मेरा पता कोई और है | कविता
मेरा पता कोई और है | कविता

मेरा पता कोई और है | कविता – Mera Pata Koi Aur Hai

मेरा पता कोई और है | कविता

राजेंद्र जी के लिए

जिनका होना

मेरे लिए आश्वस्ति है…

मैं जहाँ हूँ सिर्फ वहीं नहीं, मैं जहाँ नहीं हूँ वहाँ भी हूँ

मुझे यूँ न मुझमें तलाश कर कि मेरा पता कोई और है

शीर्षक के लिए प्रसिद्ध शायर राजेश रेड्डी का आभार

आभार साहिर लुधियानवी, कैफी आजमी, धर्मवीर भारती, अज्ञेय और सुधीर सक्सेना का भी जिनकी कविताएँ इस उपन्यास में कहीं-न-कहीं आई हैं।

1

धूप कमरे की खिड़की से घुस कर उसके शिथिल बदन से अठखेलियाँ करने लगी थी। उसकी किरणें उसका सारा ताप सारी थकन हरे ले रहा था। शरीर, मन सब जैसे हल्का हुआ जा रहा हो। अब उसकी नर्म गर्मी उसे सहलाती, छेड़ती, अंतत: परेशान करने लगी थी। वह थोड़ा सा खिसक लेती, वह थोड़ी दूर और फैल जाता। वह थोड़ा और खिसकती वह थोड़ा और फैलता… जैसे उसके इस आलस से उसे चिढ़ हो रही हो।

नंदिता अभी तक उस बिस्तर से चिपकी पड़ी थी; सुबह के साढ़े नौ हो जाने तक। वसीम को यहाँ से निकले हुए लगभग डेढ़ घंटे हो चुके थे और प्रो. हनीफ कई दिनों से घर आए ही नही थे। घर, हाँ अगर उसे वो घर की संज्ञा से नवाजते हों तो… यों उनका आना न आना हमेशा उनकी मर्जी से ही होता है और उसने कभी कोई प्रतिवाद या प्रतिरोध नहीं किया। उसके लिए यही कम नही था कि प्रो. हनीफ से उसका कोई रिश्ता था। जायज-नाजायज ये शब्द बड़े दुनियावी और तुच्छ थे उस रिश्ते के आगे… उसकी गहराइओं-ऊँचाइयों को छूने के लिए।

यहाँ कोई प्रश्न-प्रतिप्रश्न नहीं था और उत्तरों की श्रृंखला भी नहीं थी, न जवाबदेही ही। प्रो. हनीफ इसी से टिक पाते थे इस घर और रिश्ते पर… वह कृतार्थ हो लेती थी।

उसने कभी सोचा भी नहीं था प्रो. हनीफ की ऊँचाइयों को अपने कंधे से माप सकेगी; वे आकाश-कुसुम थे उसके लिए और वह आकाश-कुसुम अब उसकी झोली में था। वह यकीन करने की खातिर अब भी जब-तब टटोल लेती है अपना दामन। उस रिश्ते की छुअन, उसकी गर्मी क्या मौजूद है वहाँ… वह किसी स्वप्न को तो नहीं जी रही…? उनके टँगे कपड़ों को वह आलमारी में टटोल आती है… टटोलने से याद आता है उसे, उनके गंदे कपड़े अभी धुलने को नहीं गए हैं। आज तो दे ही देना होगा उसे। वह अपनी अस्वस्थता -जन्य आलस को छोड़ चेतन होने लगती है। एक दिन और कितने-कितने तो काम… सामने थीसिस के पन्ने पड़े हैं अस्त-व्यस्त। वह उन्हें तरतीब से फाइल-बंद करके रख लेती है।

पता नहीं आगे कब…

वक्त मुट्ठी से फिसलता जा रहा है चुपचाप। पर उसे वक्त का यूँ बीतना पता ही नहीं चल पाता। उसकी जिंदगी के तो उतने ही दिन बीतते हैं; उतने ही दिन जीती है वह जितने दिन हनीफ उसके साथ होते हैं। शेष दिन प्रतीक्षा और सिर्फ प्रतीक्षा में। हनीफ टोकते हैं उसे अक्सर, ऐसे कैसे बिता देती हो सारा समय। कुछ तो पढा-लिखा करो। थीसिस वहीं की वहीं अटकी पड़ी है। कैसे कटता है तुम से सारा का सारा वक्त।

वह उनके नाक से उतरते चश्मे को फिर से नाक पर चढ़ाती हुई कहती है – ‘आपकी याद में।’

‘भाड़ में जाए यह याद। पढ़ाई-लिखाई…’

वह छोटे बच्चे की तरह उनके कंधे से लटक पड़ती है – ‘कर लूँगी वह भी।’

‘कब…? अभी…’

‘नहीं, आपके जाने के बाद…’

‘नहीं, अभी।’

‘नहीं, आपके जाने के बाद…’

‘अभी…’

अभी तो मैं आपके साथ बैठूँगी, बातें करूँगी। फिर खाना खाएँगे हम। अ… खाने से याद आया, सब्जी चढ़ा रखी थी गैस पर; कहीं जल न गई हो… कैसे खाएँगे आप… उसकी आँखों में चिंता की लकीरें हैं गहरी… नीली… भूरी…

वे लाड़ से देखते हैं उसे… खा लूँगा… पूरी तरह से न जली हो तो … नहीं तो बाहर भी…

ट्रिन… ट्रिन… मोबाइल की हल्की सी टिनटिनाहट उसे बाहर धकेलती है स्मृतियों से।

वह एसएमएस पढ़ती है – ‘तुम्हारे लिए कोई क्षमा नहीं है स्त्री / स्वर्ग के दरवाजे बंद हैं / कि तुम्हारे कारण ही / धकेला गया पुरुष पृथ्वी पर / नींद में चहलकदमी मत करो स्त्री / कि पाँवों की साँकल बज उठेगी / भूलो मत अभिसार के बाद, अभी-अभी नींद आई है तुम्हारे पुरुष को…’ – एमीलिया

यह एमी भी… पता नहीं क्या-क्या लिख कर भेजती रहती है। अभी कल तो उसने… वह दुबारे इस कविता को पढ़ती है और चौंक उठती है। ये पंक्तियाँ कहीं उसी कविता की कड़ी तो नहीं।

वह ‘इन बाक्स’ में जाती है – ‘स्त्री / बचा सको तो बचा लो अपना नमक / नमक के सौदागरों से / वे तुम्हें जमीन पर पाँव न धरने देंगे / कि कहीं तुम्हारे पाँव से झर न जाए रत्ती भर नमक… अगर्चे तुम बच गई स्त्री / लिखेंगे वे धर्मग्रंथों और सुनहरी पोथियों में/ कि दर-दर नमक बाँटती फिरती थी निर्लज्ज स्त्री…’

वह समझना चाहती थी एमी क्या कहना चाहती है, वह समझ रही थी एमी का मतलब क्या है… वह भरोसा नहीं करना चाहती थी एमी के कहने पर। एमी की शुक्रगुजार है वह। वह न होती तो प्रो. हनीफ से वह मिल भी कहाँ पाती। वह एमी ही थी जिसने इंटर की परीक्षाओं के बाद के खाली दिनों में उसे आर्ट्स क्लासेज ज्वाइन करवाया था जबरन। वह बेमन से जुड़ी थी सिर्फ एमी का साथ देने की खातिर। पर फिर… प्रो. हनीफ वहाँ गेस्ट फैकल्टी थे। वह पहली मुलाकात, अगर सिर्फ सुने और देखे जाने को भी मुलाकात कहते हों तो अब भी उसकी स्मृतियों में ज्यों की त्यों है। वह आँखें फाड़-फाड़ कर सुनती रहती उन्हें, देखती रहती उन्हें, एकटक। क्लास कब खत्म हो जाते उसे पता ही नहीं चलता अगर एमी बाजू पकड़ कर उठने को नहीं कहती – ‘चल।’

वह प्रो. हनीफ के प्रभामंडल की जद में थी, बुरी तरह। उनकी आँखें, उनका चेहरा, सिर के कुछ सफेद बाल, उनका ऊँचा कद। एमी कहती यह उम्र होती ही है ऐसी जब लोग बुजुर्गों की तरफ आकर्षित होते हैं। फादर सिंड्रोम, पितृ-ग्रंथि कहते हैं इसे। वे बाहर आ खड़ी हुई थीं। मुझे जब पिता से कोई लगाव ही नही रहा फिर पितृ-ग्रंथि क्या…?

वही तो… कभी-कभी जो मिलता नहीं उसे हम तलाशते फिरते हैं बाहर-बाहर। तुम्हारे दिमाग मैं बैठा पिता का रोल माडल…

पिता शब्द उसे चुभता है। वह कहती है अब बस भी कर… पर एमी के अनुभव बोलते हैं, बोलते ही रहते हैं।

उबरने के लिए वह हनीफ सर का पहला एसएमएस निकालती है –

‘यूँ तो था पास मेरे बहुत कुछ, जो मैं सब बेच आया।

कहीं ईनाम मिला और कहीं कीमत भी नहीं।

कुछ तुम्हारे लिए इन आँखों में बचा रखा है,

देख लो, और न देखो तो शिकायत भी नहीं।’

उनके लिए हैरत का सवब था यह एसएमएस। वे क्लास में हर लड़के का मोबाइल नंबर पता कर-कर के थक चुकी थीं। उससे ज्यादा शायद एमी…

वे तो शायद भूल भी जातीं एसएमएस की बात, लेकिन उस दिन इन्स्टीच्यूट की डायरेक्टरी मिली थी उन्हें और उसे पलटते-पलटते हनीफ सर के नंबर पर उनकी निगाहें अटक गई थीं…

एमी ने चिकोटा था उसे – तो आग दोनों तरफ लगी हुई है… मैं तो समझी थी… बुड्ढे के बच्चे हों शायद हमारे बराबर… मैं बात करती हूँ उससे… नंदिता ने बाँहें थाम ली थी उसकी – ‘ नहीं एमी… नहीं… मेरी खातिर…’

बुढ़ापे में आदमी सठिया जाता है, और तू तो… वह उसे गुस्से से घूरती है, घूरती रहती है। फोन करती हूँ मैं तेरे घर, बुलाती हूँ अंकल को… तेरी अक्ल तभी ठिकाने आएगी।

वह उसे मासूम निगाहों से देखती है, आँखों में इल्तिजा भर कर, प्लीज घर फोन नहीं करना एमी। पापा नाराज होंगे, नहीं समझ पाएँगे यह सब कुछ।

यह सब कुछ तू समझ पा रही है? कि यह सब कुछ है क्या सिवाय बेवकूफी और बचपने के। बुढ़िया नानी कहती हैं, तू नहीं समझ पाएगी यह सब कुछ।

क्या है यह सब कुछ तू पहले मुझे समझा कर तो देख। अंकल को बाद में… पहले मुझे ही, चल शुरू कर… वह उसे कंधे से झकझोर रही है।

प्लीज एमी…

प्लीज क्या, हमेशा मरी बकरियों की आँखों की तरह आँखें बना मुझे जीत नहीं सकती तू। मैं तुझे नहीं चलने दूँगी इस राह… और अगर इस राह गई तू तो हमारी दोस्ती यहीं खत्म…

छोड़ देना या छूट जाना इतना आसान होता है क्या; न उससे हनीफ सर का मोह छूटा था न एमी से उसका। पूरे पाँच वर्ष बीत चुके हैं इस बीच। लंबे-लंबे पाँच वर्ष। पर उसे लगता है जैसे अभी की बात है यह सब। अभी तक तो वह भरोसा भी नहीं कर सकी कि वह साथ है हनीफ सर के, किसी लंबे स्वप्न में नहीं जी रही वह। और एमी… जब तब मिलने के बहाने ढूँढ़ती है उससे… एसएमएस और फोन। उसने शायद अभी तक उम्मीद नहीं छोड़ी है और नंदिता ने अपना भरोसा…

एमीलिया, कभी की छात्र नेता, आज की तेज-तर्रार पत्रकार। उसकी इच्छाओं के आगे झुक कैसे लेती है, मान कैसे लेती है उसकी बात। अपनी दलील से सबको परास्त करनेवाली एमीलिया। प्यार सबको पराजित करता है, झुका लेता है, प्रिय की इच्छाओं के आगे। एमीलिया कोई अपवाद तो नहीं…

नंदिता खुद नहीं छोड़ आई इस प्यार के पीछे घर-द्वार, दोस्त-रिश्ते सब। लोगों की आँखों में उगे अपमान को वह नहीं पहचानती हो ऐसा नहीं है पर पहचान कर भी उस पर मिट्टी डाल देती है वह। एक घर-परिवार, अपना घर-परिवार कभी-न-कभी उसने भी तो चाहा होगा। पर अब वह सारी चाहत हनीफ सर के साथ की चाहत में बदल कर रह गई है।

…और खुद हनीफ सर, वे किसी के लिए उत्तरदायी नहीं? उसको हर क्षण किसी की आँखों में उगी नफरत नहीं झेलनी होती पर उन्हें तो उनके पूरे परिवार का सामना करना होता है, पत्नी, बच्चे सबका… छोटा लड़का चाहे न समझता हो उतना कुछ पर वसीम… वसीम तो बड़ा है। लगभग उसी उम्र का है वह जिस उम्र में हनीफ सर से मिली थी वह…

प्यार व्यक्ति को कमजोर बना देता है और लाचार भी… एनी अक्सर कहती थी। उस वक्त तो और भी जब आर्ट क्लासेज खत्म हो चुके थे और इंटर का रिजल्ट आने में अभी वक्त बाकी था। नंदिता तड़पती रहती… एक बार, बस एक बार वह हनीफ सर से मिल पाती। वह एमी से प्रार्थना करती बार-बार। कहती, कोई उपाय… कैसे भी… गजब यह कि हनीफ सर ने इस बीच उसे कभी कोई एसएमएस भी नहीं भेजा था। अपनी पहल पर एसएमएस करनेवाले हनीफ सर की इस चुप्पी का कोई मतलब वह नहीं समझ पा रही थी। या यूँ कहें कि यह चुप्पी जो बतलाना चाह रही थी वह सच उसे स्वीकार्य नहीं था। एमी उसकी तकलीफों से पसीज कर कहती है, फोन कर, एसएमएस कर, बुला कर मिल तो उनसे। उसे हैरत होती है पर नहीं होती है। वह जानती है प्यार व्यक्ति को कमजोर बना देता है, लाचार भी। वह चाहती थी एमी उससे यही कहे पर पर जब उसने कह दिया वही सब कुछ तो उसके हाथ मोबाइल उठाने से इन्कार कर देते हैं…। अजीब है तू भी, यही तो चाहती थी न तू, फिर अब क्या हुआ? कर ले फोन, वह उसे मोबाइल थमाती है। वह चुपचाप रख देती है उसे… पागल लड़की, सँभाल खुद को। इस तरह तो तू… एमी ने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया है, वह उसके बाल सहला रही है।

एमी सैंडविच बना कर लाती है, प्लेट उसके सामने कर देती है। वह उठा कर कर खाना चाहती है सैंडविच पर उसके हाथ बेतरह काँप रहे हैं, थर-थर। अपनी हालत पर उसे खुद तरस आ जाता है, कैसी तो हालत बना रखी है उसने खुद की। अगर एमी भी साथ न हो उसके तो… और एमी भी कब तक झेल पाएगी यों उसे। उसने बेतरह काँपते शरीर और हाथ को सहेजा है, तोड़ा है एक ग्रास और मुँह में ठूँस लिया है, नहीं बस और अब नहीं। उसने छोटे-छोटे कौर तोड़ने शुरू किए हैं। सैंडविच बिल्कुल बेस्वाद है, कि स्वाद, रस, गंध ही उसकी जिंदगी से पीछे छूट चले हैं…

बेल बजी है, एमी गई है दौड़ कर। कौन होगा, वह सोचती है कोई नहीं आता उन दोनों के घर। बाहर-बाहर ही वे मिलती हैं लोगों से, जरूरत भर की बातचीत भी कर लेती हैं, पर घर तो सिर्फ उन दोनों का है, उनका एकछ्त्र साम्राज्य। उन्हें कभी किसी तीसरे की जरूरत नहीं पडी, बचपन से अब तक। लोगों को भी उनके इस एकांत में खलल डालने का कोई शौक नहीं था। खास कर इस शहर में। यह शहर उन्हें इसलिए भी बहुत पसंद था। यहाँ उनके लिए झोली भर आजादी थी और सिर पर मुट्ठी भर सपनों की छतरी भी, जिसके साये तले वे धूप, बारिश सबसे बचती-बचाती अपने सुख-दुख आपस में बाँट लेती थीं, बचपन के अपने पुराने शहर के दिनों की तरह ही…

वह कभी-कभी सोचती थी उन दिनों उन दोनों का अपना घर जो कि अब उसे एमी का घर लगने लगा था छोड़ देने से पहले, एमी के स्वरों में जो हनीफ सर के लिए हिकारत है वह कहीं सिर्फ इसलिए तो नहीं कि वह उससे उसका कुछ निजी छीन ले जा रहे थे। वैसा निजी जिसे वह सिर्फ अपना समझ जी रही थी अब तक…। या कि उसके स्वर की पीड़ा-चिंता सब जेनुइन है। खालिस फिक्र और उसके हित से जुड़ी हुई। पर वह जब भी इस मुद्दे पर सोचना शुरू करती उलझ जाती बुरी तरह से। कोई निष्कर्ष न कभी निकला था न अब निकलता। हार-झख कर खयालों के उलझे गुच्छे को वह दूर फेंक देती जैसे माँ अक्सर उलझे पुराने ऊन को सुलझाते-सुलझाते हार जाती तो उठा कर दूर फेंक देती थी… यह अलग बात है कि वह अगले दिन या कि उसी दिन एक-दो घंटे के बाद उसे फिर सुलझाने बैठती…

वह अभी तक वैसी उलझी-उलझी ही बैठी थी, अधकुतरा हुआ सैंडविच का प्लेट उसी तरह सामने रखे हुए। उसके विचार अभी तक उन्ही दोनों ध्रुवों के दो छोर पर तने खडे थे कि एमी ने पूछा था उससे – कौन होगा? फिर उससे जवाब की अपेक्षा न रखते हुए वह गेट की तरफ बढ़ गई थी। पोस्टमैन ने साइन करवाया था एमी से। फिर लिफाफा उसके सामने रख कर उसकी बगल में आ बैठी थी, ‘क्या है’ की उत्सुकता के साथ।

वह अब तक ऊहापोह में थी, राइटिंग तो बहुत खूबसूरत और पहचानी सी है… किसने भेजा होगा, और क्या…? वह कोइ अंदाजा नहीं लगा पा रही। एमी के सिवा कोई दूसरी सहेली भी नहीं। माँ-पिताजी तो चेक भेज कर ही निवृत हो लेते हैं, अपनी जिम्मेदारियों से। फिर… उसने इशारा किया था खोलो एमी…

एक कागज निकला था लिफाफे से… एक पन्ना मात्र। एमी ने पढ़ना शुरू किया था उसे –

‘खलबतो-जलवत में मुझसे तुम मिली हो बारहा

तुमने क्या देखा नहीं, मैं मुस्कुरा सकता नहीं

‘मैं’ की मायूसी मेरे फितरत में शामिल हो चुकी,

जब्र भी खुद पर करूँ तो गुनगुना सकता नहीं।

मुझमें क्या देखा कि तुम उल्फत का दम भरने लगी

मैं तो खुद अपने भी कोई काम आ सकता नहीं।

किस तरह तुमको बना लूँ मैं शरीके जिंदगी,

मैं खुद अपनी जिंदगी का भार उठा सकता नहीं।

यास की तारीकियों में डूब जाने दो मुझे,

अब मैं शम्मे जिंदगी की लौ बढ़ा सकता नहीं।’

पढ़ने के बाद एमी बुदबुदा रही थी – बुड्ढे में इतनी भी हिम्मत नहीं कि अपनी बात आमने-सामने कह सके। कायर… डरपोक। इधर-उधर की पंक्तियाँ भेजता रहता है, वह भी बिना अपने नाम के। और यह है कि उसी में मार खुशी के मार गम के डूबती-उतराती रहती है…। बल्कि डरपोक नहीं, खेला-खाया हुशियार है वह। सब कुछ इतनी सफाई… अपने दामन को पाक-साफ रखते हुए, हर गँदले छींटे से बचाते हुए…

उसके कान यह सब सुन रहे थे पर वैसे ही जैसे बिना काम की बातें… उसने कागज के उस टुकड़े को छाती से लगा लिया था। जार-जार रोई थी वह। उसने काँपती उँगलियों से उन्हें फोन मिलाया था – सर मैं मिलना चाहती हूँ… बगैर एमी की तरफ देखे… आपसे, अभी इसी वक्त। उधर से कोई पुरजोर मनाही भी नहीं सुनाई दी थी… कहाँ सर? ठीक है… आती हूँ मैं… वह एमी से आँखें चुराती उठी थी। कुछ भी नहीं कहा था उससे, और तैयार होने चली गई थी।

2

रास्ते भर एमी की आँखें उसका पीछा करती रहती हैं, घूरती हुई। वह उन शिकायती नजरों से दूर भागना चाहती है, बहुत दूर। वह आटो रिक्शावाले से कहती है, गाड़ी इतनी धीरे-धीरे क्यों चला रहे हो, तेज चलाओ। अभी मैडम, आटोवाला बहुत कम उम्र का है, उसकी आँखों में एक शरारत भरी चमक है, वह शरारत और गहराती है, नंदिता के कहने से। वह उन शरारत भरी आँखों की अनदेखी करना चाहती है। अब कितनी-कितनी आँखों से उलझे वह। गाड़ी जैसे हवा में उड़ने लगी है, वह हिल रही है बिल्कुल। गनीमत है कि दोपहर है, भीड़ उतनी नहीं सड़कों पर। पर फिर भी ठहरी तो दिल्ली की भीड़ ही। अरे कोई एक्सीडेंट करने का इरादा है क्या, तेज चलाने को कहा था पर इतना तेज भी नहीं, अभी गिरते-गिरते बची मैं। ठीक है मैडम… पर कह वह कुछ इस अंदाज में रहा है जैसे कह रहा हो ‘जो हुक्म शाहजादी’। गाड़ी ठीक-ठीक गति से चलने लगी थी। आटोवाले ने कोई गीत लगा दिया है, वह सुनती है उसे ध्यान दे कर –

शबनम कभी, शोला कभी, तूफान है आँखें,

उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता

जिस मुल्क के सरहद की निगहबान हैं आँखें।

उफ अब यहाँ भी आँखें, एमी की आँखें… निगहबानी का शौक जिन्हें बेइंतहा हैं। इसी चौकसी से भाग कर वह दिल्ली आई थी ताकि जी सके अपनी तरह, अपनी मर्जी से। पर मुश्किल यह कि एक सिपाही वह खुद साथ लेती आई थी, जो तैनात रहता था हरदम उसकी पहरेदारी में। तब तो बहुत खुश थी वह। उसकी सबसे अच्छी दोस्त, उसकी बचपन की सहेली, चौबीस घंटे उसके साथ होगी। उन्हें मिलने, फिल्म देखने और गप्पबाजियों के लिए मौकों और समय की तलाश नहीं करनी होगी। वे साथ होंगी दिन-रात…।

उन्होंने अपने कमरे को भी बहुत प्यार से सजाया था। दो फोल्डिंग, दो बुक रैक्स, एक आल्मारी और एक किचेन। दिन बड़े प्यार से गुजर रहे थे उनके। हनीफ सर के नंदिता की जिंदगी में आने तक।

उसे कोफ्त हो रही है बेइंतहा। वह एमी के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचना चाह रही, रत्ती भर भी नहीं। उसने अपनी पीठ से टँगी उन आँखों की पलकें जबरन बंद कर दी है। फिर भी वे पीछे-पीछे चली आ रही हैं…। चली आ रही हैं। वह एमी के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचना चाहती इस वक्त। अभी वह सिर्फ हनीफ सर के बारे में सोचना चाहती है, अभी उसकी इंतजार में होंगे वह, उसे ऐसा सोच कर अच्छा लग रहा है। इंतजार करने का ढंग भी क्या उनका बिल्कुल अलग होगा… बेचैनी को काबू में करने का ढंग… कि आम आदमी की तरह चहलकदमी कर रहे होंगे वह भी… नहीं, सर आम लोगों जैसे बिल्कुल भी नहीं। उनकी कोई भी आदत आम लोगों जैसी कैसे हो सकती है। वह देखना चाहती है सर को इस हाल में… वह पगली है बिल्कुल।

वह आटोवाले को बरजती है, यह क्या बजा रहे हो तुम। कोई और अच्छा गाना नहीं है तुम्हारे पास। उसकी शरारती आँखें कहती हैं ‘अभी बदलता हूँ मैडम’। वह छुपी हुई ध्वनि सुनती है, ‘जो हुक्म मल्लिका’। उसने कैसेट पलट दिया है – ‘ये रेशमी जुल्फें, ये शरबती आँखें, इन्हें देख कर जी रहे हैं सभी…’ लगता है आटो रिक्शावाले के पास जो कैसेट है उसके सारे गाने आँखों से ही संबंधित हैं। वह उसकी आँखों की चमक को इग्नोर करती है, चलेगा, चल जाएगा यह। कम से कम इस गाने में उसे अपने पीछे कौंधती एमी की आँखें तो नहीं दिखेंगी…

वह आँखें मूँद कर प्रतीक्षा करते हनीफ सर की कल्पना करती है। अब मन्ना डे की आवाज गूँज रही है – ‘तेरे नैना तलाश करें जिसे वे हैं तुझी में कहीं दीवाने… तेरे नैना…’

सदियों लंबा यह रास्ता भी आखिरकार तय हो ही गया। वह आटोवाले को पैसे थमाती है। पलट कर देखने की जरूरत नहीं है उसे, न बचे हुए खुल्ले पैसे लेने की। वह तेज कदमों से गेट की तरफ बढ़ती है। अगर वे गेट पर ही नहीं मिले तो… वे गेट पर ही थे, सफेद कुर्ते पाजामे में, कानों के पीछे से बहते पसीने को रूमाल से पोंछते। पसीने की बूँदों से चमकता लेकिन धूप से सँवलाया हुआ चेहरा। साँवले लगते चेहरे पर उनकी आँखें और ज्यादा चमकदार और उदास सी… उसे उनके भेजे नज्म की अंतिम पंक्तियाँ याद हो आईं –

‘यास की तारीकियों में डूब जाने दो मुझे,

अब मैं शम्मे जिंदगी की लौ बढ़ा सकता नहीं।’

आखिर क्या कहना चाहते थे वह… पूछना था उसे उन्हीं से। वह समझ रही थी कुछ-कुछ पर जैसे उसे अपनी समझ पर विश्वास ही नहीं रह गया था… इसीलिए भागी आई थी वह, पर अब जबकि चली आई थी उसे खुद पर गुस्सा आ रहा था। इस तरह परेशान किया उन्हें, न जाने धूप में ऐसे कब से खड़े होंगे। उसका मन हुआ बढ़े वह और अपने रूमाल से, अपने हाथों से पोंछ दे उनका पसीनाया चेहरा। पर तब हिचक थी और खूब थी। वह चुपचाप उनके सामने जा खड़ी हुई थी, चाभी की गुड़िया सी।

उन्होंने देखा था उसे, पर जैसे देखा नहीं हो। चल रहे थे उसके साथ पर जैसे साथ नहीं चल रहे हों। वे बोल रहे थे कुछ साथ-साथ चलते, उसने अपना ध्यान बटोरा था – ‘इस कुतुबमीनार को अलाउद्दीन खिलजी, इससे ढाई गुना बड़ा बनाना चाहता था। पर पहले तल के बनते ही उसकी मृत्यु हो गई। ख्वाहिशों का क्या वे बेइंतहा होती हैं जिंदगी मे और अंत तक पीछा करती रहती हैं हमारा। सब कुछ हमारे ही हाथों में नहीं होता। तुमने सुना है ना, ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले…’

वह समझ रही थी वह जो वे उससे कहना चाह रहे थे; पर वह जो कह रहे थे उसे वह बिल्कुल ही नहीं समझना था… वह यही सब सुनने-समझने तो नहीं आई थी यहाँ।

वे कह रहे थे – ‘ऐबक बहुत ही महत्वाकांक्षी इनसान था। वह मुहम्मद गोरी का गुलाम था जिसने गुलाम वंश की स्थापना की और एक गुलाम इल्तुतमिश को ही अपना दामाद चुना। इल्तुतमिश ने ही कुतुबमीनार को पूरा करने का काम अपने शासन काल में किया। दिल्ली सल्तनत की पहली महिला शासक रजिया बेगम इसी इल्तुतमिश की बेटी थी।’

वह धूप से आँखें बचाती पेड़ों की ओट-ओट बढ़ रही थी। वे अब भी कह रहे थे – ‘तुम जानती हो कुतुबमीनार और ताजमहल दोनों अर्थक्वेक प्रूफ हैं। सोचो, विज्ञान और कला का विकास उन दिनों कितना हो चुका था।

ऐबक ने जहाँ हिंदू आर्किटेक्ट से काम लिया, इल्तुतमिश ने वहाँ इजिप्ट से कलाकार बुलाए। अलाउद्दीन खिलजी ने जहाँ सफेद संगमरमर का उपयोग किया वहीं इल्तुतमिश ने लाल बलुई पत्थर का। यहाँ चार राजाओं के शासन काल की कला-विशेषताएँ अलग-अलग अंदाज में नजर आती हैं।

कुतुबमीनार का मेन गेट जिसे अलाई दरवाजा कहते हैं देखने में कितना खूबसूरत है कभी गौर से देखा है? दरवाजे पर छोटे-छोटे कमल, राजपूत कला के चिह्न बल्कि कहें तो हिंदू और जैन शैलियों का मिश्रित रूप। छतरियाँ बुद्धिष्ट कला से प्रेरित… मृत्योपरांत ऐबक का क्या हुआ कुछ पता नहीं, कहते हैं वह पोलो खेलते वक्त घोड़े से गिर गया था और उसकी मृत्यु हो गई थी। इसीलिए इल्तुतमिश ने अपने जीवन काल में ही यह मकबरा बनवा लिया था।’ वे चलते-चलते आगे आ चुके थे। ‘यह जो मकबरा देख रही हो न तुम इसके सेंटर टाप दो तरह के हैं। एक तो ऊपर नकली और दूसरी नीचे मिट्टी में असली।

वह बोलते हुए हनीफ सर का चेहरा गौर से देख रही थी। उसे लग रहा था वे कक्षा में हैं और सर… वह उन्हें टोकना चाहती थी पर नहीं भी। उनके चेहरे पर पसरी गरिमा और विद्वता उसमें झिझक भर रही थी। इतनी बार तो वह आई है यहाँ, लेकिन इतने सलीके से… करीने से कहाँ किसी ने बताया कभी। उसने गाइडों को भी बोलते हुए सुना है, पर उनके चेहरे पर उनका पेशेवराना अंदाज छपा रहता है लगातार, उनकी सीमाओं को बताता हुआ। सर बहुत कुछ बताना-कहना चाह रहे हैं उससे, उसे ऐसा लगा, इतना कि एक बात को अधबीच छोड़ दूसरी जगह आ ठिठकते हैं वे।

वे अशोक स्तंभ के सामने थे। अब बाड़े में कैद स्तंभ। जिसे कितने लोगों ने न जाने कितनी बार अपनी बाँहों में कैद कर कितनी मन्नतें माँगी थी, जिसके चिह्न उसके बदन पर थे। उसकी इच्छा हुई वह भी उसे बाहों में भर एक कामना करती, पूरे मन से… काश…

‘पता है तुम्हें, यह आयरन पिलर पहले विष्णुपद पर था और उसके शिखर पर एक विष्णु ध्वज भी था, जो कालांतर में नहीं रहा। तुम सोच सकती हो गुप्त काल के लोग कितने एडवांस रहे होंगे। उन्हें स्टील बनाने की कला आती थी। इस पर कभी जंग लगते नहीं देखा गया। दूसरा अशोक स्तंभ जो मेरठ से लाया गया और टूट गया था, उसे लानेवाला फिरोज शाह तुगलक था और जिसे बाड़ा हिंदूराव के समय में जोड़ा गया था… इस पर ब्राह्मी लिपि में लिखा गया है आदमी कैसे जिंदगी जिए…’

नंदिता वह पकड़ना चाहती है जो सर कहना चाहते हैं उससे, पर कौन सा छोर पकड़े वह। कहाँ से जोड़े बातों का सिरा। वह बहुत छोटी है… और इस वक्त तो जैसे और भी ज्यादा छोटी हो गई है। वह इस व्यक्ति का सामीप्य चाहती है; इसकी निकटता… लेकिन यह पास हो कर भी पास नहीं होगा और वह उसकी छत्रछाया में और सिकुड़-सिमट जाएगी। ठीक कहती है एमी…

वह साफ-साफ जानना चाहती है, उनका इरादा क्या है… वह कहती है उनसे ‘यही सब कहने के लिए आए थे…’

‘जो कहना था लिख कर भेज तो दिया था। फिर भी…’ वे चुप रहते हैं थोड़ी देर… फिर कहते हैं, ‘इस जगह पर जहाँ तुम खड़ी हो, इसे देखने के लिए लोग इतना वक्त गुजर जाने के बाद भी टूट कर आते हैं। इसे बनाने केलिए 27 हिंदू और जैन मंदिरों को तोड़ा गया था। तुगलकाबाद जिसे हम आज सिरी फोर्ट के नाम से जानते हैं, को बनाते वक्त हूण और मंगोल जाति के लोगों को पकड़ कर उनके सिर काट कर नींव में दबाए गए। गयासुद्दीन तुगलक इसे अपनी राजधानी बनाना चाहता था… और और कितनी बातें कहूँ मैं…

‘मैं उसी कौम का हूँ जिसके लिए तुम्हारी पद्मिनी और कितनी रानियों ने जौहर का व्रत लिया था। और… और…’ उनका चेहरा उत्तेजना से लाल है। वे अपने अराजक गुस्से पर काबू करना चाहते हैं… ‘क्या करोगी मेरी दुनिया मे आ कर…? मेरे दो बच्चे, बीवी… सौत बनोगी उसकी… उनकी सौतेली माँ… चलो मान भी लिया… हमारे समाज को इसमें कोई उज्र भी नहीं। पर खुद सोचो तुम, मुझ पर इल्जाम और तोहमतें लगेंगी… एक मासूम लड़की को… दूसरे कौम की लड़की को बरगला कर… अंजाम इससे भी बुरा हो सकता है नंदिता… दंगे… बलवा…’

‘अतीत का बोझ यूँ भी मेरे सिर चढ़ रोता रहता है, बेताल की तरह… कंधों पर परिवार की जिम्मेदारी अलग… तुम क्या… क्या चाहती हो मुझसे…?’

‘कुछ भी नहीं।’

‘कुछ भी नहीं तो फिर आई क्यों हो यहाँ?’

‘मैं मीरा के देश की हूँ, उसी परंपरा में विश्वास करती हूँ। मैं आप से कुछ भी नहीं चाहती सर… कुछ भी नहीं।’

‘मीरा बनने के लिए जीते-जागते इनसान के सामीप्य की जरूरत नहीं होती। बुत ढूँढ़ो कोई। मुझ से मिलना इतना जरूरी क्यों है… क्यों है तुम्हारे लिए…’

वह उठ कर चल देती है, चुपचाप। अपने आँसू कहीं भीतर ही पीती हुई। हिचकियों को कहीं अपने भीतर साधे… एमी नहीं है उसके पास… पर साथ है वह, रास्ते भर उसकी पीठ सहलाती, कंधे को अपने सिर से लगाए हुए…

उसे लगता है घर बिल्कुल भी न जाए वह, एमी के सामने तो बिल्कुल भी न पड़े। कभी भी नहीं… अपनी हार को लिए हुए तो और भी नहीं।

3

एमीलिया ने नंदिता को जाते देखा है चुपचाप। उससे आँखें चुराकर जाते हुए। उससे कहे बगैर जाते हुए। उसने जाती हुई बहार को देखा है। उसे बेमौसम पतझड़ के आने की आशंका है और यह आशंका निराधार नहीं है। 21 साल की कोई लड़की अगर 52 साल के किसी पुरुष से जुड़ती है तो और क्या हो सकता है। नंदी अगर जीतती भी है तो भी हार उसी की है, और हारती है तो हार है ही…

उसने हमेशा नंदी में खुद को देखा है। वे एक जैसी नहीं हैं। पर एक जैसी हैं। एमीलिया जो नहीं है वह खुद को उसे बनाए रखने में जुटी रहती है। अपने भीतर की नंदी या नंदी जैसी को सुलाए रखने में। वह नंदी को देख-देख जी लेती है अपने वजूद का वह हिस्सा जो कहीं उसने दबाए रखा है। नंदी का साथ उसे इसलिए भी बेहद जरूरी लगता है।

आनंद जैन और इशिता पंडित की इकलौती बेटी, नंदिता, नंदिता जैन। माँ-बाप की दुलारी बेटी नंदिता जैन। नंदी के पास एक अपना घर है। बहुत ज्यादा ध्यान देनेवाले माता-पिता और अब उसके हनीफ सर। वह सारी खुशियाँ जिसे एमी ने हमेशा अपने लिए चाही थी… नंदिता के लिए वे खुशियाँ ही बंधन थीं। वह प्यार ही बंधन। चीजों को देखने-आँकने के दृष्टिकोण सबके अपने-अपने होते हैं। कोई अलग सा नाम भी नहीं सूझा उन्हें। मतलब क्या है नंदिता का? दोनों नाम इकट्ठा किए और जो कुछ उससे बन पड़ा बना लिया। मेरी अपनी पहचान-स्वायत्तता कुछ भी नहीं। मेरे नाम के प्रति उनका रवैया ही मेरे जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण का परिचय दे देता है। उनकी इच्छाओं की गुलाम। उनके लिए एक गुड़िया… यह नाम उन दोनों के प्यार का प्रतीक भी तो हो सकता है… भाड़ में जाए यह प्यार-व्यार, मुझे चिढ़ होती है इस तरह के और इतने ज्यादा प्यार से। मेरी साँसें घुटती हैं इस प्यार के तहखाने में। नंदिता तब भी कहती ही रहती है। सहज, सरल मृदुभाषिणी नंदिता। स्कूल में सबकी चहेती, वेल मैनर्ड…। घर के मुद्दे पर ही वह बिफरी सिंहनी क्यों हो जाती है, एमीलिया कभी समझ नहीं पाई।

खुद एमी का बचपन; एमी याद करना चाहे तो सिवाय माँ की स्मृतियों के उसे कुछ याद करने लायक लगता भी नहीं। नंदी को अपने नामकरण के जिस जोड़-घटाव से नफरत है वही जोड़ वही लगाव वह तलाशती रहती अपने नाम में। पर नाम बड़ा अजनबी सा उसके लिए…। उसने माँ से ही पूछा था एक दिन, उसका नाम ऐसा क्यूँ है? ऐसा मतलब? ऐसा मतलब बिल्कुल अलग-अलग सा। रंग रूप कद काठी सब में बिल्कुल अपनी माँ की उसी छवि की अनुकृति एमी का नाम विदेशियोंवाला। माँ चुप रही थी कुछ देर। तेरे पापा को पसंद था यह नाम। और तुम्हें? …माँ चुप रही थी बहुत देर तक। …उसने फिर माँ को छुआ, झकझोरा था। बोलो न माँ तुम्हें? …माँ ने कुछ देर चुप रहने के बाद कहा था, उतना नहीं। मैंने सोचा था तेरा नाम दिव्या रखूँगी। दिव्या मतलब…? दिव्य, अलौकिक, अपरूप। मतलब जिसकी बराबरी कोई न कर सके। जो इस लोक का नहीं हो। तो फिर किस लोक का हो माँ? बच्ची एमीलिया की जिज्ञासा थमती ही नहीं थी कहीं। परियों की दुनिया से आई कोई परी, राजकुमारी।

वह खुश हुई थी उस नाम के अर्थ को जान-सुन कर… तो फिर रखना था न माँ। माँ कुछ उदासी से बोली थी – एमीलिया तेरे पापा की बहुत अच्छी दोस्त थी। तेरे पापा उसे बहुत पसंद करते थे। वह कहाँ है माँ? रूस में। तेरे पापा जब वहाँ थे; तभी उससे जान-पहचान हुई थी उनकी। तुम नहीं मिली कभी उससे? नहीं। उसकी तस्वीर देखी है? पता नहीं क्या सोच कर वह उससे पूछती है – तस्वीर देखेगी तू उसकी? उसने न जाने क्या सोच कर कहा था या कि बस बच्चोंवाली उत्सुकतावश – हाँ। पिता के कमरे में बहुत कम जानेवाली माँ उस दिन उनके कमरे में घुसी थी। बहुत ढूँढ़-ढाँढ़ कर एक पुराना एलबम निकाल लाई थी। चमकीला कवर। काले मोटे पन्ने के उपर एक पतला पारदर्शी कागज। वे पन्ने पलटती रही थीं और ठिठक गई थीं उस पन्ने तक आ कर। एमी चाहती थी माँ जल्दी से वह कागज पलटे और वह देख पाए उस औरत का चेहरा जिसका नाम उसे दिया गया है। माँ के हाथ ठिठके हुए हैं उसी जगह। एमी कहती है माँ, फोटो… वे चौंकती हैं जैसे, अरे हाँ… वे उस पतली सी पारदर्शी पन्नी को हटाती है। अंदर ब्लैक एंड ह्वाइट में ली गई तस्वीरें हैं। गोल-मटोल पर मोटी नहीं। लंबी, हृष्ट-पुष्ट। गोल से ही चेहरेवाली, भरे-भरे गालोंवाली। उजले स्कर्ट-शर्ट में एक औरत… पापा के कंधे से झूलती। कहीं पापा उसका हाथ थामे खड़े हैं। कहीं पता नहीं किस बात पर दोनों खिलखिला रहे हैं, हँस रहे हैं जोर-जोर से। और हैं माँ…? उसने उत्सुकतावश पूछा होगा। माँ ने कहा था ‘हाँ, पर अब नहीं बेटा। कहते-कहते माँ की आँखें छलछलाई थीं। वह तब समझ नहीं पाई थी क्यों? अपने आँचल से पोंछा था उन्होंने आँखों को, एल्बम को उसकी सही जगह पर रख दिया था सलीके से और उसे ले कर पापा के कमरे से निकल आई थी। माँ के स्वरों की उदासी ने उसे जिद करने से रोक लिया था। वह चाह कर भी पूछ नहीं पाई थी उनसे अगर और हैं तो वह उन्हें देख क्यों नहीं सकती? …उसी रात पापा फिर बहुत नाराज थे… उनके सामान छुए तो किसने छुए? उनके कमरे में गया तो कौन? पिता के कमरे में सिर्फ पिता ही जाते थे। नौकर भी जब सफाई के लिए जाते तो पिता की उपस्थिति में ही।

