हर रात की
सचेत गोपनीयता में
अँधेरे और चुप्पी
के संगम से जन्मे
छह ऊबड़-खाबड़ साल कुचले पड़े हैं,
सोमवार, मंगलवार या बुधवार
के रूप में
चिह्नित नहीं
न ही पहली, दूसरी या तीसरी
तारीखों की शक्ल में
बल्कि चकतों और दमक के साथ
हर अक्षर बोझिल
छायाओं और दूतों से
मैंने डायरी में लिखा तो
अँगुलियाँ फड़की थीं
पास बैठे बच्चे के
सपनों से होते हुए
दाएँ से
और फिर बाएँ से
उतरते शब्द
सच्चे, सिर उठाए हुए,
शराफत और दुराचार के
इधर-उधर
चलते-फिरते प्रतीक
ईमानदार भावनाएँ
उबलती हुई शिकायतें
हाय राम
पूरी दुनिया से
और खुद से झगड़ा
यहाँ चिपचिपे जालों
में उलझी
वहाँ, सँकरे रास्तों की
तरेड़ों में खोई
पक्षियों के घोंसले में
अंडे तोड़ती हुई
शब्द जवाब देते हैं
अर्थ बाहर की ओर रेंग जाते हैं
पुराने जख्मों पर
नमक छिड़कते हुए;
यह सब
दिन के उजाले में कभी नहीं
जब हरेक पृष्ठ के
टुकड़े-टुकड़े करके
बच्चे ने फाड़ दी डायरी
घंटे और मिनट
उल्लास में लुढ़क गए
समय का चश्मा
खिड़की से बाहर उड़ गया
आजाद कबूतरों की भाँति।