सीरियल देख रही पत्नी ने व्यंग्य कसा। वह चाहता था कि पत्नी को बताए कि आज वह मरते-मरते बचा। वह उसे बाँहों में भर कर चूमना चाहता था। वह कंप्यूटर पर ‘गेम’ खेल रहे बेटे के सिर पर हाथ फेर कर उसे पुचकारना चाहता था। वह चिल्ला कर उन्हें बताना चाहता था कि आज वह बाल-बाल बचा। पर पत्नी टी.वी. सीरियल में और बेटा कंप्यूटर-गेम में व्यस्त थे। उनकी रुचि उसके जीवन में नहीं थी।

खाना डाइनिंग-टेबल पर पड़ा है – टी.वी. सीरियल में आए ब्रेक के समय पत्नी ने सूचना दी।

नहा-धो कर उसने खाना खाया और टी.वी. पर कोई क्राइम-सीरियल देख रही पत्नी से ‘टहल कर अभी आता हूँ’ कह कर वह घर से बाहर निकल गया। उसने सिगरेट सुलगा कर कुछ गहरे कश लिए और टहलता हुआ वह एक बार फिर रेलवे-लाइन की ओर निकल पड़ा।

यह क्या? पटरियों के बीचों-बीच कोई बैठा हुआ था। वहाँ रोशनी कुछ कम थी। ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था।

तभी दूर से रेलगाड़ी की सीटी सुनाई दी। और इंजन का जाना-पहचाना शोर करीब आने लगा। उसके शरीर में एक बार फिर कँपकँपी-सी दौड़ गई। क्या कोई और उसकी तरह आत्महत्या करना चाह रहा है? वह अब क्या करे?

अचानक वह हाथ में पकड़ी सिगरेट फेंक कर पटरियों के बीचों-बीच बैठी आकृति की ओर चिल्लाते हुए दौड़ने लगा। गाड़ी के इंजन की रोशनी करीब आती जा रही थी। फटे-पुराने कपड़े पहने बिखरे बालों वाली एक नारी आकृति पटरियों के बीचों-बीच सिर झुकाए बैठी थी। पटरियाँ लाँघता वह बेतहाशा दौड़ा। रेलगाड़ी और करीब आ गई थी। उसे लगा, वह उस युवती को नहीं बचा पाएगा। उसने पूरी जान लगा दी और इंजन के ठीक मुँह में से युवती को दूर खींच लिया। रेलगाड़ी धड़ा-धड़, धड़ा-धड़ करती हुई पटरी पर निकलती जा रही थी।

मरना चाहती थी? गाड़ी गुजर जाने के बाद उसने युवती को झकझोर कर पूछा।

युवती के मुँह से एक अस्पष्ट-सी ध्वनि निकली। वह केवल फटी हुई आँखों से उसे देखती रही।

कोई भिखारन है। शायद गूँगी-बहरी – युवती के फटे-पुराने कपड़े देख कर उसने सोचा। अब मैं क्या करूँ?

नारी-निकेतन वहाँ से ज्यादा दूर नहीं था। पर उसे सुबह के अखबार के मुख-पृष्ठ पर छपी खबर याद आई -‘नारी-निकेतन या देह-व्यापार का अड्डा?” और उसने युवती को नारी-निकेतन ले जाने का विचार त्याग दिया।

इसे पुलिस-स्टेशन ले चलूँ क्या? उसने सोचा। पर पुलिसवाले आज तक उसमें विश्वास नहीं जगा पाए थे। वे मुझ ही से सौ तरह के सवाल पूछने लगेंगे। कहाँ मिली? कब मिली? तुम उस समय वहाँ क्या कर रहे थे? वगैरह – उसने सोचा। और अगर पुलिसवाले मुझ ही पर शक करने लगे तो? मुझ ही से रिश्वत माँगने लगे तो?

आखिर वह उस भिखारन को पास के पार्क में बनी एक बेंच पर बिठाकर आगे बढ़ गया। अमावस का आकाश तारों से ढँका हुआ था। बीच-बीच में कोई टूटता हुआ तारा कुछ देर चमकता और फिर गायब हो जाता।

सड़क पर आ कर उसने राहत की साँस ली। और तब उसे खयाल आया कि आज दूसरी बार वह मरते-मरते बचा था। वह भिखारन उसकी कौन थी? उसे बचाते हुए अगर वह रेलगाड़ी के नीचे आ जाता तो?

“तो क्या? दुनिया में एक अदद ‘मिसफिट’ कम हो जाता।” उसने मुस्करा कर जोर से कहा और कोई भूला हुआ गीत गुनगुनाता हुआ घर की ओर चल पड़ा।

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