माँ ने कहा था – एमी जिद कर रही थी। क्यों जिद कर रही थी वह, मेरे कमरे में ऐसा क्या है? और बच्ची जिस चीज के लिए जिद करे वह पूरा करना जरूरी है क्या? उसे हैरत हुई थी, माँ से ज्यादा तो पिता को ही उसकी इच्छाओं का खयाल था। वह जो कुछ माँगती पिता उसे तुरंत ला देते। फिर… और माँ झूठ क्यों बोल रही है उनसे? उसने तो नहीं कहा था वह पिता के कमरे में जाना चाहती है… उसने पापा से सच कहने को मुँह खोला ही था कि माँ के आँसू भरे चेहरे ने रोक लिया था उसे। माँ ने इसीलिए झूठ कहा होगा। पिता नाराज जो होते रहते हैं बिन बात उन पर। हर बात में गुस्सा, गुस्सा बस गुस्सा। पापा ने फिर अपना सारा सामान करीने से रखा था। ड्राअर्स में ताले लगाए थे। सब कुछ एक बार फिर से चेक किया था और क्लीनिक चले गए थे बगैर खाए… माँ ने भी फिर नहीं खाया था उस दिन कुछ।

उसे अब याद आता है, पापा और माँ को उसने औरों की तरह कभी हँसते-बतियाते नहीं देखा। एक साथ सोते भी नहीं। पर बचपन में उसे यह अजीब नहीं लगता था। अच्छा लगता था कि माँ उसके साथ सोती है। उसी के पास रहती है हर वक्त। पिता की जिंदगी में क्लीनिक, क्लीनिक और बस क्लीनिक। उन्हें काम से फुरसत नहीं होती थी, वे कभी काम से फुर्सत नहीं चाहते थे। यही था घर का हो कर भी घर से दूर रहने का उपाय। एक एमी ही थी जिसकी किलकारियाँ, जिसकी तुतली बातें उन्हें खींच लाती थी घर तक। जिसकी जिम्मेवारियाँ जिसके परवरिश के दायित्व से बँधे हुए थे वे। पिता जतलाते भी रहते थे हरदम माँ के लिए अपने व्यवहार से यह सब।

पिता ने तय कर लिया था। वे माँ से अलग हो कर एमीलिया से शादी कर लेंगे। बस जाएँगे वहीं। माँ तब मायके ही रहती थी अक्सर। दादी ने बहुत समझाया था फोन पर पिता को पर उनकी एक भी नहीं सुनी थी उन्होंने। हर बात पर अपनी माँ की बात माननेवाले पिता। माँ ने तब भी कुछ नहीं कहा था उनसे। नानाजी को बुलवाकर मायके चली गई थी। वहीं मालूम हुआ था माँ बननेवाली हैं वो। नानाजी ने दादी को फोन किया था। दादी ने पापा को। पापा लौट आए थे फिर अपने देश। माँ को भी बुलवा लिया गया था। दादी को भरोसा था, आनेवाला बच्चा बाँध लेगा उन्हें एक डोर से।

वह माँ को भी यही दिलासा दिलाती रहतीं। पर उनकी गृहस्थी एक समझौता बन कर ही रह गई थी। एमीलिया ने बाँध लिया था अपनी नन्हीं सी मुट्ठी में अपने पापा का हाथ, अपनी भोली सी मुस्कुराहट से भर दिया था उनका मन। पर माँ से वह नहीं जोड़ पाई उन्हें कभी; वह उनके बीच की कड़ी कभी नहीं बन सकी। जब तक वह सब कुछ समझती, ढूँढ़ पाती कोई रास्ता, इतनी समझ आती उसके भीतर। माँ ही नहीं रही थी। …सब्र और आँसुओं को पीते रहने की कोई सीमा तो होती होगी। माँ शायद उस सीमा को पार कर चुकी थी। उसे बहुत बुरा लगा था, माँ का उसे ऐसे अचानक छोड़ कर चले जाना। उसे अच्छा लगा था, माँ को रोते सिसकते अब नहीं देखना पड़ेगा। अब और आँसू और कष्ट नहीं होंगे उसके हिस्से। वह अकेली हो चली थी, बिल्कुल अकेली। पिता को उसकी फिक्र रहती। वे हमेशा उसके लिए समय निकालते, सरेशाम घर चले आते। उसे चिढ़ होती कभी पहले आए होते इस वक्त, माँ खुश होती। वे उसे बाजार ले जाना चाहते अपने साथ। वह इन्कार कर देती। कभी माँ को ले गए होते। वे उसके जितना नजदीक आने की कोशिश करते वह उतनी ही दूर भागती उनसे। उन्हें पास देख कर उसे माँ का आँसुओं से भीगा चेहरा याद आता। उसकी गुपचुप सिसकियाँ याद आतीं। ऐसे ही वक्त नंदी और उसके परिवार का सहारा उसके बहुत काम आया था। वह नंदी के घर में अपने सपनों का घर देखती। वहाँ उसे स्नेह मिलता, राहत मिलती। वह ज्यादा से ज्यादा वक्त नंदी के घर में बिताती। पापा उसे खुश देख कर खुश हो लेते। यूँ भी उन्होंने कभी उस पर कोई पाबंदी नहीं लगाई थी। वे बच्चों की स्वतंत्रता-स्वायत्तता के पक्षधर थे। वे उसकी इच्छाओं की परवाह करते थे, कद्र भी।

कभी-कभी नंदी भी उसके घर आ जाती; आती तो फिर जाने का नाम ही नहीं लेती। उसे भी अच्छा लगता था यह। अपनी स्मृतियों से, इस दमघोंटू एकांत से छुटकारा मिल जाता उसके आने से। नंदी चैन की साँस लेती। कॉफी पर कॉफी बनाती, पीती। तीखा-खट्टा खाती खूब-खूब पढ़ने का कह कर आती पर खूब गप्पबाजियाँ करतीं वे। नंदी कहती कितने अच्छे हैं तुम्हारे पापा। कभी किसी बात के लिए रोक-टोक नहीं। जो कहो वही मान लेते हैं चुपचाप। और एक मेरा घर, मेरे मम्मी-पापा…। वह मुस्कुरा भर देती नंदी की बात सुनकर। सिवाय मुस्कुराने के वह और कर भी क्या सकती थी। नंदी के मम्मी-पापा को भी नंदी का उसके घर रुकना कभी बुरा नहीं लगा, खला भी नहीं। उसकी साँस-साँस की गिनती रखनेवाले उसके मम्मी-पापा उसे उसके घर छोड़ देते थे, यह उसके लिए फक्र की बात थी। पर शायद नहीं… कारण कुछ और था। उन्होंने जो कुछ भी नंदिता में देखना चाहा था एमी के भीतर वह सब था। एमी मेधावी थी, एक अच्छी डांसर थी, एक अच्छी तैराक थी। एमी को म्यूजिक और लिटरेचर से लगाव था। नंदी को इन सब के लिए धकेल-धकेल कर थक गए थे वे। वे सोचते थे एमी के साथ से नंदी भी बदलेगी… और शायद सबसे ऊपर था एमी के पापा का डॉक्टर होना। नंदी के माता-पिता उसे डॉक्टर ही बनाना चाहते थे। वे सोचते एमी के घर का वातावरण उसे उत्प्रेरित करेगा।

इसी बीच दसवीं के रिजल्ट आए थे। दोनों के अंक अच्छे थे। नंदी के 81% और एमी के 85%। नंदी के मम्मी-पापा ने चाहा था वह दिल्ली जाए। वहीं किसी अच्छी कोचिंग में एडमिशन ले मेडिकल के प्रेपरेशन के लिए और आगे की पढ़ाई भी वहीं करे। नंदिता के लिए यह मुक्ति थी, आजादी थी। वह ना क्यों कहती। एमीलिया ने सोचा था वह भी जाएगी नंदी के साथ। इस तरह वह घर की स्मृतियों से पीछा छुड़ा सकेगी। और नंदी के बगैर… शायद पिता को भी आजादी मिल सके इस तरह। और उसके कारण जिन अनजाने बंधनों में जीते रहे वे उम्र भर उसका बोझ उनके सिर से उतर जाएगा… शायद वे अपनी एमीलिया को वापस ला सकें अपनी जिंदगी में… शायद वो चले जाएँ उसी के पास।

यूँ भी पिता को अपने सामने पाना उसके लिए एक त्रासदी थी… पिता के सामने होते उसे माँ याद आती; उनका दुख, उसके आँसू याद आते। उनका चला जाना याद आता। डॉक्टर की पत्नी का कैंसर से खत्म होना। वे अंतहीन दर्द को सहती रहती थी। पर वह दर्द उनके भीतर पलते दर्द से बड़ा नहीं था। जीना नहीं चाहती थीं वे, बिल्कुल भी नहीं। उन्होंने केमियोथेरैपी, रेडियेशन सब से मना कर दिया था। बीमारी भी फैल चुकी थी बहुत ज्यादा। 90% के आस-पास। वे रात-रात भर तड़पती रहतीं। पर एमी को इसका एहसास नहीं होने देना चाहती। कहतीं बस नींद नहीं आ रही थी। वे नहीं चाहती थी कि एमी को कोई बाधा पहुँचे, वह पढ़ नहीं पाए। वे हमेशा उसकी पढ़ाई को ले कर चिंतित रहतीं। वह कराहने की आवाज सुनती और दौड़ कर जाती उनके पास। वे दुत्कार देतीं उसे…जा पढ़, परीक्षा है तेरी। हर समय बच्चों की तरह क्या चिपकी चली आती है। उसे बुरा लगता। पर अब लगता है उसे अलगा रही थीं वे खुद से या फिर खुद को ही उससे। उसे छोड़ जाने की तैयारी में थीं वह।

उनका अंतिम वक्त का केशविहीन, केवल हड्डियों का ढाँचा रह गया शरीर… वह माफ नहीं कर पाती पिता को और उस एमीलिया को भी जो बेवजह उसके वजूद से आ चिपकी थी। पिता का माँ के अंतिम वक्त का बदलाव भी उसे कभी विचलित नहीं कर पाया। पिता दौड़ कर पानी देने जाते। माँ बाद में पानी बहा देतीं। पिता उससे दवा भिजवाते। सारी दवाइयाँ गद्दे के नीचे पड़ी मिली थीं बाद में जिसे देख बहुत रोई थी वह। माँ को उसका तो खयाल करना था, उसके लिए तो दवाएँ लेनी थी। पर नहीं… माँ पापा को माफ नहीं कर सकी थीं। वह सामने होते, कुछ पूछते वह बोलती ही नहीं। देखती तक नहीं उनकी तरफ। आँखें नीचे किए रहती।

माँ ने माफ कर दिया होता तो वह भी माफ कर देती शायद। अभी हनीफ सर को देख, उनके लिए नंदी का लगाव देख उसे पापा याद आते… तस्वीर में देखी गई एमीलिया याद आती। और बेतहाशा बुरा-भला कहती वह पहले हनीफ सर को फिर नंदी को… अब नंदी के भोलेपन और मासूमियत को देख वह मन ही मन नफरत भी नहीं कर पाती उस दूसरी एमीलिया से। उससे, जिसने उसके पापा को उसकी माँ से दूर रखा। वह जो उनके घर में साये की तरह बनी रही हमेशा। वह जिसके लिए उसके पिता ने उसकी माँ के प्रेम और सादगी को कभी महत्व नहीं दिया।

क्या नंदी जैसी ही भोली-भाली रही होगी वह? क्या उसका प्रेम भी इतना ही निश्छल और मासूम रहा होगा? कि सब कुछ बिना जाने-समझे हो गया होगा इसी तरह।

वह एमीलिया को कभी माफ कर भी दे तो पापा को नहीं माफ कर सकती। और इसीलिए हनीफ सर को भी… कभी भी नहीं… बिल्कुल भी नहीं।

4

हनीफ को नंदिता का भोलापन बहुत पसंद है। अपने पर इस तरह बेतहाशा विश्वास और भरोसा किया जाना भी। वे देखते रहते हैं उसे दूर तक जाते हुए। वह मुड़ कर नहीं देखती एक भी बार। पतली-दुबली नंदिता का जिस्म हिल रहा है लगातार। हवाओं से नहीं रुलाई के झकोरों को भीतर दबाए रखने की जद्दोजहद में। वह ऑटो रिक्शा रुकवाती है और बैठ जाती है झटके से… वे देखते रहते हैं उसे जाते हुए दूर तक, टकटकी लगाए। काश वह उनकी मजबूरियों को समझ पाती… वे बाहर आते हैं, ड्राइवर से गाड़ी निकालने को कहते हैं और बैठ जाते हैं यही सब सोचते-सोचते। उन्होंने उसे दुखी किया है, उन्हें अफसोस है। उन्होंने तो जान बूझ कर ऐसा कुछ भी नहीं किया। वे उसे समझाने जरूर आए थे पर उससे ज्यादा खुद को समझाने।

उनसे शायद गलती हुई थी। आना ही नहीं था उससे मिलने। पर वे रोक नहीं पाए थे खुद को आने से। खास कर वह जब ऐसे इसरार कर रही हो। उनका खुद पर से नियंत्रण खत्म हो गया था। उन्होंने कह दिया था आ रहा हूँ मैं। वे तब सोच रहे थे उससे मिल कर भी वही सब कहेंगे जो उन्होंने लिख कर भेजा है। मिल कर कहने से शायद लिखे हुए में कुछ वजन आ जाए। वह समझ सके उनकी बात थोड़े बेहतर तरीके से… पर शायद वो खुद को बहला रहे थे। दरअसल वे नंदिता की एक झलक देखने के लिए तरस गए थे इन दिनों। वे सोते जागते बस उसी के बारे में सोचते-रहते… उसकी खिलखिलाहट, मुस्कुराहट… सोचने का वह अलग सा ढंग… वह अपनी नाक में उँगली घुसा गोल-गोल घुमाती रहती। सोचते हैं वे… क्या यह तरीका घिनौना नहीं। घिन आनी चाहिए थी उन्हें उसकी इस हरकत पर। पर नहीं, उन्हें तो प्यार आता था उस पर और उसकी सारी उटपटाँग हरकतों पर भी…।

वे देखते थे पानी जहाँ कहीं भी दिख जाए कैंपस में, साफ या कि गँदला, वह उस में पाँव जरूर डालती। हल्के से थपकती उसे और थपकती रहती। तब तक जब तक कि एमीलिया उसे बाँहों से खींच कर वहाँ से बड़बड़ाती हुई हटा न ले। एमीलिया का हमेशा उसके साथ होना उनके लिए एक भरोसा था। वह साथ है तो नंदिता सुरक्षित है। वह साथ है तो… अपनी कमजोरियों से जब वह हारने लगते नंदिता का पिघलता-गलता चेहरा उन्हें याद आता। वे सोचते और पूरे भरोसे से सोचते, एमीलिया उबार लेगी उसे। वह उन से दूर ही रखेगी नंदिता को। चाहे कैसे भी… वे जानते थे बल्कि इससे ज्यादा भी कहें तो समझते थे, एमीलिया उनसे नफरत करती है। पर उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। बल्कि जितनी ज्यादा नफरत से वह उनकी ओर देखती वे मन ही मन उतना ही खुश हो लेते।

सोचते-सोचते वे घर तक आ पहुँचे हैं। घर पहुँच कर वे बीती सारी बातों को यूँ परे छोड़ देना चाहते हैं जैसे रास्ते में चिपक आई गर्दो-गुबार। वे माथा झटकते हैं अपना। शरीर भी झटका खाता है हौले से… पर नंदिता दूर छिटक कर नहीं जाती उनकी स्मृतियों से। उसका रुआँसा चेहरा, उसकी उदास आँखें चिपकी रह जाती हैं उनके वजूद के साथ। कुछ इस तरह कि नसीमा की खिलती मुस्कुराहट के जवाब में कोई हल्की सी जुंबिश तक भी नहीं आ पाती उनके होंठों पर, चेहरे पर। वो मुस्कुराती हुई कह रही है कुछ… चलिए आपको याद तो रहा… मैं तो डर रही थी, वादा कर के आप भले ही निकले हों, पर निकल गई यह बात कहीं खयाल से तो… मैंने तैयारियाँ पूरी कर ली है। आप नहा-धो लें। वे याद करना चाहते हैं।

क्या याद रखना था उन्हें पर याद नहीं कर पाते। सुन कर ध्यान से बातों को समझना चाहते हैं वे, पर वह भी मुश्किल। वे पूछते हैं बेचैन होकर बच्चे… छुटका सो रहा है… वसीम निकला है अभी कहीं पड़ोस में… उसे जाने क्यों दिया, उसे बताया नहीं उसका शाम को रहना जरूरी है… आ जाएगा वह। वैसे भी कभी कहीं निकलता कहाँ… वे नसीमा को गौर से देखते हैं। इतनी गौर से जैसे पहले कभी देखा ही न हो उसे। उजली सलवार-कमीज, चिकन की हल्की-फुल्की कढ़ाईवाला। उजला ही दुपट्टा जिसे उसने इस वक्त सिर पर डाल रखा है। जिसे इस तरह डाल लेने से उसका गोल-मटोल चेहरा और गोल हो आया है। वे जैसे याद करते हैं, नसीमा का चेहरा पहले गोल और भरा-भरा नहीं था। कुछ लंबोतरा सा था, गाल धँसे नहीं पर उभरे हुए भी नहीं। कुछ -कुछ नंदी की तरह के। पर शायद नहीं। नंदी के तो कुछ उभरे हुए से हैं। चेहरे की बनावट में अलग से दिख जाते। उसके नक्श ऐसे ही अलग से दिख जानेवाले हैं। चेहरे में गुम होते नहीं, अपने होने को… अपने विशिष्ट होने को दर्शाते… बताते कि मैं हूँ… मैं सबसे अलग हूँ। नसीमा का अक्स तब भी और अब भी उसके चेहरे का हिस्सा है। उसमें घुले मिले, तरलता लिए हुए। वे चीख-चीख कर अपने होने का अहसास नहीं कराते बस होते हैं, जैसे कि खुद नसीमा।

नसीमा तौलिया, धुला कुर्ता पाजामा बाथरूम में रखने जा रही थी वे उसके हाथों से ले लेते हैं। मैं खुद ही ले जाता हूँ। वह एतराज नहीं करती, सौंप देती है उन्हें सब कुछ। वे जानते हैं नसीमा ऐसी ही है। उन्हें इसीलिए उसकी फिक्र रहती है और कुछ ज्यादा भी। वह कभी कुछ नहीं कहेगी। वे गलत भी हों तब भी। यही एहसास उन्हें गलतियाँ करते-करते थाम लेता है – नहीं…

वे जब नहा कर निकले तो भौंचक हो उठे, पूरा घर रोशनी से नहा उठा था। घर के लंबे-लंबे बाउंड्री वाल पर मोमबत्तियों और रंगीन बल्बों की लड़ियाँ जगमगा रही थीं। घर भी पूरा रोशन-रोशन। उन्होंने पूछना चाहा था नसीमा से कोई खास बात? कोई पार्टी-वार्टी है क्या… कहने को मुँह खोलते-खोलते मामला उनकी समझ में आ गया था। जानकर अपनी भुलक्कड़ी पर वे बेतरह खीजे थे, अगर नसीमा उनकी जिंदगी में न हो तो… तो…।

आगे की पाक की हुई जमीन पर वे बैठ गए थे चुपचाप। रूमाल के कोनों को अपने कानों पर अटकाते हुए उन्होंने अपना सिर ढक लिया था। सामने जरूरी चीजें फैली हुई थीं। काँच के एक गिलास में भरा हुआ अछूता पानी। छोटी सी कटोरियों में थोड़ी सी संदल, उसमे डले हुए गुलाब के फूल, आग से भरी उददानी, एक पुड़िया में पिसा हुआ लोबान। अगरबत्ती की खुशबू से माहौल खुशनुमा और पाक हुआ जा रहा था।

नसीमा बोली थी – आज शबे-बरात है, शबे कद्र की रात। उन्हें लगा जैसे सामने नसीमा नहीं बल्कि अम्मी खड़ी कह रही हों… भूली-बिसरी रूहें आज घर का रुख करती हैं, इबादतों और दुआ की रात है यह, जिस रात जन्नत के दरवाजे खुले हुए होते हैं। और इस एक रात की इबादत मतलब चार सौ बरस के सिजदे के बराबर… अजाब और गुनाहों से तौबा करने का बेशकीमती मौका होता है यह।

नसीमा आगे झुकी। काली जिल्दवाली एक कापी उसने उनकी ओर बढ़ाई। उन्होंने आगे बढ़ के उसे थाम लिया था। उनसे पहले उनके हाथों को उसका चिकनापन खला था। उन्हें याद आया पहले यह जिल्द चमड़े की नहीं होती थी। रुखड़ी सी, जगह-जगह से फटी हुई कूट के दस्तेवाली। अम्मी उसे जब भी थमाती कहती जरूर… मुई जगह-जगह से फटी-उड़ी जा रही है, कितना पुराना तो कागज है इसका पीला-बुसा। एक दिन जिल्दसाज को दे कर इसे बँधवा दे। पर अम्मी की यह पुकार और ललक भी सिर्फ एक दिन की ही होती। बाकी के 364 दिन बिसरा रिरियाता रहता वह किसी पुरानी-धुरानी ट्रंक के काले अँधेरे कोने में। और हनीफ को भी इस बीच कभी इसकी याद नहीं आती। वह समझ नहीं सका था यह करिश्मा कब हुआ। हुआ तो उसकी नजर उस पर आज और इसी वक्त क्यों गई? उसने दिमाग पर जोर डाला। पिछले कई वर्षों से वे इस दिन घर पर रहे ही नहीं।

उनके पीछे वसीम ही पढ़ता रहा है फातिहा। शायद उसकी अम्मी ने भी उससे कहा हो – इसे जिल्दसाज को दे कर बँधवा दे बेटा। कितनी तो पुरानी हो चली है, मुई जगह-जगह से फटी पड़ रही है’ और वसीम बँधवा लाया हो जिल्दसाज से उसे। उन्हें लगा उनका कद कुछ छोटा हो आया है अचानक। कि उनकी रीढ़ की हड्डियाँ घिस-घुस चुकी है बीचम बीच। वे बूढ़े हो चले हैं अचानक और बेकार भी। घर तो नसीमा और उसके बड़े बेटे वसीम ने सँभाल रखा है। वे तो बस पैसे थमा देते हैं हर महीने। वसीम सचमुच अपनी अम्मी का बेटा है। तहेदिल से। शक्ल, सूरत,सीरत और अक्ल सभी में। वह जहीन नहीं है अपनी माँ की तरह पर दुनियादारी में बिल्कुल परफेक्ट। माँ जो बोले वही मानता है और पूरे दिल से मानता है। वे कभी अपनी माँ के लिए वैसे नहीं हो पाए, चाह कर भी नहीं। वे बँटे रहे छोटी अम्मी और अम्मी के बीचम-बीच। कभी उन्हें वो सही लगती रहीं कभी ये। कभी वो ननहर रहे तो कभी अम्मी के पास। उनकी जहीनियत कभी इस फैसले पर नहीं पहुँच सकी कि सही कौन है। और छोटी अम्मी भी कोई दूसरी तो थी नहीं, उनकी अपनी छोटी मासी, माँ की लाड़ली, दुलारी बहन, जो बाद में बिल्कुल भी दुलारी नहीं रह गई थी।

वे सब बेचेहरे से नाम थे उनके लिए। नसीमा रोटियाँ बदलती, हलवा डालती तश्तरी में। वे फातिहा पढ़ते। फिर रोटियाँ बदल दी जाती चुपचाप। नसीमा ने फिर रोटियाँ बदली थी – कुदैशा बेगम… नाम उचारा था उसने। वे चौंक गए थे, छोटी अम्मी का चेहरा, गोरा, लाल भभूका सा उनकी आँखों के आगे आगे आ खड़ा हुआ था। हाँ छोटी अम्मी ही सबसे पहले… अब्बू और अम्मी से भी पहले। बहुत छोटी थी उम्र में। बिल्किस तब सिर्फ आठ साल की थी। अम्मी ने समेट लिया था तब उसे अपनी गोद में। नानी के सारे हील-हुज्जतों के बावजूद उसे अपने साथ लेती आई थी। वे कहतीं एकदम से कुस्सो है यह। वैसे ही गोद में चिपकी रहती है हरदम। वो भी उतनी बड़ी हो जाने पर भी पीछे-पीछे लगी रहती थी, इसी तरह।

अम्मी फूट-फूट कर रोई थीं। कुदैशा बेगम, उर्फ कुस्सो, उर्फ अपनी छोटी बहन उर्फ अपनी इकलौती सौत के इंतकाल पर। उन्हें अजीब लगा था यह सब। 18-19 की उम्र हो गई थी उनकी। वे अपने तई समझने-जानने लगे थे चीजों-बातों को। उन्हें अजीब लगता। वे जब भी ननिहाल जाते, अम्मी दिन भर बिसूरती रहतीं, कुस्सो के गर्क हो जाने की, खाक में मिल जाने की दुआएँ करती फिरती। कहतीं, बित्ते भर की जान इतनी घुइयाँ, इतनी चालाक निकलेगी वे कब जान पाई थीं। जानती तो इतना प्यार-दुलार ही न दिखाया होता। चौबीस घंटे गोद से चिपकी फिरती थी। अम्मी को कब फुर्सत थी कि वे… उन तीन बच्चों के होते न होते उसका शरीर टूट चुका था भीतर से। वह सबसे बड़ी थीं। सबकी जिम्मेवारी सँभाली उन्होंने। सबको खिलाया चोटियाँ की, कंघी किया, स्कूल भेजा। खुद की पढ़ाई कहाँ होती थी उस जमाने में। मौलवी आते थे। शुरुआती सलीका और दीनो-मजहब की बातें उन्हींने सिखाई… पर वे कुस्सो के लिए अड़ गई थीं, कुस्सो स्कूल जाएगी… और गोल-गोल टमाटर जैसे गालोंवाली उस लड़की को जब वे पहले दिन स्कूल छोड़ने गई थीं, उनके रानों में धँसी जा रही थी वह। कस के जकड़ रखा था उनकी टाँगों को। अलग करना चाहा था खुद से तो बुक्का फाड़ के रो पड़ी थी। किसी तरह स्कूल तो छोड़ आई थी वे उसे पर मन कहीं उसी में अटका रहा। वह जो उनके बिना न खाए, न पीए, न सोए। वह जो उनके पीछे-पीछे घूमती फिरे दिन भर… कैसे रही होगी उनके बगैर। …शाम को अब्बू के उसके घर लाते ही उन्होंने उसे बाँहों में कस लिया था।

उनके उसी उन्स का तो फायदा उठाती रही वह हमेशा। उनके नए-नए दुपट्टे कतर कर अपनी गुड़िया के कपड़े बना डालती। वे कुछ नहीं कहतीं। उनके कंघे, रिबन, सुरमा सब इधर उधर करती रहती वो। थोड़ी बड़ी हुई तो उनके दुपट्टे, उनके सारे अच्छे कपड़े… वे कुछ भी नहीं कहती थी। चुपचाप पुराने-धुराने से ही मन मार लेतीं। खेलने-खाने के दिन हैं उसके। छुटकी थी सबसे। अब्बा रहते अब तक तो इस खूबसूरत सी जान पर सौ जान निछावर जाते। दुनिया भर की खुशियाँ रख देते उसके कदमों पर। लेकिन, बिचारी ने कुछ नही देखा तो नहीं देखा… इतने से ही खुश हो लेती है तो वे कौन होती हैं उसकी खुशियाँ छीन लेनेवाली। वे लाड़ करतीं फिर भी। छोटी तो है वो। पर वे शायद गफलत में ही रही थीं हमेशा। वह छोटी न जाने कब की बड़ी हो चुकी थी। इतनी बड़ी कि बहन की छोटी-छोटी चीजों से उसका मन नहीं भरनेवाला था। बहन की गृहस्थी, उसकी खुशियाँ सब की चाहत होने लगी थी उसे। तभी तो पूछा होगा अमिया से और अमिया ने कुस्सो से तो उसने मनाही न की… उनकी आँखों में आँसू आ जाते हैं टूटकर… जब रहमान मियाँ ने ही एक बार भी मना नहीं किया तो…

कोई आ गई होती… कोई भी… कोई हुस्नपरी या कि फिर कोई ऐरी-गैरी, ऐसी-वैसी, सब सिर माथे पर। पर उस कुस्सो के हाथों कैसे देखती रहती वे अपने शौहर को छिनते हुए। किए हैं उन्होंने वे सारे करम जिसके लिए पहले रहमान मियाँ और फिर हनीफ कुसूरवार समझता है उन्हें… और नहीं है उन्हें कोई अफसोस… वह क्या कोई भी औरतजात सह पाती यह सब कुछ?… और किया भी तो क्या… अच्छी सौत नहीं बन सकीं… सौत भी कभी अच्छी हुई है…?

कुस्सो ने ही क्या नहीं चाहा कि मौका मिलते ही रहमान मियाँ को मोड़ ले अपनी तरफ! वो तो वही खड़ी रही सख्तजान होकर… और फिर खुदा ने सुन ली उनकी… कोख हरी हुई तो पहले-पहल उन्हीं की, चाहे बरसों बाद ही सही।

और उन्होंने छोटी को अपने सारे मौके निकाल लेने के बाद वापस मायके भिजवा दिया। अब उसका काम भी क्या था इस घर में। और अब वह उनकी कुस्सो थी भी कहाँ, सिर्फ छोटी बन कर रह गई थी उनके लिए। हनीफ घुटनों चलने लगा था, गिरस्ती सँभलने लगी थी धीरे-धीरे कि वे चाहने लगी थीं कि उनकी गिरस्थी आजाद हो उस कुस्सो के चंगुल से। अब उसका इस घर में क्या काम। जो देने आई थी वो इस घर को और उसके शौहर को वह तो… या कि देने ही नहीं दिया था उन्होंने… और मारे जलन के उनकी सूखी-सिली हिम्मतहारी कोख अचानक से हरिया उठी थी, कुस्सो का आना जैसे उसे भी न सुहाया हो।

अम्मीजान की नजर भी बदलने लगी थी। जो कुस्सो उनकी आँख का तारा हुई जा रही थी, अचानक से दाई सरीखी होने को आई थी। वे कहती भी – इसमें गलत क्या है, बहन की ही तो टहल करनी है। बहन ने अपना शौहर दे दिया पर तूने क्या दिया बदले में। यह वही अम्मीजान थी जिसने बढ़कर अमिया से कुस्सो का हाथ माँगा था। अमिया भी वारी-वारी। बिलाशौहर तीन-तीन बेटियों को ब्याहते-निबटाते, उनके तीज-त्योहार की रसम पूरी करते-करते थक चली थी वो। इतनी ज्यादा कि बेचारी कुस्सो के लिए कुछ बचा ही नहीं रह गया था उनके पास। उल्टे कुस्सो ही छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ा लेती और कुछ पैसे आ जाते उनके हाथ। नहीं तो पट्टीदारों-बटाईदारों से बच कर जो कुछ हाथ आता वह खींच तान कर बमुश्किल इतना होता कि किसी तरह उन दो जनियों का गुजारा हो जाए। अमिया को कुस्सो की चिंता सताती। इस तरह जवान-जहान बेटी को कब तक सिर बैठा के रखेंगी। वे हर आने-जानेवाले को कुस्सो के लिए कोई बढ़िया लड़का देखने को कहतीं। लोग कुस्सो को देखते, उसकी भोली खूबसूरती को देखते, लड़कों की फेहरिस्त दिमाग में आ जाती पर घर की माली हालत का ख्याल करते हुए वे बस इतना ही कहते – ‘बताऊँगा कहीं कोई दिखा तो’।

नफीसा जब पिछली बार मायके गई थी वे और अमिया सारी रात बतियाती रही थी सिर्फ कुस्सो के बारे में। आसापास के लौंडे लफाड़े सामने जमघट लगा कर बैठने लगे थे। दिन भर पत्ती खेलते, हाहा हीही करते। कुस्सो को कहीं भेजना-निकालना भी मुश्किल। अब काम चाहे दो पैसे का ही हो, काम है तो वहीं निकलेंगी। और घर है तो सौ काम। दवाएँ, राशन, घर की घटी-बढ़ी चीजें। वे सोचती रही थीं उस रात शानो और बन्नो दोनों से बातें करेंगी। उन्हीं की तो जिम्मेदारी है कुस्सो। किसी तरह मिल जुल कर निबटा दे उसे। वे माँ की तरह बिल्कुल भी नहीं चाहती थी कि रुपए-पैसे की तंगी में किसी दुहाजू बूढ़े के संग निकाह हो उनकी छोटी सी बहन का। वे सोचती रही, थोड़ा बहुत ही सही पढ़ा-लिखा हो। कमा खा लेने की हैसियत रखता हो और शक्ल से बहुत खूबसूरत न सही बदशक्ल भी न हो। वे तीन-तीन बहनें मिल कर भी क्या कुस्सो के लिए इतना नहीं कर पाएँगी। एक ऐसा लड़का… उसने सोचा रहमान मियाँ से भी बात करेगी वह इस बाबत।

सुबह जब वे सो कर उठीं कुस्सो उनके लिए नहाने का पानी गर्म कर के रख रही थी। साबुन, तौलिए सब अपनी जगह दुरुस्त… उन्होंने ध्यान से देखा दिन पर दिन कितनी खूबसूरत होती जा रही है कुस्सो। वे तीनों बहनें तो कभी ऐसी नहीं रही। साधारण सी शक्ल-सूरत साधारण सा बढ़ाव। बस रंग अमिया जैसा शफ्फाक। यही खूबी उन्हें खूबसूरतों की कतार में ला खड़ा करती। पर कुस्सो… हर तरह से खूबसूरत, कद, बुत, रंग, जिस्म सबसे। फूले-फूले गुलाबी-सुर्ख गाल। बड़ी-बड़ी काली आँखें। उनकी और शानो की आँखें तो अमिया की तरह भूरी हैं, कुईस आँखें। बन्नो की आँखें काली तो हैं लेकिन कुस्सो जितनी बड़ी-बड़ी और गहरी नहीं। उन्हें जलन हुई थी पल भर को कुस्सो से। इसे ही होना था इतना खूबसूरत। वह भी तब जब घर में पाई-कौड़ी तक का ठिकाना नहीं। किसी ऐसे-वैसे से ब्याही गई तो लंगूर-अंगूरवाली कहावत हो जाएगी। और खुदा न खास्ता कुछ ऐसा-वैसा ही हो जाए तो… ताक में बैठे हैं दुश्मन… वे सोच कर ही घबड़ा उठी थीं। सोच की इस बेख्याली में तौलिया उनके हाथ से छूट कर गिर पड़ा था। कुस्सो खिलखिला कर हँस पड़ी थी बेसाख्ता। खिलखिला कर हँसती हुई कुस्सो को देख कर उन्हें गुस्सा आया था। जोर से चीखीं थी वे। इसमें इस तरह खिलखिला कर हँसने की कौन सी बात हो गई। वह चुप हो गई थी अचानक। अमिया ने भी उन्हीं की हाँ में हाँ मिलाई थी। जनी जात को इस तरह हँसना भाता नहीं… लड़कियों की तरह रहना सीख। फिर उन्हें लगा था बेवजह ही बरस गईं वे उस पर। इत्ती सी उम्र में इतने सारे बोझ, घर का इतना सारा काम और हँसने पर भी पहरे। वे और शानो तो इससे बड़ी होने पर भी अमिया की गोद में घुस कर बैठ जाती थीं। इतनी बेपरवाह कि दुपट्टे-कपड़े तक का शऊर नहीं। हर बात पर खिखियाती फिरतीं। और अब्बू तो जैसे इसी पर वारी-वारी रहते।

वे जब सरापा कुस्सो की फिक्र में जुटी थीं, मायके से अपने घर तक… उसी बीच जिंदगी ने नए रुख ले लिए थे। उनके आने के बाद अम्मीजान मिलने गई थीं अमिया से। अम्मी जान पहले भी मिलने जाती रही थीं अमिया से, इसमें उन्हें क्या उज्र होती। और यूँ भी अम्मी जान के किसी काम में उज्र करे या अपनी टाँग अड़ाये इतनी उनकी हैसियत ही कहाँ थी। पर जाने का अंजाम ऐसा भी होगा या हो सकता है नफीसा बेगम ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। वरना वो जैसे भी होता, जिस तरह भी बन पड़ता अम्मी जान को अपने मायके नहीं जाने देती।

उन्हें सोच कर तकलीफ होती, अमिया ने कैसे मान ली उनकी बात? और कुस्सो… उसे खयाल भी नहीं आया कि इस तरह वह अपनी अपिया का घर, उसकी जिंदगी तबाह करेगी। पढ़ी-लिखी लड़की ठहरी इतनी तो समझ होगी ही उसे… पर कौन सी मजबूरी थी आखिर…।

उन्हें पता थी सारी मजबूरियाँ। पर वे मजबूरियाँ अभी छोटी जान पड़तीं। वे तो तैयार ही थीं कुस्सो का ब्याह करवाने की खातिर। अमिया ने थोड़ा तो इंतजार किया होता। उसके बारे में नहीं तो रहमान मियाँ की उम्र के बाबत ही सोचा होता। पर अमिया को सोचने-समझने की फुर्सत ही कहाँ थी। बसा-बसाया घर दिख रहा था उन्हें, भरा-पूरा। अपनी आजादी दिख रही थी… अपनी जिम्मेदारी से आजाद होने का खयाल… वह खयाल, जिसकी चिंता में वे दिन-रात घुल रही थी। बस नहीं दिख रही थी तो अपनी बच्ची नफीसा। उनकी निगाह से तो कुछ भी हैरतअंगेज नहीं था। वे न कर देतीं तो उनकी सास कोई और रिश्ता माँग लाती। फिर बुरा क्या था कि कुस्सो ही उनके घर जाए। कम से कम बहन का लिहाज तो रहेगा उसे। खयाल ही रखेगी हमेशा की तरह अपनी अपिया का। सौत बन कर छाती पर मूँग नहीं दलेगी।

अम्मी जान ने छह साल की लंबाई को खींच तान कर इतना बड़ा कर दिया था कि उसके बोझ के तले वे तो अधमरी हुई ही जा रही थी। रहमान मियाँ तक ने भी उफ नहीं किया।

या कि वे भी चाहते थे यही सब कुछ। सोच-सोच कर उनका कलेजा मुँह को आने को होता। पर वे बेचारी सी, करती भी तो क्या। एक कोने में बैठी चुपचाप देखती रही सारा खेल। ब्याह तो ऐसे रचा रही थीं अम्मीजान जैसे पहले-पहल घोड़ी चढ़ने जा रहे हों रहमान मियाँ, 16-18 की उम्र हुई होगी उनकी। साज-सिंगार हौसला… कमी किस चीज की थी। उन्हें दुख होता, इतनी हौस तो पहली बार भी न दिखाई थी उन्होंने… गहमागहमी ऐसी कि अपना दुख बाँटनेवाला कोई कोना न दिखे। रिश्तेदारों की लपक-झपक, चुहल। खदबद-खदबद पकते तरह-तरह के गोश्त… रंग-बिरंगे मसालों की खुश्बू। देग में हमेशा हमेशा कुछ खदबदाता रहता। भाप के गुबार से जाड़े के सर्द दिन भपाए हुए से हल्के नरम-गरम। और कोई छोड़ता कहाँ था उसे, न काम में पेरने से न ताने मारने से। का हुआ भौजाई, बहिन ही तो आ रही है, रानी बन के रहना। मन लगा रहेगा दोनों का। रहमान भाई तो ऐसे भी काम में फँसे रहते हैं। उन्होंने भँड़ास बर्तन-भाड़े पर निकाली थी… धम्म… धुम्म… खट… खटाक…

रमजान मियाँ शायद कपड़े बदल रहे थे। बर्तनों की उठापटक से मन नहीं भरा तो लाज-हया सब छोड़ कर दरवाजे की ओट में लिपट गई थी उनसे। ऐसा कौन सा गुनाह हो गया था हम से… एक बार बस एक बार झूठ ही सही मना तो कर देते अम्मी जान से। मेरा कलेजा जुड़ा गया होता। मैंने आपकी खिदमत में कौन सी कमी छोड़ी थी… आप ही तो कहते थे कि तुम्हारे बगैर अपनी जिंदगी की मैं सोच भी नहीं सकता। फिर मेरी जगह पर किसी और को लाने को कैसे तैयार हो गए आप? उसने देखा था रहमान मियाँ पसीजे थे… उनकी बाँहें उसके इर्द-गिर्द कसी थी, फुसफुसाए थे वे, कोई देख तो नहीं रहा होगा… वह हरी हुई थी भीतर से… देख लेने दीजिए, कौन सी चोरी कर रहे हैं हम। आपकी बीवी हूँ मैं। निकाह पढ़ा कर लाए हैं मुझे। यह अलग बात है मुझमें वो बात नहीं है। उसे लगा उसके सिर पर से ससरा है कुछ कीड़े जैसा, वह माथे तक आया तो समझ पाई रहमान मियाँ के मन का गीलापन था। वह बेकार ही दोष देती रहती है उन्हें, अब बेचारा मर्द तो हर तरफ से मारा जाता है औरतों की तरह बहस, जिरह चिल्ला चिल्ली तो करने से रहा।

रहमान मियाँ को पिघलते जान उसने मन की बातें पुख्तगी से जारी रखी…। एक बच्चे के न होने ने… मुझ से मेरे ये सारे हक छीन लिए हैं। मैं कहती हूँ कौन सी उमर बीत गई है मेरी। अभी तो चौबीस को भी नहीं लगी। छ: साल न हुए…। उसे लगा रहमान मियाँ की पकड़ ढीली हुई फिर फिसल गई ऊपर-ऊपर। मुझे एक जरूरी काम याद आ रहा है। वैसे भी घर लोगों से अटा पड़ा है… वे झटके से निकल गए थे। वे जब कमरे से निकली तो उन्हें लगता रहा सब के सब लोग उन्हें ही देख कर हँस रहे हैं। वे जैसे नजरें चुराती फिर रही थीं सबसे। वे आँगन तक निकल आई थी वहाँ। जहाँ रिश्तेदार औरतें सालन के लिए ढेरमढेर प्याज काटने के लिए बैठी थी। उन्हें देखा तो किसी ने पुकार भी लिया इधर उधर कहाँ डोलती फिर रही हो दुल्हन बी? ये न कि थोड़ा हाथ ही बँटा दे हम बूढ़ियों का। चचिया अभी आई कह कर वे चुपचाप बैठ कर प्याज काटने लगी थी। भीतर उमड़-घुमड़ करते आँसू जैसे बाहर निकलने का रास्ता पा गए हों। वे आँसुओं को बहने दे रही थी चुपचाप। अभी मौका है… यही मौका है। किसी ने टोका भी था छोड़ भी दो दुल्हन बी, इस तरह जार-जार आँसू बहाओ तो… आपा जान या रहमान मियाँ ने देख लिया तो… वे फिर भी नहीं उठी थी। बहने दिया था अपने आँसुओं को।

वे सोच रही थी एक ही पल में रहमान मियाँ ने उसे किस तरह परे ढकेल दिया, सिर्फ एक औलाद न होने के कारण न। उन्होंने अपनी हथेलियाँ हौले से पेट पर फिराई थीं। इसी कोख की कारण सब कुछ। इसी कोख ने उनकी छोटी बहन को छोटी नहीं रहने दिया था…। फिर भी जब वे ही माँ बनी तो कैसे भूल जातीं वह सब कुछ। उन्होंने अपने हाथ से छूटी जा रही बागडोर को एक बार फिर अपने हाथों में सँभाल लिया था। अम्मीजान बीमार रहने लगी थीं। पर वे पलट कर भी नहीं देखती उनकी तरफ। उनकी लाड़ली कुदैशा तो है ही, ले आई थीं जिसे बड़े चाव से। करे उनकी सेवादारी। वे पल भर को भी नहीं सोच पाती थीं कि छोटी उनकी अपनी ही बहन है। सगी बहन। बाद में कुदैशा को भी अमिया के घर भिजवा के ही दम लिया था और अम्मीजान का काम दाई नौकरों के हाथ। इस तरह पल भर को उनके कलेजे की बेचैनी कमी थी। पर बस पल भर के लिए। वे जब-जब खुश होने की कोशिश करतीं कहीं से कूद कर आगे आ जातीं वह और जब-तब वो अपनी सारी भँड़ास रहमान मियाँ पर ले कर टूट पड़ती। जितना कड़वा-कसैला था भीतर वे सब बहा देना चाहती। पर वह फिर-फिर उग आता था नमीवाली जगह पर उग आनेवाली काई की तरह।

धीरे-धीरे उन्होंने गौर किया था, रहमान मियाँ तो उससे दूर-दूर ही रहते। छोटा हनीफ भी दूर-दूर भागने लगा था उनसे। रहमान मियाँ की तरह गाहे बगाहे बहाने-बहाने अमिया के घर डेरा डालने लगा था। वहाँ से ले आओ या मँगवा लो तो वो लोटमपोट कि उनका जी घबड़ा उठता। घबड़ा कर सोचती पड़े रहने दो वहीं। उनका क्या कमा जाता है इससे। बेटा तो उन्हीं का कहलाएगा। पर कभी-कभी मन बेतरह कसक उठता। उनके हिस्से सब कुछ था पर कुछ भी नहीं। और उस छोटी के… ऐसे में ही उसका प्यार जीतने की खातिर दस-बारह बरस के हनीफ को बगल में सुलाए-सुलाए ये कथा-व्यथा सुनाई थी…

…पता नहीं कितना और क्या समझा था उसने। पर अब पहले की तरह दूर-दूर नहीं भागता था उनसे। कभी-कभी बगल में आ लेटता। और जब तब उनके पेट में टाँगें घुसेड़ कर, बालों में ऊँगलियाँ फँसा कर सो जाता वह तो उनका मन पल भर को अपने सारे दुख भूल जाता। वह सोचती कुस्सो के हिस्से में ये खुशियाँ कहाँ। अगर हनीफ सो ही लेता होगा ऐसे लिपट कर तो फिर भी मन में एक कसक तो होती होगी… यह उसका खुद का जना होता, उसकी अपनी औलाद… बाद में आई भी तो बिलकिस, उसके गम को और गाढ़ा और पुख्ता करने…। इसी दुख ने लील लिया होगा उसे। वे अपने सिर से जैसे सारे इल्जाम हटा देना चाहती, हनीफ के आगे…

… नसीमा ने अपने सिर का दुपट्टा सँभालते-सँभालते जब अब्बू के नाम की रोटियाँ बदली तब तक वे अम्मी और छोटी अम्मी की यादों से उलझे हुए थे बेपनाह। अब्बू अब सब से बड़े कसूरवार थे उनकी नजर में। अम्मी से तो वे जुड़ भी चले थे धीरे-धीरे पर उन्हें वे कभी माफ नहीं कर पाए। बाकोशिश उनकी किसी याद को उन्होंने इस वक्त भी अपने पास नहीं फटकने दिया। वे मशीन की तरह नसीमा का कहा-किया दुहरा रहे थे बस…।

…पल भर को उन्हें खयाल आया था कल को वसीम भी अगर उनसे इसी तरह नफरत करे तो…? अब्बू के पास तो झूठी-सच्ची ही सही कई मजबूरियाँ थीं, कई दवाब… पर वे? उन्हें अब्बू के नाम का फातिहा पढ़ते-पढ़ते अम्मी की बात याद हो आई – ‘अजाब और गुनाहों से तौबा करने की रात है यह। ईबादतों और दुआ की रात।’ नसीमा के चेहरे को बराबर देखते हुए उन्होंने एक अनकहा फातिहा नंदिता के नाम का भी पढ़ा था – ‘यह अनकहा रिश्ता, भूल-चूक, गिले-शिकवे, सब के सब आज यहीं खत्म। बीती कहानी कभी नहीं दुहराई जाएगी… हर्गिज नहीं… उनके हाथों तो कभी भी नहीं।

5

सुबह बहुत सीली-सीली थी। दिसंबर की आम सुबहों की तरह हल्की गीली, पोली। नंदिता अभी-अभी नहा कर निकली थी। कुछ कपड़े भी धो डाले थे उसने, अपने और हनीफ सर के। इसलिए हल्की कँपकँपाहट हो रही थी उसे। उसने कॉफी का मग तैयार किया और बाल्कनी में आ बैठी। अखबार अभी आया नहीं था। वह सोच रही थी करे भी तो क्या करे। यूँ करने को बहुत कुछ था। थीसिस अधूरी थी। बहुत दिनों से उसने घर फोन नहीं किया था। माँ की बीमारी की खबर जानने के बाद भी… बात करने का बहुत मन होने के बाद भी। वह जानती थी माँ की इस हालत की जिम्मेवार कहीं वह भी है। पर वह आखिर करे भी तो क्या? अगर फोन किया उसने तो माँ फिर शुरू हो जाएँगी।

हनीफ सर के लिए अनाप-शनाप बकेंगी और वह सह नहीं पाएगी। उल्टे अगर उसके मुँह से कुछ निकल गया तो… नहीं, वह ऐसा नहीं होने देना चाहती…। मोबाइल वह कमरे में रख आई थी। फिर क्या करे वह…? उसे एक अजीब सी बेचैनी महसूस हो रही थी। कोई तीखी सी गंध जैसे नथुनों में पसर रही हो, तेजी से। एक अजीब सी घबड़ाहट। हनीफ सर को फोन करे वह…? नहीं अभी परसों ही तो आए थे वे। और अभी तो वे कान्फ्रेंस के लिए मुंबई पहुँचे ही होंगे…। तो फिर क्या करे वह…? तो क्या सब ठीक ही कहते हैं… उम्र के इसी पड़ाव पर यदि इतना अकेलापन है तो बाद में उसके हिस्से सिर्फ एकांत ही बचेगा। आखिरकार उसने अपनी यह नियति भी तो खुद ही चुनी है। उसे बेतरह घबड़ाहट होने लगी थी। खुद से… अपने घर से… अपने आस पास के माहौल से… उसने बाल्कनी से बाहर देखना चाहा। वहाँ भी बस एक अजीब सा सन्नाटा। माना कि जाड़े की धुर सुबह थी यह… लेकिन स्कूल, कालेज या दफ्तर को ही निकलता कोई व्यक्ति… एक भी इनसान उसे क्यों नहीं दिख रहा दूर-दूर तक… उसकी तलाश जितनी अधिक बढ़ रही थी उसकी घबड़ाहट उससे भी दुगुनी गति से। वह मन ही मन प्रार्थना करने लगी थी कोई आए… कोई आ जाए… एमी ही आ जाए… पर एमी से बातचीत हुए महीनों बीत गए थे। अंतिम बार भी बात बस बहस पर ही आ थमी थी। वह समझाकर नहीं थकती और वह नहीं समझ कर। उसके बाद दोनों ने यही ठीक समझा था कि वे जितना कम मिलें वही बेहतर।

हनीफ सर के होने से इस घर, इसकी दरोदीवारें और खुद उसमें एक नई जान आ जाती है। वह अगला-पिछला सब भूल उठती है उनकी छाया में। …बस वे और वह। जैसे साधारण से साधारण बात, साधारण से साधारण चीज सब अद्वितीय हुई जा रही हो। सब के सब पल अविस्मरणीय। छोटी से छोटी बातें भी बहुत महत। इन्हीं पलों की चाहत में तो वह इतना बड़ा फैसला ले पाई। वर्ना वह एक कमजोर सी लड़की… उसमें तो एमी जितनी हिम्मत और ताकत भी नहीं। हनीफ सर के कद-बुत ने जैसे उसे भी एक ऊँचाई दी हो…। उसी ऊँचाई, उसी प्रेम-बोध में डूबी वह बिता लेती थी जीवन के और सारे दिन। वे सारे दिन, जब हनीफ सर उसके पास नहीं होते थे, वह यादों की चादर को कस कर ताने रहती अपनी चारों तरफ जिसकी गर्माई और शीतलता मौसमानुकूल उसका कवच बन तनी रहती उसके इर्द-गिर्द। जहाँ बाहर के वातावरण का कोई कण-क्षण प्रवेश नहीं कर पाता था। पर इन दिनों वह देख रही थी, वह चादर थोड़ी पुरानी हो चली थी। हालाँकि नंदिता का मन यह मानने को तैयार नहीं होता था पर अब जब भी वह उसे अपने इर्द-गिर्द लपेट सुकून और चैन से दो पल बिताना चाहती धूल कण की तरह छोटी-छोटी श्रृंखलाएँ उसे आ घेरतीं। नाचतीं चारों तरफ इस हद तक कि उसे परेशान करने लगतीं। वह हैरान थी यह सोच कर कि ऐसा हुआ तो कैसे और कब?

वह चौंकी थी दरवाजे पर कोई दस्तक हुई थी। कौन होगा… तो क्या उसकी प्रार्थना ही रंग ले आई? वह इस तरह खयालों में डूबी थी कि बाल्कनी में होने के बावजूद किसी का आना देख नहीं पाई। विचारश्रृंखलाओं से बँधी-बिंधी वह दरवाजे तक आ पहुँची थी। दरवाजे पर अखबारवाला था। साथ में बिल होने के कारण उसने दरवाजे पर दस्तक दी थी। वह अखबार समेट कर भीतर आई थी और पुनः उसी बाल्कनी में… उसने बेमन से अखबार खोला था। पर अखबार खोलते ही उसकी बेदिली काफूर हो चली थी। उसका अकेलापन भी खो चला था जैसे। ऐसा अक्सर होता है। जब-जब एमीलिया का कुछ लिखा वह अखबार में पाती है। बल्कि पहले साथ-साथ होने पर वह जैसे अखबार के इंतजार में ही रहती थी। एमी कहती थी ऐसा भी क्या इंतजार… लिखना मेरा काम था… लिखने से मैं खुद को रोक नहीं सकी थी। यह इंतजार तो औरों में हो… और इंतजार से भी ज्यादा प्रतीक्षा मुझे उस छोटे से बदलाव की होती है जिसकी आशा में मैं इस जद्दोजहद से बार-बार गुजरती हूँ…

उसके मन से किसी प्रिय की प्रतीक्षा खत्म हो चुकी थी। एमी साथ नहीं थी पर सामने थी उसके। रात को जाग-जाग कर लिखती… बेचैनी में चहलकदमी करती। उसकी या खुद की बनाई कॉफी पीती और फिर-फिर लिखती। उसने लेख को पढ़ना शुरू किया था…। उसे लगा वह एमी से बात ही कर रही है… बल्कि बात न कर के सुन रही है उसे भोली-भौंचक सी हमेशा की तरह। लेख दिल्ली महिला आयोग के उस निर्णय की प्रतिक्रिया में था जिसमें छोटी बच्चियों को भी यौन शोषण और अपराधों के खिलाफ प्रशिक्षित करने की बात थी। शीर्षक था – रक्षा में हत्या। उसने पढ़ा था – तर्क यह कहता है कि जिन छोटी बच्चियों को खुद से कपड़ा पहनने, मुँह धुलने तक का शऊर नहीं, जिन्हें भूख-प्यास और तमाम दैनंदिन आवश्यकताओं के लिए अपने से बड़ों, खास कर स्त्रियों पर आश्रित रहना पड़ता है उन्हें हम समझाँ तो क्या, कितना और कैसे। कितना शंकालु बनाएँ कि वो सामनेवाले की नीयत भाँप सके। कि वो पिता और ताऊ की गोद में जा कर न बैठे, भाई से लाड़ न लड़ाए… क्या इस तरह हम मासूम बच्चियों से उसका बचपन नहीं छीन लेंगे। मर्ज कहीं और ईलाज कहींवाली स्थिति है यह। कौन सा सपना होगा फिर उन आँखों में, रिश्तों के प्रति औन सी संवेदना बची रह जाएगी उनके कोमल हृदय में। कैसा होगा फिर उनका बचपन, डरा-सहमा किसी अनजान-अनहोनी की आशंका से इतनी भयभीत? क्या हमारे लाख प्रयासों के बावजूद ये इतनी हिम्मत जुटा पाएँगी कि जवान और बलिष्ठ पुरुष शरीरों का भरपूर प्रतिरोध कर सकें। जबकि परिपक्व और समझदार स्त्रियाँ चार पुरुषों से घेर लिए जाने पर खुद को अवश और असहाय पाती हैं… गरीबी और भुखमरी से जूझते झुग्गी झोपड़ियों की बच्चियों में कितनी और कैसी शारीरिक शक्ति भर पाएँगे हम…?

एमी ने आगे लिखा था… जरूरत यह है कि बाल बलात्कार के मामलों को अन्य बलात्कार के मामले से जोड़कर न देखा जाय क्योंकि दोनों के बीच मूलभूत अंतर है। उतना ही बड़ा अंतर जितना कि एक मासूम और परिपक्व के शारीरिक और मानसिक बुनावट के बीच होता है। इसके लिए सरकार और न्यायपालिका को कड़ा से कड़ा नियम बनाना चाहिए और इसका सख्ती से पालन होना चाहिए कि बलात्कृत होकर या कि बलात्कार से बचने की प्रक्रिया में किसी के बचपने के साथ बलात्कार न हो…

लेख को पढ़ने के बाद उसका मन बहुत उदास हो आया था। कितनी देर तक बैठी रही थी वह किंकर्तव्यविमूढ़ सी। फिर जब थोड़ा चेती एमी को एसएमएस किया – लेख बहुत अच्छा था, पढ़ कर जैसे मन विचलित हो उठा। मिलना चाहती हूँ, क्या तुम भी चाहोगी? उसे याद नहीं कि पिछला एसएमएस उसने एमी को कब किया था। वह एसएमएस बहुत कम करती थी। एमी के ही एसएमएस आते रहते थे अक्सर। बातचीत जब लगभग बंद थी उस अवधि में भी। कभी वह उसके एसएमएस से खुश होती थी। पर अब उसके भेजे गए संदेशों से उसे चिढ़ होने लगी थी, जहाँ उसे याद करने या कि उसकी याद आने की भावना से ज्यादा अब वह हनीफ सर और उसके रिश्ते के प्रति अप्रत्यक्ष में अनाम सा जहर ही पाती थी। वह अक्सर सोचती आखिर एमी कब तक ऐसा करती रहेगी। अब जब कि उसके ऐसा करने का कुछ भी मतलब ही नहीं रह जाता।

वह चाहती तो एमी को फोन कर सकती थी पर उसने ऐसा नहीं किया। एसएमएस में अपना कह लेने और दूसरे से रूबरू न होने की आजादी तो थी ही… और दूसरे को भी यह स्वतंत्रता थी कि मन हो तो आपका कहा सुने, माने, जवाब दे कि न दे… नंदिता के मन में झेंप, शर्म, पीड़ा, दुख और अवसाद सब के सब घुले पड़े थे और वह नहीं चाहती थी कि उसकी बातों के साथ यह सब भी एमी तक संप्रेषित हो। फोन सुनना मजबूरी हो सकती है पर एसएमएस पढ़ना…।

एसएमएस भेजने के बाद नंदी प्रतीक्षा करती रही देर तक… या कि वक्त का वह छोटा सा टुकड़ा ही रबड़ की तरह खिंचा चला जा रहा था। उसमें अजीब सा अनमनापन घर करने लगा था। क्यों भेजा उसने मैसेज। ऐसे तो उसने भी कभी एमी के संदेश का जवाब देना तक उचित नहीं समझा फिर आज…। एमी भी उसे जवाब क्यों दे… उससे उम्मीद क्यों? वह उठ कर ब्रेड सेंकने चल दी थी, नाश्ते के लिए। नाश्ता अभी आधा-अधूरा ही तैयार हुआ था कि उसने सुना मोबाइल की घंटी टनटनाई थी, संक्षिप्त सी। वह भागी थी। एमी का ही एसएमएस था – शुक्रिया। अगर व्यस्तता न हो तो तुम जब चाहो और जहाँ, लेकिन शाम के चार बजे से पहले तक ही। …फिर ठीक, लोदी गार्डेन। दोनों के लिए दूरी समान होगी और थोड़ी धूप भी सेंक पाएँगे हम इन दड़बों से निकल कर। नंदिता ने फिर से एसएमएस ही किया था, फोन नहीं। अब आमना-सामना एक बार ही।

वह तय कर के निकली थी आज चाहे जो हो वह एमी की बातों का बुरा नहीं मानेगी। उसकी अपनी दृष्टि है और वह गलत भी तो नहीं। उसी के भले के लिए तो कहती है वह… उससे प्यार करती है इसी खातिर न। मम्मी पापा तो कितने-कितने दिन दिनों तक नहीं बोलते हैं उससे, एक वही है जो कभी मन में कुछ रखती नहीं।

सुबह के दस बजे होंगे। कुहरा छँट गया था आसमान से। सुबह गुनगुनी हो उठी थी। नर्म, मुलायम सी। सेंक से मन हुलस रहा था। दूर तक फैली हरी घास, पुरानी इमारतें और इस ठंड में भी पेड़ों की ओट में छिपते-दिखते दुनिया से बेखबर जोड़े। उन्हें अभी कुछ से मतलब नहीं था। नीचे हरी घास और ऊपर धूप से भरा आसमान और उन के बीच वे दोनों थीं। यह नेमत थी उनके लिए जो बहुत दिनों बाद नसीब हुई थी उन्हें। वे मूँगफलियाँ टूँगती हुई एक दूसरे को देख रही थीं। बहुत दुबली हो गई है तू… और तू तो मुटा कर जैसे अम्मा हुई जा रही है… एमी ने कहा बिल्कुल खयाल नहीं रखती तू अपना, दोनों ने लगभग साथ-साथ ही कहा था एक दूसरे से और हँस पड़ी थीं साथ-साथ। उनकी हँसी से घुल कर धूप और खिल उठी थी। घास और हरी-हरी और सामने के खंडहरनुमा इमारत में भी जैसे चमक जैसा चमक उठा था कुछ।

पापा आए थे, एमी ने धीरे से कहा… फिर…। बहुत कमजोर और उदास लग रहे थे। कुछ कह रहे थे… क्या कहते, सिवाय इसके कि सैटल हो जाओ अब। जितना कुछ करना-धरना था सब तो कर लिया। और यदि नहीं करनी शादी तो मेरे पास चली आओ या मैं ही तुम्हारे साथ… अब अकेले रहा नहीं जाता। हम दोनों को ही एक दूसरे के सहारे की जरूरत है… क्या सोचा तुम ने? कहती क्या, इसमें से कुछ भी संभव नहीं। वे न अपनी क्लीनिक छोड़ कर यहाँ आएँगे और न मैं सुबह शाम उन्हें अपने सामने बर्दाश्त ही कर पाऊँगी। दूर रह कर कभी-कभी तो सहानुभूति से सोच भी पाती हूँ उनके पक्ष में। जब साथ रहूँगी तो फिर वही पुराना… तब और अब में बहुत अंतर है। शायद सब कुछ अब सुलझ सके। शायद अब तुम उन्हें माफ कर सको। एक बार कोशिश तो कर ही सकती हो। नंदिता सोच कर आई थी कि एक-दूसरे की जाती जिंदगी में दखल नहीं देंगे पर आज एमी ने कुछ नहीं कहा तो वही शुरू हो गई… अचानक बात बदलने के लिए उसने कहा था… सामने के मकबरे को तुमने गौर से देखा है कभी। इसकी आकृति अष्टभुज जैसी है न। आम मकबरों में ऐसा कभी नहीं होता। अष्टभुज हिंदू मैथॉलजी का एक पवित्र चिह्न है। और इसकी छतरियाँ भी लाल बलुई पत्थर की नहीं बनी है, आम मकबरों जैसी। इन छतरियों में राजपूत शैली का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। दो संस्कृतियों का एक दूसरे में घुल-मिल जाना इसी को कहते हैं। एमी हँसी थी खिलखिलाकर, इतना खिलखिलाकर कि सामने पीले सूट और नीली कमीजवाली जोड़ी चौंक कर छिटक पड़ी थी एक दूसरे की बाँहों से। नंदी तू भी… यह सब तुझे हनीफ सर ने बताया होगा न… तू अब उनकी ही बोली बोलने लगी है… बिल्कुल उनकी बोली… कैसे हैं वो…?

नंदिता एक वर्जित प्रदेश से बचते-बचाते दूसरे से आ टकराई थी। जैसे किसी नदी में नाव खे रही हो और एक टापू से बचने की फिराक में दूसरे से लगने-लगने को हो आई हो। वह बेखयाली भी अपनेपन से जाग कर थोड़ी चौकन्नी हो उठी थी। अब जो कुछ भी बोलना है बहुत सोच-समझ कर। बात फिर किसी गलत दिशा की तरफ रुख न कर ले। पर कहानियाँ बनाना उसे ठीक से आता नहीं था। यह एमी ही कहती थी। मुँह से जो निकला वह बिल्कुल सच था। कोरा सच… ठीक हैं वो… एक बार आई थी उनके साथ। बहुत चाव से ले कर आए थे वे। पर आते ही मूड बिगाड़ लिया था… ‘हद कर दी है इन लोगों ने, कोई भी जगह नहीं छोड़ी, कोई भी किला पार्क या फिर ऐतिहासिक स्थल। हर जगह लिपटे-चिपटे मिल जाएँगे। जैसे उनसे बाहर जो दुनिया है उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है उनके लिए।’ वह चौंकी थी उनके क्रोध के अचानक आए इस झोंके से। वह ही नहीं चौंकी थी सिर्फ, एक दूसरे से लिपटा ठीक सामनेवाला जोड़ा जैसे क्षण भर को हिचका था, थमा था। पर क्षण भर को ही… हम लौट चलते हैं नंदी, हनीफ सर ने कहा था। उसने हौले से उनकी हथेलियाँ थामी थी… ऐसा भी क्या हो गया अचानक। इतने दिनों से कहते-कहते तो हम आज निकल पाएँ हैं… कुछ भी नहीं, बस मन नहीं रहा अब। …वे उसकी हथेलियों पर उल्टे अपना जोर कसने लगे थे लौट चलने के लिए। उसे हँसी आ गई थी। कोई और होता तो… किस बात से कतराते हैं वे, किस चीज से… क्या अपने आप से… अपने मन में बसे आदिम इच्छाओं से…? पर उसने कहा बस इतना भर था… क्या कर रहे हैं वे… प्यार भर हीं न… कोई तो जगह, कोई तो कोना चाहिए उन्हें भी अपना सा, जहाँ बेफिक्र वे मिल सकें… आप तो सर… बजरंग दल और शिव सैनिकों की तरह रिऐक्ट कर रहे हैं…। तुम भी नंदी… तुम भी ऐसा सोचती हो तो हैरत होती है मुझे। देह, बस देह प्यार नहीं होता है… प्यार तो एक कोमल सा एहसास होता है जो अपनी मौजूदगी-गैर मौजूदगी में लपेटे रहता है हमें अपनी नर्म सी उपस्थिति से… देह कहाँ मायने रखती है तब… यह रह ही कहाँ जाती है तब… नंदी तुम… तुम्हें तो यह समझाने की जरूरत नहीं है। वे दोनों वापस लौट आए थे फिर…।

नंदी ने एमी के कहे के समर्थन में सिर्फ हामी में सिर भर हिलाया था। उसने सोच कर देखा था अगर वह उससे यह सब कहेगी तो यह सफाई जैसा ही कुछ होगा। और सफाई देने की उसकी फितरत नहीं थी और न हीं इच्छा।

दोपहर ढल रही थी धीरे-धीरे। धीरे-धीरे बातें करते-करते वे चुप हो चली थीं। हमेशा की तरह, जो कहता था कि अब वे दो हैं। अब वे अपना अलग-अलग वजूद चाहती हैं कि अपनी अलग-अलग दुनिया में खो जाना है उन्हें। ऐसा साथ रहने पर भी होता था कई बार। वे बाहर निकल आई थीं। एमी ने जैसे इशारों-इशारों में जाने की इजाजत माँगी हो। नंदिता डर उठी थी क्षण भर को… फिर वही एकांत, फिर वही अकेलापन। उसने धीमे से पूछा था कहाँ जाना है तुझे? क्या वहाँ मैं तेरे साथ-साथ चल सकती हूँ…? एमी जैसे चौंकी थी। एक क्षण को, फिर सँभली थी… थोड़ा थम कर बोली थी वो… चल क्यों नहीं सकती पर पता नहीं वहाँ तुम्हें कैसा लगे… मन लगे भी कि न लगे। तू जहाँ रहेगी मुझे अच्छा ही लगेगा… कहती तो है वो पर पर मन ही मन सोचती है, ऐसे दिन भी आ गए उनकी जिंदगी में कि उन्हें आज एक-दूसरे से यह कहने की जरूरत भी आन पड़ी। कितनी अलग राहें हो गई उनकी, जाने-अनजाने में ही सही।

ऑटो रिक्शा देर तक चलने के बाद शहर से बहुत दूर निकल आया था। गर्दो गुबार चेहरे-कपड़े ढकने लगे थे। कँकड़ीले, टूटे-फूटे रास्ते पर गाड़ी कभी उछलती कभी फुदकती। पेट में पहले कुछ गुदगुदी सी हुई थी और फिर कुछ मरोड़ सा। उसे याद आया, खाने के नाम पर ठोस कुछ उसके पेट में आज गया नहीं था। ब्रेड भी सिंका-अधसिंका छूटा ही रह गया था, एमीलिया के मैसेज के आने के बाद। क्या एमी भी ऐसा ही महसूस कर रही होगी।

गाड़ी रुकी थी झटके से। वे सारे बच्चे बाहर निकल आए थे और एमी को घेर लिया था उन्होंने। फिर उसे देख एमी से भी अलग हट कर खड़े हो लिए थे। एमी मुस्कुराई थी। ये भी दीदी हैं, आपकी एक और दीदी। मेरी सबसे अच्छी फ्रेंड…। जैसे तुम और निकिता… उसने एक गोल-मटोल बच्ची का गाल छुआ था। पर आप तो बड़े हो न? हम भी इतने से ही थे और तभी से दोस्त हैं। निकिता कही जानेवाली लड़की के चेहरे पर एक आश्चर्य का भाव पुत सा गया था। सच्ची…। उसने शब्द को खींचा था। नंदी की नजर सामने लगे बोर्ड पर पड़ी थी। गाढ़े-मोटे अक्षरों में लिखा हुआ और छोटे लाल अक्षरों में नीचे लिखा हुआ था – ‘आनंदवन’ : जीवन के प्रति एक अटूट विश्वास। सच्ची…। एमी ने भी जवाब वैसे ही खींच कर दिया था। उसने गुलथुल सी एक बच्ची को गोद में उठा लिया था। कैसी है गुड़िया? ठीक… ठीक… एमी ने फिर प्रश्न नहीं किया था। हाँ, पल आपसे गुच्छा हूँ। त्यों… त्यों कि आप बहुत दिनों बाद आए हो… आई तो हूँ न बेटा। और बहुत सारी चीजें लाई हूँ आपके लिए। छच… बच्ची की आँखें विस्फरित हुईं। उसके चेहरे का नकली सूजापन कमा था। दरबान ने कहा था दीदी जी जल्दी अंदर आइए। मिली की तबीयत सुबह से ही खराब है, बेहोश है वह। डॉक्टर ने कहा है ब्लड की जरूरत है उसे। आपको इसीलिए बुलवाया। एमी ने आँखों ही आँखों में कहा, पता है उसे। उसने बच्ची को उसकी गोद में थमाया और तेजी से एक कमरे की तरफ बढ़ी थी वह… मैं क्या करूँ समझ नहीं पा रही थी… फिर आदतन वह एमी के पीछे चल दी थी हमेशा की तरह। सामने एक कमरा था। कमरे में दो बेड थे पहले से ही, दोनों पर आक्सीजन और ग्लूकोज चढ़ाए जाने के सरंजाम। एक बेड पर सात-आठ साल की खूबसूरत नक्श पर पीले निचुड़े चेहरेवाली एक बच्ची। दूसरे खाली बेड पर एमी लेट गई थी चुपचाप।

डॉक्टर ने पूछा था कुछ खाया-पीया है न, उसने कहना चाहा था नहीं… पर एमी ने नंदी को निगाहों से ही बरजते हुए कहा था ‘हाँ’। प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी, एमी आँखें बंद किए पड़ी थी। बच्ची को करवट कराया जा चुका था। बेड सीट गीला था कमर के नीचे, रक्त से सनी हुई। वह सिहर उठी। चादर बदल दी गई थी। बच्ची पूर्ववत थी। सब कुछ से अनजान। निस्पंद… वह वहीं स्टूल पर एमी की हथेलियाँ थामे बैठ गई थी। एमी की मुँदी आँखें खुली थी, उसने देखा था उसे क्षण भर को फिर आँखें बंद कर ली थी। वह अंदाजा लगाना चाह रही थी एमी के कष्ट का। पर चेहरे से कुछ भी पता नहीं चल रहा था, सिवाय अतिरिक्त थकान की मुद्रा के। वक्त लंबा खिंचा था कि लगा था उसे। नहीं… बच्ची के चेहरे पर थोड़ा हरापन दिखा था। पर कोई छोटी प्रक्रिया नहीं थी यह न ही कोई छोटी बात। बेड से उठती एमी के सहारे के लिए उसके हाथ बढ़े थे। वह हँसी थी इसकी कोई जरूरत नहीं। इतनी कमजोर भी नहीं हुई मैं… उसने अपना हाथ फिर भी पीछे नहीं किया था। एमी ने डाक्टर से पूछा था हुआ क्या था आखिर…? कुछ नहीं… ठीक होते-होते सब बिगड़ गया था अचानक। वही दौरा आ पड़ा था मिली को। फिर जिस्म ऐंठ गया। ब्लीडिंग होनी शुरू हो गई थी। इसीलिए आपको फोन किया। ओ निगेटिव ब्लड ग्रुप का इससे जल्दी कोई दूसरा इंतजाम मेरी समझ में नहीं आ रहा था… सॉरी…। एमी हँसी थी एक मासूम सी हँसी। इसमे सॉरी की कौन सी बात है डॉक्टर…। अम्मा कहाँ हैं? बाहर गई हैं। निजाम को वापस लाने। उस नए घर में एडजस्ट नहीं कर पा रहा वह।

वे बाहर निकलने को थीं कि 16-17 साल के एक लड़के ने आकर उन्हें रोक लिया। अम्मा नहीं तो क्या दीदी ऐसे ही चली जाएँगी। उसे पता था कि दीदी आज आनेवाली है और इसीलिए उसने मक्के की रोटी और सरसों की साग पकाई है। गुड़ की भेलियाँ भी मँगवाई सुबह-सुबह। सब खत्म हो चली थी।

उन दोनों ने छक कर खाया, खूब खेली बच्चों के साथ। जब निकलने को हुई तो नंदी का जैसे मन ही नहीं हो रहा था कि वह जाए…। एमी ने अपनी जिंदगी को किस तरह एक सार्थक दिशा दी है और एक वह… प्यार-प्यार करती खुद को चौबीस घंटे एक कमरे में कैद कर लिया है।

एमी भी जानती है कि बदल गई है वह, तभी तो सोच रही थी कि उसे अच्छा लगेगा यहाँ या नहीं। वरना उसे तो पता ही था बच्चों के बीच कितना अच्छा महसूसती है वह।

वे लौट रही थीं कि नंदी अचानक मुड़ी थी सामनेवाले उस कमरे की तरफ। बेसुध पड़ी बच्ची का सिर उसने सहलाया था धीरे से। उसके चेहरे पर हौले से अपनी उँगलियाँ फिराई थी, जैसे उसकी खुद की बच्ची हो वह…

वे दोनों सारे रास्ते चुपचाप थीं, अपने-अपने घर पहुँचने तक। नंदिता की आँखों के सामने उस मासूम सी बच्ची मिली का चेहरा बार-बार घूम जा रहा था… उसे एमी के लेख का मर्म अब समझ आया था।

6

नसीमा सुनती रही थी बार-बार इधर-उधर से उस लड़की के बारे में। लोग बाग उसे घेर-घूर कर बतलाना चाहते यह, तरह-तरह से। जिसमें रिश्तेदार भी थे और दोस्त भी…। पर वह हनीफ मियाँ के चेहरे से कभी कुछ नहीं पढ़ पाती। न वह उनकी तरफ से रिश्ते को निभाने में कोई कोताही देखती और न ही गर्मजोशी का अभाव।

लोग जब-जब कहते वह एक बार फिर परखना चाहती अपने उस रिश्ते को। एक-एक पल निगाह रखती उन पर। पर वे जस के तस… वही बच्चों को बेहद प्यार करनेवाले पिता… उसके लिए लबालब प्यार से भरे पति। ठीक था कि हनीफ मियाँ घर की दूसरी जिम्मेदारियों के प्रति लापरवाह थे, पर वह इसलिए कि उसने खुद ओढ़ ली थी सारी जिम्मेदारियाँ… अब दिन भर वह घर में करे भी तो क्या… बच्चे भी तो बड़े हो गए थे। और फिर आम घरेलू औरतों की तरह इधर-उधर का बतियाने या फिर टीवी सीरियल्स देखने में उसका मन नहीं लगता था। कुछ औरतों के बीच जो थोड़ा बहुत बैठती थी उससे भी वह इसलिए कतराने लगी थी कि जब बैठो घूम फिर कर वे उसी एक बात पर आ जाती, इशारों में, कनफूसियों में या कि सीधे-सीधे। और फिर ये काम भी तो अपने ही थे, उसी के अपने घर के… लेकिन घर की जिम्मेदारियों से वे चाहे जितने भी लापरवाह रहे हों, उसकी खातिर कभी कोई लापरवाही उन्होंने नहीं की। उसकी हल्की सी सर्दी हो या दाँत का छोटा-मोटा दर्द, वे बुरी तरह परेशान हो जाते। बेसाख्ता डॉक्टरों के चक्कर लगाना शुरू कर देते। चाहे जैसा बन पड़ता खुद ही पकाते और बच्चों को भी खिलाते। वह समझ नहीं पाती थी कि वह उनसे कहे भी तो क्या, खास कर तब जब अम्मी और भाई उसे तरह-तरह से समझाते, दवाब देते उस पर कि वह हनीफ मियाँ से बात करे… वह दिन-रात तलाशती रहती वह सिरा जहाँ से अपनी बात शुरू कर सके। पर वह कोई एक सिरा जैसे हनीफ उसके हातों में आने ही नहीं दे रहे थे…। वह अगर एक बार कभी कहती – हमलोगों को साथ बाहर गए कितने दिन हो गए तो हनीफ मियाँ उसकी ख्वाहिश को हाथोंहाथ लेते हुए कई दिनों का प्रोग्राम बना देते… वे उसकी कोई भी ख्वाहिश अधूरी नहीं रहने देना चाहते थे… और सबसे बड़ी बात तो यह कि ऐसा करते हुए उसके लिए उनकी चाहत, उनकी गर्मजोशी बिल्कुल वैसी ही थी…। वे टूट कर प्यार करते उसे… इस तरह जैसे कि पहली बार मिले हों, वह भी तब जब वसीम सयाना हो चुका था। कभी-कभी तो वह खुद भी शर्मा उठती उनके चाहत की इस ललक से। वह सोचती बार-बार… झूठ ही कहते हैं सब।

अगर हनीफ मियाँ की जिंदगी में कोई दूसरी औरत होती तो यह ललक कहाँ बनी रहनेवाली थी। उसे भरोसा नहीं होता था इस बात पर कि पेट यदि भरा हो तो कोई इस ललक से टूट सकता है सामने परोसी थाली देख कर। जैसे पेट एक ही होता है उसी तरह मन भी एक। जब कोई भीतर से भरा हो कहाँ जुड़ सकता है किसी दूसरे से। इसीलिए उसने लोगों की बात पर ध्यान देना छोड़ दिया था…। इसी कारण बाहर निकलना भी। अब जब निकलो यही एक बात। अगर वह खुश है अपनी जिंदगी से फिर दूसरों को क्या दिक्कत है, कौन सी परेशानी? उसे लगता लोगबाग जलते हैं उसके रिश्तों में अभी तक बची गर्माहट को देख कर। और हनीफ मियाँ भी तो और हैं, कोई सी भी जगह हो, कितने भी लोग… उनकी निगाहें लगातार उस पर ही लगी रहती हैं। उसे कोई परेशानी तो नहीं… वह असहज तो नहीं दिख रही। उसे तो कभी-कभी यह भी लगता कि उसके प्रति उनकी यह ललक दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है…।

वह सोचती, होगी कोई लड़की जिसकी कुछ मदद कर दी होगी इन्होंने। बताते तो हैं वो उसे मकान दिलवा दिया है, पढ़ाई में भी मदद करनी होती है… और लोगों के ले उड़ने के लिए बस इतना ही काफी हो गया होगा। अब इनकी तो आदत ही ठहरी लोगों की मदद करने की। वक्त-बेवक्त, जगह-बेजगह… फिर कुछ भी कहाँ खयाल रह जाता है इन्हें… अब उनकी आदतों को कैसे बदल दे वह…। पर हाँ, पिछले ही दिनों जब वे बाहर थे उन्होंने वहाँ से फोन किया था – वसीम को कहना कि थोड़ा वक्त निकाल कर एक बार नंदिता को देख आए, अकेली है और बीमार भी। कोई दवा तक ला देनेवाला नहीं है उसके पास… तो पहली बार चिहुँकी थी वह… वसीम क्यों जाने लगा वहाँ… बुला ले किसी को फोन कर के, कोई न कोई तो होगा ही, सहेली, साथी… कोई रिश्तेदार। आप बाहर गए फिर भी… जो कुछ वह सामने रहते नहीं कह पाई थी कभी, फोन पर कह गई थी उस दिन… मन जैसे हल्का हुआ था कुछ… उधर से आती हनीफ मियाँ की आवाज में फिर भी एक इल्तिजा थे… कोइ गुस्सा या कि बेअदबी किए जाने का कोई दुख तक नहीं। कोई नहीं है तभी तो कह रहा हूँ, बुखार में है… और करना ही क्या है। जा कर देख लेगा एक बार। जरूरत हुई तो डॉक्टर को दिखला देगा नहीं तो दवाएँ भर लानी होंगी बस। नसीमा को लगा उसके किसी कहे को कहाँ कभी इन्कार करते हैं हनीफ। उसे हैरत हो रही थी कैसे इतनी कड़ी हो गई है वह, लोगों के कहे-सुने में आकर… उसे उनकी बात तो माननी चाहिए थी। उसने कहा ठीक है…

और तब से वह वसीम की राह तक रही थी कि वह आए और उससे वह उस लड़की के पास जाने की बात कह सके। उसे लगा यह ठीक भी है। वसीम उससे बता सकेगा उस लड़की के बारे में… घर देख कर तो बहुत कुछ समझ में आ जाता है, और वसीम भी तो कोई बच्चा नहीं रह गया है अब… कुछ न कुछ तो सुना होगा उसने भी… आखिर देखूँ वह क्या कहता है।

वसीम आया और चला गया था। उसे हैरत हुई कि उसने कोई इन्कार नहीं किया था। पर तब से जैसे घड़ी की सुइयाँ जैसे रुक गई हों। वक्त खिसकने का नाम ही नहीं ले रहा था। उफ, ये वसीम भी न… गया तो अपना डेरा-डंडा भी वहीं जमा लिया। अपने बाप का ही तो बेटा है। गुस्से में उसने सोचा जरूर पर गुस्सा थम गया था यह सोच कर कि उसी का लाड़ला है वह… उसकी हर बात माननेवाला। उसका खयाल रखनेवाला। और वह वहाँ गया भी तो उसी के कहने पर है। उससे हर बात बताए बगैर जिसका दिन अभी भी पूरा नहीं होता, छोटे बच्चे की नाई… वह आएगा तो कहेगा ही सब कुछ। बाहर शाम गहराती जा रही थी। बेमन से ही सही उसने खाना पकाना शुरू कर दिया था…। वह आएगा तो भूख लगी होगी उसे। सब्जी बना लेने के बाद जब उसने चखा तो पता लगा उसमें नमक ही नहीं है, सालन भी बिल्कुल गाढ़ा। उसने नमक और पानी मिलाया। रोटियाँ भी उतनी मुलायम नहीं हो सकी थी, हमेशा की तरह। कुछ कड़ी, चीमड़, मोटी-मोटी सी। उसने रोटियों पर घी थपका। ऐसी रोटियाँ तो उसने कभी नहीं पकाई, कौन खा पाएगा इन्हें।

बेखयाली के आलम में यह क्या-क्या कर डाला उसने। थोड़ी मुलायम हो जाएँगी ऐसे। हनीफ होते तो ऐसा नहीं कर पाती वह। घी लगी रोटियाँ नहीं खाते वे। वे नहीं खाते इसलिए और सब भी…। पर उसे आज कुछ अलग कर के अच्छा लगा। फिर रोटियों को कपड़े में लपेट कर उसे डलिया में डाला। फिर सोचने लगी वह पता नहीं वसीम कब तक आएगा…। पता नहीं इतनी देर क्यों लगा रहा है वह। रोटियाँ ठंडी हो जाएँगी रखे-रखे। फिर वक्त काटने के लिए उसने सेवइयों का डब्बा खोला। सूखी-भूनी सेवइयाँ निकाली और उबलते दूध में छोड़ दिया। ताजा दही निकाल कर आलू का रायता बनाया। हनीफ और वसीम दोनों को पसंद आता है यह रायता। वह सोच रही थी कि अपनी तरह का यह अकेला मुसलमान परिवार होगा जहाँ महीने में चार दिन भी गोश्त नहीं पकता… उसके मायके तो मांस के पकवानों के बिना तो खाना पूरा माना ही नहीं जाता। हनीफ मियाँ गोश्त नहीं खाते, अंडे खाते हैं सिर्फ सो पकना भी लगभग जैसे बंद हो गया है…। वह वसीम के लिए पकाती है बस… उसने सोचा कल कहेगी वह उससे कि गोश्त ले आए, अब्बू तो वैसे भी लौट नहीं रहे कल।

उसे याद आया शुरू-शुरू में हनीफ मियाँ खाते तो थे गोश्त पर हर निवाले के साथ उनका बोलना यूँ चलता रहता जैसे कोई प्रायश्चित… यह कहाँ का नियम है… कहाँ का शौक… अपना पेट भरने के लिए किसी मासूम जानवर की जान ले किसी का परिवार खत्म कर दो… किसी का बच्चा, किसी की बीवी, किसी का शौहर… उसका कौर भी जहाँ का तहाँ थम जाता… गले का गले में अटकने लगता फिर। मुँह में जो कुछ भी होता बेमजा हो जाता अचानक। वह उठ जाती थाली से। वे खाते-खाते बतियाते रहते खुद से ही वही अल्ल-बल्ल। उसने पूछा था एक दिन, आप कहें तो मांस-मछली न पके इस घर में… उसकी आवाज में जरूर कहीं गुस्सा रहा होगा। वे झेंप से गए थे, शर्मिंदगी उनकी आवाज पर तारी थी… मैने ऐसा कब कहा? मैं तुम लोगों को नहीं रोकूँगा। रोकूँ भी क्यों… पर हाँ मुझे मत परोसा करो…। नसीमा प्लीज मेरी बातों को समझने की… उस दिन से गोश्त जब भी पका उनके लिए, सूखी सब्जियाँ पकी, सालन पके। उसमें यह दोहरी मिहनत हिकारत भरती। फिर उसने यह सब तभी पकाना शुरू किया जब हनीफ मियाँ घर पर नहीं हों। और महीने में तीन-चार दिन तो ऐसे हो ही जाते थे… उसे इतनी रस्साकस्सी करने की जरूरत भी नहीं पड़ती…। हाँ अंडे वे खाते थे अब भी। अंडे उन्हें पसंद थे और वह जानती थी इन्हें खाने के लिए कोई न कोई तर्क तलाश लिया होगा उन्होंने।

रात धीरे-धीरे पसरती जा रही थी और वसीम… उसने समझाया खुद को, दिल्ली की सड़कें इतनी खाली तो होती नहीं है, ऊपर से शाम का वक्त। कहीं डॉक्टर से भी दिखलाना न पड़ा हो… उसे इंतजार ही नहीं करना चाहिए, वह आएगा ही वक्त होने पर… वह इतनी बेसब्र क्यूँ हुई जा रही है… वह बिस्तर पर आ कर लेट गई थी… टी.वी. चलाया था और फिर ऑफ कर दिया था। जबकि सामने चलता धारावाहिक उसका पसंदीदा प्रोग्राम था और कहानी भी आज एक नया रुख लेनेवाली थी…। वह बिस्तर पर ही बैठी रही चुपचाप, पता नहीं कब तक कि घंटी बजी थी। उसने जैसे झपट कर दरवाजा खोल था… देर कर दी बहुत… हाँ हो गई… बुखार ज्यादा था उन्हें… डॉक्टर के यहाँ तो नहीं जाना पड़ा…? वह देख कर जा चुका था पर दवाइयाँ लानी थी। वह वसीम का चेहरा बहुत गौर से देख रही थी। पर वह तो कोरे कैनवस की तरह बेरंग था… चेहरे पर कोई भाव तक नहीं। अब कैसी है… बुखार कम तो था तब, अब पता नहीं। वैसे मैंने अपना मोबाइल नंबर उसे दे दिया है… उसे अजीब लगा, हालाँकि जैसा वह समझती है वह वसीम की ही हमउम्र होगी। पर वसीम का उसे तुम कहना, कुछ अजीब सा लगा… क्यों… वह खुद भी नहीं समझ पा रही थी। पर इस अजीब लगने को वह बुरा लगना भी नहीं कह पा रही थी। चलो खाना लगाती हूँ। वे दोनों खाने पर बैठ गए थे पर खाया भी उन्होंने बिल्कुल चुपचाप। वह इंतजार ही करती रही कि वसीम उसे कुछ बताएगा, उस लड़की के बाबत… उसके घर उससे मुलाकात के बाबत… वह वसीम जो कहीं से भी लौट कर एक-एक घटना उसे तसल्ली से बताता था, छोटी से छोटी बात भी… हनीफ कहते भी इसे जरा खुद से दूर करो अब… औरतों की तरह बतियाने लगा है। पर आज जो वसीम था वह कोई दूसरा ही था…। पर नहीं, थोड़ी देर बाद समझ में आया उसे, सामने बैठा शख्स वसीम था ही नहीं, जैसे हनीफ मियाँ ही थे अपने गुरु-गंभीर अंदाज में। और फिर हमेशा की तरह सवाल सब उसके चुप हो गए थे। जिद तो वह वसीम से करती है, सवाल भी पूछने का हक भी उसका उसी से है, इस हनीफ मियाँ की परछाई से नहीं…

खाना खत्म हो गया था, वे दोनों उठ कर अपने कमरे की तरफ चल दिए थे। पता नहीं क्यों उसे लगा बिल्कुल अकेली हो चली है वह… वसीम की इस छोटी से चुप्पी ने झकझोरा था उसे।

देर रात तक सोचती रही थी वह… अगर कुछ गलत या बुरा लगता उसे वहाँ तो उसे वसीम जरूर बताता। वसीम चुप था मतलब वैसी कोई बात ही नहीं थी बताने की। उसे तो निश्चिंत होना चाहिए पर वह बेकार ही परेशान हुई जा रही है। उसने तकिए को खींचा था। उसे लगा हनीफ की हथेलियाँ है उसके सिर के नीचे। दूसरा तकिया उसके समानांतर था ठीक उनकी जगह पर। उसने मुँह छुपा लिया था उसमें। मेरे सिवा और कोई तो नहीं है आपकी जिंदगी में… उसके स्वर में लाड़ था, अधिकार भी… मैं तुम्हारी जगह किसी और को नहीं दे सकता… कभी भी, किसी भी हाल में। तुम बेफिक्र रहा करो नसीमा। नसीमा के माथे पर उस चुंबन की मिठास जैसे फिर से चिपक आई। वह तकिए में समा गई थी फिर… वह हनीफ मियाँ में समा गई थी… वह उनकी पनाहों में थी और सुरक्षित-संरक्षित भी… वह बेकार डरती रहती है लोगों की बात सुन कर। वह कैसे भूल उठती है यह सब कुछ। वह तकिए से लगी-लगी निश्चिंत सो गई थी।

7

वसीम के लिए वह सुबह जैसे बिल्कुल नई-नई थी, आम सुबहों से बिल्कुल अलग। एक दम नई-नकोर, बिल्कुल धुली-धुली सी। हवा की खुनक में पिछली रात की यादें हों जैसे। उसका रोम-रोम वे वैसे ही तो सिहरा रही थी। उसका मन बहुत हल्का-हल्का था। बीत चुके न जाने कितने वर्षों के बाद एक बार फिर… वगरना तो वह एक बोझ सिर पर लादे रहता चौबीस घंटे। और वह बोझ अम्मी को न दिखे इसके लिए जबरन बोलता बकवास करता रहता उनके आगे।

उसे लगा जैसे अचानक बड़ा और जिम्मेदार हो उठा है वह सब के लिए…। अम्मी, अब्बू और उसके लिए भी…। उसके घर से अपने घर तक का सफर जैसे उसने हवा में उड़ते हुए पूरा किया। सुबह अभी-अभी हुई ही थी। ट्रैफिक और भीड़ नहीं थी सड़कों पर उतनी। वह बाइक को जैसे उड़ा ले जा रहा था। हालाँकि ऐसा करते हुए उसे खुद हैरत हो रही थी…। वह हमेशा एक जिम्मेदार चालक रहा है, जिम्मेदार बेटे और जिम्मेदार नागरिक की तरह। उसका मन हो रहा था वह उड़ कर अम्मी के पास पहुँच जाए और उन्हें सब बता दे… सब कुछ। हाँ दोस्त बहुत रहे हैं उसके पर अम्मी से बड़ा दोस्त नहीं रहा कोई उसका। वह सारी बातें अम्मी को न बता ले जब तक चैन कहाँ मिलता है उसे… अभी तक भी। अब्बू इसीलिए उसे अम्मी का बच्चा बताते हैं सबको। बताते रहें उसे परवाह नहीं कोई।

उसे अम्मी का उस दिन का चेहरा याद आया जिस दिन उन्होंने उसे नंदिता को देखने जाने को कहा था, अब्बू के कहने पर… उनका वह चेहरा जो लौटने पर न जाने कितने सवाल लिए उसके सामने खड़ा था पर जवाब कुछ नहीं था उसके पास। और अम्मी का न जाने कितनी बार का उतरा चेहरा… जबकि जानता था वह अम्मी में बर्दाश्त करने की हिम्मत बहुत ज्यादा है। भरोसे की माटी से गढ़ी गई हैं वह। फिर भी उनका मन कभी-कभी तो डोलता ही थी। और जब डोलता परछाइयों की तरह तकलीफ उनके चेहरे से आती-जाती गुजरती दिखती। वे अपने आप में उतनी नहीं होती तब। वह कुछ भी पूछ लेता वे हाँ-हूँ में जवाब दे देतीं कुछ भी समझे बगैर… और उसे बेतरह दुख होता। उससे भी ज्यादा तब जब वह खुद कुछ सुन के आता अब्बू के बारे में। वह अम्मी को इस दुख से बचाए रखना चाहता था इसीलिए सुरक्षा कवच बन कर तैनात रहना चाहता हर वक्त उनके साथ। पर यह असंभव जैसा था, उसकी पढ़ाई, घर के काम। रिश्तेदारों-दोस्तों का आना-जाना। उसकी कोशिशें कई बार नाकाम हो उठतीं और फिर परिणाम… उसे अच्छा लगा अम्मी कहीं जाती-आती नहीं थी ज्यादा। खुद को घर में समेटे रहती… बल्कि अब तो उसे लगने लगा था वह और ज्यादा खुद को घर में कैद किए जा रही थी, वह भी गैर इरादतन नहीं। वह सिर्फ देख-समझ ही पा रहा था सब कुछ…। कुछ भी कर पाना उसके लिए मुश्किल हुआ जा रहा था। ऐसे में उसे उस लड़की पर बेपनाह गुस्सा आता, क्या चाहती है वह आखिर? क्यों घुसपैठ कर रही है वह उनकी जिंदगी में इस तरह। क्या मिलेगा उसे ऐसा कर के? वह सोचता रहता पर किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाता…

उस दिन जब वह नंदिता के घर पहुँचा तो भरा हुआ था भीतर से। उसने हामी भरी थी तो किसी दयाभाव के तहत नहीं, बल्कि वह तो यह सोच कर गया था कि जा कर पूछेगा वह उससे कि यह सब कर के क्या हासिल होनेवाला है उसे? क्यों कर रही है वह ऐसा? …पर जब पहुँचा था वह, और बेल बजाने के बाद जिस लड़की ने दरवाजा खोला था, कुछ भी… कुछ नहीं कह पाया था वह उस लड़की से। वह बहुत कमजोर सी दिख रही थी, कई-कई दिनों के ज्वर के बाद अमूमन लोग जैसे दिखने लगते हैं। पर उसकी कमजोरी जैसे उसके नक्श को और ज्यादा उभार रही थी। बेहद खिंची-खिंची दो आँखें, सामान्य से खिंचे हुए होठ, बहुत तीखी नाक। सामान्य से ज्यादा लंबे, घने और काले बाल… उसने गौर किया था। उसने यह भी नोटिस किया कि उस लड़की में कुछ भी सामान्य या साधारण सा नहीं है। एक तेज था उसमें पर उसके साथ एक ऐसा दीन-हीन सा भाव भी जिसमें अपने वजूद के लिए कोई चेत न हो… उसे लगा यह सारे निष्कर्ष वह जबरन ही थोप रहा है उसके व्यक्तित्व पर। कैसी-कैसी बातें सोच लेता है वह। एक नामालूम सा तेज… जैसे अपने प्रति कोई चेत, कोई सजगता ही नहीं… भला दोनों कैसे हो सकते हैं एक ही साथ… यह उसकी कल्पना है और क्या। वह जानता है कि उसके अब्बू पर यह निर्भर है… इसीलिए इस तरह सोच रहा है वह…

…पर ऐसा सोच रहा है वह तो आखिर क्यों? निर्भर होने का कोई कारण तो उसे दिख नहीं रहा है… पढ़ी-लिखी लड़की है, जहीन और खूबसूरत भी। बातचीत करने का सलीका, तौर-तरीके, रहन-सहन सब उम्दा… फिर क्या वजह हो सकती है कि वह अब्बू पर निर्भर हो… सिवाय प्यार और चाहत के… वसीम को उस पल लगा और खूब-खूब लगा कि जुड़ने-निर्भर होने का कारण यही और बस एक यही तो हो सकता है… और इस पर किसी का क्या बस… यह तो लाचारगी हो सकती है। इनसान का अपने पर काबू न रह जाना; किसी के लिए प्यार महसूसना और ऐसे महसूसना कि उसके लिए कुछ भी कर गुजरना… किसी भी सीमा से परे जाकर। मुहावरे में कहें और अगर अम्मी के लफ्जों में ही कहें तो …अपना कलेजा निकाल कर रख देना। इसमें इस मासूम सी लड़की की क्या गलती… इसमें इसका क्या दोष…

वह भूल गया था वह नंदिता से क्या कहने आया था। वह पानी देने के लिए झुकी ही थी कि उसने उसे रोक कर पानी खुद ही निकाल लिया था, उसके लिए भी और अपने लिए भी। उसे पानी निकालने से रोकने के लिए उसने उसे कंधे से पकड़ कर रोका था और रोक कर जैसे खुद से लजा गया था वह। आज तक अम्मी के सिवा वह किसी स्त्री के इतना करीब नहीं हुआ। उसने लड़कियों से बात जरूर की थी लेकिन कोई लड़की उसकी उतनी नजदीकी दोस्त नहीं रही। को-एड में पढ़ने के बावजूद। बल्कि यूँ कहें कि कभी उसकी इच्छा ही नहीं हुई किसी के भी इस कदर नजदीक जाने की। उसके लिए कुछ या कुछ भी कर जाने की… अपना कलेजा निकाल कर रख देने की। वही चाहत उसके जिस्म को ऐंठ रही थी, मरोड़-मरोड़ कर बाहर हो जाना चाह रही थी। कैसे… कितना और क्या कर दे वह इस लड़की के लिए। वह भी इस तरह कि उसे कुछ भी अजीब महसूस न हो। उसे अभी यह सोच कर भी अजीब लग रहा था कि अब्बू उसके पास ऐसे ही आते होंगे और बैठते भी।

वह नजरें चुराता फिर रहा था कमरे से कि उसे अब्बू की मौजूदगी का कोई निशान न दीख जाए। और उसे राहत थी। अब्बू का कोई भी सामान उसे कहीं नहीं दिख रहा था कमरे में। वह जानता था वह सच्चाई से आँखें मोड़ रहा है… पर यह जानते हुए भी उसने राहत की एक साँस ली थी। उसने कहा था, डॉक्टर के यहाँ चलिए… डॉक्टर आ कर जा चुका है… दवाएँ लानी है और खाने के लिए कुछ ब्रेड वगैरह भी। मैं प्रेस्क्रिप्शन और पैसे देती हूँ। उसने धीमे से कहा था… सिर्फ प्रेस्क्रिप्शन, पता नहीं उसने यह सुना भी था या नहीं। वह कॉट से उठी थी दीवार में बने आलमारी तक जाने के लिए। उसके पैर डगमग हुए थे… शायद कमजोरी से… उसने इशारे से कहा जगह बताइए मैं खुद ले लूँगा… उसने दरवाजा खोला था और उस अप्रत्याशित से अचानक ही उसकी मुठभेड़ हो गई थी जिससे वह लगातार बचना चाह रहा था। सलीके से टँगे नंदिता के कपड़ों के बीच दो कुर्ते पाजामे भी थे। उसे लगा जैसे किसी बिच्छू ने डंक मार दिया हो उसे, पर जो उसके हाथों को छू गए थे वे शायद उसके अब्बू के कपड़े थे…

वह समझा रहा था खुद को कि ये कपड़े नंदिता के पिता के, भाई के या किसी और के भी हो सकते हैं… कोई तो आता होगा ही उसके पास… पर वह जानता था, ऐसा सोच कर वह खुद को झुठला रहा है। पर क्यों… वह खुद से पूछ रहा था। ऐसा क्या था जो वह नहीं जानता था। और जब वह पहले से जानता ही था तो फिर यह बेचैनी क्यों? उसने प्रेस्क्रिप्शन निकाल कर दरवाजा बंद कर दिया था। पैसे के लिए उसने तकिया हटा कर पर्स निकाला था… पर नहीं किताब थी वह। वही किताब जो अब्बू पढ़ते रहे थे पिछले दिनों। जिसके बारे में उससे चर्चा करते रहे थे और उसे भी पढ़ने को कहा था। पर इस बार वह चकित नहीं था। वह सँभाल रहा था खुद को। वह सोचना चाह रहा था सिर्फ अम्मी की खातिर… वह अम्मी को लेकर शॉक्ड हुआ। पर वह जानता था कि वह जो समझा रहा है खुद को वह एक झूठ है, एक दिलफरेब झूठ। …बस।

पर इस सब के बावजूद दवा और सामान ला देने के बाद भी वसीम रुका था वहाँ देर तक। उससे बोलता-बतियाता रहा था न जाने कितनी बातें। वह हैरत में था, वह उठ कर चला क्यों नहीं गया आखिर… और तो और वह उसके बाद भी कई रोज वहाँ आया अम्मी को बताए-बिना बताए भी। अब्बू का टूर ज्यादा लंबा खिंचने लगा था और नंदिता अभी ठीक नहीं हुई थी पूरी तरह से।

अम्मी ने जब दरवाजा खोला था उस दिन पहली बार समझ में नहीं आया था कि उनसे वह क्या कहे। हालाँकि उसने वहाँ आल्मारी में मर्दाने कपड़े देखे थे, उसके पास अब्बू की किताब भी थी। पर वह तो जानता ही था अब्बू वहाँ जाते हैं… और वह इससे आगे का कुछ भी तय नहीं कर पा रहा था। कि तय करना नहीं चाह रहा था वह। नंदिता उसे बिल्कुल अछूती सी लगी थी, पाक, सुंदर और मासूम जिसको ले कर कोई बेतुकी कल्पना की ही नहीं जा सकती थी। उससे तो बिल्कुल भी नहीं। अब्बू वहाँ जाते हैं यह कौन नहीं जानता। वैसे भी अब्बू का क्या… पहले जब वह घर के बगलवाले इंटर कॉलेज में पढ़ाते थे तब भी एक घंटे के अवकाश में भी जब घर आते कुर्ता-पाजामा पहन लेते थे। वह कहता भी इतनी मशक्कत किस लिए, थोड़ी देर वही कपड़े पहने रहते।

आखिरकार लौटना ही तो है आपको… वो हँस देते। मैं शर्ट-पैंट में खुद को सहज नहीं महसूस पाता। बाहर जाना और पढ़ाना तो मजबूरी है वसीम… पर घर में… मुझे खाते-पीते, उठते-बैठते यह अहसास सालता रहता है कि आजाद नहीं हूँ मैं, कैद में हूँ जैसे। जैसे उठ कर चल देना हो अभी तुरत कहीं… मैं घर में घर में होने के अहसास के साथ जीना चाहता हूँ… अब्बू इसी सहजता के लिए पहन लेते होंगे उसे पढ़ाते-समझाते वक्त कुर्ता-पाजामा ताकि आराम महसूस कर सकें। कभी बात-बात में कह दिया होगा उन्होंने और उसने रख लिया होगा खरीद कर…। वह घर में होने पर घर में होने के अहसासवाले खयाल को परे धकेलता रहा। इसी कश्मकश में वह अम्मी को कुछ भी नहीं कह पा रहा था। सब कुछ उसे ठीक-ठाक लगा था और जो थोड़े बहुत किंतु-परंतु थे वह उन्हें परे ही रखना चाहता था। उसने तय कर लिया था वह अपनी तरफ से कुछ भी नहीं कहेगा अम्मी से। अगर पूछेंगी भी तो उतना ही जो कि उसे लगा था कि जो उसका मन मानता है… पर अम्मी ने कुछ भी नहीं पूछा था उससे। बस उसके चेहरे में न जाने क्या-क्या ढूँढ़ती रही थी… एकटक… उसने राहत की साँस ली थी उस दिन।

उसके बाद भी कई रोज नंदिता के कमरे पर वह गया था, अक्सर दिन में ही। जाता और दवाएँ तथा जरूरत के सामान ला देता। कुछ देर संग बैठ-बतिया लेता। उसे अच्छा लगता… और उसे भी। एकाध बार उसने अम्मी को कहा भी था कि वह आज नंदिता को डॉक्टर से दिखलाने गया था या कि उसकी दवा ला देने। अम्मी अक्सर कुछ नहीं कहती थीं, बस एक दिन कहा था – अभी तक ठीक नहीं हुई वो…? यह एक साधारण सा सवाल था पर उसे लगा जैसे यह एक सवाल भर नहीं था एक निषेध था। मनाही जैसा कुछ। उनकी आवाज के पीछे जो कुछ छिपा था वह यह था कि बस भी करो अब, बहुत हुआ। वह अम्मी का मतलब समझ गया था… उसने खुद को भी कहा था – बस, बहुत हुआ। ठीक तो हो चुकी है वह लगभग … पर उसे याद आया उसने कहा था नंदिता से आज के लिए कि आज वह दिन में आएगा और वह जहाँ कहेगी उसे घुमा लाएगा। दर असल घर मे पड़े-पड़े वह बहुत बोर हो रही थी और उसने कहा था कल वह जरूर बाहर निकलेगी। थोड़ा घूम-फिर आएगी तो मन ठीक होगा उसका। यूँ पड़े-पड़े… बुखार पिछले दो दिनों से नहीं आ रहा था उसे। पर अभी भी वह बेइंतहा कमजोर थी… उसे डर लगा था… अकेले गई और … यह उसका डर था या कि उसके साथ होने को एक और बहाना ढूँढ़ रहा था। खुले आसमान के नीचे। दरोदीवार के साये से दूर। अब्बू के अहसासों की पहुँच से बाहर। क्या उसे सिर्फ अपनी नंदिता की तलाश थी… अपने हिस्से की नंदिता की जिससे किसी का साया इस कदर लिपटा हुआ न हो…

उसने खुद को समझाया बस आज भर। आज के लिए तो उसने खुद से हाँ की थी। नहीं जाना ठीक नहीं होगा। फिर आज के बाद कभी नहीं। परसों तक यूँ भी अब्बू आ जाएँगे। फिर अपने इस बोझ से छुटकारा पा सकेगा वह। उसने ‘बोझ’ शब्द पर मन ही मन जोर दिया था और उसके पक्ष में खुद को ही एक तर्क भी – और नहीं तो क्या, अब्बू के कारण ही तो वह इस जंजाल में फँसा… और फँसा तो इस कदर फँसा कि नंदिता के हर अच्छे-बुरे में वह अच्छाई ही ढूँढ़ने लगा है। उसका कुछ भी अब उसे बुरा नहीं लगता क्यों…। इस क्यों का न तो कोई जवाब ही उसके पास था और ना ही उसकी कोई वजह ही। इस क्यों की तरह ही एक बेमानी सा अल्फाज – बस यूँ ही। इस यूँ ही में वह बुरी तरह फँसा जा रहा था। भँवर की तरह गोल-गोल घूमता… पर जाना तो आखिरकार उसे था ही और वह गया भी…

जगह चुनने की बात उसने नंदिता पर छोड़ दी थी, आज का दिन उसका… फिर जाने कब… उसने उदासी से पूछा… अगले ही पल उसने अपनी इस उदासी से पूछा – दो दिन के इस पहचान को पीछे छोड़ देने की इच्छा या मजबूरी से यह उदासी क्यों…?

नंदिता मुख्य दरबार पर अभी पहुँची ही थी कि उसे याद आया – जानती हो यह दरवाजा लाहौरी गेट क्यों कहा जाता है? नंदिता ने ना ही में सिर हिलाया था… इसलिए कि इसका रुख लाहौर की तरफ है… इसके अलावे भी यहाँ दो और गेट हैं। दिल्ली दरवाजा और हाथी दरवाजा। पर आजकल अंदर जाने के लिए बस यही इस्तेमाल में लाया जता है। शाहजहाँ द्वारा लाल पत्थर से बनाया गया यह किला देश के सर्वश्रेष्ठ किलों में से एक है। यह उसने 17वीं शताब्दी में बनवाया था जब उसने अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली लाई थी। यह पूरे दो किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ है। इसका आकार अष्टकोणीय है, पर समान रूप से अष्टकोणीय भी नहीं…। किले के चारों तरफ जो खाई तुमने देखी न वह 75 फुट चौड़ी और 30 फुट गहरी है जिसे युद्ध के समय सुरक्षा के लिहाज से पानी से भर दिया जाता था…

वह सोचती रही, वसीम के साथ आज वह बाहर क्यों आई है… क्या इसलिए कि उसका साथ उसे अच्छा लगने लगा है। या सिर्फ इसलिए कि वह हनीफ सर का बेटा है… उस हनीफ सर का… वह माने न माने वसीम का साथ उसे अच्छा लगता है… पर एक सच्चाई यह भी कि वह इस सच से गुरेज करती है। उसे यह मानते तकलीफ होती है कि हनीफ सर के अलावे किसी और के आने से भी उसे खुशी हो सकती है… उसके व्यवहार में एक सच्चाई होती है, सहजता-सरलता जैसा कुछ। वे किसी भी विषय पर बातें कर सकते हैं घंटों… हनीफ सर की विद्वता के आगे दबी-झुकी नतमस्तक सी वह वसीम के साथ बराबर की होती है। वे दोनों साधारण से विषयों पर भी बातें कर पाते हैं।

नई लगी पिक्चर, खेल और तमाम ऊलजलूल विषयों पर भी… वो सारी बातें भी जो वह हनीफ सर के सामने करने से कतराती है, डरती है। या कि फिर वे बातें जो वह सिर्फ एमी के साथ खुल के कर सकती है। उसने गौर किया वसीम धीरे-धीरे उसकी जिंदगी में वह जगह घेर रहा है जो कभी एमी की थी। एमी थी उसकी जिंदगी में, कहीं गई नहीं थी पर वह उसके साथ-साथ अब औरों की भी हो चली थी, उसने यह हाल-फिलहाल ही जाना था। एमी का यूँ विस्तृत-विशाल हो जाना उसे अच्छा भी लगता है जैसे वह भी कहीं कुछ बड़ी हो गई हो। बड़प्पन के बोध से भर-भर उठती है वह यह सोच के पर उसके व्यक्तित्व के इस तरह विस्तार पा लेने से कुछ छोटी तो हो ही गई है वह। मन का एक कोना अब खाली सा हो गया है जो एमी के होने से भरा-भरा था। खालीपन हमें हमेशा डराता है। कोई भी जगह कभी खाली नहीं रहती कि उसे खाली नहीं रहने देते हम। और इसी खालीपन से डर कर उसने इतने कम समय में वसीम को अपनी जिंदगी में जगह लेने दिया था।

सोचती रही वह बार-बार कि इस बात पर क्यों जोर देना चाह रही है कि वसीम ने एमी की जगह ली है उसकी जिंदगी में। क्या वसीम के होने की आश्वस्ति के साथ-साथ कोई खतरा भी मँडराता रहता है उसके आस-पास जिसे वह तरजीह नहीं देना चाहती तर्क दे कर। यूँ बहला-फुसला कर धोखे में रखना चाहती है खुद को…। इससे पहले तो कोई उसकी जिंदगी में नहीं आया…। इतने-इतने लोग… स्कूल-कॉलेज सब जगह चुप्पा सी रही है वह, घरघुस्सू भी। गिने-चुने लोग ही रहे हैं उसकी जिंदगी में। पहले माँ-बाप के कठोर सुरक्षा-संरक्षण में, पुनः एमी की और अब खुद की, जो जगह थी उसकी जिंदगी में वह हनीफ सर के आने से पूर चुकी… वसीम आया तो इसलिए आया कि हनीफ सर का बेटा है वह और उसे हमेशा यह याद रखना चाहिए।

वह एक लंबी बहस में उलझ गई थी खुद से ही, इतनी कि परेशानी की लंबी-लंबी रेखाएँ खिंच रही होंगी उसके माथे पर, चेहरे पर। उसने देखा आस-पास खड़े लोग उसे गौर से देख रहे थे। उसने सोचा उसे इन सब चिंताओं-परेशानियों से निकलना पड़ेगा। वसीम आता ही होगा अभी-अभी टिकट ले कर। और यूँ भी तो वह घूमने निकली है, जी हल्का करने, लंबी बीमारी के अवसाद से उबरने। यह अलग बात है कि घूमने के लिए अब उसे किले, मकबरे, आर्ट गैलरियाँ और ऐतिहासिक जगहें ही समझ में आती हैं, हनीफ सर के उसकी जिंदगी में आने के बाद। पर इसमें बुरा ही क्या है… चीजों को, जिंदगी को एक नए नजरिए से देखना तो उन्होंने सिखाया ही है उसे।

वह सहज होना चाहती थी…। वह सहज होने लगी थी वसीम के आने तक, उत्साह और स्फूर्ति से भरी-पूरी। मुख्य द्वार जिस बंद सी गली मे खुला वह हमेशा उसे चौंधियाता है। वह ठगी सी खड़ी हो गई थी थम कर उस मीना बाजार के आगे… चमकदार रंगों और उनकी दीप्ति से अपनी ओर खींचती एक अलग ही दुनिया। वसीम को उसका यूँ बच्चों की तरह चकित होना, ठिठकना, मचलना भाया था। उसने पूछा था कुछ लेना है आपको… उसने कहा था, नहीं। बस देखना अच्छा लगता है… एमी को बहुत पसंद हैं ये कलात्मक चीजें, गहने, एंटिक पीसेज…। कुछ उसके लिए लेना है…। नहीं, कभी साथ हुई तब… ‘मीना बाजार’, यह शब्द ही चौंधियानेवाला होता है शायद… जानते हो मुगल काल में भी यह बाजार यहीं लगता था। तब यहाँ मीनाकारी की वस्तुएँ ज्यादा बिकती थीं, मीना बाजार नाम भी शायद इसीलिए पड़ा हो। और हाँ, तब यहाँ सिर्फ स्त्री विक्रेता ही हुआ करती थी, पुरुष नहीं… सोचो, तब की स्त्रियाँ भी आत्मनिर्भर होती थीं और हर क्षेत्र में…। वसीम ने बीच में ही कहा था, हाँ, सिर्फ आम महिलाएँ… यह बाजार ही शाही स्त्रियों के लिए था। कि बाहर जाने की जरूरत ही न पड़े उन्हें… कि किसी दूसरे मर्द की छाया भी न पड़े उन पर…। कि बाजार में भी कोई पुरुष दुकानदार न हो…

नंदिता चुप हो गई थी… उसे लगा जैसे हनीफ सर ही बोल रहे हों… पर हनीफ सर ने कभी नहीं कही थी यह बात उससे। कि उन्हीं से सुना-सुनाया तो दुहरा रही थी वह तब से। भूल चुकी थी कि वसीम भी हनीफ सर का ही बेटा है और फिर वह यह भी भूल गई थी कि वह कला का विद्वान भले ही न हो इतिहास का छात्र तो था ही।

उसने सोचा क्या हनीफ सर ने कभी नहीं सोचा होगा इस बिंदु पर… उन्होंने क्यों नहीं कही यह बात उससे? जैसे ज्ञान की हर बात पर हनीफ सर का कॉपीराइट हो… और उसका यह अधिकार कि वह उन्हीं से जाने। क्या वह भी किले में बंद उन रानी और राजकुमारियों की तरह थी जिन्हें राजा के किले में ही नजरबंद रहना पसंद था। उन्हीं की निगाह से खुद को और दुनिया को देखना था। हनीफ सर से प्रेम जैसे एक अभेद्य किला था और उसमें कैद हो गई थी वह।

फिर मन उचट गया था उसका। वसीम को भी लगा जैसे वह चंचल हिरणी गुम हो गई कहीं। अब एक थकी-हारी औरत चल रही थी उसके साथ, घिसटती-पिसटती और उसे नंदिता का यूँ बिला उम्र बुजुर्ग होना अच्छा नहीं लगा था। वह उसे बेउम्र बुजुर्ग नहीं होने देना चाहता था… वह बार-बार कोशिश करता रहा। नंदिता बोल ही नहीं रही थी कुछ अपनी तरफ से। उसकी कोशिश कभी-कभी रंग लाती कि वह लौट जाती क्षण भर में ही, और गुम हो जाती कहीं।

वे घूमते रहे थे फिर एक-एक कर… नौबतखाना, दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास, रंग महल, खास महल, मोती मस्जिद फिर संग्रहालय और युद्ध स्मारक भी। पर नंदिता इस बार बिल्कुल ही हतप्रभ नहीं हो पा रही थी। पिछली बार की तरह तो बिल्कुल ही नहीं। न रंग महल में सुनहरे फूलों से सजी छतों को देख कर जिसका बिंब तब नीचे बने तालाब में प्रतिबिंबित होता होगा न ही सम्राट के सिंहासन की अद्भुत पच्चीकारी से। वह मोती मस्जिद को देख कर सोचती रही इबादत के लिए भी औरतों के लिए अलग जगह… उस सृष्टि रचनेवाले के सामने भी भेद… उसी ने तो रचा है दोनों को एक दूसरे का पूरक बना कर। पर उसके इबादत में भी क्यों साथ-साथ खड़े नहीं हो सकते दोनों यही सोच-सोच कर संगमरमर से बना हुआ वह मस्जिद और उसका शाही सौंदर्य भी फीका हो चला था उसकी नजर में।

उसने सोचा वसीम भी यही सोच रहा होगा। वसीम ने जैसे पकड़ लिया था उसकी सोच का सिरा। उसने कहा – दरअसल इस्लाम में औरतों को मस्जिद में जाने की मनाही है, वे घर में ही नमाज अदा करती हैं। शायद उसका एक कारण पर्दा प्रथा हो। हालाँकि औरंगजेब एक कट्टर, धर्मभीरु और कठोर शासक के रूप में याद किया जाता है पर उसने यह एक नेक काम तो किया ही था। उसने अलग से ही सही शाही महिलाओं के लिए मस्जिद तो बनवा ही दिया, और सबसे खास बात, इसका रुख मक्का की तरफ है।

…उसे लगा बहुत थक गई है वह, मानो सदियों लंबी दूरी तय कर ली हो उसने। और उसके भीतर एक साथ ही न जाने कितना कुछ बन-टूट रहा हो। उसने सुना था कि कोशिकाएँ बनती टूटती रहती हैं हर पल…। पर क्या मनुष्य भी बनता-टूटता है उसके साथ। आखिर वह क्या था जो लगातार उसके भीतर टूट रहा था, बन रहा था। वह खुद भी इसे समझ नहीं पा रही थी।

उसे बहुत भूख महसूस हो रही थी, बहुत ज्यादा प्यास भी। क्या सिर्फ बीमारी की वजह से… नहीं, पिछले दिन उसकी जिंदगी में बहुत अलग किस्म के रहे हैं। पहले एमीलिया का लेख, फिर उसके बाद ‘आनंदवन’ जाना, मिली नामक उस बच्ची से मिलना, उसकी हालत देखना… जैसे जीवन कोई खेल खेल रहा था उसके साथ या कि जीवन का यह कोई नया चक्र था। वह बैठ सी गई थी वहीं थक कर जहाँ वह खड़ी थी। वसीम चौंक पड़ा था… वह दौड़ कर गया था दूसरी तरफ जहाँ रंगीन छतरियों के नीचे कुर्सियाँ थीं, टेबल थे। ठंडा पानी, बिस्कुट, नमकीन और चिप्स की दुकानें थीं। वह पानी का एक बोतल लेता आया था अपने साथ। उसने बोतल की ढक्कन खोल नंदिता की तरफ बढ़ाया था। अभी नंदिता ने कुछ घूँट पानी पिया ही था कि उसने सुना वसीम कुछ खाने-पीने के लिए कह रहा है। नंदिता ने मना कर दिया था… नहीं अब घर चलते हैं। बहुत थकान हो रही है मुझे। वसीम को लगा जिद करना सही नहीं रहेगा। अलबत्ता उसके उतरे चेहरे को देख कर उसे यह जरूर लगा कि शायद फिर बुखार चढ़ रहा है।

वसीम का डर सही निकला। नंदिता रास्ते में ही सिहरने लगी थी। हल्की कँपकँपाहट होते देख रहा था वह उसके पूरे बदन में। पर वह कर कुछ भी नहीं सकता था सिवाय गाड़ी की स्पीड कम कर देने के जिसे कम करते भी वह हिचक रहा था, जितनी जल्दी हो सके वह नंदिता को घर पहुँचा पाता…

वे घर पहुँच चुके थे। वसीम ने कंबल खोला था उसे ओढ़ाने के लिए, और ओढ़ा दिया था गर्दन तक। टेंप्रेचर लिया था 103.2 नंदिता बताती है इससे भी ज्यादा-ज्यादा बुखार हुआ है उसे इस बीमारी के दौरान। उसे इस तरह बेसुध देखकर सोचता रहा था वह कि किस तरह रही होगी वह इस हालत में। कैसे बीत होगा उतना सारा वक्त। नंदिता ने बताया था उसे बुखार अक्सर शाम के बाद ही बढ़ता है… पर आज तो दोपहर से ही। उसी की गलती है सब। उसने क्यों मानी नंदिता की बात। दो दिन बुखार नहीं हुए तो उसने क्यों सोच लिया कि अब ठीक हो चुकी है वह… थकान से ही हुई होगी उसकी यह हालत। उसने टेबल पर पड़े प्रेस्क्रिप्शन को उठा कर डाक्टर का नंबर देखा था और फोन लगाया था उन्हें। उधर से किसी महिला की आवाज आई थी… हलो, प्रशांत क्लीनिक… किससे बात करनी है…। सॉरी, डाक्टर तो बाहर गए हुए हैं… कोई इमरजेन्सी…? अगर जरूरत हो तो नर्सिंग होम में एडमिट करवा सकते हैं उन्हें। डॉक्टर कल दोपहर तक आ जाएँगे… उसने नंदिता से पूछा था इस बाबत। पर उसने नहीं में अपना कमजोर सिर हिलाया था। दवाइयों की तरफ इशार किया था, जैसे कह रही हो दे दो उन्हें, ठीक हो जाऊँगी।

वह किचेन से एक ग्लास पानी लेता आया था, थोड़े से बिस्किट भी, वहीं कहीं किसी डिब्बे से ढूँढ़-ढाँढ़ कर। उसने नंदिता को सहारा दे कर बैठाया था। वह तकिए के सहारे थोड़ी उठंग सी हुई थी। बिस्किट देखते ही उसने ना में गर्दन हिलाई थी लेकिन वसीम जबरन उसे छोटे-छोटे टुकड़े तोड़-तोड़ कर देता रहा… दवा खाली पेट नहीं लेते…

वह नंदिता के सिरहाने एक स्टूल पर बैठ गया था, उसकी बालों में उँगली फिराता हुआ, उसकी हथेलियाँ सहलाता हुआ। उसे याद है उसे या नसीम को जब भी बुखार हुआ है अम्मी उसके पास ऐसे ही बैठती है… वह पल भर को भी नहीं सोच रहा था कि वह किसी लड़की के पास बैठा है… इतने एकांत में और इतना करीब। उसे अब यह भी याद नहीं था कि उसने सुबह मन ही मन अम्मी से और खुद से क्या वादा किया था। उसे बस नंदिता की चिंता थी; उसके सूखे हुए होंठों, उसके बुझे हुए चेहरे और ज्वर से थरथराते कमजोर हुए उसके शरीर की भी…

नंदिता के मोबाइल की घंटी बजी थी तभी। उसने फोन अपनी ओर बढ़ाने का इशारा किया था। उसने स्क्रीन पर नजर फेरी थी और फोन को बजने दिया था। वसीम ने इशारे से ही पूछा था किसका है… नंदिता ने क्षीण से स्वर में कहा था – मम्मी का है, घर से। फिर उठाती क्यों नही… उठाओ फोन… नहीं वो मेरी हालत जानेंगी तो चिंता में पड़ जाएँगी। भागे-भागे आ पहुँचेंगे दोनों और वह ऐसा नहीं चाहती। तुम मत बताना, फिर कैसे जान लेंगी… माँ हैं, वह आवाज पढ़ लेंगी… मैं बात करूँ? नहीं… नंदिता के धीमे स्वर का विरोध भी बहुत तगड़ा था। …वह हँसा था इसी तरह बात किया तो वे कुछ नहीं समझ पाएँगी… उसने रूठने का अभिनय किया था, अपने पपड़ाए होंठों और बोझिल आँखों के साथ-साथ।

उसने फोन बंद कर दिया था… वसीम से फिर नहीं रहा गया था… इस तरह तो… वह झुँझलाई थी, वे नहीं करेंगी चिंता-विंता। और करती हैं तो करती रहें। मुझे अपने हर एक पल का हिसाब नहीं देना उन्हें… नहीं देनी कोई सफाई। फिर उसके चेहरे को देखते हुए कहा था। मैं ठीक हो जाऊँगी तो बात कर लूँगी उनसे, तुम परेशान मत हो…। फिर उसे याद आया हो कुछ अचानक, उसने कहा था… रात होती जा रही है, तुम घर जाओ अपने…। वह कुछ भी नहीं कह सका था… नंदिता की मम्मी का फोन आने के बाद उसे भी याद हो आई थी अपनी मम्मी की, सुबह उनसे किए वायदे की भी। पर सामने लेटी हुई लड़की की आँखों में ऐसा क्या था। उसे छोड़ कर चले जाने को उसके पाँव उठ ही नहीं रहे थे। उसने जैसे कोई फैसला लिया था अचानक… मैं तुम्हें इस तरह छोड़ कर नहीं जा रहा, वह भी ऐसी हालत में। अब्बू ने ही मुझे तुम्हारी देख-भाल के लिए कहा था। हाँ, अम्मी को एक फोन जरूर करना चाहूँगा… वह यह कह कर बहार निकल पड़ा था बिना नंदिता के प्रतिरोध को सुने… मैंने तो पिछली कई रातें ऐसे ही…।

नंदिता भले ही वसीम को जाने को कहती रही हो पर उसके रुक जाने से उसे एक इत्मीनान मिला था। उसने जबरन जो चेत ओढ़ रखा था अपने ऊपर उसे ढीला छोड़ दिया था। उसकी बोलने की हिम्मत बिल्कुल चुकी जा रही थी। उसने काँपते हाथों से लिखा था वसीम की नोटबुक में – आल्मारी में कुर्ता पाजामा है, पहन लेना आराम मिलेगा। किचेन में तुम्हारा ही लाया ब्रेड-बटर है, खा जरूर लेना। आल्मारी के निचले खाने में थोड़ा-बहुत कुछ बिछावन जैसा है, निकाल कर सो सकते हो। स्टूल पर नींद नहीं आएगी। मैं अब आराम करना चाहती हूँ, पूरी तरह।

वसीम जब फोन कर के लौटा उसका मन बहुत उदास था। उसे बुरा लग रहा था मम्मी से झूठ बोल कर। उसे दुख हो रहा था कि अब्बू की गैरमौजूदगी में वह अम्मी और नसीम को यूँ अकेले छोड़ कर बाहर रह रहा है, वह भी रात में। अम्मी अब तक उसके इंतजार में बैठी थीं। वह उन्हें खा लेने को कह कर आ रहा है… उसने उनसे कहा था कि एक दोस्त की तबीयत खराब हो गई है अचानक, वह अकेला है और उसे रुकना पड़ रहा है। वह झूठ तो बोल रहा था पर कोशिश कर रहा था कि कम से कम बोले। बिना यह तय किए कि झूठ छोटा हो या कि बड़ा, कम या कि ज्यादा होता तो झूठ ही है…। या यूँ कि उसे सफाई से झूठ बोलना अभी आता ही नहीं है। अम्मी चुप हो गई थीं देर तक। क्या अम्मी ने सच्चाई समझ ली थी। नहीं, उन्हें उसके कहे पर भरोसा है।

लौट कर उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर वह करे तो क्या करे। नंदिता सोई हुई थी बेसुध और वह बुत की तरह खड़ा था। क्या उसे घर लौट जाना चाहिए था… क्या उसने रुक कर गलती कर दी कोई? वह अचानक खुद को बहुत उदास महसूस करने लगा था, बहुत बुझा-बुझा और टूटा हुआ भी। कि तभी सामने खुला पड़ा अपना नोट बुक दिख गया उसे। बस इतने से जुड़ाव से इतनी सी चिंता…? वह किचेन में गया था और ब्रेड निकाल कर खा लिया था ऐसे ही… अब सेंकने बटर लगाने की जहमत कौन उठाए। अम्मी ने तो उसकी आदतें यूँ बिगाड़ रखी है कि अपने लिए तो उससे कुछ होता ही नहीं है… फिर थोड़ी सी बिस्किट और नमकीन… और फिर कमरे में आ गया था वह। आल्मारी खोल कर उसने नीचेवाले रैक की तलाशी ली थी। बिछावन के नाम पर वहाँ जो था वह इस ठंड के मौसम में उसे नाकाफी लगा। एक पतली सी दरी, लगभग उतना ही पतला एक बिस्तर और चादर। वह खड़ा-खड़ा सोचता रहा कि क्या करे। उसने सोने के इरादे को दरकिनार किया। वह तो नंदिता की देखभाल की खातिर रुका है तो फिर सोना क्या? रात में उसका बुखार यदि और बढ़ा तो? रात में उसे किसी चीज की जरूरत पड़ी तो? वह स्टूल पर जा बैठा था। तभी उसे लगा, क्यों न वह कपड़े बदल ले, कम से कम बैठने में अराम तो मिलेगा। वह आल्मारी तक गया था। टँगे हुए कुर्ते-पाजामे को देखता रहा था देर तक, अनिर्णय की स्थिति में। फिर तात्कालिकता के दवाब में उसे खींच लिया था उसने झटके में कि ज्यादा सोचा-बिचारा तो…

दीवार से लगा हुआ स्टूल पर वह सो ही चुका था शायद कि उसे नंदिता की कमजोर सी आवाज सुनाई पड़ी। उस फुसफुसाहट को सुनने के लिए उसने अपना कान उसके चेहरे की तरफ किया और धीमे से पूछा था – पानी…? उसने सिर हिलाया था – नहीं… उसने इशारा किया था – कमरे की बत्ती की तरफ। रोशनी बुझा कर वह फिर अपनी जगह पर आ बैठा था… कि नंदिता के टटोलते हाथ उसकी हथेलियों तक आ गए थे। उस हाथों का ताप, उसकी जलन जैसे बेचैन कर गए उसे। अब तक इतना बुखार है… तभी तो बेसुध पड़ी है इस तरह। उसने उसकी हथेली को अपनी दोनों हथेलियों के बीच रखा था और हौले-हौले सहलाया था उसे। उन हथेलियों की तड़फड़ाहट वैसे ही थमी थी जैसे पानी से निकाल दी गई मछलियों को वापस पानी मिल गया हो। उसे जैसे सुकून मिला था, चलो नंदिता को उसने कुछ तो आराम दिया है।

पर सुकून का यह टुकड़ा बहुत छोटा था। वह खुद बेचैन हो उठा था आखिर क्या करे वह कि नंदिता की तकलीफ दूर हो जाए… उसने उसके तपते माथे पर अपनी उँगलियाँ रख दी और सहलाता रहा धीरे-धीरे। उसकी उँगलियाँ जैसे तप गई थी। झटके से खीचा था उसने उन्हें और सहसा किसी आवेग के तहत अपने होंठ रख दिए थे उसके माथे पर। होंठों में शायद पानी था बहुत-बहुत। वे तपे नहीं थे, पुरसुकून से हल्के गुनगुने हुए थे बस। उसे अच्छा लगा। नंदिता के बुदबुदाते, काँपते से होंठों ने भी शायद यही कहा था… और फिर वह अपने होंठों को फिराता रहा था उसके पूरे माथे पर, चेहरे पर। न जाने कितनी देर तक, न जाने कितनी-कितनी बार… जैसे लम्हों में सदियाँ सिमट आई थी कि नंदिता ने ही धीरे से खींच लिया था उसे होंठों तक। जब नंदिता के होंठ उसके होंठों से मिले तभी उसे यह खयाल आया कि कैसे उसे इन सूखे, पपड़ी जमे होंठों की स्मृति नहीं हुई… कि उसे कैसे यह समझ में नहीं आया कि वह इस सूखे प्रदेश को फिर से हरा कर दे, जीवन से भरा हुआ… नंदिता के हाथ उसे नीचे और नीचे खींचते रहे थे…

वसीम को प्रकृति पसंद थी, मोहक, दीप्त और हरी-भरी… उसे खूबसूरती भाती थी हर शय में और वह दिल से झुक पड़ा था उस अद्भुत अरूप के कदमों में… इस तरह उसने उस अदृश्य का शुक्रिया भी किया था और उसकी इबादत भी। बुतपरस्ती उसे पसंद थी। मंदिर, मंदिर की घंटियाँ, कलश, कंगूरे सब उसे बचपन से ही खींचते थे अपनी तरफ। एक बार तो वह अपने एक दोस्त के साथ पहुँच भी गया था वहाँ तक। पर अम्मी की चेतावनी उसे याद आई… जो मना है, बस मना है… पकड़े गए तो…? और वह लौट आया था मन मार कर। पर आज लौटना नहीं था उसे… आज वह लौटना नहीं चाहता था, किसी भी डर से, किसी के आतंक से, वह भी तब जब मंदिर के कलश… कंगूरे अपने आकर्षण और भव्यता के साथ उसकी उँगलियों को खुद खींच रहे थे अपनी तरफ पूरे वेग और आवेग से…

पर हर ऊँचाई चढ़ लेने के बाद उतरना भी होता है। मंजिल तक पहुँच जाने के सुख को पाने के बाद लौटना भी… यही शाश्वत नियम है… चाहना न चाहना अब वश में कहाँ थे… वह फिसल रहा था जैसे अपने-आप। नीचे एक नदी थी और आवेग से भरी उसकी गुनगुनी धार लगातार बुला रही थी उसे और उस तक जाना उसमें डूब जाना ही जैसे उसकी नियति थी। वह रोके भी तो कैसे रोके खुद को… वह तैरना चाहता था पर डूब रहा था… ऊपर आने की हर कोशिश में और-और गहरे जाता… जैसे तैरने की उसकी सारी कोशिशें निष्फल और बेकार… उसने छोड़ दिया था खुद को डूबने की खातिर… कि डूबने का आनंद तभी समझ पाया था वह। डूबने के इस आनंद को महसूस ही रहा था वह, कि डूबना ही चाहता था वह इस डूबने के आनंद में कि अचानक उसे लगा वह तैरने लगा है… कि उसे तैरना आ गया है… कि हल्का हो गया है वह एकदम से…। और तैरने की कोशिश में डूबते और डूबने की कोशिश में तैरते वह खुश था कि दुखी वह खुद नहीं समझ पा रहा था। वह जैसे महसूस ही नहीं पा रहा था कुछ कि अचानक उसने महसूस किया जैसे नंदिता का बदन तापहीन हो गया है, बिल्कुल सामान्य और जाड़े के दिनों में जितना ठंडा हो सकता है उतना ही ठंडा। उसके मन में जैसे खुशी का ज्वार फूट पड़ा था।

नंदी ने सामने के स्टूल पर अपनी बेसुधी में भी वसीम को देखा था। पर उसकी नजरों में तो वसीम कहीं था ही नहीं… एक रुकी हुई रात थी जो वहीं आ कर रुक जाती थी हमेशा। उसके आगे बढ़ती ही नहीं थी कभी और वह उस लंबी-अंतहीन रात में छटपटाती रहती थी हमेशा। उसने सोच लिया था आज रात को बीतना होगा; वह अँधेरे का सफर तय कर लेना चाहती थी… कि आज रात को भी चलना था उसके संग-संग।

उसने देखा था अपनी क्षीण नजरों से… हनीफ सर हमेशा की तरह बैठे हैं उसी स्टूल पर। अब विदा लेना होगा उन्हें। कि यही हैं अंतिम हदें। कि इसके आगे हनीफ सर की निजी जिंदगी है… उनका परिवार। उसने देखा था उस अदृश्य लक्षमण रेखा को जो वे जाते-जाते खींच जाते थे उसके चारों तरफ। उन्होंने हमेशा की तरह उसके बालों में उँगलियाँ फिराई थी। बड़ी मासूम सी उँगलियाँ जिसमें समर्पण भी था और प्यार भी। जिसमें अपनापन भी था और खुद को बिसरा देने की इच्छा भी। वे पूरे स्नेह, पूरे आदर और पूरे अपनत्व से चूमेंगे उसका माथा और चल देंगे जैसे कि पूर्णविराम लगा दिया हो उसके आगे की हर इच्छा पर, उसके प्रश्नों पर, उसके मनुहारों पर। वह अवाक सी देखती रह जाएगी उन्हें जाते हुए, उसका शरीर जलता रहेगा उस मीठे चुंबन की आग में, वह तड़पती रहेगी पूरी रात, ऐंठता रहेगा उसका सारा जिस्म पर हनीफ सर को उसकी परवाह क्या। उनकी जिम्मेदारी तो उनकी पत्नी है, उनका परिवार है। शिकायत नहीं कर सकती है वह; शिकायत करने का हक नहीं है उसे। हनीफ सर इसी शर्त पर तो आए थे उसकी जिंदगी में। उसी ने मानी थी उनकी हर बात। वह तो सिर्फ उनका सामीप्य चाहती थी, पल दो पल का सुखद साथ… पर ये चाहनाएँ क्यों…? आजकल यूँ भी उसकी सोच और इच्छाओं के बीच कोई तालमेल नहीं रह गया। वह जितना ज्यादा सोचती उसका जिस्म एक अतृप्त चाहना में उतना ही ऐंठता रहता सारी रात…

आज उसने वह सब कुछ चाहा था जो उसके हिस्से का नहीं था और पूछा था खुद से पहली बार आखिर वह उसके हिस्से का क्यों नहीं है? उसे उसके हिस्से का भी होना होगा… इसलिए जब हनीफ सर ने विदा चिह्न अंकित किया था हमेशा की तरह उसके माथे पर, वह तड़प उठी थी। वह उसे ऐसे कैसे छोड़ कर जा सकते हैं। उसने उनका सिर थाम लिया था अपने दोनों हाथों में और खींच कर ले आई थी उन्हें सीमा-रेखा से बाहर जहाँ उन्होंने कभी दस्तक नहीं दी थी। वे दस्तक दें न दें उसकी इच्छा थी कि वह खींच ले उन्हें कपाट के भीतर। उसने उनके तपते होंठों को अपने होंठों तक खींच लिया था। उनके कुर्ते के बाँहों को मजबूती से थामे रखा था हर पल कि छूटते ही कहीं छिटक न लें वे उसकी पहुँच से। उस हर क्षण में भी कभी उसकी पकड़ ढीली नहीं हुई थी, एक पल को भी नहीं। नंदिता को भले ही चेत नहीं था पर उसके शरीर को था। वह अपनी वर्षों लंबी थकन, अपनी जलन सब बिसरा देना चाहता था। वह हनीफ सर को अपनी हर तकलीफ हर पीड़ा तक खींच-खींच ले जाती रही। ताप मिटता रहा, तन हुलसता रहा, हरियाता रहा। उसने जैसे वर्षों की थकान, जलन सब पीछे छोड़ दी हो। शरीर बिल्कुल हल्का हो आया था उसका… अँधेरा खत्म हो चला था उसकी जिंदगी से हमेशा के लिए। उसे लगा रात का सफर तय हो चुका था…

8

अम्मा ने जब नंदिता को देखा तो जैसे देखती ही रह गई थीं। एमीलिया, वह भी उनकी पहलेवाली एमीलिया, जाते-जाते कैसे लौट आई थी। उन्हें भरोसा था, वह रास्ता लौटनेवाला नहीं है। और पीछे से आवाज देना उनकी फितरत नहीं रही है। पर जो सामने खड़ा था वो कोई बुत नहीं था, न ही कोई वहम…।

वह एमीलिया नही, नंदिता थी जिसे दूर से देखकर अम्मा को यह भ्रम हुआ था… जब वह सामने आई तो भरम मिटा था उनका… वह एमीलिया जैसी ही कोई थी… वह क्यों एमीलिया जैसी थी यह तो वे बाद में जान पाई थीं। पर कुछ उस दिन भी जाना था… उसके हाथों में कई कागजात थे, आनंदवन से जुड़े हुए… और एमीलिया की सगाई का न्योता भी। तभी वे जान पाई थीं कि नंदिता एमीलिया की बचपन की सहेली है… वे दोनों दिल्ली में भी बरसों साथ रही हैं शायद इसी खातिर…

उन्होंने पूछा था उससे आने में कोई परेशानी तो नहीं हुई… नंदिता ने कहा था वह पहले भी आ चुकी है यहाँ एमीलिया के साथ… वे चौंक सी गई थी… कब आई थी यह… उन्हें याद क्यों नहीं आ रहा…वे ढूँढ़ती इस सवाल का जवाब कि नंदी ने फिर चौंकाया था, मिली कहाँ है, कैसी तबीयत है उसकी… ठीक है अब… अम्मा ने खुद से उलझते हुए ही जवाब दिया। नंदिता समझ गई थी यह परेशानी। उसने हँस कर कहा था… जब मैं आई थी आप नहीं थी यहाँ, किसी काम से बाहर गई थीं…

अम्मा सामान्य हो आई थीं। नंदी ने उसी दिन पूछा था उनसे… क्या मैं आ सकती हूँ यहाँ, जब जी चाहे… अम्मा को लगा एमीलिया ही खड़ी है उनके आगे…। और उन्होंने उसे भी वही जवाब दिया था जो कभी एमीलिया को… फिर पूछा था, क्या कर रही हो बेटी… शोध कर रही हूँ… विषय… स्वतंत्रता संग्राम में महिलाएँ। कहाँ रहती हो… फिलहाल मुनिरका में… लेकिन दूसरी जगह तलाशनी है बहुत ही जल्दी… चाहो तो यहाँ रह सकती हो, शहर से दूर है पर… न जाने क्यों अम्मा अचानक ही कह उठी थीं। नंदिता खुश हो गई थी, जैसे उसके मन की…

उसने सबसे पहले प्रवीण को फोन किया था… मुझे रहने की नई जगह मिल गई है… शायद जीने की एक नई राह भी… मैं आनंदवन में अम्मा के साथ चली आई हूँ… बच्चों के साथ शायद जल्दी सहज हो जाऊँ…

… प्रवीण को भी सुनकर थोड़ी राहत मिली थी। वर्ना कल तो उसके फोन से घबड़ा ही उठा था वह… बच्ची की तरह सिसक रही थी वह… वसीम एमी से शादी कर रहा है और हनीफ सर उसे यूँ देखते हैं जैसे कभी जाना ही नहीं हो उसे… प्रवीण बेतरीके डर गया था उस क्षण… कैसे सँभालेगी यह खुद को… वे लोग भी तो नहीं हैं उसके पास कि… उसने उसी से सुनी एक कविता सुनाई थी – ‘उड़ चल हारिल लिए हाथ में, एक अकेला ओछा तिनका। ऊषा जाग उठी प्राची में, कैसी बात भरोसा किनका?’

दूसरा फोन प्रवीण के पास अर्से बाद आया था… मैंने मिली को गोद ले लिया है… बाकायदा… आप खुश हो न…? उसने कहा था… बहुत। नंदिता की आवाज की चहक उसे अच्छी लगी थी… उसने कहा था सुनाऊँ कुछ… आजकल मैं भी तुम्हारी तरह कविताएँ पढ़ रहा हूँ… खासकर अज्ञेय की… ‘यह दीप अकेला स्नेह भरा, है गर्व रहित मदमाता पर, इसको भी पंक्ति को दे दो।’ नंदिता ने हँस कर कहा था… हाँ, मेरा मोक्ष भी यही है। मेरी मुक्ति का रास्ता… मेरे द्वारा खोजी हुई मेरी अपनी राह। मेरा अस्तेय-अपरिग्रह।

फिर तो अम्मा की सारी जिम्मेदारियाँ। स्कूल का सारा काम… बच्चों की देखभाल… नंदी ने कभी एमीलिया की कमी महसूस ही नहीं होने दी थी उन्हें… और उनकी चिंता जैसे जाती रही थी एक-एक कर… वे एमी को भूलने लगी थीं। याद करती भी तो वैसे ही जैसे कभी शिखा को याद करती हैं। एमीलिया भी आती तो… पर नंदी को इस तरह आनंदवन से जुड़ा देखकर लौट जाती।

वह आती थी अपने वादे का खयाल करके… अम्मा, नंदी और बच्चों का खयाल करके… कि तुम मुझे और आनंदवन से एकदम से नाता नहीं तोड़ लोगी न… कहो, कि कुछ समय निकलोगी तुम हमारे खातिर भी… भरी आँखों और मुस्कुराती होंठोंवाली एमीलिया ने भी कहा था… कैसी बात करती हैं अम्मा, यह भी कोई कहने-सुनने की बात है… उन्हें लगा था एमीलिया की आँखें शिखा की आँखें नहीं है, उनमें एक सच्चाई है। हमेशा की तरह… एमीलिया खुश होती, नंदी रम गई है इस जिंदगी में, एमीलिया खुश होती अम्मा को एक सहारा मिल गया था… एमीलिया खुश होती बच्चों के लिए… उसकी जगह खाली नहीं रह गई थी। एमीलिया खुश थी, नंदी ने वह कर दिखाया था जो कभी एमी का सपना था और वह पूरा नहीं कर पाई। रिसर्च पूरा कर लेने और लेक्चरर की नौकरी कर लेने के बाद भी नंदी ने अम्मा और आनंदवन को नहीं छोड़ा था। बल्कि उससे आगे बढ़ के मिली को गोद लेकर उसे नई जिंदगी दी थी। एक नई मिसाल कायम की थी उसने, अपनी जिंदगी आनंदवन और बच्चों को सौंपकर… किसी को गोद लेकर… इन सबकी खातिर शादी न करके। उसे रश्क होता नंदिता से… यह सब तो सारी उम्र वह चाहती रही थी फिर नंदी…

वर्ना जयपुर से लौटकर आई नंदी को देख उसका मन कसक उठा था… उसकी नंदी कहाँ गुम हो गई थी आखिर। एक-एक कुर्ता-जींस कई-कई दिनों तक पहने रहती। राजस्थान से खरीद कर लाए सारे शोख-चटक दुपट्टे और कपड़े उसे दे गई थी वह… बस खोई रहती अपने में ही कहीं… और एक अपराधबोध से भर जाती वह… उसी ने तो नहीं छीन लिया उससे उसका सब कुछ… नंदी ठहरकर सोचती तो शायद लौट आती। वसीम उसे हाथोंहाथ थाम लेता, जानती थी वह। फिर भी… क्यों किया उसने ऐसा। क्या नंदी से प्रतिशोध ले रही थी वह… उसे अकेले छोड़ कर जाने का प्रतिशोध… हनीफ सर की खातिर… क्या दोस्ती की आड़ में किसी मौके की ही तलाश थी उसे… और वह मौका खुद नंदी ने ही दे दिया था उसे…

9

एमीलिया की मोबाइल की घंटी उस दिन जब जोर-जोर से चिल्ला रही थी, वह सोई हुई थी गहरी नींद में। यूँ भी उसे देर तक सोने की आदत थी। नंदिता थी तो उसकी सुबह कभी नौ-साढ़े नौ बजे से पहले होती ही नहीं थी। वह भी उसके चीखने-चिल्लाने और बार-बार हल्ला मचाने के बाद… पर नंदी के जाने के बाद उसे मजबूरन इस आदत को बदलना पड़ा था… कभी दूधवाले की घंटी से, कभी अखबारवाले, ब्रेडवाले के…

वह सोचती है आदतें तो अब तक बदल जानी चाहिए थी। नंदी को गए हुए कितने बरस तो बीत चुके थे। पर नहीं, कुछ भी नहीं बदला था उसकी घरेलू जिंदगी में। वह सोई होती और दूधवाला आता तो कहती अधनींदी सी ही… जा ले ले न नंदी। रोज तो लेती है तू, फिर आज किस बात का नखरा…। फिर कच्ची नींद जैसे बिखर जाती। नंदी… नंदी कहाँ है अब यहाँ। वह तो चली गई कब की उसे छोड़कर… उसने एक पल को भी नहीं सोचा कि वह अकेली कैसे रहेगी। उसे नहीं याद आया वह वादा भी जो अपना घर और शहर छोड़ते वक्त दोनों ने एक-दूसरे से किया था… कि कैसे भी हालात हों, वे एक दूसरे का साथ कभी नहीं छोड़ेंगी…। कि कैसा भी दौर आए उनकी दोस्ती, उनके संबंधों में कभी भी कोई बदलाव नहीं आएगा… पर कोई भी वादा नहीं टिका था उस पल… वह हतप्रभ सी देखती ही रह गई थी तब…

लगातार बजती फोन की घंटी ने उसे परेशान कर दिया था। ऐसे भी कौन सा सो रही है वह। उठाकर खबर ले ही ले सामनेवाले की… यह कौन सा तरीका हुआ आखिर… कोई फोन नहीं उठा रहा है तो कोई तो बात होगी। थोड़ा सा सब्र तो किया ही जा सकता है… वह उठी थी झटके से कि रिंग आना बंद हो गया था। वह सेल उठा कर नंबर देखती ही कि डोरबेल चीखने लगा था और मजबूरन उसे दरवाजे की तरफ पलटना पड़ा था… हाँ, चीखना ही कहेंगे… पता नहीं नंदी कहाँ से ढूँढ़ कर लाई थी यह डोरवेल। वह कहती, कितनी यूनिक सी आवाज है और उसी आवाज की तासीर उसमें घबड़ाहट और बेचैनी भर देती। एक छोटे से बच्चे के जोर-जोर से रोने की आवाज; रोते-रोते चीखने लगा हो जैसे। वह कहती हर बार – तुझे यही मिला था… और भी तो… वह हँस देती… तभी तो उठेगी हड़बड़ाकर। वर्ना सोई रहेगी भीमपटास सी… वह सोचती है अब तो वह भी अभ्यस्त हो चली है इस कानफाड़ू रुदन की… पर यदि गहरी नींद में हो तो अब भी कभी-कभी परेशान हो उठती है।

वह चाहती तो नंदी के जाने के बाद इसे बदल सकती थी। पर चाह कर भी नहीं बदल पाई इसे…

कितनी देर लगा देती हैं आप दरवाजा खोलने में। नंदी बेबी थीं तो… कितना देर लगा दिया… तुम घंटी पर से हाथ हटाती ही नहीं हो… कोई बाथरूम में हो सकता है… कुछ भी करता हो सकता है… तुम हो कि समझती ही नहीं… काहे का बाथरूम और कैसा नहाना-धुलना… मुझे पता है आप सो रही होंगी अब तक… इसीलिए तो बजाती हूँ बेल जोर-जोर से इतना, नंदी बेबी…

यह नंदी बेबी-नंदी बेबी क्या लगा रखा है तुमने। वह होती थी तब न… वह चली गई यहाँ से कब की। और उसे गए जमाना हो चुका है। भूल क्यों नहीं जाती तुम उसे… वह शायद चीखी थी जोर से। नन्हू ताई घबड़ा गई थी उसके इस तरह चीखने से… हतप्रभ सी खड़ी रही थी देर तक। फिर आँसू बह निकले थे उनके… फिर उन्होंने पोंछा था इसे और चादर झाड़ने लगी थी… दूसरे बिछावन का चादर झाड़ते-झाड़ते वह बड़बड़ाई थी और बड़बड़ाने की तरह नहीं बल्कि कुछ जोर से। मैं नहीं भूलती… अरे खुद तो भूलो पहले… यह चादर क्यों बदलवाती हो अक्सर… यह बिछावन क्यों लगे रहने दिया है अब तक… रोज टेबुल पर झाड़न मारो… क्यों… मुझसे कहती है भूल क्यों नहीं जाती… नहीं भूलती मैं, तुम तो भूलो पहले… पता नहीं किस आस में… एमी की सुबह उदास हो चुकी थी। वह नन्हू ताई को कुछ कह नहीं सकती थी। और कहे भी तो क्या। अब वह इसी तरह बड़बड़ाती रहेगी पूरे दिन।

वे दोनों जब नई-नई आई थी नन्हू ताई तब से काम कर रही है उनके यहाँ। चिड़चिड़ी तो हमेशा से रही है। किसी बात पर चिढ़ गई तो चिढ़ गई… नंदी सँभाल लेती थी इन्हें, मना ही लेती थी किसी न किसी तरह। उससे ये सब नखरे अमूमन उठाए नहीं जाते। पर जब से नंदी चली गई है उसकी भूमिका भी तो उसे ही करनी होती है… उसने पीछे से आकर उसे कंधे से पकड़ लिया था और फिर बाद में उसके कंधों पर अपना सिर डाल दिया था हौले से… उसे लगा उसका संताप कुछ कमा है। उसे माँ की याद हो आई थी। वह माँ के कंधे पर भी वैसे ही सिर डाल देती थी, जब भी नाराज होती थी वह। और तब वह मान भी जाती थी… हाँ, बीमारी के दिनों में झिड़कने लगी थीं वे उसे बेतरह। दुत्कार कर हटा देतीं… उसकी आँखों में सचमुच के आँसू आ गए थे… नन्हू ताई मुड़ी थी उसकी तरफ… अब रो क्यों रही हो… रोना नहीं बिल्कुल। मैं तो कहती हूँ, ये बिछावन, ये टेबुल ये कुर्सी सब निकाल फेंको कमरे से। कुछ जगह बन जाएगी, कमरा खुला-खुला लगेगा बिल्कुल। और वह नंदिता के टेबुल को उठाकर बाहर करने ही वाली थी कि वह फिर से चीखी थी शायद… तुम अपना काम क्यों नहीं करती, जाओ जा कर नाश्ता बनाओ… वह चली गई थी रूठ कर या यूँ ही, उसे नहीं पता। वह जानना चाहती भी नहीं थी… यह सब उसके बस का नहीं बिल्कुल। सँवारने की कोशिश में चीजें और-और बिगड़ जाती हैं उससे। वह नंदिता नहीं हो सकती… वह नंदिता होना चाहती भी नहीं… उसने चिढ़ कर कहा था खुद से और पैर पटकती हुई बाथरूम की तरफ बढ़ चली थी। वह पहुँची थी अभी बाथरूम तक कि मोबाइल की घंटी फिर टनटनाई थी। उसने मैसेज पढ़ा था – मैं मिलना चाहती हूँ तुमसे। अभी, इसी वक्त… बोलो कब और कहाँ… फोन क्यों नहीं उठा रही…? एमीलिया झुँझला उठी थी खुद पर… तो फोन नंदी कर रही थी और उसने उठाने की जहमत नहीं की।

और उठाना तो दूर नन्हू ताई की बेमतलब की बातों मे उलझ कर फोन की बात तक भूल गई वह… उसने तुरंत फोन किया… क्या हुआ नंदी… बस तुमसे मिलना है… उसे आवाज उदास सी लगी थी, भर्राई भी… कोइ खास बात… तू ठीक तो है न… ठीक हूँ… फिर रुक कर… शायद नहीं भी… बस इसीलिए तुझसे मिलना है… मैं तो खुद आज आकर तुझसे मिलती। अभी रात को ही लौट कर आई हूँ… थकी थी इसलिए फोन का पता नहीं चला… वह एक छोटा सा झूठ बोल गई थी। तेरी तबीयत अब कैसी है… ठीक हूँ… बोलो कहाँ मिलें… कहाँ क्या मिलें… यहीं चली आ… क्या यहाँ नहीं आने की कोई कसम ली है तूने… नन्हू ताइ भी अभी-अभी तुम्हें ही याद कर रही थी… नंदी ने उसकी बात काटी थी, कहाँ… आ जाऊँ… फिर कुछ सोचते हुए… तुझे कोई जरूरी काम तो नहीं आज… बोल कब तक आऊँ… कोई काम नहीं है मुझे… अभी की अभी आजा चुपचाप… मैं आज घर में ही रहकर आराम करनेवाली हूँ पूरे दिन। नन्हू ताइ को तेरे लिए भी नाश्ता-खाना बनाने के लिए कह देती हू… फिर दिन भर बैठ कर गप्पें मारेंगे दोनों… तो फिर फ्रेश हो कर आती हूँ… फोन काट दिया था नंदिता ने… वह उसके इंतजार में जहाँ की तहाँ बैठ गई थी… नहाना-धोना कुछ भी याद नहीं रह गया था उसे, कुछ भी…

नंदी आनेवाली थी। आज उसने नन्हू ताई को उसकी पसंद का नाश्ता-खाना बनाने को कहा था – नाश्ते में पोहा और खाने में कढ़ी-चावल। उसे याद आया अंतिम खाना जो नंदी छोड़कर चली गई थी प्लेट में वह कढ़ी-चावल ही था। नन्हू ताई बड़बड़ाई थी… पहले से कुछ बताते नहीं और अचानक फरमाइश… अब दही कहाँ से लाऊँ… नंदी बेबी थीं तो सप्ताह भर का मेन्यू तय कर के रख देती थीं। कभी कोई परेशानी नहीं… अरे मैं अपने लिए नहीं, तुम्हारी उसी लाड़ली नंदी बेबी के लिए कह रही हूँ… चौकवाली दुकान से लेती आओ न, कितना वक्त लगेगा। खिड़की पर रखे एक चॉकलेट के डब्बे से पैसे निकाल कर वह बाहर चली गई थी, बुदबुद करती हुई… नंदिता को याद आया खुले पैसे रखने की यह जगह नंदिता ने ही बनाई, तय की थी। चॉकलेट का यह डिब्बा कभी उसके पापा लाए थे… नंदी को चॉकलेट भी बहुत पसंद हैं…

छोटी-छोटी कितनी सारी चीजें, किचेन के दरवाजे से टँगी डायरी और पेन जो नंदिता के चले जाने के बाद से अब तक वैसे ही टँगे हैं, भले ही उसमें कोई नई रेसेपी नहीं जुड़ी तब से… न ही साप्ताहिक मेन्यू लिखा गया उसके जाने के बाद। किचेन में रुई, बरनॉल, डिटॉल, कैंची… अपने और उसके दोनों के टेबल पर स्केल, इरेजर, पेंसिल, कलर पेंसिल, पिन, स्केच, स्टेपलर, मार्कर, गम… सब उसी ने जमाए थे। हालाँकि काम ज्यादा एमीलिया के ही आती थी ये चीजें, खासकर नंदी से तो ज्यादा ही। बड़ी आलमारी में उसके और अपने दोनों के कपड़े प्रेस करवा कर तरतीबवार रखना। ये छोटे-छोटे पर महत काम नंदी ही तो करती थी। उसके जाने के बाद उससे बाहर निकलकर एकमुश्त कपड़े प्रेस करवा लेना कभी नहीं हो सका। घर से निकलते हुए हड़बड़ी में खुद से दाएँ-बाएँ मार लेती है प्रेस। ज्यादा देर हुई तो वह भी नहीं… उतारे कपड़े पहन कर ही चल देती है वह। एमीलिया ने उठकर दोनों के पेन स्टैंड से खत्म हुई रीफिलें, टूटे पेन, खराब और सूखे स्केच निकाल कर बाहर किए। उसने अगर इन्हें देखा तो…

वह आ रही थी, और वह उसके आने की तैयारी में थी… पर उसके जाने का दिन जाने क्यों टँगा आ रहा था उसकी स्मृतियों में… उसकी जुठाकर छोड़ी गई कढ़ी-चावल की प्लेट… बाथरूम में उसका गीला पड़ा तौलिया, अलगनी पर टँगी रह गई उसकी सलवार-कमीज… रैक में लगी उसकी पसंदीदा किताबें… और भी न जाने कितना कुछ… सब कुछ तो छूटा रह गया था उसका यहीं। या कि जान-बूझ कर वह छोड़कर चली गई थी उन्हें…

नंदिता चली गई थी अचानक, पर क्या सचमुच अचानक ही गई थी वह… कमरा अचानक ही नहीं मिल जाता… एकाएक तो कुछ भी नहीं हुआ होगा… हाँ, अचानक तो शायद कुछ भी घटित नहीं होता जिंदगी में, वह सब भी, जिसे हम सोचते हैं अचानक ही घटित हो गया। भूमिकाएँ तैयार होती हैं पहले हर घटना की। वह समझे न समझे, नंदिता उसके पहरों से ऊबने लगी थी। उपदेशों से तो नफरत उसे पहले से ही थी… और वह समझती थी कि अंकल-आंटी के पीछे उसी की तो जिम्मेदारी है नंदी। वह उसे सही-गलत नहीं बताएगी तो और कौन बताएगा। खासकर हनीफ सर के सिलसिले में… वह जितना कहती, जितना चिढ़ती, नंदी उतनी ही वेग से उनसे जुड़ती चली गई… भूल उसी की थी शायद, उसे भूलना नहीं चाहिए था। नंदी हमेशा से आजादी की आग्रही थी। दम घुटता था हमेशा उसका माँ-पिता के संरक्षण में। वह तो जानती थी यह सब, फिर कैसे भूल गई इतनी जरूरी बात?

हर दिन की तरह उस दिन भी वह नंदी के इंतजार में बैठी हुई थी। पहले आठ, फिर साढ़े आठ, नौ, साढ़े नौ, फिर दस… वह सोचने लगी थी, हद होती है इंतजार की भी… कल उसका पेपर था पर पढ़ने में भी मन कहाँ लग रहा था… पता नहीं क्या बात हुई इतनी देर तो कभी भी नहीं करती… हाँ देर से आती है वह पर हद से हद आठ -साढ़े आठ तक। उसके हाथ चिंता से पसीजने लगे थे। माथे की नसें तड़क रही थीं हौले-हौले। हथेलियों को उसने बेसिन की धार के नीचे धर दिया था और खड़ी रही थी चुपचाप…

पहले तो नंदिता पर उसकी बातों का असर होता था। उसने कहा था और उसने आर्ट क्लासेज जाना बंद कर दिया था। बीमार हो चली थी वह पर उसने अपने कहे को निबाहा था, बस 15 दिन बाकी थे उन हॉबी क्लासेज के जब वह खींच कर फिर उसे लेती गई थी दुबारा। ऐसे तो मर जाएगी। वह है उसके साथ फिर नंदिता कैसे कुछ गलत कर सकती है। क्या हो जाएगा इन पंद्रह दिनों में…

पर शायद वह गलती वहीं कर गई थी, वह देखती वे दोनों एक-दूसरे से बिल्कुल भी बात नहीं करते हैं, पर वह देखती उनकी आँखें गुपचुप-गुपचुप मौका मिलते ही बतिया लेती हैं… न जाने कितनी बातें, कितने कॉल रोज किए जाते रहें और वह देखती रही अवाक। वह रोकती भी तो उन्हें कैसे और कहती भी तो क्या।

उसने रोका था नंदिता को और पूरे हक से रोका था, जब वह बीए में थी उसने हनीफ सर का विषय यानी कला चुनना चाहा था, उसने जोर दे कर कहा था नंदी उबरने की कोशिश कर इस सब से। बिना कोशिश किए यह कहना बेकार है कि हाय मैं तो डूब ही गई… दूर रह कर देखो उनसे, शायद उन्हें भूल पाओ। हो सकता है आकर्षण हो, सिर्फ आकर्षण… हमारी उम्र भी तो…

और नंदिता ने उसकी बात मान ली थी। उसने अपना विषय इतिहास चुना था। उसने जब यह बात अंकल-आंटी को बताई तो वे खुश हुए, न सही डॉक्टर, आईएएस की तैयारी तो कर ही सकती है अब। नंदिता ने भी जी जान से खुद को पढ़ाई में झोंक दिया था। वह अब पहलेवाली नंदिता हो चुकी थी, वही स्कूलवाली। बस एक चीज गायब होती उसके चेहरे से, सुकून… खुशी। एमी के लिए यह कोई चिंतावाली बात नहीं थी। पहले भी वह जब किसी लक्ष्य के लिए जुट जाती तो ऐसे ही होती थी किसी तड़पती हुई मछली की तरह बेचैन, जैसे पानी का भान भी न हो उसके आस पास। पर एमीलिया जब साथ होती वह पुरसुकून हो लेती। हँसी-खुशी, बचपन जैसे सब लौट आता बस एक एमी के साथ भर से।

पर वही एमीलिया साथ थी और नंदिता खुश नहीं थी बिल्कुल। उसके दुखों का कारण भी शायद वही थी, सिर्फ वही… वह नंदिता को हर तरह से बहलाना चाहती थी, पर वह बहलती नहीं एक पल को भी। बल्कि तुर्शी से कहती अब क्या चाहिए तुम्हें… अब और क्या करूँ तुम्हारी खुशी के लिए…

… पर अचानक उठा यह बवंडर धीरे-धीरे सतह पर आने लगा था। पिछले दो-ढाई महीने से नंदिता फिर खुश रहने लगी थी। उसे अच्छा भी लगा था। यही तो चाहती थी वो। उसका थोड़ी देर से आना उसे बिल्कुल भी नहीं खटका था। हाँ उसे पता था क्लास साढ़े पाँच बजे समाप्त हो जाती है… उसकी आँखों की उदासी कमी थी, आवाज की तुर्शी भी। वह जो भी कहती उसे बड़े चैन से सुनती वह। गुनगुनाना फिर शुरू हो गया था उसका। खुश हो कर गले भी लग जाती पहले की तरह कभी-कभी… और जब गुनगुनाना शुरू हुआ उसका ध्यान तभी खींचा था नंदी के बदलावों ने… पर यह शगुन नहीं था। हनीफ सर जब मिले थे पहले पहल यूँ ही उड़ती-पड़ती, गुनगुनाती फिरती थी हर पल…। वह कुछ पूछती न पूछती कि उसने देख लिया था एक दिन खिड़की पर खड़ी-खड़ी नंदिता को उनकी कार से उतरकर घर तक आते हुए।

फिर वह कहती रहती बार-बार और नंदिता सुन-सह लेती सब चुपचाप। वह जब ज्यादा झल्लाती, चीखती-चिल्लाती वह बड़े संयत ढंग से कहती और इतना कहती, मैं हार चुकी हूँ खुद से… मैंने तुम्हारे सारे कहे पर अमल किया… पर मैं नहीं जी सकती उनसे मिले बगैर। वह निरुत्तर हो जाती, हर बार। पर फिर-फिर वही कोशिश… एक और कोशिश… नंदी शायद इन कोशिशों से ही झल्ला उठी थी। उसने कहा होगा शायद हनीफ सर से सब कुछ। उन्होंने मकान ढूँढ़ना शुरू कर दिया था शायद पहले ही… तभी तो उसने नंदी से जब कहा और वह भी चुपचाप दरवाजा खोलने, उसके हाथ-मुँह धोने और उसका पसंदीदा कढ़ी-चावल गरम करके परोसने के बाद… नंदी यह भी कोई आने का वक्त है… तुम जानती हो मेरा पेपर है, मुझे चिंता होती रहती है तुम्हारी… पता नहीं… क्या कुछ… कि चीख ही पड़ी थी वह… मुझे मेरी जिंदगी जीने दो, मत लगाओ मेरी साँसों पर भी पहरे… चिंता होती है तुम्हारी… कौन होती हो तुम मेरी चिंता करनेवाली… होती कौन हो आखिर? थाली झटके से खिसका दी थी उसने। हाथ धोया था झपाटे से और एक एयर बैग में सामान ठूँसने लगी थी। जो सामने दिख जाए। जो कुछ छूटे, छूट जाए, उसी ने कहा था क्या कर रही हो नंदी… देख तो रही हो… कहाँ जा रही हो मुझे अकेली छोड़कर… अकेले तो हम अब भी हैं। हम वही हम हैं क्या… और मुझे नहीं रहना है तुम्हारे साथ अब। उसने जबरन उसके हाथों को थाम लिया था… नहीं नंदी, प्लीज… अब से कुछ नहीं कहूँगी, कुछ भी नहीं। तुम जब चाहे जहाँ चाहे आओ-जाओ… ऐसे इतनी रात को कहाँ चली जाओगी… नंदी ठंढे दिमाग से सोचो जरा… पर पलटी नहीं थी वह। एक बार भी मुड़कर नहीं देखा था उसने…। और उसने देखा था खिड़की से हनीफ सर की गाड़ी का दरवाजा खुला था, नंदी ने बैग डाला था, खुद को भी… और गाड़ी चल पड़ी थी…

वह खुद को छला हुआ महसूस कर रही थी… तो क्या सब कुछ तय था। पक्के ढंग से प्लान किया हुआ। तो क्या इसीलिए नंदी और ज्यादा देर से लौटी थी, रोज से भी… उसे पता था कि वह रिएक्ट करेगी ही करेगी… तो क्या हनीफ सर इसीलिए खड़े थे अब तक…

उसके भीतर जैसे बहुत कुछ टूट गया था एक बारगी। वह बिछावन पर बैठ गई थी धम्म से…

उसने देखा था खिड़की से, नीली सलवार-कमीज में एक लड़की को आते। उसने गौर किया वह नंदी ही थी। नंदी का पीला दुपट्टा उड़-उड़ कर उसके चेहरे के सामने आ रहा था। वह उसे दूर फेंक रही थी, पीछे की तरफ। उस दुपट्टे की रोशनी में सूरज की किरणें कुछ और पीली हो गई थीं, कुछ और चमकीली… उसे लगा नंदी के चेहरे पर भी एक पीलापन था उदासी का। उसने सोचा चाहे बात जो भी हो, चाहे कारण जो भी, उसे नंदी के चेहरे से उदासी की ये परतें हटानी होंगी। नंदी उसी तक तो आ रही थी अपनी बात कहने। आज भी तो उसे सबसे अपनी वही लगी थी… उसने भी पिछली यादों को दूर फेंक दिया था, पीछे कहीं… वह बिछावन से उठ खड़ी हुई थी। उसने कढ़ी की कराही फिर से चूल्हे पर चढ़ा दी थी।

10

हनीफ जब लौटने के बाद नंदिता से मिलने पहुँचे थे, नंदिता लगातार सोचती रही थी आज कोई बंदी हो और सर उसके घर तक नहीं पहुँच पाएँ। कि ट्रैफिक जाम में ही फँस जाएँ वो। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था। सर हमेशा की तरह अपने कहे हुए वक्त पर आ गए थे और दरवाजे पर दस्तक दे रहे थे। देर तक वह सुन कर भी अनसुना करती रही थी जैसे उसके न सुनने भर से ही हनीफ सर अनुपस्थित हो जाएँगे। पर अनसुना करना जब बिल्कुल ही असंभव हो गया उसने दरवाजा खोला था और पलट कर बाथरूम में घुस गई थी। जैसे उसके इस तरह बैठे रहने से वे लौट जाएँगे अपने आप।

वह बैठी-बैठी सोचती रही थी… उसके ठीक भीतर बैठी एमी कह रही थी उसने ऐसा कौन सा अपराध किया है आखिर कि मुँह छिपाती फिर रही है वह। सर भी तो उसके होने के बावजूद अपनी बीवी से संबंध रखते हैं। और न सिर्फ संबंध बल्कि अपने परिवार के लिए उनका मोह भी जस का तस है। फिर उसकी जिंदगी में अगर एक कमजोर पल आ गया तो क्या हुआ। …हाँ, हनीफ सर के उसकी जिंदगी में होने के बावजूद। जब नसीमा बी के होने के बावजूद सर उससे जुड़ सकते हैं तो… और उसने कोई जानबूझ कर भी कहाँ किया कुछ। वह एमी के दिए हिम्मत से भर चुकी थी। वह पिछले दिनों सोचती रही थी लगातार सर जब आएँगे वह सब कुछ बता देगी उन्हें साफ-साफ। फिर वे जो भी निर्णय लें… उसने भी तो स्वीकारा है उन्हें उनकी सारी मजबूरियों, कमियों और अतीत के साथ… अगर प्यार करते हैं वे उससे तो यह सब जानने के बाद भी उसे स्वीकारेंगे।

एमी ने कहा था उससे, परीक्षा उसकी नहीं हनीफ सर की है। वह क्यों जल रही है आत्मग्लानि में इस तरह… क्या हनीफ सर भी शर्मिंदा हुए हैं कभी उसके सामने आने पर…? लगभग हर रात सोकर – रहकर आते हैं वे अपनी पत्नी के साथ। गलती उसकी नहीं सिर्फ हनीफ सर की है। आखिर क्या चाहते हैं वे उससे। अपना सब कुछ बचाए-जोड़े रहने के बाद भी एक ‘एडिशनल’ सा कुछ। नंदी की जगह क्या है आखिर उनके जीवन में। आए, मन बहलाए कुछ देर और फिर चल दिए उठ कर। नंदी भी अब सोचे सब कुछ गंभीरता से… ‘भूख’ भी एक शाश्वत सत्य है और उस हाल में तो और ज्यादा वाजिब जब परोस-परोस कर थाली खींच ली जाए सामने से…

वह एमी के हनीफ सर को इस तरह भला-बुरा कहने से नाराज क्यों नहीं हो पा रही थी हमेशा की तरह। उसने सोचा था… क्यों नहीं प्रतिवाद कर पा रही वह हमेशा की तरह पुरजोर ढंग से। क्यों नहीं उठ कर जा रही वह उसी दिन की तरह… यह सोचकर उसने विरोध करना चाहा था पर आज आवाज बिल्कुल ढीली थी, हल्की और लचर सी। इसमें हनीफ सर की क्या…

गलती है और उन्हीं की है। मैं तो कहती हूँ अगर वसीम तुझे प्यार करता हो और अपनाए तो तू उसी की हो ले पर हनीफ सर की बिल्कुल नहीं… बोल… नंदी बोल न वह कैसा लगता है तुझे…?

नंदिता को क्रोध आया था और अबकि जोर से आया था। तू ही न कहती है नेचुरल है यह सब कुछ… भूख प्यास की तरह प्राकृतिक… फिर… फिर क्यों जुड़ने को कह रही है तू उससे, उस एक रात के घट जाने के एवज में। जबकि उसमें मेरी कोई गलती थी ही नहीं। मैं चैतन्य नहीं थी, वह था। मुझे होश नहीं था, उसे था। और उसे यह भी पता था कि उसके पिता को प्यार करती हूँ मैं। फिर भी उसने… उसकी गलती की सजा खुद को मैं क्यों दूँ…? बोल तू…।तू भी वही कह रही है जो सामान्यतः लोग कहते हैं। मैं प्यार नहीं करती उससे…। नंदी के स्वर में रोष था।

तो फिर हनीफ सर को बता दे सब कुछ… पर मुझे नहीं लगता… लाख प्रोग्रेसिव हों वो पर हैं तो इसी समाज से, जहाँ ससुर अगर बलात्कार करता है बहू से तो भी समाज का निर्णय उस बेचारी बहू के पक्ष में न जा कर उस बलात्कारी के पक्ष में ही जाता है कि अब वह लड़की अपने पति की माँ हो गई और उसका पति से रिश्ता नाजायज हो गया… और तेरे साथ तो नंदी बलात्कार जैसा भी कुछ घटित नहीं हुआ… मुझे डर है नंदी… हनीफ सर अब… उसके डर से नंदिता भी डर गई थी… उसने अपने डर को परे धकेलते हुए ढीठ हो कर कहा था… ऐसा नहीं होगा कुछ… मैं कहती हूँ ऐसा नहीं करेंगे वे… और वह हथेलियों में अपना चेहरा छिपाकर फफक-फफक कर रो उठी थी।

एमी ने थाम लिया था उसे कंधे से। फिर उसका सिर अपने कंधे पर डाल लिया था और रोने दिया था उसे फूट-फूट कर…। रो ले नंदी, जी भर के रो ले… मन हल्का हो जाएगा।

बहुत देर की चुप्पी के बाद न जाने क्या सोचते हुए एमी ने कहा था… वसीम ने तुम से फिर कोई संपर्क करने की कोशिश की…? चिढ़ी हुई नंदिता ने कहा था… की न, बार-बार फोन कर रहा था मुझे और अब एसएमएस… एमी ने पढ़ा था उन पंक्तियों को, नहीं, कविता-पंक्तियों को…

‘अगर मैंने किसी के होंठ के पाटल कभी चूमे,

अगर मैंने किसी के नयन के बादल कभी चूमे,

महज इससे किसी का पुण्य मुझ पर पाप कैसे हो?

महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?’

…बहुत ही ज्यादा इरीटेटिंग होता जा रहा है यह सब कुछ। आखिर वह मुझ से कहना क्या चाहता है। एमीलिया ने उसके नंबर को अपने दिमाग में बैठाते हुए कहा था यह तो वही बताएगा न… पर इसके लिए तुझे उससे बात करनी होगी… जो कि तू करेगी नहीं।

एमी फिर चुप हुई थी थोड़ी देर को… उसकी इस चुप्पी से नंदिता को डर लगता है, चेहरे के इस निर्मम तटस्थ भाव से भी। हमेशा लिखते-पढ़ते वक्त एमी का चेहरा यूँ ही होता है। खास कर लेख लिखते वक्त। यह चेहरा निर्णय करनेवाला चेहरा था, अपनी राय तटस्थ हो कर देनेवाला चेहरा, जहाँ कोई लाग लपेट न हो, ना ही कोई पूर्व भूमिका।

…वैसे एक बात कहूँ नंदी, वसीम के सिर सारे दोष मढ़ कर यूँ किनारे भी खड़ी नहीं हो सकती तू। तूने उसे उस रात रुकने ही क्यों दिया था अपने पास। उसके साथ यूँ वक्त बिताने, घूमने-फिरने क्यूँ लगी थी तू… तुझसे तो छिपी नहीं रही होगी उसकी चाहत…? फिर भी… सीधी सी बात यह है कि तुझे उसका साथ अच्छा लगने लगा था… अभी भले ही तू यह स्वीकार न करे पर यह सब करने के पीछे तेरे मन मे भी तो कोई चोर था ही न…बोलते-बोलते एमीलिया ने नंदिता का भक्क चेहरा गौर से देखा था और फिर भी हिम्मत जुटा ही ली थी यह सब कहने के लिए… तू कह रही थी बुखार उतर रहा था तब। बुखार चढ़ा भी तुझे उस दिन रोज से कम ही था, डेढ़-दो के बीच कहीं… इतना बुखार होश खोने के लिए काफी नहीं होता, वह भी दवा खा लेने के बाद उतरने की प्रक्रिया में। सीधी-सीधी बात यह नंदी कि भूख उसे थी पर तूने उसे उभारा, हावी होने दिया कि अपनी नजर में ही दोषी न हो जाऊँ कहीं… कि कसूरवार कहलाए भी तो वही। फिर अपने कमजोर शरीर और मन को दिया एक उड़ान… ऐसे में कल्पनाशक्ति बहुत तेज हो जाती है… सामने बैठा व्यक्ति वसीम नहीं हनीफ सर हैं… और फिर सब कुछ…

तिलमिला उठी थी नंदिता, इतनी कि कमजोरी से पीला हुआ चेहरा लाल-भभूका हो उठा था अचानक। उसने झटके से पर्स उठाया था और बगैर पीछे मुड़े चल दी थी उसी दिन की तरह… एमीलिया को लगा, तो क्या इसी पुनरावृत्ति की खातिर उसने उसे घर बुलाया था… उसने दौड़ कर नंदिता का कंधा पकड़ा था पीछे से… नंदी सुन तो… और मोड़ा था उसे अपनी तरफ… मुड़ते ही न जाने क्या घटित हुआ था कि नंदी के चेहरे की रेखाएँ पिघली थी और वह फूट-फूट कर रो पड़ी थी दुबारे…

उसे याद आया था वसीम के साथ का एक-एक पल। उसे याद आया था उसके साथ लाल किला में संग-संग घूमना… उसे याद आया था उसका खुल के हँसना बोलना… उसका उसके लिए लगाव… अस्वस्थता में हर पल उसके आसपास बने रहना। उसे सबसे ज्यादा याद आया था अपना वह गुस्सा जब वह सोचने लगी थी हनीफ सर ने उसे ये बातें क्यूँ नहीं बताई… उसे लगा था उस वक्त कि क्या वह भी हनीफ सर के किले में नजरबंद कोई राजकुमारी है जिसे उतनी ही रोशनी मिलती है जितनी कि वह उसे दे। या कि बंद महल में बने सुराखों से होकर आ सके… उसकी समझ विकसित हो तो उतनी ही जिससे कभी बगावत नहीं कर पाए वह। वह खुद हैरत में थी, खुद अपनी जिंदगी चुननेवाली, हनीफ सर के लिए सबसे बगावत करनेवाली वह ऐसा सोच पा रही थी तो कैसे… क्या यह वसीम के साथ का असर था? क्या इसीलिए हनीफ सर बचाए रखना चाहते थे उसे दुनिया की निगाहों से… कि नजर लग ही गई थी उनके रिश्ते को…

वह सोच रही थी, ठीक ही कह रही है एमीलिया शायद, उस रात का बीज तो उसी क्षण पैदा हो चुका था उसके भीतर… उस रात की यानि मुक्ति की कामना उसी क्षण पलने लगी थी शायद उसके लहू में। वह हनीफ सर के कैद से मुक्ति चाहती थी… अपनी तमाम अभिलाषाओं को जीना चाहती थी। वह उन प्रदेशों में भी जाना चाहती थी जो उसके लिए वर्जित थे। आखिरकार वह हव्वा की ही तो बेटी थी… और अंततः उसने चख ही लिया था उस वर्जित फल का स्वाद। वसीम तो शायद निमित्त मात्र था। वर्षों से थमी हुई रात उस पल चल पड़ी थी और फिर सुबह हुई थी दूसरी…

उसने सब कुछ कहना चाहा था एमी से पर बोलने के लायक स्थिति नहीं रह गई थी उसकी। आँसू के हिचकोले बोलने नहीं दे रहे थे उसे… बस बदन हिल रहा था उसका आवेग से और एमीलिया जिसे अपनी बाँहों में थामकर सामान्य स्थिति में लाने की कोशिश कर रही थी, लगातार।

…उसने दरवाजा खोला था और पूरे आवेग से खोला था, इंतजार कर के हनीफ सर कहीं चल तो नहीं दिए हों। उसे उन्हें बतानी है हर एक बात… उसे उन्हें सब कुछ सच-सच कह देना है…

11

वसीम की जिंदगी के तीन दिन जैसे तीन युग हो चले थे। नंदिता को बगैर देखे, नंदिता को बगैर सुने और नंदिता के टेलीफोन के बगैर… उसकी इच्छा होती सुबह उठते-उठते वह नंदिता के घर जा पहुँचे, बेल बजाए और पाए कि वह उसके सामने है। पर चाह कर भी वह ऐसा नहीं कर पाता था। नंदिता अब स्वस्थ थी और अब्बू भी आ चुके थे। उसे गुस्सा आता, अब्बू को भी इतनी जल्दी लौट आना था… उसे गुस्सा आता था खुद पर… वह अगले ही दिन क्यों नहीं नंदिता से मिलने गया। किस ऊहापोह में फँसा रहा था वह। उसकी एक छोटी सी झिझक ने उसके सामने कई मुश्किलें पैदा कर दी थी। वह परेशान था बेतरह। आखिर करे भी तो क्या?

नसीम जब उससे कोई सवाल पूछने आया वह बेतरह झुँझला उठा था उस पर… मारने-मारने को हो आया था उसे। बेचारा नसीम भी हैरत में था, यह भाईजान को क्या हो गया। वह कितनी भी बेवकूफी करे, चाहे कितनी भी देर में समझे कोई बात, वसीम कभी उस पर झुँझलाया नहीं था आज तक, पीटने की तो बात ही दीगर है। उसे गुस्सा नहीं आ रहा था, फिक्र हो रही थी भाईजान के लिए। उसने अम्मी से कहा भी था, अम्मी भाईजान की तबीयत तो ठीक है न… क्यूँ, क्या हो गया? कुछ नहीं… बस ऐसे ही… ऐसे ही क्या… सुबह-सुबह पिटाई लगी इसलिए…? अम्मी हँसी थीं… अरे मैंने ही कहा था सख्ती बरते तेरे साथ। तेरे अब्बू घर पर रहते नहीं और वह तुझे बस लाड़ ही करता रहता है…। अरे तुझ पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। आठवीं की परीक्षा देनेवाला है और पढ़ाई में बिल्कुल भी जी नहीं लगाता। ऐसे कैसे चलेगा। तुझ पर कड़ाई तो करनी होगी न…

नसीम मूल सवाल के बीच में ही कही गुम हो जाने को देखता चुप रह गया था। आखिरकार वह था तो बच्चा ही। इससे ज्यादा चीजें न उसे समझ में आती थी और न ही इससे ज्यादा सवाल करने का हक ही उसे था। वह चुपचाप बाहर की तरफ निकल पड़ा।

नसीमा ने देखा था उस छोटे से बच्चे के चेहरे पर भाई को लेकर एक सवाल… इसी सवाल से जूझती रही थी वह पिछले कई दिनों से। उसका वसीम कहीं खो गया था। उसका वह बच्चा जो मेले-ठेले, भीड़-भाड़ में कहीं भी उसकी उँगलियाँ नहीं छोड़ता था कभी… अम्मी मैं अगर खो गया तो… अम्मी मैं आपसे अलग नहीं रह पाऊँगा, मुझे कभी खोने नहीं देना। और उसके आँसू भरे चेहरे को वह सीने से चिपका लेती… नहीं मेरे लाल… वही वसीम कहीं खो गया था और वह देख रही थी बस चुपचाप खड़ी-खड़ी। वही बच्चा जिसे सब कहते कि वह सिर्फ उसका बच्चा है। वह खोज रही थी अपने उस बच्चे को वापस। पर कोई छोर ही नहीं मिला रहा था उसे, कहीं से। ऐसे में उसने नसीम की परेशानी को भले ही हवा में उड़ा दिया था पर वह बवंडर गोल-गोल घूम रहा था उसी के इर्द-गिर्द। ऐसे में रात का वह सपना। रात का नहीं भोर का। वह खुद भी परेशान थी बेतरह। सब कुछ ठीक-ठाक होता तो चुपके से वसीम से ही बतियाती इस सपने के बाबत और बतिया लेने के बाद उसकी वह एक हँसी में भूल भी जाती शायद। पर उसकी हँसी भी कहीं गुम हो गई थी वसीम के साथ-साथ। वह देखती अब्बू के पीठ पीछे वह उनके कमरे और लाइब्रेरी में जाता है और ढेर की ढेर किताबें उठाकर ले आता है।

फिर न जाने क्या पढ़ता रहता है दिन-रात। पहले तो उसने सोचा था पढ़ाई कर रहा होगा अपनी, पर नहीं उसे पता था इतिहास की किताबें उस कमरे में बहुत कम हैं। वह जानती थी वहाँ कला और साहित्य है बस। उर्दू-हिंदी शायरी और कविताएँ, कला संबँधी पुस्तकें, कुछ मनोविज्ञान और दर्शन की भी। ये वो किताबें थी जिसे झोंके में खरीद लिया था हनीफ मियाँ ने कभी। पर बाद में इन्हे छुआ तक नहीं। उन्होंने देखा था वसीम के कमरे में वो भी किताबें थी और उन्हें वहाँ देख कर हैरत तो होनी ही थी। पगला गया है क्या वसीम? उनके दिमाग में एक ही सवाल उठा था उस वक्त। परीक्षा के एक-दो दिन पहले ही किताब खोलनेवाला और उसमे ही ठीक-ठाक ढंग से पास होनेवाला वसीम अभी बेमौसम और बेमतलब की किताबों में डूबा पड़ा था, कि डूबने कि कोशिश कर रहा था। उसने सोचा, सारे काम निबटाने के बाद वह इत्मीनान से वसीम से बात करेगी आज। आखिर उसे क्या हुआ है? वह जरूर उसे सब कुछ बता देगा सच-सच। पर वह यह तय नहीं कर पा रही थी कि वसीम को अपने सपने की बाबत बताए या नहीं। उसने सोचा तब का तब देख लेंगी वह और फटाफट काम निबटाने में उलझ पड़ी थी।

वसीम फैज की शायरी में डूबा हुआ था। उसे कहीं चैन था तो बस इसी ठौर, इसी तरह। हालाँकि यह बात अलग है कि यह चैन उसे और बेचैन ही कर देता था। वह डूबा रहता किताबों में, न कोई कूल न कोई किनारा। उसे लगता जैसे सब कुछ उसी के लिए लिखा गया है… ‘न आज लुत्फ कर इतना कि कल गुजर न सके / वो रात जो कि तेरे गेसुओं की रात नहीं। / ये आरजू भी बड़ी चीज है मगर हमदम / विसाल-ए-यार फकत आरजू की बात नहीं।’ उसने आगे पढ़ा… ‘गर बाजी इश्क की बाजी है / जो चाहे लगा दो डर कैसा? / गर जीत गए तो क्या कहना / हारे भी तो बाजी मात नहीं।’ पहले की तरह डायरी में नोट करने या फिर उन्हें अंडरलाइन करने की बजाय, जो कि वह बहुत डर-डर के करता है कि अब्बू कहीं बिगड़ न पड़ें कि किताब का नाश कर दिया, उसने फटाफट एसएमएस टाइप किया था – ‘एक बार मिलो नंदी। बस एक बार… मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ, केवल एक बार… तेरी नजरों को मुहब्बत की तमन्ना न सही / तेरी नजरें मेरी हमराज तो बन सकती हैं / चार दिन की तकलीफें मुरव्वत करके / एक नए दर्द का आगाज तो बन सकती हैं।’ एसएमएस भेज कर वसीम एक नामालूम से इंतजार में डूब गया था यह जानते हुए भी कि उधर से कोई जवाब नहीं आनेवाला। वह एकटक मोबाइल की स्क्रीन पर देख रहा था जैसे उसके इस तरह देखने भर से ही कोई चमत्कार हो जाए शायद… घंटी बजी थी और वह लपका था जैसे कोई और न उठा ले उसका फोन, हालाँकि वह जानता था कि वह अकेले ही था उस कमरे में… उसने हिम्मत न हारते हुए दूसरा मैसेज टाइप किया था। अबकि साहिर की पंक्तियाँ थी… ‘मुझे तुम्हारी जुदाई का कोई रंज नहीं / मेरे खयालों की दुनिया में मेरे पास हो तुम / ये तुमने ठीक कहा है तुम्हें मिला न करूँ / मगर इतना तो बता दो कि क्यों उदास हो तुम / खफा न होना मेरी जुर्रते तखातुब पर / तुम्हें खबर हो मेरी जिंदगी की आस हो तुम’ मैसेज भेजने के बाद वह वहाँ से उठ कर चलता बना था। जैसे यह कोई दूसरा टोटका हो कि उसके न होने से ही शायद जवाब आ जाए।

पर जवाब नहीं आना था और नहीं आया। वह नहाकर निकला और उसने खाना भी खा लिया था इस बीच। फिर वह चुपचाप आकर दर्शनशास्त्र की कि कोई किताब पलटने लगा था बेवजह।

हाँ, होने को इस बीच और भी कुछ नया हुआ था… एमीलिया के कई फोन आए थे उसके पास। यह उसी की दी हुई हिम्मत थी कि वह एक बार फिर नंदिता से संवाद स्थापित करना चाहता था… वरना उसके व्यवहार से तो वह हिम्मत हार ही चुका था। एमी ने ही कहा था उससे, नंदी को उससे बेहतर शायद ही कोई दूसरा जानता हो… उसने वसीम का नाम आते ही उन आँखों को चमकते देखा है, चाहे वह जितना भी इन्कार कर ले। नंदी भी पसंद करती है उसे पर उसकी जिद या कि झिझक उसे यह स्वीकार नहीं करने देते। तुम अपनी तरफ से कोशिश करते रहो। और हर दो-चार घंटे पर वह फोन कर ही डालती… क्या हुआ? कुछ नया? अब तो एमी के फोन से भी डरने लगा है वह, क्या कहे वह उससे कि हार रहा है वह धीरे-धीरे कि उसकी हिम्मत थकने लगी है अब। …कहेगी वह – सिर्फ तीन दिनों में… तीन ही दिन तो बीते हैं इस बीच। पर उसके लिए तो ये तीन दिन नहीं जैसे तीन सदियाँ हो गईं…

…एमीलिया का फोन आने के कारण ही वह उठा था। सिग्नल कमजोर था भीतर, बात करते-करते वह बाहर तक चला आया था। अम्मी अभी तक किचेन समेटने में लगी थी… अब्बू के कमरे की खिड़की वहीं खुलती थी। उसने सुना अब्बू किसी से कह रहे थे… किस से… तैयारी पूरी कर के रखना। परसों सुबह की ट्रेन है… बस तीन-चार सूट रख लेना इतना काफी है। बाद की बाद में देखेंगे। वहाँ के कपड़े वैसे भी तुम्हें बहुत भाएँगे। खूब तेज चटकीले रंग… वसीम पर नजर पड़ते ही जैसे वे झिझक से गए थे अचानक और उन्होंने दूसरी तरफ के व्यक्ति से कहा था… मै बाद में बात करता हूँ। उसे तब तक कुछ भी नहीं लगा था। खला भी कुछ नहीं था लेकिन उसने अचानक सोचा कि अब्बू किस से बात कर रहे होंगे और दिमाग में एक नाम कौंधा – नंदिता। उसके बोल जैसे कहीं भीतर ही दुबक गए थे हठात। वह चुप हो गया था बिल्कुल। शब्द जैसे उसका साथ छोड़कर चल दिए थे कहीं…

12

हनीफ ने एक ही निगाह में देख लिया था, नंदिता बहुत कमजोर हो चली है। नंदिता जब बाथरूम से निकली हनीफ एक बारगी फिर चौंके थे। उन्होंने खुद को झिड़का… ऐसा कैसे संभव हो सकता है। उसने चेहरा धोया है अभी-अभी इसीलिए उसकी बारीक रेखाएँ भी साफ-साफ दिख रही हैं, आँखों के नीचे का स्याहपन भी। होंठों की रुखाई, कलाइयों का दुबलापन… चेहरे की कांति जैसे कहीं गुम सी हो गई है… उन्हें इस लड़की की चिंता हो आई, पहले से भी ज्यादा। लगता है बुखार का असर इस पर बहुत ज्यादा हुआ है। पर उन्होंने कहा कुछ भी नहीं। सिर्फ बैग खोला था अपना। कुछ किताबें और कुछ नोट्स उसके सामने रख दिए थे… तुम्हारे लिए।

नंदिता को इंतजार था कि सर उससे इतनी देर तक बाथरूम में रहने का कारण पूछेंगे और वह भीतर ही भीतर इसका जवाब तलाश रही थी। लेकिन सर ने कुछ नहीं पूछा था। हनीफ सर हमेशा कुछ न कुछ अप्रत्याशित सा जरूर करते हैं, उसकी सोच और धारणा के खिलाफ। इतने दिनों के बाद लौटने के बावजूद… इतना लंबा इंतजार… पर मुँह से एक शब्द भी नहीं। शिकायत करने की उनकी आदत ही नहीं है और वो तो सोच रही थी कि वे कुछ पूछें और वह फूट पड़े किसी बहाने से…। कह दे सब कुछ सच-सच और हल्की हो जाए।

उसके हाथ अब भी नहीं बढ़े थे तपाक से। सर ने ही कहा था कुछ नोट्स हैं, तुम्हारे काम आएँ शायद। और ये किताब… तुम्हीं ने कहा था न एक बार कि मैं कैसे जानता हूँ इतना सब कुछ अपने मजहब के बारे में। फिर मैंने कहा था तुमसे अपने मजहब को जानना खुद को जानना है। खुद को एक नई दृष्टि से परखना, पहचानना भी। अपने वजूद को एक नया आयाम और विस्तार देना… दर असल धर्म कभी गलत नहीं होता न ही छोटा, उसे हम अपनी कैंची-छेनी से काट-कूट कर, अपने मनोनुकूल कुछ खोज पहचान कर छोटा कर देते हैं। मैं ये किताबें इसलिए ढूँढ़ कर लेता आया कि तुम भी अपने मजहब के बारे में जान सको… तुम भी तो ऐसा ही चाहती थी न…? हालाँकि कभी सीधे-सीधे कहा नहीं था तुमने ऐसा पर मैं जान तो लेता ही हू न तुम्हारे मन की बात। हनीफ की हथेलियाँ उसकी हथेलियों पर आ थमी थी, कुछ तलाशती-ढूँढ़ती सी। पर उसे लगा यह स्पर्श बहुत नया था, अनपहचाना सा… वह सोचना चाहता था, ऐसा क्यों सोच रहा है वह, कि नंदिता ने उसकी सोच को पुख्तगी देते हुए अपनी हथेलियाँ उसकी हथेलियों के नीचे से सरका ली थी। वह हतप्रभ था, ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ।

बल्कि जब भी कभी पढ़ाता होता वह, नंदिता हौले से अपनी हथेलियाँ उसकी हथेलियों पर डाल देती, भारहीन-दवाबहीन… और एक बारगी रुक जाता पढ़ने-पढ़ाने का क्रम… वे डूबे रहते एक दूसरे की आँखों में… वजूद में। पल छिन कब-कैसे गुजर जाते वह जान भी नहीं पाता। चेत तो कभी-कभी तब आता था जब कुछ न कुछ घटता अप्रत्याशित। कभी किचेन में दूध का उफन कर गिरना… कभी डोरबेल का बजना या कि घड़ी की घंटियाँ बज उठती टन…टन… समय के बीतने और इस कदर बीतने का संकेत देती हुई… पर नंदिता ने अपनी हथेलियाँ खींच ली थी आज… वह सोचता रहा था क्यों…। पर जवाब नहीं था कोई उसके पास। उसने गौर से नंदिता को देखा था, वह आज भी वैसी ही थी जैसी हमेशा होती है…। पर उसे लगा कुछ तो था उसके व्यक्तित्व में अलग सा जो पहले नहीं था। कुछ मजबूत – कड़ा सा जो नंदिता के भोलेपन और असमंजस के भाव को दबा रहा था, कुछ दृढ़, मजबूत और निर्णयात्मक। वे चौंक उठे थे। क्यों… वे यही तो चाहते थे हमेशा, नंदी ऐसी हो… पर आज जब नंदी वैसी दिख रही थी तो उनको यह झटका सा क्यूँ लगा था।

वे देख रहे थे इसी प्रकाश में सब कुछ। नंदी आते ही लपक कर उनके सीने से नहीं लगी थी… उसने आज उनके लिए पानी का गिलास भी नहीं रखा था…। बीते दिनों की सारी बातें नहीं सुनाई थी एक-एक कर के… और अब यूँ हथेलियों का खींच लेना।

वे चाहते थे दिल ही दिल में नंदी ऐसी हो जाए… वह मजबूत हो और इतनी हो कि चुपचाप दूर चली जाए उनसे। वे चाहते थे ऐसा हो, वे मनाते रहते थे ऐसा हो, खासकर के तब जब वे नसीमा के साथ होते थे… कि उन्हें कुछ नहीं करना पड़े… कि कोई इल्जाम उनके सिर पर नहीं आ सके।

उन्हें याद आया वसीम भी बहुत बदला-बदला लगा था उन्हें। कल वह उनकी स्टडी में था और उनकी किताबें पलट रहा था। उन्हें हैरत हुई थी, वसीम और कविता-शायरी की किताबें। वे हँस पड़े थे। तुम और ये किताबें… क्या करोगे तुम इनका… पढ़ूँगा। उसका स्वर दृढ़ और गंभीर था, हमेशा की तरह। वे फिर मुस्कुराए थे, अच्छी बात है। मैं तो पहले भी कहता था पोयट्री हमें इनसान बनाए रखती है, हमारे भीतर के भोलेपन और मासूमियत की परत को बचाए रखती है। वह फिर भी गंभीर था, हूँ…। और किताबों के उस जखीरे को लेकर अपने कमरे की तरफ चला गया था। उम्र है उसकी भावुक होने की, शायरी पढ़ने की, पर उस वक्त की तरह अब वे हँस नहीं पा रहे थे इन बातों पर…। क्या इस सब का तार कहीं नंदिता से जुड़ता है? क्या नंदिता तक उसे भेज कर उन्होंने कोई गलती कर दी? वे एक बारगी सिहर से उठे थे यह सोच कर ही। अगर गलती की भी तो… अब हैरत में नहीं पड़ेंगे वे। अगर नंदी और वसीम उनके भरोसे के योग्य नहीं हैं तो गलती उनकी होगी उनकी नहीं। पर यह सोच भी उन्हें सब्र नहीं दे पा रही थी। उन्होंने सोचा था यूँ ही कयास लगा रहे हैं वह… दिमागी घोड़े से इतनी कसरत कराने की जरूरत नहीं।

उन्होंने नंदिता से पूछा था, एक सेमिनार के सिलसिले में जयपुर और आगरा जा रहा हूँ, तुम भी चलोगी मेरे साथ? नंदिता अप्रत्याशित रूप से चुप रही थी कितने पलों तक। फिर कहा था सोच कर बताऊँगी… जल्दी तो नहीं है? उन्होने सोचा था नंदी किलक पड़ेगी, हुलस कर पूछेगी, कब… किस दिन…? और सामानों की फेहरिस्त तय करने लगेगी। पर ऐसा नहीं हुआ। पहले जैसा कुछ भी तो नहीं हो रहा था सुबह से… पर वे थे कि अपनी जिद पर अड़े थे। नंदी से कहा था। थीसिस निकालो, अनुक्रमणिका बताओ पढ़कर। नंदी ने पढ़ा था – लक्ष्मीबाई, कस्तूरबा गांधी, अरुणा आसफ अली, कुर्जाबाई देशमुख, कैप्टन लक्ष्मी, सरोजनी नायडू, रुक्मिणी लक्ष्मीपति…

हनीफ सर ने नंदिता को इशारे से रुकने को कहा था…। फिर थोड़ा रुक कर कहा था… बस सात चैप्टर… और अभी कितने लिखने हैं… कम से कम पाँच और। नंदी ने धीमे से कहा था। तुम्हें लगता है तुम पूरा कर लोगी इसे… नंदी चुप थी। इसीलिए तुम्हें कहा था विषय नहीं बदलो। कला में तुम्हारी अभिरुचि है, उसी में आगे की पढ़ाई करो। पर तुम्हें तो… तुम और तुम्हारी एमी। जाओ उसी से कहो कि मदद करे तुम्हारी। उन्हें उस वक्त नंदिता के साथ-साथ एमीलिया पर भी गुस्सा आया था… या कि ऐसा वे दिखाना चाह रहे थे सिर्फ।

उन्होंने कहा था नोटबुक खोलो… पर नंदी बैठी थी चुपचाप, जड़वत। उन्हें एक बार फिर सब कुछ अजनबीयत से भरा लगा। वे पहले ऐसे झिड़कते तो नंदी खिलखिला देती, दुलार से लदी चली आती उनके कंधे पर और उनका गुस्सा पल भर में काफूर हो जाता…। बल्कि कभी-कभी सोचते थे वे कि क्या वे इसीलिए गुस्से का अभिनय करते हैं कि नंदी उनके करीब आए, हँसे… खिलखिल…

अबकि वे ही गए थे उसके पास, हल्के से उसे कंधे से हिलाया था, नंदी… नंदी… क्या सोच रही हो… चुप क्यों हो गई आखिर…। तुम्हारे लिए ही तो कहता हूँ न… पीएचडी पूरी हो गई तो अपने पैरों पर खड़ी हो पाओगी तुम… और तुम हो कि…। बिल्कुल भी ध्यान नहीं देती…

नंदी ने चुपचाप नोटबुक खोल लिया था… वे बोल रहे थे… भीकाजी कामा, जीवनकाल 1861-1936, मुंबई। इस पारसी महिला ने भारत की स्वतंत्रता के लिए बहुत काम किया है। शुरुआती शिक्षा मुंबई के पारसी लड़कियों के लिए अलग बने पाठशाला में। फिर लंदन गईं और लंदन को ही अपना कर्मक्षेत्र बनाते हुए वहाँ रहनेवाले क्रांतिकारी युवकों की मदद की। वे हिंसा की पक्षधर नहीं थीं पर उनका यह विश्वास था कि यदि हम भीषण संग्राम नहीं करें तो अंग्रेजों की मजबूत पकड़ से हमारा छूटना मुश्किल है। क्रिसमस के तोहफे के रूप में उन्होंने भारतीय युवकों के लिए जो उपहार भेजतीं वह ऊपर से तो एक खिलौना होता था पर भीतर से पिस्तौल।

स्त्रियों को समान अधिकार मिले इस बात पर मैडम कामा का जोर बहुत ज्यादा था। वे कहती थीं ‘पालना झुलानेवाले हाथों को बेकार या कमजोर मत समझो। इन्हीं हाथों ने तुम्हें शूर-वीर बनाया है। देश की स्वतंत्रता के लिए इन हाथों के योगदान को कम मत आँको… इनकी मृत्यु 13 अगस्त 1936 को अपनी जन्मभूमि मुंबई में हुई।

हनीफ सर कह रहे थे, जरूरी बातें मैने इनके संदर्भ में बता दी है, उम्मीद है तुम अब इसे विस्तार दे ही दोगी। दूसरी महिला हैं – वै.मु. कोदैनायकी… नंदिता ने इशारे से थोड़ी देर रुकने को कहा था। वह अपने विचारों से उलझ रही थी। कहीं इस बीच कुछ छूट चला तो… हनीफ सर कितना कुछ करते है उसके लिए। कहाँ-कहाँ से ढूँढ़-ढूँढ़ कर नोट्स लाना, किताबें लाना। उसे पढ़ाना और वह… फिर अचानक शर्मिंदगी का यह स्वरूप बदल गया था। हालाँकि शर्मिंदा अभी भी वह खुद से ही थी… लेकिन उसका मन हुआ था वह कुछ भी न लिखे, हनीफ सर का बताया-समझाया तो कुछ भी नहीं। वह इतनी कमजोर, दीन-हीन सी क्यों है? क्यों नहीं होता उससे खुद ही कुछ भी। थीसिस उसे लिखनी है, ढूँढ़े, मेहनत करे… आखिर हनीफ सर क्यों करें उसकी मदद… वह सोच रही थी और सोच-सोच कर और भी ज्यादा शर्मिंदगी में डूबी जा रही थी… इतने-इतने साल पहले की ये औरतें आजादी के संघर्ष में खुलकर सामने आई। मर्दों के कंधा से कंधा मिला कर लड़ीं… और वह, आज के जमाने की एक लड़की… उसे सब कुछ रेडीमेड चाहिए। धूप, धूल हवा सब से बचाए रखेगी अपने आप को और तुर्रा यह कि थीसिस भी पूरी करनी है। कोई दे दे थाली में उसे सब कुछ परोसकर…। उसने देखा वे सारी औरतें हँस रही थी उस पर… फिर उसे लगा वे उस पर नहीं खुद पर हँस रही हैं कि इन्हीं की खातिर… इन्हीं की आजादी के लिए… समानता के इसी अधिकार के लिए…

वह शर्मिंदा थी खुद पर और उसने इस शर्मिंदगी को कम करने के लिए खुद से कहा और सच्ची-मुच्ची दिल से कहा, अब इसके बाद किसी की भी हेल्प नहीं हनीफ सर, वसीम यहाँ तक कि एमी से भी नहीं…। सच्ची-मुच्ची… उसने मन ही मन अपना कान पकड़ा था…

पता नहीं क्या होता जा रहा है उसे… अल्ल-बल्ल सोचती रहती है हर वक्त… और इस सोचते रहने का परिणाम देख ही चुकी है वह… फिर उसने मन बदलने के लिए सोचना चाहा था… यह मैडम भीकाजी कामा रही कैसी होंगी… कुछ देर सोचती रही थी वह पर कोई नक्श ठीक-ठीक नहीं उभर के आया था उसके आगे। उसने कभी फ्रॉक पहने एक सुंदर सी महिला की कल्पना की, कभी साड़ी में लिपटा एक शालीन सा चेहरा। पर नक्श फिर भी उभर कर नहीं आ रहे थे ठीक-ठीक। अचानक उसे खुशी हुई चेहरा अब साफ हो चुका था। पर फिर वह जोर से हँस पड़ी थी… कल्पना में आया वह चेहरा एमीलिया का था। धत तेरे की, उसने सोचा… उसने अपनी दुनिया कितनी सीमित कर रखी है। गिने-चुने लोग… गिनी-चुनी जगहें, गिने-चुने पल। यह सच है कि एमी अपने तई क्रांतिकारी है, अपने आप में अलग सी… पर उसके सिवा कोई और भी… उसने अपने दिमाग की स्लेट से भीकाजी कामा का चेहरा मिटाया, इस तरह एमी का भी… उसने नोट्स लेने के लिए खुद को तैयार किया और उसे हतप्रभ देखते हनीफ सर से कहा, वह भी इशारे में ही ‘सर, अब ठीक… आप बोलें’…

व.मु. कौदेनायकी गांधी जी के अहिंसा की पक्षधर थीं। वे मूल रूप में लेखिका थीं। उस जमाने में जब किसी महिला का लिखना तुच्छ या कि बुरी बात समझा जाता था उन्होंने सोलह उपन्यास लिखे। इसके अलावे बच्चों के लिए पत्रिका भी निकाली। पूरे 26 वर्ष तक ‘जगतमोहिनी’ नाम की इस पत्रिका को निकालकर उन्होंने यह साबित किया कि महिलाएँ भी अच्छी संपादक हो सकती हैं।

जिस हिम्मत से वे अपने लेखन के अधिकार के लिए लड़ी थी उसी हिम्मत से उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भी भाग लिया। गांधीजी की प्रार्थना सभा में वे भक्ति गीत गाती थीं और आजादी के भी। उनकी लेखनी की तरह उनकी वाणी में ओज और मिठास का समन्वय था।

1914 में वे एनी बेसेंट से मिलीं और उनकी प्रिय सहेली बन गईं। उन्होंने रेशमी कपड़ों की होली जलाई और खुरदुरी खादी की साड़ी पहनने लगी। और सिर्फ इतना ही नहीं खादी के कपड़ों की गठरी उठाकर वे गली-गली घूम-घूम कर बेचतीं भी। उनके भाषण जोश जगानेवाले होते। नशाबंदी के पक्ष में वे शराब के दुकानों के आगे धरना देतीं। उनके सारे कदम सरकार द्वारा लगाई गई रोकों के खिलाफ थे। 1934 में वे कैद कर ली गईं और उन्हें बेलौर जेल में रखा गया। इस जेल में कई तरह की महिला कैदी तरह-तरह की अपराधों की सजा भुगत रही थीं। उन्होंने उनके जीवन को आधार बना कर भी उपन्यास लिखा। उनका जीवन-काल 1901 से 1960।

नंदिता नोट्स लिखने के साथ-साथ सोच रही थी लिखना अपने आप में कितना महान कार्य होता है। किसी उद्देश्य के लिए, समाज को बेहतर बनाने के लिए लिखना… कोदैबनायकी ने अपनी इस क्षमता का कितना बेहतर उपयोग किया… और एमी भी तो रात-रात भर जाग कर लिखती रहती है… बेचैन सी। और वह बेवकूफ निहारती रहती थी उसे बस। उसे कोई जरूरत न पड़ जाए इस आशा में जागती सी। वह तब भी कहती एमी से… काश, मैं भी लिख पाती तुम्हारी तरह… लिखना कितना अच्छा लगता होगा न।

एमी हँसती, कहानी लिख सकती है तू… कोशिश तो करके देख… पर उसे हमेशा लगता एमी उसका दिल रखने के लिए कह रही है… बस।

हनीफ सर जाने को खड़े हुए थे। हमेशा की तरह न नंदी उन्हें रोकना चाहती थी न वे रुकना। बस मन उनका बहुत खाली-खाली सा हो चला था। वे सोच रहे थे खुद… आखिर क्या हुआ है ऐसा… वे सोच रहे थे इतने दिनों से। नंदिता से उन्हें धीरे-धीरे एक दूरी बनानी है… उसका थीसिस पूरा हो जाए बस। पर ऐसा करते हुए… याकि जब सचमुच ऐसा हो रहा है वे उदास क्यों हैं इतने आखिर। … जैसे कोई चीज छूट रही है उनके हाथों से। जैसे खरगोश का कोई नन्हा बच्चा उनकी हथेलियों की कैद से आजाद हो कर भागने की तैयारी में हो। और उसे यूँ आजाद होते देखना उसे पसंद न हो…

नंदी ने भी तय कर लिया है, जाएगी वह हनीफ सर के साथ और वहीं कहेगी उनसे सब कुछ सच-सच… आगे… आगे सर की मर्जी… उसने देखा, खिड़की से जाते हुए सर ने एक बार भी पलट कर नहीं देखा उसकी तरफ… वह उदास नहीं होना चाहती थी पर कुछ खाली-खाली सा तैरने लगा था उस सूनेपन में। नंदिता ने सर की दी किताब उठा ली थी। उलट-पुलट कर देखा था उसे… कितनी कितनी बार… पर एक पिंड था समय का जो न आगे खिसक रहा था न पीछे। अपनी जगह पर जड़ा-अड़ा सा बैठा था। मनाने की चाह में रूठ कर बैठे बच्चे की तरह… उसका मन भारी-भारी हो आया था।

13

जब दरवाजे की घंटी बजी तो नंदिता के मन में हठात यह प्रश्न उगा था, कौन हो सकता है इस वक्त? आखिर कौन? वह जानती थी हनीफ सर तो बिल्कुल भी नहीं हो सकते। जाने के एक दिन पहले तो वह कभी भी उसके घर नहीं आएँगे। यह वक्त उनके हिसाब से उनकी पत्नी और उनके परिवार के लिए होता है। और वह भी तब जब उन्हें दस दिनों के लिए बाहर जाना हो। तो क्या वसीम…? उसने खुद को बरजा था। वह क्यों चाहती है कि वसीम उस तक आए। उसने खुद ही तो उसे यहाँ आने से मना किया है… फिर उसका इंतजार क्यों?… उसने जैसे खुद को ही झुठलाया वह क्यों करेगी उसका इंतजार…? उसे वसीम से क्या मतलब? जैसे आया था अचानक उसकी जिंदगी में उसे उसी तरह चले भी जाना होगा। उसके भीतर बसी किसी दूसरी मैं ने कहा था… क्या सचमुच…?

इसी ताने-बाने में उलझी वह दरवाजे तक आ चुकी थी। उसने एक बार अपने बालों में उँगलियों से कंघी की फिर उन्हें पीछे की तरफ सहेजा। सबके सब चेहरे पर फिसले आ रहे थे। चेहरे पर फिसलना एक मुहावरा हो सकता है लेकिन अनायास ही उसके इस प्रयोग से उसे फिर वसीम की याद हो आई… उसके बीमार चेहरे पर फिसलती उसकी उँगलियाँ, उसका ताप हरती उँगलियाँ… क्या यह सब कुछ एक चेहरे को देख कर फिसलने जैसा था… बस देख कर मर मिट जाने जैसा कुछ… और नहीं तो क्या? कितना जानता है वह उसके बारे में… वही कुछ न जितना उसने बताया होगा भावोद्रेक के क्षणों में… कितने समय से… पर दावे इतने बड़े-बड़े… बातें इतनी गहरी। यह सब कुछ सिवाय क्षणिक आकर्षण के और क्या…

उसने चलते-चलते फिर खुद को बरजा था। दरवाजे पर कोई है। उसने अपने टॉप को पीछे से खींच कर सीधा किया, पाजामे के नाड़े को अंदर समेटा और फिर दरवाजा खोलने को उद्धत हुई। उद्धत होने की इस प्रक्रिया में कुछ क्षण जरूर बीते होंगे। अचानक उसे खयाल आया बेल एक बार बजने के बाद दुबारे नहीं बजी। क्या सामनेवाला व्यक्ति लौट चुका है। पर नहीं। खिड़की पर कोई आड़ी-तिरछी परछाई बन रही थी… जड़ जैसी, बिना हिल डुल। उसे सामनेवाले व्यक्ति के धैर्य पर आश्चर्य हो आया था…

सामने कोई चालीस-पैंतालीस वर्ष की महिला थी, घुँघराले बाल, मृदु चेहरा, शहद सा रंग। कुल मिला कर सब कुछ बहुत मीठा और सहज सा। वह हैरत में खड़ी की खड़ी है। कौन है यह, क्यों मिलने आई है उससे। गलत पते पर तो नहीं आ गई… उसने जुबान को जबरन सहेजा है… जी आप? जवाब में कोई उत्तर नहीं मिला है। दो निगाहें जो देख रही हैं उसे… पहचान-परख रही है बड़े प्यार से। इसीलिए तो उनका यूँ एकटक देखना भी उसे घूरना नहीं लगता… उत्तर में भी एक प्रतिप्रश्न ही… तुम नंदिता हो, है न? हाँ, वह सिर्फ इतना कह कर चुप हो जाती है। जबकि वह जानती है कि उस औरत की जगह कोई और होता तो वह जरूर कहती … आपको क्या लगता है? या आप किससे मिलने आई हैं।

उसने सोचा क्षण भर को, इस औरत में कुछ तो है ऐसा जो दूसरे के मन की कटुता और तीतेपन को भी प्रभावित करता है। क्या प्रभामंडल इसे ही कहते हैं, उसने गौर से देखा था। कोई आभा, कोई प्रभा नहीं थी उसके चारों तरफ। थी तो बस एक सहज सी मिठास। उसी मिठास से बंध कर कहा था उसने अंदर आइए… भीतर आ कर बातें करते हैं, आराम से। वह सरक कर उसके ठीक बगल से भीतर को आ रही थी और वह सोच रही थी ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ कि बिना नाम-परिचय जाने हुए उसने किसी को घर के भीतर घुसने दिया हो। यह कोई सेल्स गर्ल हुई तो… या फिर… नाम पता तो कहीं से मालूम किया जा सकता है। औरत ने शायद उसके पशोपेश को भाँपा था… मैं वसीम की अम्मी हूँ। उसने यह नहीं कहा था कि मैं हनीफ मियाँ की पत्नी हूँ। ऐसा उसने जान बूझ कर किया था। पर नंदिता को लगा जैसे उसने कहा हो, मैं हनीफ मियाँ की पत्नी हूँ। वह चौंक पड़ी थी अचानक। अपने पर कोई काबू नहीं रह गया था उसका… उठ कर खड़ी हो चली थी यूँ ही। फिर यह सोचा था कि वह उठी क्यों, तो सिकुड़ती-सिमटती सी बैठ गई थी अपने आप में। यह जानते हुए भी कि यूँ सिकुड़ना-सिमटना उसकी फितरत नहीं है।

उन्होंने कहा था नंदिता से… वसीम तुम्हारी बहुत बातें करता है। उसने फिर सुना… हनीफ मियाँ तुम्हें इतना पसंद क्यों करते हैं… चुप रहने के सिवा कोई दूसरा उत्तर नहीं था उसके पास, कहे और अनकहे दोनों प्रश्नों के जवाब में।

उन्होंने फिर पूछा था तबीयत कैसी है तुम्हारी…? …उसने सुना था तुमने वसीम को भी इसी तबीयत के बहाने छीन लिया न मुझसे…? उसे अजीब सी बेचैनी हो रही थी; एक सकपकाहट जो उसने पहले कभी नहीं महसूस किया था। जैसे कोई चोर हो मन में। …यह सब अहसास नंदिता के लिए नया-नया था। वरना उसने हमेशा जो भी किया था सीना तान कर किया, उसे अपने जीवन का सबसे बड़ा सच माना… और जो भी निर्णय लिए दिल की बात को सुनते हुए ही… कहते हैं दिल की आवाज कभी गलत नहीं होती। …तो अब क्यों हो रही थी… नंदिता अपराधी सी किसी के सामने आखिर कैसे? क्या सच्चाई व्यक्ति सापेक्ष भी होती है, समय और समाज सापेक्ष की तरह। सामनेवाले व्यक्ति की चुप्पी, उसका सदाचार, उसकी सहिष्णुता तुलनात्मक रूप से उसे छोटा बना रहे थे; कुछ-कुछ ओछा भी। वरना नंदी को भी गर्व था अपने पर और और वह भी बेतरह। नंदी अब तक लगातार चुप ही चुप थी। वह समझ भी नहीं पा रही थी कि बोले भी तो क्या बोले। वह पानी लाने के बहाने उठी थी कि इसी बहाने वह अपने व्यवहार और प्रतिक्रियाओं को संयमित कर सके… यह तय कर सके कि उसे किस तरह से पेश आना है…

नंदिता जब उठकर पानी लाने गई नसीमा यही सोच रही थी कि यह लड़की उतनी सहज-सरल नहीं। इससे कुछ भी अपने मन का कुबूल करवा लेना इतना आसान नहीं जितना कि वह सोच कर निकली थी। उन्हें कल की रात लगता रहा था कि वसीम इतना परेशान क्यूँ है। ऐसी तो कोई बात हुई ही नहीं। दुनिया की कौन सी लड़की होगी जो इतना प्यार करनेवाले लड़के और वह भी जब वह शक्ल-सूरत से भी माशाअल्लाह इतना खूबसूरत हो, उसे मना कर सकती है। पर वह ताब-आब है इस लड़की में। एक अजीब सी तटस्थता, वीतराग जैसे अपने उम्र से बहुत-बहुत बड़ी और समझदार हो वह। उसने सोचा वह एक माँ की तरह सोच रही थी। आखिरकार उसका कलेजा भी तो एक माँ का ही था। ‘भी’ उसने इसलिए सोचा कि ‘ही’ सोचते हुए उसका मन और ज्यादा काँप रहा था…।

खुद अपनी खातिर ही नहीं वसीम की खातिर भी। उसने पूछा था वसीम से कि वह तो उसे पसंद करता है, पर क्या नंदिता… जवाब में वसीम के हर तरफ बस एक लंबी सी चुप्पी थी। उस अंतहीन चुप्पी से घबराकर उसने बातों का रुख दूसरी तरफ कर लिया था… वह चुप्पी उसे अब परेशान कर रही थी। और फिर कल रात का सपना रह-रह के उसकी आँखों को गड़ने लगता था। वसीम से बात होने के बाद जो सपना कहीं अतल कोहरे में गुम हो गया था अभी मुँह उठाकर इस चेत में भी दिखने लगा। वसीम पर उस दिन उसे बहुत प्यार आया था। हमेशा से भी ज्यादा। उसके लाड़ले बेटे ने उसकी सारी परेशानियाँ खत्म कर दी। वह जानता है क्या कि एक ही चिंता है उसकी अम्मी को, कहे कि न कहे मुँह से वह? और उसने अपनी पूरी ताकत से उस परेशानी की जड़ को ही उखाड़ फेंकने की कोशिश की थी। ऐसे ही वह वसीम को अपना लाड़ला बेटा नहीं मानती थी…

…और चली जाना हो तो रातोंरात चली जाए वह वसीम की जिंदगी से। एक से एक खूबसूरत और सलीकेमंद लड़कियाँ मिल जाएँगी उसके वसीम की खातिर। वह तो…

पल भर को वह स्वार्थी हो चली थी। पर जब वसीम के जर्द चेहरे पर उसकी नजर गई तो फिर वे ऐसा नहीं सोच सकीं। उनका लाड़ला बेटा… उसे उसकी चाही हुई हर चीज मिले दुनिया में। और इसके लिए उन्हें भी चाहे जो कुछ करना पड़े करेंगी।

नंदिता जितनी देर लगा रही थी, उन्हें उतनी ही राहत थी। वे तैयार कर सकती हैं इस बीच खुद को। कैसे कहेंगी वे उससे कुछ? क्य कहेंगी?… नंदिता ने भी ट्रे में नमकीन, बिस्किट, पानी सजाते-सजाते खुद को तैयार कर लिया था, हर सवाल, हर स्थिति के लिए। नंदिता जब उनके सामने आई उन्होंने फिर एक बार गौर से देखा। नंदिता का चेहरा सपने में देखी गई नंदिता के चेहरे से मिलता है क्या? उन्हें राहत मिली उसका चेहरा उस नंदिता से बिल्कुल नहीं मिलता। उन्होंने फिर गौर से देखा और एक बार फिर राहत की साँस खींची। सच सामनेवाला वह चेहरा कुदैशा बेगम की जवानी की पुरानी तस्वीर जैसा था। लेकिन फिर कुछ खटका और गड़ा भीतर तेजी से… वो नंदिता की बेधती हुई आँखें थी… ठीक सपनेवाली नंदिता जैसी… उससे पूछती हुई… हनीफ सर ने अगर मुझसे प्यार किया, वसीम ने अगर मुझे पसंद किया तो इसमें मेरा क्या कुसूर?

नसीमा बी के सारे प्रश्न, सारी समझाइशें बिना कहे-सुने अपने आप में सकुचा गई थीं। वे झुँझला उठीं खुद पर। अब एक बार खुद को नए सिरे से सजाओ, तैयार करो… पर तैयार करने की जरूरत ही नहीं पड़ी उन्हें खुद को। हड़बड़ाहट ने अपनी तरफ से एक सवाल दाग ही दिया था, और उन्हें सँभालना था अब सब कुछ उसी सिरे को पकड़ कर… वसीम तुम्हें कैसा लगता है… कैसा मतलब? नंदिता सचेत थी अब यूँ ही निरस्त होनेवाली नहीं…। कैसा मतलब कैसा…। उसने फिर पूछा कैसा क्या…? वे चुप हो गई थीं… वे क्या कहें, जैसे उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था… फिर नंदी ने ही बात आगे बढ़ाई… एक अच्छा शरीफ इनसान, एक अच्छा दोस्त… वे सँभल चुकी थीं थोड़ी-थोड़ी… उस दोस्त या कि अच्छे इनसान के लिए इतना प्यार है मन में कि उसके साथ जिंदगी गुजारने की सोच सको…? क्या कहा आपने… जैसे उसने ठीक-ठीक सुना न हो ऐसे आहत स्वरों में पूछा था। जैसे ऐसे सवाल की अपेक्षा उसे सामनेवाले से बिल्कुल ही न हो। नसीमा बी पहली बार सकुचाई थीं… देखो, वसीम तुमसे प्यार करता है… वह तुम्हारे साथ जिंदगी गुजारने के सपने देखता है और तुम्हारी बेरुखी से टूटा हुआ है बुरी तरह। एक माँ होने के नाते मैं साफ करने आई हूँ सब कुछ। क्या तुम्हें भी उससे प्यार है… नहीं। नंदिता बिल्कुल साफ थी। फिर मैं पूछना चाहती हूँ तुमसे, वसीम को आखिर यह भरम हुआ तो कैसे… थोड़ी देर की चुप्पी के बाद नंदिता ने कहा था – दोस्ती को प्यार समझने की गलती दुनिया में हजारों लोग करते हैं अगर यह गलती उससे भी हुई तो इसमें मैं क्या कर सकती हूँ… नसीमा बी बिल्कुल झुँझला उठी थी। कितनी ढीठ लड़की है यह। सामनेवाले की भावनाओं का इसे जरा भी खयाल नहीं… अब इससे पूछे कोई कि…

नंदी रौ में थी और वह झिझकी नहीं थी सच कहने से… अगर यह सब आप उस रात की घटना के कारण कहने आई हैं तो सुनिए, उस रात के घट जाने से मेरे जीवन में कुछ भी नहीं बदला… और वह मेरे लिए किसी नए रिश्ते का कारण नहीं हो सकता। उसे घटना था, घट गया; उसके घटने में मैंने वसीम को भी दोषी नहीं माना है, वर्ना दोस्त के दर्जे से भी कहीं दूर ले जा कर फेंकती वह नाम। पर नहीं… माना कि देह अहम होता है एक स्त्री-पुरुष के रिश्ते के बीच… पर महज देह की खातिर कोई रिश्ता बन सकता है क्या… और जहाँ देह नहीं वहाँ कोई रिश्ता ही नहीं हो यह भी तो जरूरी नहीं…

नसीमा बी भौंचक थीं… यह बित्ते भर की लड़की कैसी बातें कर रही है… ‘उस रात’ से इसका मतलब? क्या वसीम के रुकने भर से या कि कुछ और भी अहम्… उँह… नहीं… यह तो देह-देह जैसा कुछ कह रही है। नसीमा बी ने जैसे खुद को सहेजने की कोशिश कि… वे सकते में थीं। कैसी है यह लड़की… आजकल की लड़कियाँ तो… वसीम ने तो अपनी तरफ से उसे कुछ भी नहीं कहा था; इतने करीब होने के बावजूद और यह लड़की तो चीख-चीख कर कहे जा रही है… उसने खुद के बारे में भी सोचा… वह तो किसी से न कह पाए ऐसा कुछ… और कोई क्या, उसने तो आज तक हनीफ मियाँ से भी… आखिर यह लड़की इशारों-इशारों में ही उसे बताना चाहती है तो क्या… पर वे मुँह नहीं खोलेंगी उन मुद्दों पर, खासकर उससे तो हर्गिज नहीं… अपने भरोसे पर उन्हें भरोसा है, और उसे थामे रहना है उन्हें बिना किसी शक-सुबहा के… उन्हें भरोसा है अपने भरोसे पर क्योंकि सिवाय उस भरोसे के उनके पास चारा भी कहाँ है कोई दूसरा। रात का सपना फिर उन्हें मुँह चिढ़ा रहा था। अपना वह यकीन भी, जिसे वे अपने साथ ले कर आई थीं और जिसके सहारे वसीम के आँसू पोंछे थे उन्होंने…

उन्होंने अंतिम बार कहा था नंदिता से, और निर्णय के स्वरों में – मुझे कोई जल्दी नहीं है, सोच लो तुम, तुम्हें जितना भी वक्त लेना है… उनकी उम्मीद के अनुसार पहली बार नंदिता ने यह नहीं कहा था – ‘मैं सोच चुकी हूँ अच्छी तरह, या कि मेरा निर्णय अंतिम है’… अब चाहे तो इसे ही अपना अंतिम सहारा मान उठ चलती वो संतोष से… पर नहीं, संतोष उन्हें नहीं था, बिल्कुल भी नहीं। वह इस लड़की से फिर-फिर हार गई थीं।

नंदिता ने नसीमा बी के जाने के बाद भी देखा वह कुर्सी खाली नहीं थी, वे अब भी वहाँ थीं, लगातार… अपनी इच्छाओं, सवालों के साथ… उसने नजरें चुराने की खातिर सामने पड़ी पुस्तकों को देखा था। हवा से फड़फड़ा कर खुले उस पन्ने पर लिखा था ‘सप्तभंगवाद’… उसने ध्यान से पढ़ा – विरोधी दृष्टिकोण पर भी विचार करना चाहिए। कई बार जो बातें विरोधी मालूम पड़ रही है, उन्हें विचार करने के बाद तुम अपनी बातों के समान ही पाओगे। अपने चित्त से संकीर्ण विचारों को निकालो। दूसरों के दृष्टिकोण और समझ को सहानुभूति पूर्वक देखो…

14

एमीलिया को खुद भी पता नहीं था, वह वसीम को इस तरह बार-बार फोन करती थी तो क्यों; वह उससे आज मिलने जा रही थी तो क्यों। मिलना तो उसे नंदिता से चाहिए था। पर उसे उस पर क्रोध आ रहा था, बेतरह। इस लिए जब उसका एसएमएस आया ‘हम मिल सकते हैं क्या’ तो उसने झूठ ही लिख दिया था कि वह आनंदवन में है। जबकि आनंदवन से वह परसों ही लौटी थी और खूब थक लेने के बाद थकान उतारने की खातिर दो-तीन दिन घर में ही आराम करना चहती थी। नंदी ने पूछा था ‘फिर मैं भी आ जाऊँ? बच्चों के सथ भला लगेगा मुझे।’ एमी ने फिर जवाब दिया था, फोन किए बगैर… यहाँ से मुझे कहीं और निकलना है और तुम्हें भी देर हो जाएगी आते-आते। फिर मिलते हैं किसी दूसरे दिन… वह जानती थी कि यह दूसरा दिन जल्दी नहीं आनेवाला था। नंदी कल ही चली जाएगी शायद हनीफ सर के साथ… वसीम ने ऐसा ही तो कुछ बतया है उसे… फिर भी… उसे जबकि खुद नंदिता को बुलाकर समझाना था… उसने खुद से कहा – फायदा नहीं कोई… वह अड़ी रहेगी अपनी जिद पर। ऐसा ही तो करती रही है वह। और खुद नसीमा बी भी तो गई थीं उस तक… फिर उसने खुद से ही कहा था, नसीमा बी और उसमें फर्क है। नंदी के लिए तो और भी ज्यादा… उसकी बात… वह फिर भी नहीं मिलने गई… और अब मिलने जा भी रही है तो वसीम से… क्यों…क्या कर लेगा वह रोता बिलखता बच्चा। उसे थपकियाँ दे कर सुला पाएगी क्या…? पर उसके लिए भी उसकी माँ है उसके पास…

बिना तर्क के, बेमकसद काम वह ज्यादा करने लगी है आजकल। कुछ वैसे ही काम जिसके लिए नंदी को पहले अक्सर चिढ़ाया करती थी। बारिश की गीली फुहारों में खुद को भींगने देना। अकेले में खुद से बतियाना। कोई न कोई भूली-बिसरी धुन गुनगुनाते रहना। ठोस बातें और ठोस चीजें जैसे अपना अस्तित्व ही खोने लगी हों। पिछले पंद्रह दिनों में उसने एक भी लेख नहीं लिखा। कभी खिड़की के पल्ले से सिर टिकाए बैठती है तो कभी बेड पर बैठते-बैठते धम्म से नीचे… खयालों की किस रुमानी दुनिया में डूबी हुई है वह इन दिनों उसे खुद पता नहीं। वो-वो ही नहीं रह गई हो जैसे… उस वसीम को जिसे कभी उसने देखा तक नहीं, नंदी से जिसका जिक्र भर सुना है और जिससे फोन पर बातें भर हुई है उसकी… उसके लिए मन में न जाने कितना कुछ उमड़ता-घुमड़ता पाती है। उसकी तकलीफ उससे सही नहीं जाती। जी तो बस यही चाहता है कि किसी तरह वह उसके सारे के सारे दुख ले लेती… कि बन सकती उसकी किसी खुशी का वायस तो जिंदगी जैसे सार्थक हो जाती उसकी। अपने बचपन की दोस्त नंदिता को इस सबके लिए कसूरवार मानने लगी है वो… जबकि वह जानती है कि वसीम ही उससे प्यार करता है, बेपनाह… फिर भी… उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह उसे… वह नंदिता होने से खुद को रोकती रही थी उम्र भर… कि उसने अपना वह हिस्सा दबाकर रखा था… पर वही हिस्सा उफान मार-मार कर ऊपर आने लगा है इन दिनों। …वह आज समझ पा रही है एक-एक कर सबको… पिता, पहली एमीलिया, हनीफ सर और नंदिता को भी।

उनकी यातना अब उसे समझ में आ रही है… कौन चाहता है वह किसी से प्यार करे और यूँ टूटकर करे कि खो दे अपना आपा ही। पर होता तो ऐसा ही है… अपनी सुधबुध, अपना सुख चैन खोकर प्यार मिलता है क्या किसी को…? पर हम करते हैं प्यार, यह मान कर भी कि दूसरों की जिंदगी में शायद हम कहीं न हों, कहीं भी नहीं… फिर भी। नंदी, एमीलिया और अब हनीफ सर के बाद वह खुद भी तो… किसी असुरक्षाबोध, किसी कल की चिंता रह-रह कर सताती है तो सताए… वह सिरे से माफ कर देना चाहती है सबको… हाथ जोड़-जोड़ कर माफी माँग लेना चाहती है सबसे… सबसे पहले पिता से फिर नंदी से… सबसे ज्यादा ज्यादतियाँ तो उसने इन्हीं दोनों के साथ की है, फिर हनीफ सर से भी कभी… पर वह यह सब करे भी तो कैसे… कहे भी तो क्या… यह कि उसे प्यार हो गया है… और दूसरों की मजबूरी, दूसरों की भावना को अब वह भी समझ सकती है… हाँ, वह यह भी चाहती है कि वह चीख-चीख कर सबसे कहे यह बात। पर सबसे कहने से पहले उसे खुद दिल से इस सच्चाई को स्वीकारना होगा और फिर… यह सब कुछ वसीम से कहना होगा… क्या सोचेगा वह, यह सब सुनकर… कभी मिले तक नहीं दोनों और उसे प्यार हो गया है… किस बात से, कैसे… कैसे कह पाएगी वह… उसने वसीम को बुला तो लिया है… वह और ज्यादा परेशान हो उठी थी सोच-सोच कर…

उसने आल्मारी खोली तो लगा उसके पास तो कपड़े ही नहीं हैं बिल्कुल। नंदी के जैसे अच्छे और सहेज कर रखे तो बिल्कुल भी नहीं। वह साथ होती थी तो दो-तीन सूट जिद करके ही सही उसे भी दिलवा देती। उसके कपड़े खुद ही सहेज कर रखती… पर वह नहीं थी तो कपड़े यूँ ही आधे-अधूरे, पुराने बेढंगे से… साबुत और अपेक्षाकृत कुछ अच्छे जोड़ों को चुनकर निकाला था उसने… यही कपड़े पहन कर तो वह हर जगह जाती-आती रही है। उसे कभी झेंप नहीं हुई; न ही शर्म आई… फिर आज क्या नया हो गया था कि… उसने सोचा वह एक-दो जोड़े कपड़े तो जरूर बनवा लेगी। फिर उसने उनमें से ही जो ढंग का लगा एक जोड़ा निकाल लिया। फिर दूसरी दिक्कत… इस दिक्कत को वह आज पहली बार महसूस कर रही थी… उसके कपड़ों में कभी दुपट्टे शामिल ही नहीं रहे, बस जींस-कुर्ता या कि चूड़ीदार-कुर्ता।

पता नहीं क्यों उसे लगा कि वसीम के सामने उसका यूँ बिना दुपट्टे के जाना, वह भी पहली-पहली बार कुछ ठीक नहीं लगेगा। यह जानते हुए भी कि वसीम प्रगतिशील है, वह परेशान हो रही थी… पता नहीं उसने यह धारणा कहाँ से बना ली… क्या सिर्फ उसके मुस्लिम होने से… उसे खुद पर खीज आ रही थी… खैर जो भी हो, उसे आज जाना तो था ही। और ऐसे जाना था कि वसीम की नजर में उसकी छवि सँवरे, बिगड़े नही… उसने अचानक से नंदीवाले कपड़ों की आल्मारी खोली थी जिसमें उसके कुछ पुराने से कपड़े पड़े थे यूँ ही। उसमें उसे एक चुन्नी भी मिली, बँधेज की… रंग हालाँकि कुछ उचाट हो गए थे उसके, पर… उसे याद आया उस दिन दिल्ली हाट में नंदी ने उसे कितनी बार कहा था… दो-एक चुन्नी तो ले ले… देख कितनी प्यारी है… मल्टी कलर्ड हैं… किसी भी कपड़े पर चल जाएँगे ये… वैसे भी धूप-गर्मी में बौराती फिरती रहती है तू, सिर पर रखेगी तो… एमी ने तब झिड़क ही दिया था उसे… तू ही ले, मुझे कोई जरूरत नहीं इनकी… मुझे नहीं पसंद है ढाई मीटर का यह ओढ़ना… ऐसा क्या है हमारे शरीर में जिसे ढाँकने की जरूरत पड़े, जिस पर हमें शर्मिंदा होना पड़े… जब हमें ईश्वर ने ऐसे ही… और फिर एक अतिरिक्त खर्च नहीं है यह… जिसके बिना भी हमारा काम चल जाए… नंदी जानती थी, एमी कभी नहीं खरीदेगी दुपट्टा या फिर नेल पॉलिश… उसके तर्क उसकी जगह वाजिब भी थे पर खुद का क्या करे नंदिता जो रंग-बिरंगे दुपट्टे या फिर नेल पॉलिश देखकर चहक उठती है… खुद तो लेती ही है, एमी से भी इसरार कर बैठती है…

उसने सबसे ढंग का एक सूट निकाला था, प्रेस किया था… दुपट्टे को मैच कराके देखा… चल ही जाएगा इस पर… और फिर तैयार होने लगी।

उसका भी जी हुलसा था, आज नंदी की तरह वह भी मैचिंग नेल पॉलिश लगा ले… हल्की सी लिप्स्टिक और थोड़ा सा फेस पाउडर भी। यानी वह सब कुछ जिसे करने से अब तक परहेज करती रही है वह। एमी वह सब कुछ कर लेना चाहती थी जो उसे खूबसूरत बना दे, वसीम की नजर में। पर वह जानती थी कि नंदी की आल्मारी में कोई लिप्स्टिक या नेलपॉलिश नहीं छूती, पुरानी-धुरानी भी नहीं।

…फिर उसने खुद को ही बरजा था… यह सब क्या पागलपन कर रही है वह… वह जैसी है वैसी ही भली… जिसे पसंद करना होगा, स्वीकारना होगा उसे, वैसे ही स्वीकार लेगा… और स्वीकार ही लेगा इसकी क्या गारंटी है… अभी तो नंदी के प्यार में सिर से पाँव तक डूबा हुआ है वह… उसे दिखेगा भी तो कौन और क्यों… वही है कि बेवजह जान दिए जा रही है अपना… बस उसे सुकून है तो एक… नंदी प्यार नहीं करती उससे, बिल्कुल भी नहीं। नहीं तो… पहले तो वही कहती रही उसे जबरन दवाब देकर वसीम को अपना ले वह… फिर जब वसीम से मन जुड़ने लगा था तो अपने को रोकने और उसके मन को टटोलने की खातिर… फिर अचानक ही चुप लगा गई थी वह… वह क्या करे अगर नंदी वसीम से प्यार नहीं करती तो… इसमें वह क्या कर सकती है… अब किसी के मन को किसी दूसरे के साथ जबरन बाँध तो नहीं सकते न… कोई खुद भी चाहे तो ऐसा कहाँ कर पता है… अब उसके पापा को ही देखो, दो टूक हो कर चल दिए थे उस एमीलिया की खातिर सबसे… बाद में उसके मोह से बंध कर चले भी आए वापस उसकी माँ के पास, तो मन बंध पाया कभी उन दोनों का… किसी मजबूरी के तहत…

वह एक बार फिर अपने होने को लेकर संतप्त और शर्मिंदा थी। पर इस बार माँ या माँ के जीवन के लिए नहीं, उस अज्ञात एमीलिया के लिए। उसके होने ने उससे उसका सब कुछ छीन लिया था, उसका प्यार तक… और जिंदगी से किसी के प्यार का निकल जाना क्या होता होगा, कैसा होता होगा उसका दर्द वह अभी समझ पा रही थी… जब खुद के नकारे जाने का भय… खुद के अस्तित्व को झुठला दिए जाने का खतरा उसके इर्द-गिर्द लगातार मँडरा रहा था, एक अज्ञात सी शक्ल में। तैयार होते-होते उसकी आँखों के कोरों तक आँसू की कुछ बूँदें छलछला आई थीं, चुपचाप। और हद तो यह कि उसके पास उस भावाभिव्यक्ति के लिए कोई शब्द ही नहीं था… कोमल मुलायम सा कोई शब्द। उसका पूरा वजूद किसी खास ठोस धातु का सा था, सख्त-चीमड़ जिसके भीतर तप्त सा कुछ बहने लगा था अब, जिसे वह महसूस तो कर रही थी पर उसे अभिव्यक्त कैसे करे उसे पता नहीं था। नंदी जैसी कोमल-मुलायम भाषा उसके पास कहाँ थी, न वैसा कोमल-मुलायम व्यक्तित्व ही। वह गलत ही सोचती थी अब तक कि अपने भीतर की नंदी जैसी को कहीं जबरन दबा और सुला रखा है उसने… पर उसे आज महसूस हो रहा था वह तो वह थी, सिर्फ वह…

उसने देखा, बाहर पिघलती हुई धूप थी। उसने दुपट्टे को अपने सिर पर रख लिया था, धूप से बच सकेगी इस तरह… उसे हैरत हुई थी, धूप की परवाह कब से होने लगी उसे… और ऐसा करते-करते चुपके से आईने में देखा था… वह कोई और ही हो गई थी… भोली, मासूम, प्यारी… कुछ-कुछ नंदी जैसी… नहीं, नंदी जैसी नहीं… बिल्कुल एक नई-नकोर एमीलिया। उसने संशोधित किया था खुद को… और अपने संशोधित ‘मैं’ को लेकर बाहर निकल पड़ी थी वह, एक नई मंजिल की तरफ… उसकी तलाश में।

15

ट्रेन कब चल दी थी उसे पता नहीं चला था। चौंककर जब उसने देखा तो हनीफ सामान सहेजने में लगे थे। वे उसके स्लीपर को भी ठिकाने पर जमा रहे थे, उसे अजीब लगा। वह औचक हो कर उठी थी; ठीक कर दे वह खुद ही, पर तब तक चप्पल ठिकाने रखे जा चुके थे। वह फिर भी उठती कि उसकी फोन की घंटी टिनटिनाई थी, संक्षिप्त सी। कौन हो सकता है उसने सोचा… पर सोचने-सोचने में ही मैसेज खुल चुका था… तो क्या वसीम को पता है कि वह उसके अब्बू के साथ कहीं बाहर जा रही है। वह सोचती रही, पता हुआ तो कैसे…? और गर नहीं पता तो यह मैसेज…?

आज कई दिनों के बाद… उसने चुप्पी लगा ली थी। पिछले कई दिनों से इधर-उधर रहने पर वह दौड़ कर आती कुछ देर बाद, कोई एसएमएस तो नही आया… या कि कभी-कभी फोन की घंटी बजी कि दौड़ कर… आम तौर पर तो फोन कंपनी के ही मैसेज होते… रिंगटोन डाउनलोड करने या कि अलाने-फलाने स्कीम की खातिर। कभी-कभार किसी दूसरे का मैसेज भी… यूँ ही फारवर्ड कर दिया गया हुआ… औचित्य और अर्थ ढूँढ़ना यहाँ बेमानी ही था… कभी कोई हाल-चाल भी पूछ लेता। पर यह एसएमएस अब आया था, इतने इंतजार के बाद… अब जबकि वह इसे बार-बार देखना चाहते हुए भी देख नहीं पा रही थी। क्या कहना चाहता है वह… हमेशा की तरह इस बार भी वह पूछ रही थी खुद से… फिर चुपके से उसने उसे एक बार फिर पढ़ा था…’तू मेरी जान मुझे हैरतो हसरत से न देख / हममें कोई भी जहाँनूर-जहाँगीर नहीं। तू मुझे छोड़के ठुकरा के भी जा सकती है, तेरे हाथों में मेरे हाथ हैं, जंजीर नहीं।’ उसने फिर खुद से ही सवाल किया था, ऐसा क्या है इस में जिसे वह समझ नहीं पा रही। मोबाइल उसने ऑफ कर देना चाहा था… कोई और मैसेज… और अगर हनीफ सर ने पूछा तो क्या कहेगी वह… और हनीफ सर ने पूछ ही लिया था… किसका मैसेज था? मोबाइल ऑफ क्यों कर रही हो…? बस सोना चाहती हूँ… प्रश्न के पूर्वार्द्ध का जवाब अब भी नदारद था। पर बार-बार पूछने या कोंचने की आदत उनकी थी नहीं… उन्होंने प्लेट में कुछ बिस्किट और थोड़े से नमकीन नंदी की तरफ बढ़ाए थे। हड़बड़ी में बस यही रख सका। नसीमा तो रास्ते का खाना भी बना रही थी पर मैंने ही… बोलकर वो बीचमबीच रुक गए थे जैसे कि नसीमा का नाम यहाँ, इस पल में लेकर उनसे कोई गलती हो गई हो… नंदिता कुछ भी नहीं बोली थी प्रतिक्रिया में; बस हाथ धुलने के लिए उठ गई थी और वे उसके चेहरे के भावों को नहीं देख पाए थे।

नंदी हाथ धोकर आ गई थी पर सच पूछो तो आई नहीं थी, अभी-अभी बाहर से, कि घर से ही वो तय नहीं कर पा रहे थे। वह इतनी चुप थी कि उसके न होने का वहम उन्हें लगातार होता रहा। वे बीच-बीच में बोलकर सच्चाई को जानना चाहते। पर उसके छोटे-छोटे हाँ-हूँ से कुछ भी नहीं तय हो पा रहा रहा था। न उसका होना न उसका न होना। उन्होंने हार कर कुछ भी तय करने की कोशिश ही छोड़ दी थी। बिना जवाब के इंतजार की चाहत में उन्होंने कहा था सोना चाहती हो… और चादर पायताने से उठा कर उसके कंधों पर डाल दिया था। बिना उसकी स्वीकारोक्ति के उन्होंने लाइट भी बुझा दी थी। … शायद इस तरह सचमुच सोच सकें कि वे नंदिता के साथ नहीं हैं।

नंदी को अच्छा लगा था अँधेरा किया जाना। इस तरह वह मुक्त थी, हनीफ सर की उपस्थिति से, उनके प्रश्नों से, जवाब देने की गैरजरूरी जरूरत से… वह मुक्त हो कर सोच सकती थी, अँधेरे में वह सब कुछ, तय कर सकती थी जो कुछ भी वह तय करना चाह रही थी। और उसे यह भय अब बिल्कुल नहीं था; सामने बैठा व्यक्ति उसके चेहरे की रेखाओं की जासूसी कर रहा है, पढ़ रहा है बहुत कुछ अनकहा भी। …वह कहना चाहती थी उससे बहुत कुछ पर अपने तरीके से, अपने तयशुदा ढंग से… ऐसे-वैसे तो बिल्कुल भी नहीं… वर्ना इतना वक्त तो नहीं ही लगना था।

हाँ, वक्त गुजर गया था इस बीच कई दिनों का। हनीफ सर को लौटे पूरे दस दिन बीत गए थे और वह नहीं कह पाई थी कुछ भी। बार-बार तय करने के बावजूद… शब्द ही चुकने लगते उसके… तयशुदा शुरुआत का सिरा ही गुम हो जाता कहीं और वह फिर से बिला आवाज।

पर एक बात वह अच्छी तरह से समझ पाई थी गुजरे दस दिनों में। जिस बिना पर वह इन्कारती रही थी वसीम को। खुद वसीम, उसकी अम्मी और एमी से… वह वजह तो कहीं थी ही नहीं कि हनीफ सर के न होने पर जिस बंधन से वह खुद को जुड़ा पा रही थी, बँधा हुआ सा। उनके आते ही उसे लगा वह तो कोई गाँठ थी ही नहीं। एक धागा था जो उलझा हुआ था, यूँ हीं कहीं; जो अपने आप में ही सुलझ गया। बची थी बात नैतिकता की जिसके बंधन में बँधी हुई थी वह… वह चाहती तो खारिज कर देती इसे भी… पर उसने इसे खारिज नहीं किया था। अगर बरसों बरस साथ चला कोई रिश्ता यूँ ही सा हो गया था, तो क्षण के निमित्त बने रिश्ते का क्या ठिकाना। और वह तो तब तक वह खिंचाव भी नहीं महसूस कर पा रही थी वसीम के लिए, जो हनीफ सर के लिए दिनों-बरसों तक महसूसती रही थी वह। भले ही एमी उसे उम्र का तकाजा कह देती रही हो। वह तौलना चाहती थी वक्त के तराजू पर खुद को, अपने हर रिश्ते को… अपने से जुड़े हर व्यक्ति को। और इसके लिए उसे हिम्मत चाहिए थी, वक्त चाहिए था और अनुकूल परिस्थितियाँ भी।

उसने तय किया था तो बस इतना कि उसे कह देना होगा सब कुछ, फिर आगे उनकी मर्जी…

पर तय कर लेने भर से तो सब कुछ तय नहीं हो जाता न। बड़ी अजीब सी बात थी यह जब हनीफ सर नहीं थे, वसीम था साथ में तो वह हर पल हनीफ सर को याद करती रही थी। पर आज जब वो साथ थे, उनके होने न होने से उसे कोई भी फर्क नहीं पड़ रहा था। उसने देखा था चुपके से हनीफ सर सचमुच सो गए क्या और जब उसे सचमुच उनके सो जाने का भरोसा हो गया तो उसने मोबाइल ऑन कर के वसीम के मैसेज पढ़ने शुरू कर दिए थे… ‘अगर मैंने किसी के होठ के पाटल कभी चूमे’… ‘न आज लुत्फ कर इतना कि कल गुजर न सके’… ‘गर बाजी इश्क की बाजी हो’… और अब… ‘तू मेरी जान मुझे हैरतो हसरत से न देख…’

दरअसल उसे इच्छा तो यही हो रही थी कि वह वसीम की आवाज सुन पाए, देख पाए उसे। पर एसएमएस की तरह उसकी आवाज कहीं कैद नहीं थी उसकी मोबाइल में। उसकी इच्छा हुई थी वह वसीम को फोन लगाए और बात करे उससे। पर सामने हनीफ सर थे जो जाग भी सकते थे उसकी बातचीत से। दूसरे, मोबाइल में सिगनल भी बार-बार गायब हो जा रहा था सिरे से। उसने फिर खुद से ही कहा… और अगर सिगनल हो ही तो कौन सा बात कर ही लेती वह। कितनी-कितनी बार तो उसका मन हुआ है इस बीच कि वह वसीम को फोन करे, पर उसने किया कभी नहीं…। फिर आज… इसी सब से घबड़ाकर तो वह निकल पड़ी थी, चाहे हनीफ सर के साथ ही… कि अपना मन पहचान सके… अपनी इच्छा और खुशी जान सके…। पर वहाँ भी अभी सिर्फ घटाटोप था। – ‘स्यादस्ति, स्यानास्ति, स्यादस्तिनास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादस्ति अवक्तव्य, स्यानास्ति अवक्तव्य, स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य… यानि संभवतः है, संभवतः नहीं है। संभवतः है, नहीं है। संभवतः कहा नहीं जा सकता, संभवतः है, कहा नहीं जा सकता, संभवतः नहीं है, कहा नहीं जा सकता। संभवतः है, नहीं है, कहा नहीं जा सकता। उसे वे पंक्तियाँ याद आईं जो उसने पिछले दिनों उस जैन धर्म की पुस्तक में पढ़ी थी। स्यादवाद या फिर ‘सप्तभंगवाद’ के नाम से। और वह फिर से उलझ गई थी शायद है, शायद नहीं है के इसी घटाटोप में।

रात पूरी गुजर गई थी इसी उहापोह में… जब हनीफ मियाँ सो कर उठे तो देखा नंदिता पहले से जागी हुई है। फिर थोड़ी देर बाद गौर किया उन्होंने, आँखें बिल्कुल लाल हैं उसकी… क्या सोई नहीं वह… क्या जागी रही सारी रात। उफ वे भी बहुत स्वार्थी हैं, उन्हें देखना तो चाहिए था जागकर कि नंदिता सोई कि नहीं… पर वे तो निश्चिंत हो कर सोते रहे… बहुत दिनों बाद उन्हें इतनी अच्छी नींद आई थी। एक तो बहुत थके हुए थे वे पिछले कई दिनों से। दूसरे नंदी को ले कर के एक अनजाना सा डर हमेशा बना रहता उनके मन में, जैसे कुछ बहुत बुरा होनेवाला हो, जैसे खो देनेवाले हों वे उसे… बहुत अजीब सी बात थी, नंदी से रिश्ते को जितने दिन-बरस हुए हों, वे लगातार यह सोचते रहते थे कि उन्हें नंदी से, इस रिश्ते से आजाद होना है और उतने ही आवेग से बँधते जाते थे इस बंधन में। न जाने कितनी बार उन्होंने यह तय किया होगा और कितनी बार… फिर हारकर उन्होंने यह सब सोचना ही छोड़ दिया था… फिर लौटे तो उसके विहेव से त्रस्त भी हुए थे और थोड़ा खुश भी… चलो वह खुद दूरी बना रही है। पर यह खयाल भी बस एक पल का ही था और फिर वे नंदी को खो देने के डर से सहम उठे थे। इसी डर से डरते हुए उन्होंने सोचा था कि अबकि नंदिता को अपने साथ ही ले चलेंगे। जब कहीं पीछे नहीं छूटी होगी वह तो शायद इतना डर भी नहीं हो उन्हें कि पता नहीं सब कुछ ठीक भी है या नहीं, पिछली बार की तरह। और वह बीमार भी तो पड़ जाती है। उन्होंने खुद से ही पर्दादारी करनी चाही… वही नंदिता उनके साथ थी तो फिर कैसी चिंता, सो बहुत गहरी नींद सोए थे ट्रेन में और बिल्कुल तरोताजा और बहुत खुश महसूस कर रहे थे खुद को। जबकि हमेशा उन्हें ट्रेन में नींद आती ही नहीं थी। जयपुर आने ही वाला था। उन्होंने नंदी से कहा था, जाओ फ्रेश हो आओ।

नंदी जब चली गई थी तो हौले से उन्होंने उसका मोबाइल उठाया था; रात पता नहीं किसने एसएमएस किया था। उन्हें उम्मीद थी एमीलिया ने ही किया होगा कुछ उलटी-सीधी पट्टी पढ़ाने की खातिर और नंदी इसीलिए सारी रात रोती या फिर जागती रही होगी। …उन्हें एमी के बर्ताव से खीज होती। आखिर क्यों करती है वह ऐसी हरकतें… अब और कितने दिन। सब कुछ तो कर चुकी है वह उन लोगों को अलग करने की खातिर। फिर भी थकती तक नहीं वह… उन्होंने एसएमएस खोला था और निराश हुए थे, वे एमी के नहीं थे। पर निराशा के साथ एक गहरी चिंता भी समा गई थी उनके मन में। उनके मन के सारे ताजापन को ढकते हुए… निःसंदेह यह एमी नहीं थी, फिर इस तरह के एसएमएस भेजनेवाला और कौन था नंदी की जिंदगी में। और इनका मतलब… बात साफ थी सब कुछ एकतरफा है। मैसेज तो ऐसा ही कह रहे थे…। पर कौन और कब… वसीम पर जो हल्का-फुल्का अंदेशा था वह मिटने लगा था। वसीम इतना गंभीर, बाअदब और बाइल्म हो ही नहीं सकता। यही तो दुख था उनका कि वसीम उनके बिरसे का ही हकदार न हो, इल्म का भी हो… कौन-कौन… वे सोचते और परेशान होते रहे थे… उन्होंने तय किय था आखिरकार, नंदिता से पूछना बिल्कुल ठीक नहीं होगा… उसका मूड उखड़ जाएगा। और नंदिता खुद बता दे तो ठीक…

स्टेशन आ गया था। उन्होंने नंदिता से जबरन लेते हुए सारा सामान खुद उठा लिया था। उसकी चुप्पी की जिद को भी ठुकराते हुए। नंदिता देखे तो, अब भी उनमें कितनी ताकत है… कितने पौरुष से भरे हुए हैं वे, इस उम्र में भी…

16

अम्मा ने एमीलिया का बदला हुआ चेहरा देखा था। दमक और ताजगी से भरा हुआ और वे डर गई थीं। यह भी अब… यूँ एमीलिया उनके बुलाने से आ तो गई थी पर आई भी तो ऐसे जैसे आई ही न हो। कुछ करने का जोश जो एमीलिया के स्वभाव की विशेषता थी वह गायब थी बिल्कुल सिरे से। वह खोई-खोई सी थी, बिल्कुल अपने आप में डूबी हुई। हरे-नीले-पीले रंगों से भरा उसका शरीर जैसे किसी और का हो चला था। उनकी एमी तो… वह जल्दबाजी में थी, बहुत-बहुत जल्दबाजी में। एमी तो यहाँ जब भी आती थी पूरे इत्मीनान से आती थी, कि यहाँ के लिए उसके पास हमेशा वक्त होता था। वही एमी आज…

वे डर गई थीं और सचमुच बहुत ज्यादा डर गई थीं…। वे एमी के भविष्य के लिए सहम गई थीं भीतर से… जबकि उन्हें तो खुश होना चाहिए था उसके चेहरे की दमक और जीवन में रंगों के इस आगमन पर… पर वे खुश होने के बजाय डर रही थीं तो आखिर क्यों… क्या इसलिए कि इस उम्र में उन्हें सारी जिम्मेदारियाँ खुद सँभालनी होंगी, कि अकेली पड़ जाएँगी वे, बिल्कुल अकेली। कि एमी अब उस दुनिया के दरवाजे पर जा खड़ी हुई है जहाँ के भीतर का तिलस्म उसे कैदी बना लेगा उसी दुनिया का। कि वह हँसे या रोए कि जीना होगा उसे उस चौखटे के भीतर ही… कि स्वार्थी हो चली थीं अम्मा इस उम्र में आकर। उन्हें क्षण भर को सारे विचारों से बिलगते हुए हँसी आई खुद के लिए खुद के इस संबोधन पर। कि अब तो खुद भी वो खुद को पुकारने लगी हैं इस संबोधन से… नाम जो कभी था उनका और अब लगभग गुम हो चला था – सिद्धा… नाम से मधुर लगता उन्हें यही संबोधन ‘अम्मा’। वे आदी हो चली थीं अपने इस नए नाम की… अम्मा ने एमीलिया से कहा था तू रुक तो सकेगी दो-तीन दिन यहाँ, मुझे फंड के लिए कहीं बाहर जाना है।

लौट आऊँगी दो-तीन दिनों में… एमीलिया ने बड़ी शाइस्तगी और सलीके से सिर हिलाया था – ‘ना’। इस तरह कि अम्मा को बुरा न लगे… अम्मा जवाब पहले से ही जानती थी फिर भी एक क्षण को बुत सी हो गई थीं वो… फिर-फिर सोचा खुद को उबारने की खातिर। उनका एमीलिया पर अधिकार ही क्या है? किस हक से कह रही थी वो उसे यहाँ रुक जाने के लिए। उसके व्यक्तिगत काम भी तो हो सकते हैं और वो मना भी कर सकती है। यह सोच कर उन्हें तकलीफ क्यों होती है… वह यहाँ आई थी अपनी इच्छा से और आज जा भी सकती है… उन्हें धन्य मानना चाहिए कि इतना महत्व देती है वो उन्हें कि बुलाने पर चली आई… पर ये सब दिमाग के द्वारा दिए गए तर्क थे जो अम्मा के गले नहीं उतर रहे थे। बिल्कुल न चाहते हुए भी उन्होंने पूछा क्या कोई पर्सनल काम… एमीलिया ने फिर सिर हिला कर ही कहा था – ‘हाँ’। उन्होंने रोका था जबरन खुद को यह पूछने से कि क्या काम… यह उनके हिस्से का सवाल नहीं है, बिल्कुल भी नहीं। और अगर उन्होंने पूछ ही लिया और एमीलिया चुप ही रह जाए तो… तो तू जाएगी अभी… कहते हुए उन्हें लगा था, एमीलिया कम से कम शाम तक तो रुकेगी ही हमेशा की तरह। बच्चों से हँसे-बोलेगी; अपनी पसंद का खाना बनवा कर खाएगी। और उसे देख-देख वे… पर नहीं एमी तो उठ खड़ी हुई थी। वे उसे जाते हुए देखती रही थीं चुपचाप… उसके जाने में किसी और के जाने की भी स्मृति थी… अपने अकेले पड़ जाने की वही पुरानी स्मृति। किसी पुराने गंध की तरह चिरपरिचित, चारों तरफ से उन्हें घेरती-घूरती।

उन्हें एमीलिया के जाने से उसके आने की याद आई थी। कभी एमीलिया आई थी अपने पत्रकार मित्रों की टोली के साथ। उन पर फीचर करने के लिए। तरह-तरह के सवालों से घिर गई थीं वे, जैसे कटघरे में उन्हें खड़ा कर दिया गया हो। पर ज्यादा सवाल व्यक्तिगत घेरे को छेड़ते-तोड़ते हुए। उनकी साँस सवालों के इस घेरे में घिर कर गले में ही जैसे तड़फड़ाने लगी थी। जरूर उनके चेहरे पर पसीने की बूँदें तैर आई होंगी। वह चुप सी दिखनेवाली लड़की बोली थी अचानक। उसी ने ही टोका था उन्हें। हम लोग ये करने नहीं आए। हमें फीचर करना था ‘आनंदवन’ पर न कि सिद्धा देवी के व्यक्तिगत जीवन पर… उन्होंने एमीलिया के वहाँ होने से सुकून की साँस ली थी… एमीलिया तभी से आने लगी थी वहाँ… पहले छठे-छमाहे फिर बराबर। फिर खुद ही बढ़कर उसने सारे हक अपना लिए थे और धीरे-धीरे बहुत सारे दायित्व भी। अम्मा के न होने पर तो वह उनके सारे दायित्व सँभालती ही होने पर भी बहुत सारे छिटपुट काम और निर्णय भी… बच्चे उनसे बहुत घुले-मिले हुए थे… जैसे कि उनकी बड़ी बहन या फिर दोस्त हो वह… अम्मा को चैन की साँस ही मिलती… खुश होतीं कि वे अकेली नहीं है, कोई है उनके साथ कि उनके बाद भी कोई हो सकता है उनका वारिस। वंशज न सही तो न सही… शायद वे स्वार्थी हो रही थीं, संकीर्ण भी, एमीलिया को लेकर… पर ऐसा था तो था… वही एमीलिया आज… उन्होंने ही कैसे सोचा था सब कुछ इतनी सहजता से। जो खुद आया था खुद जा भी तो सकता था। ऐसा क्यों नहीं सोच पाई थी वो। ऐसा उन्हें सोचना तो चाहिए था, पर एमीलिया ने कभी सोचने ही न दिया…

एमीलिया को जाते-जाते गुस्सा आ रहा था, खुद पर… यह कैसे पहरे लगा लेती है खुद वह अपने वजूद पर। पहले पापा… खैर वह उसके पिता थे उनका तो हक बनता था। पर जब उस कैद से जान छुड़ा कर वह भागी तो खुद ही लाद लिया सिर पर एक और बोझ नंदिता… और नंदिता के जाते-जाते यह अम्मा… इन्होंने तो जैसे उसे इस तरह लिया कि अपना कोई काम, अपनी कोई जिंदगी ही न हो उसकी। जब चाहा बुला लिया, जब चाहा काम थमा दिया। कभी पल भर को भी यह नहीं सोचा कि वह इतनी दूर से आती है उनके बुलाने पर थकी-हारी। उसके पास आने तक के पैसे भी हैं या नहीं…

यह उनका सिरदर्द थोड़े ही है… उनके हाथ उनके पिता की लंबी-चौड़ी संपत्ति है। अकेली वारिस हैं वो उसकी… पर वह… डॉक्टर पिता ने बमुश्किल उसके लिए एक फ्लैट खरीदा था… कुढ़-काढ़ कर कि वहाँ रहने की जरूरत ही क्या है…पर इसी से उसका बोझ कुछ कम गया था, चिंताएँ भी… और इतना सब करने के बाद भी उनकी खिट-पिट। यह काम तो बचा ही रह गया… वह तो बिल्कुल हुआ ही नहीं… क्या समझती हैं वे उसे।

उसी की गलती है, कहने को नए जमाने की एक आजाद खयाल लड़की है वो… पर कोई न कोई बंधन, कोई न कोई आश्रय चाहिए ही। अब होते-होते यह आश्रय भले ही ऐसा हो ले, इतना बड़ा कि उसकी छाँव के बजाय पक्षी आश्रयी को ही अपना घर मानने लगे। एमीलिया को अपने इस बेतुके उपमान पर खुद ही हँसी आ गई थी। … कैसे ऊलजलूल सोचती है वह भी। और वह तो ऐसा नहीं सोचती थी कभी। ऐसे तो नंदी बोलती थी और सोचती भी। तो क्या नंदी की वेश-भूषा अख्तियार करते ही वह नंदी जैसी हो ली है। कि प्रेम में ऐसे ही हो जाते हैं लोग… स्वार्थी और अंधे।

उसने कैसे कह दिया अम्मा से कि नहीं रुकेगी वह। नंदी के चले जाने के बाद का सारा सूनापन वह यहीं आनंदवन में ही तो धोती थी। अम्मा की आँखों के प्यार और वात्सल्य, बच्चों के बीच के खेलकूद और धमाचौकड़ी में। अम्मा ने कभी लगने ही नहीं दिया कि वह उनकी बच्ची नहीं है। और वह… वसीम से आज ही तो मिली थी वह, और अगर दो-तीन दिन बाद मिल लेती तो क्या होता… पर नहीं उसे तो जैसे लत सी हो गई है कि वसीम से मिलना है, उसे सांत्वना-स्नेह देना है। कि इसी बहाने जगह बनानी है अपने लिए उसके दिल में।

अम्मा का उतरा हुआ चेहरा बार-बार उसकी निगाहों में आ रहा था और खुद पर शर्मिंदा हुई जा रही थी वह… क्यों चाहती है वह वसीम से मिलना। अपने लिए उसके दिल में जगह बनाना। जबकि जानती है वह कि वसीम नंदी को चाहता है बेपनाह… फिर भी… क्या वह इस तरह नंदी से बदला लेना चाहती है, खुद को छोड़े जाने का बदला… कि वह उसे जैसे हनीफ सर के लिए छोड़कर चल दी थी उसे अकेला करके, वह भी वैसे ही… अपने खयालों के आग से उसका कंठ जलने लगा था। जैसे कोई आग का गोला अटका हो वहाँ। जिसे वह न निगल पा रही हो न उगल। उसने पर्स खोला था। पानी का बोतल खाली था। आसपास कोई दुकान तक नहीं थी… वह जैसे किसी तर्क की तलाश में थी, जिससे वह खुद के द्वारा खुद पर लगाए गए इन इल्जामों से मुक्ति पा सके। … वह पूरी ताकत से ढूँढ़ रही थी सारे कारणों को…

ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वह अतीत के उस टीले पर आ पहुँची थी जहाँ एक कारण तो था। पता नहीं यह कारण था कि महज एक मनबहलाव। पर जैसे-जैसे याद आ रहा था सब कुछ उसका सूखा कंठ हल्का-हल्का गीला होने लगा था। जैसे किसी ने तरावट की एक हल्की परत बिछा दी हो उसमें, चारों ओर।

अम्मा को लगा था जैसे एमी नहीं शिखा जा रही हो और वे उसे रोक पाने में असमर्थ हों बिल्कुल… तो क्या आज भी वही… चारा क्या रह गया है। क्या एमीलिया भी पलट कर नहीं देखेगी उनके और आनंदवन के भीतर शिखा की ही तरह…? उसकी जिंदगी में सब ऐसे अचानक ही क्यों आते हैं और फिर चल भी देते हैं अचानक… बच्चे जब जाते हैं या कि जब उन्हें गोद लेने वालों को देती हैं वे तब भी बरसों तक कलेजा कचोटता रहता है उनका। उनकी एक-एक स्मृति… कहती है ‘दो ही मत किसी को, वापस ले आओ उन्हें’ पर उनका विवेक उन्हें रोकता है। बच्चों के आँसुओं की अनदेखी कर जाती हैं वे तो कैसे, यह सिर्फ वे ही जानती हैं… अपनी उम्र… पैसों या फिर फंड की कमी… वे ही जानती हैं कैसे मैनेज कर रही हैं वे सब कुछ… उनके बाद…? वे डर जाती हैं यह सोचकर… और एक बच्चे के भविष्य के लिए निश्चिंत होने की सोच से… और बच्चे ही क्या… सुगंध का चले जाना… जिसे चले जाना भी क्या कहें उससे पहले तो वे ही चली आई थीं सुगंध की जिंदगी से… फिर भी… वही अकेलापन… तिल-तिल का अकेलापन। विदेह होना चाहती हैं वे… पहले भी होना चाहती थी पर पहली बार सुगंध ने… फिर शिखा ने… और अब एमीलिया ने उनके उस अभेद्य घेरे को तोड़ा था… और फिर-फिर चल दिए थे सब… उनकी कमजोरी पर हँसते हुए…

सुगंध के लिए पिता से लड़ी थीं वे… उस पिता से जिसकी जान उन्हीं में बसती थी। पिता जमींदार घराने से थे और उन्हें एक संगीत शिक्षक कैसे भा सकता था अपनी बच्ची के लिए। उस बच्ची के लिए जिसके लिए बड़े-बड़े सपने देखे थे उन्होंने। मृदु-मधुर सा वह शिक्षक कौन सी सुरक्षा दे पाएगा… कौन सा संरक्षण… पिता अक्सर कहते थे… पर उन्होंने कब माना था पिता का कहा… एक दिन मंदिर में छिप-छिपा कर शादी की और पिता से आशीर्वाद लेने चली आई थी। पिता निकले ही नहीं थे अपने कमरे से। वे बहुत घबड़ाई थी पिता ने कुछ कर लिया तो… वे पिता से मिले बगैर नहीं जाना चाहती थीं पर जाना पड़ा था उन्हें। सुगंध गुस्से में थे। मृदु-मधुर सुगंध गुस्से में… अब और कितना इंतजार करोगी? वे उनका हाथ खींचकर निकल पड़े थे… तभी जाना था उन्होंने लड़की होने का सही अर्थ… कि तभी समझी थी उन्होंने पराएपन की वह परिभाषा जो एक लड़की को बचपन से सुननी पड़ती है।

वे जी ही तो रही थी बरस-दर-बरस पिता से मिले बगैर भी… पर पिता की कमी थी तो थी। वे पिता जो जीवन में हर कदम पर तो क्या घर मे हर कदम पर उसके सामने खड़े होते थे उसे समझाने, सहलाने और थामने के लिए… ‘सिद्धि ऐसे कैसे चलती हो, गिर जाओगी’, ‘ सिद्धि पढ़ाई करो’… ‘सिद्धि बारिश में भीगो मत, बीमार पड़ जाओगी’… पर अब कहाँ थे पिता… कहाँ था कोई उसकी परवाह करनेवाला… सुगंध थे, प्यार भी करती थे उससे बहुत। पर वे पति थे, पिता नहीं… उसने खुद भी अपनी परवाह छोड़ दी थी… विदेह होना है उसे, उसने तभी पहली बार सोचा था। इसीलिए तो खासकर कि एक बच्चे के लिए जो चीख-पुकार मची रहती थी उस घर में उसे न सुनाई पड़े… बिल्कुल नहीं। उसकी ऊपरी खोल से ही टकराकर लौट जाए। वह नहीं कहना चाहती थी किसी से। सुगंध खुद ही बच्चे थे भीतर से… फिर बच्चा कहाँ से लाए वह। वह प्यार करती थी फिर भी सुगंध, से इसीलिए और भी नहीं कह पाती थी कुछ किसी से। पर ऐसे में उसे अक्सर लगता पिता जानते-समझते थे क्या यह सब कुछ… नहीं तो पिता तो बहुत संवेदनशील थे, कला-साहित्य का सम्मान करनेवाले फिर उन्हें सुगंध से परेशानी थी तो क्यों…?

ऐसे में ही नन्हीं शिखा को कोई डाल गया था दरवाजे। वह हुलस पड़ी थी, उसका परिवार पूरा हुआ। उसकी हुलस में सुगंध भी हुलसे थे। पर जब घर में कोहराम मचने लगा, वे किनारे जा खड़े हुए थे, हमेशा की तरह। उसे बहुत ज्यादा खला था यह सब कुछ… इतना ज्यादा तो पहली बार। जब लोग उसे बच्चा न होने के लिए ताना देते और सुगंध चुपचाप सुनते यह सब कुछ तो उसे उतना बुरा नहीं लगता था। उनकी मजबूरी जानती थी वह। पर आज… क्यों वे उसे हमेशा अकेला छोड़ देते थे सब के बीच खासकर के, जबकि उन्हीं के लिए तो छोड़कर आई थी वह सब कुछ। घर, परिवार, पिता, पैसा सब… वह उनके भीतर के कलाकार पर रीझ गई थी। उस अल्हड़पन में ही जब वे उसे संगीत सिखाने आते थे… लोगबाग सच ही कहते हैं क्या कि कलाकार होना स्त्रैण होना होता है; स्त्रैण मतलब कमजोर होना, हिम्मत न दिखाना। स्त्रैण होना गर गाली है तो स्त्री होना भी…। उसने सोचा वह तो कतनी हिम्मत से जूझती-झेलती रही है सब कुछ।; पिता के घर हल्की सी ठेस भी लग जाने पर आसमान सिर पर उठा लेनेवाली लड़की। वह स्त्री होने को कमजोर और शक्तिहीन होना नहीं मानना या बनाना चाहती थी। वह उस नन्हीं सी बच्ची शिखा को लेकर पिता के घर चली आई थी। सब चिल्लाते रह गए थे… पर सुगंध… वे तब भी चुप थे।

और तब से न सिर्फ शिखा को पाला-प्यार किय था। दादा के द्वारा अनाथालय और स्कूल को दी गई जमीन जो तब जमींदारी प्रथा टूटने पर जमीन को बचाने के लिए दी गई थी, में आनंदवन विधिवत और बड़े स्तर पर चला कर भी। जिम्मेदारियाँ बढ़ गई थीं अचानक; नन्हीं शिखा, बूढ़े पिता, स्कूल और आनंदवन… पर आनंदवन में जो कि तब सिर्फ अनाथालय था, बच्चे नाम के ही थे। वह तो उसके प्यार और देखभाल का असर है कि…

बच्चों की संख्या बढ़ी थी स्कूल में, पर पहले सुगंध चले गए थे। फिर पिता उस शोक में डूबी को छोड़कर। फिर उसके कुछ दिनों के बाद ही शिखा… प्रेम में ऐसा ही होता है; उतावली इतनी कि देखना-सुनना सब बंद हो जाए। तुरंत की तुरंत घर में हुइ दो-दो मौतें भी उसे सब्र नहीं करने दे रही थी थोड़ा, माँ का अकेलापन भी नहीं। उसने खुद-ब-खुद शिखा को विदा कर दिया था कि उसकी तरह न जाए वह… उसकी तरह ही न कट जाए अपने पुराने घर से… उसने शिखा से कहा था – शिखा, मेरे बाद यह सब तुम्हारी जिम्मेदारी है। कहो कि तुम मुझसे या इस सबसे एकदम से नाता नहीं तोड़ लोगी… कि निकालोगी कुछ समय हमारे लिए भी… रोती आँखों और हँसते चेहरेवाली शिखा ने कहा था – कैसी बात करती हो माँ, यह भी कोई कहने की बात है…

पर वह कहना कहना ही रह गया था… शिखा घर आना तो दूर उसके सामने पड़ने से भी कतराने लगी थी। वे जिस शादी-ब्याह में भी जाती शिखा वहाँ नहीं आती। उनके पूछने और अपने हाँ कहने के बावजूद… वे कुछ भी नहीं कहती थीं… वे जानती थी सब… शिखा के चेहरे में उन्हें अपना पुराना चेहरा दिख जाता था, विवश सा। चाहते न चाहते… हालाँकि वे खुद से ही कहती थी बार-बार, भरोसा दिलाती रहती अपने आपको… वह सुखी है… बहुत सुखी। पर हर बार मन न जाने इस बात को मानने से क्यों इन्कार कर देता…

17

वे जब ट्रेन से उतरे सुबह होने-होने को ही थी। लोगबाग की आमदरफ्त बहुत धीमी-धीमी। नंदिता ने सोचा दिल्ली तो इस वक्त तक… फिर उसने पल भर को सोचा दिल्ली सोती ही कब है… सोते-सोते वक्त तक वही हलचल और आँख खुलते-खुलते वही शोरगुल… शहर ऊँघा-ऊँघा सा था। पहाड़ों के पाँव में थककर सोया जयपुर ऐसा लगा उसे मानो किसी बच्चे को घुघुआ मन्ना करते-करते ही नींद आ गई हो और थकी हारी माँ की आँखें भी झिप गई हों थोड़ी देर को। उसे अभी-अभी ध्यान आया हनीफ सर कुछ कह रहे थे। उसने मन को एकाग्र किया…’तीन ओर से विशाल पहाड़ियों से घिरे राजस्थान की राजधानी गुलाबी नगरी जयपुर को सवाई जयसिंह द्वितीय ने बनवाया था। सवाई जयसिंह एक चतुर प्रशासक, कुशल योद्धा और ज्योतिर्विज्ञानी भी थे। उनकी इच्छा थी कि वो एक ऐसे नगर का की स्थापना कर सकें अपनी राजधानी के रूप में जो पूरे विश्व में अद्वितीय हो। इसीलिए उन्होंने जयपुर का निर्माण करते वक्त अनेक यूरोपीय नगरों के नक्शों का अध्ययन किया था। और फिर उसी सुनियोजितता से इस नगर का निर्माण भी कराया। पूरा का पूरा शहर चारों तरफ से लगभग 20 फीट ऊँचे और 9 फीट चौड़े परकोटे से घिरा है। हालाँकि आजादी के बाद अन्य शहरों की तरह इस शहर का भी कायापलट हुआ और अब इस परकोटे के बाहर भी नई-नई कालोनियां विस्तार ले रही हैं। लेकिन अब भी यह शहर मूलतः नौ आयताकार खंडों में विभक्त है। इस शहर में प्रवेश करने के लिए आठ प्रवेश द्वार हैं जिनमें मुख्य हैं – अजमेरी गेट, सांगनेरी दरवाजा, चाँद पोल और पाट दरवाजा।

नंदिता सुन रही थी चुपचाप। हनीफ सर खुद में डूबे हुए से बता रहे थे उसे पर उसने आज पहली बार सोचा था कि यह आदमी ज्ञानी हो सकता है पर उससे भी ज्यादा यह अपने ज्ञान का आतंक या कहें कि रोब दूसरों पर जमाना चाहता है… नंदी ने झटके में सोच लिया था यह सब। सोच पर उसका वश नहीं था बिल्कुल। पर सोच कर ही खुद पर शर्मसार हो चली थी वह। इतने नम्र और विनीत हैं हनीफ सर और उनके बारे में किस-किस तरह से सोचने लगी है वह। क्या जब प्यार मरने लगे ऐसा ही महसूसने लगते हैं हम…? तो क्या सचमुच मर रहा था उनका प्यार… पर अपनी तरफ से वह हर कोशिश करना चाहती थी उसे जिंदा रखने के लिए…। यह आखिरी कोशिश भी। इसी खातिर तो वह चुपचाप चली आई थी। शादी प्रतिबद्धता हो सकती है, प्यार नहीं। और प्रतिबद्ध नहीं होना शायद सबसे बड़ी प्रतिबद्धता है। इसी प्रतिबद्धता से बँधी हुई वह वसीम के वजूद से भी इन्कारती रही है, प्यार तो बहुत दूर की बात है।

होटल आ गया था। हनीफ सर ने एक बार फिर सारे सामान खुद ही उठा लिए। सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते डरी थी वह, सर ने कहीं एक ही कमरा तो बुक नहीं करवाया… फिर उसे खुद पर हँसी आई थी। एक ही कमरा है उसका, जहाँ वह उनके साथ घंटों रहती आई है, बंद किंवाड़ और खिड़कियोंवाले जाड़े के धुर ठंडे दिनों में भी… और यह तो मार्च का महीना था। सीजन के कारण होटल की लाबी में भी लोग ही लोग दिख रहे थे। वह न चाहे तो… फिर उसने खुद ही सोचा था पहले जैसी बात होती तो वह मनाती, ईश्वर करें कमरा एक ही हो… पर कमरे दो थे। गलियारे में पहुँच कर सर ने उसे उसके कमरे की चाबी थमा दी थी। फ्रेश हो लो फिर बातें करते हैं… आज तो वैसे भी सेमिनार में काफी वक्त लगेगा। तुम चाहो तो आराम कर सकती हो, या फिर कुछ और शॉपिंग-वॉपिंग… जैसी तुम्हारी इच्छा। मैं खाना-नाश्ता सबके लिए कहता जाऊँगा। कल हम लोग जयपुर घूमेंगे। और… कल तो मुझे बस दो घंटों का काम है… और फिर उसके बाद तो एक सप्ताह हम यही हैं। आराम से घूमेंगे, खूब बातें करेंगे… उन्होंने उसके बालों को हौले से सहलाया था और मुड़ गए थे अपने कमरे की तरफ।

उसे अच्छा लगा था, आज दिन भर तो नहीं झेलना पड़ेगा उसे सर को। ‘झेलना’ शब्द कब और कहाँ से आ गया था उनके बीच, वह जानती तो थी पर मानना नहीं चाहती थी… अब सब कुछ तो तभी सहज हो सकता है जब वह सर को सब बता दे… और सर…

अपने कमरे में बिछावन पर वह पसर सी गई है। रात की जागी आँखें उनींदी सी हैं। बदन इतना टूट क्यों रहा है आखिर… वह उठकर दरवाजा लॉक करने की हिम्मत तक नहीं कर पा रही। …वेटर आया था, नाश्ता ले कर। काली कॉफी, चीज सैंडविच और पाश्ता… उसने भर नजर देखा था। इतनी सारी चीजें और वह भी नाश्ते में। सर ने ही ऑर्डर किया होगा उसके लिए। उसकी पसंद की चीजें… कितना खयाल रखते हैं वह उसका… उसने अभी उठने की कोशिश ही की थी कि एक बार फिर घंटी बजी, सामने सर थे… फ्रेश, ताजादम… सेमिनार के लिए बिल्कुल रेडी… तुम अभी तक तैयार नहीं हुई… चलो नाश्ता तो कर लो वरना ठंडा हो जाएगा सब कुछ। हाथ मुँह धो कर आ जाओ। वे प्लेट में उसके लिए नाश्ता निकालने लगे तो उसे उठना ही पड़ा… वे फिर से बोल रहे थे… पहले जैसे दुलार के शब्दों में ही… सो लेना, यह नाश्ता भी फिनिश हो जाएगा और मैं भी चला जाऊँगा अभी-अभी… फिर सारा दिन जो चाहो सो करो। वे सामने बैठे-बैठे उसे खाते देख रहे हैं। उसे देख-देख तृप्त हो रहे हैं। उनके चेहरे की रेखाएँ कह रही हैं यह… नंदी झेंप उठती है… झेंप कर प्लेट ढककर रहना चाहती है… वे फिक्रमंद होकर टोकते हैं, अरे नाश्ता तो पूरा खत्म करो… प्लेट में कुछ भी नहीं छोड़ते… नंदी ने आगे अनकहा ही सुन लिया… ‘बैड मैनर’… जैसे किसी बच्चे को फुसलाकर खिला रहे हों वो… वसीम और नसीम को शायद ऐसे ही समझाते रहे हों वे छुटपन में… नंदी से तो भी कुछ ऐसे ही ट्रीट किया करते हैं… फिर तो नंदी को सब कुछ खाना ही था जबरन।

नंदी का जी हल्का हुआ था उनके चले जाने से। सबसे पहले वह सचमुच सोना चाहती थी। उसने कमरा अंदर से लॉक किया, बत्ती बुझाई और सोने के उपक्रम में लग गई। थकान थी, सचमुच बहुत थी पर घंटों लेटे रहने के बाद उसने महसूस किया नींद कहीं भी नहीं थी उसकी आँखों के इर्द-गिर्द। कुछ उलझाव, कुछ बेचैनियाँ घेरा डाले थीं उसके चारो तरफ, जो न जाने कब जानेवाली थी। उसने एक बार फिर वसीम के सारे एसएमएस को पढ़ा, पढ़ती रही… फिर सोचा यूँ इन्हें पढ़-पढ़ कर भी क्या कर लेगी वह, वसीम ने उसे एक बार भी फोन नहीं किया, उस दिन के बाद। और कल रात से तो उसका कोई मैसेज भी नहीं आया। उसने मन बदलने के लिए जैन धर्मवाली किताब निकाली। इसे ही पढ़ेगी वह, शायद इसी में वक्त कट जाए। उसके पिता भले ही जैन रहे हों पर माँ तो पंडित थी… और घर में तो माँ का ही प्रभाव था। वहाँ पूजा-पाठ होते। यज्ञ-हवन होते। पिता न तो इसके लिए कभी माँ को मना ही करते न उसमें सम्मिलित ही होते। अन्य दंपत्तियों की तरह उसने माँ और पिता को कभी साथ-साथ बैठ कर पूजा-पाठ करते नहीं देखा था। माँ अकेली ही बैठतीं। उपवास अकेला उन्हीं का होता। माँ ने भी पिता को कभी इस सब के लिए बाध्य नहीं किया। अगर कोई सार्वजनिक अनुष्ठान हुआ तो पिता अन्य जिम्मेदारियाँ और आनेवालों को सँभालते। उसे छुटपन में यह अजीब लगता। पर उन दोनों के बीच का यह सामंजस्य और एक दूसरे को अपने ढंग से जिंदगी जीने की आजादी देने का यह भाव आज उसे बहुत भला लगता।

हाँ, उसने अपने पिता को कभी-कभी कुछ किताबें पढ़ते द्देखा था। तीर्थंकरों की मूर्तियाँ भी थी उनके कमरे में। पर इतना ही। इसीलिए उसका झुकाव पिता की तरफ ज्यादा रहा। वह माँ के कहने पर सिर जरूर झुका लेती, पर व्रत, पूजा, उपवास और दूसरे आडंबर उसको भाए नहीं… हाँ अब, जब उसने जैन धर्म में दिलचस्पी लेना शुरू किया तो हनीफ सर ने ये किताबें उसको लाकर थमाई थी।

उसने किताब खोल ली थी और यूँ ही पहले की तरह उसे जहाँ-तहाँ से उलट रही थी। कहीं तो मन थमे… रम जाए… उसने पढ़कर यह महसूस किया कि जैन धर्म में व्यक्ति की स्वतंत्रता पर जोर है। इस धर्म के अनुसार संसार में प्रत्येक व्यक्ति (नर और नारी) मोक्ष (सर्वोच्च) का हकदार है। वैदिक धर्म की तरह यहाँ नारी हीन या दलित नहीं… इस धर्म में स्त्रियों ने प्रमुख पद भी प्राप्त किए हैं। महासती चंदना स्त्रियों के जैन संघ की अध्यक्षा हुई और मगध साम्राज्ञी चेलन्ना श्राविका संघ की नेत्री बनीं। श्रावक-श्राविका यानि गृहस्थ धर्म में रहते हुए बगैर भिक्षु बने भी जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति का रास्ता। उसने फिर पन्नों को आगे-पीछे पलट कर देखना शुरू किया।

इस धर्म ने ब्राह्मणों की सर्वोच्चता का विरोध किया जिसमें यज्ञों की उपयोगिता और कर्मकांडों के उद्देश्यों पर भी गंभीर चोट किया गया था। निवृत्ति की भावना यहाँ मुख्य थी। निवृत्ति अर्थात विषय-वासना, धन, शक्ति, इच्छाओं का त्याग। यही सर्वोच्च को पाने की सीढ़ी थी। उसने फिर खुद से साफ किया ईश्वर यहाँ नहीं थे, गुरु या कि तीर्थंकर थे। सृष्टि अनादिकाल से ऐसे ही चली आ रही है और एक शाश्वत नियम के अनुसार वह चलती है। जिसमें उत्थान-पतन का चक्र चलता रहता है। इसके नियंता की खोज व्यर्थ है। आत्मवादिता जैन धर्म का मूल है। आत्मा अजर है, अमर है, सत्य है। इसका सृष्टिकर्ता नहीं। व्यक्ति वही परम है जो काम, लोभ, क्रोध और अन्य वासना और ईच्चाओं से ऊपर उठ जाए। वैदिक धर्म के विरुद्ध जैन धर्म कहता है सजीव-निर्जीव सब में आत्मा है। और आत्मा शरीर से भिन्न होती है। आत्मा किसी परमसत्ता का अंश नहीं। वैदिक के ब्रह्म के अंश के खंडन में वे कहते हैं और निवृत्ति यानी परम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जो रास्ता है वह जैन धर्म के त्रिरत्नों सम्यक विश्वास, सम्यक ज्ञान सम्यक आचरण होकर जाता है।

उसने सोचा था पल भर को, कितनी विरोधी पृष्ठभूमि के थे दोनों – उसके माता-पिता यानी इशिता पंडित और आनंद जैन… फिर भी कितनी मजबूत थी उनके प्यार की डोर; कितना मीठा और सुचारु सा चलता उनका जीवन था… क्या उनके संस्कार, उनकी जीवन पद्धतियाँ और उनके सोच आपस में टकराते नहीं थे…? नहीं टकराते थे तो आखिर क्यों? क्या प्रेम वह डोर होती है जो बाँध लेती है हमें एक-दूसरे से उसकी अच्छाइयों-बुराइयों, कमी-खूबी और उसकी पूर्णसत्ता से… क्या वह और हनीफ सर कभी एक साथ जीते तो वैसे ही जीते…? हालाँकि यह कल्पना बेकार थी। उनके रिश्ते में साथ जीने-मरने का वायदा कभी आया ही नहीं था। तो वसीम… वह सिर झटक कर उस विचार को ही परे फेंकती है… और एक नई सोच, एक नया तर्क ढूँढ़ती है मनफेर के लिए। यदि प्रेम में ऐसा ही होता तो फिर दिन-रात के क्लेश… कितने-कितने लोगों को तो देखा है उसने… लड़ाई-झगड़े, तलाक और दूरियों के ये कितने किस्से रोज-रोज कहाँ से पैदा होते हैं… वह किताब बंद कर देती है, बस इतना ही। वह उठ खड़ी होती है, ऊब चुकी है वह बैठे-बैठे। थोड़ा घूम-फिर कर ही आती है। अकेले…? तो क्या हुआ… कब वह अपनी सोच से उबरेगी। वह चेंज ही कर रही होती है कि तभी दरवाजे की घंटी बजती है… खाना है… पर उसे तो खाने की तनिक भी इच्छा नहीं। वह मना कर देती है। पूछती है वेटर से… पास में कोई अच्छा बाजार है…? हाँ, मार्केट पास ही है, बापू बाजार। सारी चीजें मिल जाएँगी वहाँ। आप चाहें तो पैदल भी जा सकती हैं, नहीं तो रिक्शा कर लें। बमुश्किल एक किलोमीटर है, सांगनेरी गेट… रिसेप्शन पर कमरे की चाबी रखते हुए वह निकल पड़ी थी।

बाजार बहुत खुशरंग और खुशनुमा दिख रह था। तरह-तरह के मन ललचाते सामान। उसका मन उकसाने के लिए तो बहुत सारी चीजें… बँधेज के सलवार-कमीज के पीस, दुपट्टे। सूती और जरीदार लहँगे-काँचली। गोटा-किनारियाँ। लाख और लकड़ी के कड़े। हाथी दाँत और लाख के खिलौने… कढ़ाईवाली जूतियाँ, कपड़े और चमड़े के पर्स… उसे दिल्ली के जनपथ और सरोजिनी नगर जैसी जगहों की याद हो आई, लेकिन याद भर ही। साथ में उसे यह भी लगा कि दोनों जगहें इतनी खुली-खुली और तरतीबवार नहीं है। उसे यह भी अच्छा लगा कि चीजों की कीमतें भी वाजिब थीं। वहाँ की तरह मोल-भाव की भी जरूरत नहीं। ऐसा पहली बार हुआ था कि नंदिता किसी ऐसी जगह पर थी और खरीदने से ज्यादा देखने में दिलचस्पी ले रही थी… बहुत सोच-समझ कर एमी के लिए उसने कुछ कुर्ते लिए। खुद के लिए बंधेज की कुछ सलवार-कमीजें राजस्थानी काम के कपड़े के बने दो पर्स भी, जो उन कपड़ों और उसकी जींस के साथ भी जँचे। अपने और एमी के लिए दो मोजरी भी। खरीदारी से अब उसका मन भर चुका था। कारण कि उसका पर्स अब काफी हल्का हो चुका था। वैसे भी यह महीने का अंतिम सप्ताह था और घर से आए पैसे लगभग खत्म होने को थे। हमेशा की तरह इस खूबसूरत बाजार में आ कर भी उसका मन पहले की तरह हल्का नहीं हुआ था। शायद पहले की तरह कुछ भी नहीं रह गया था उसकी जिंदगी में… एक दुविधा, एक परेशानी हमेशा चलती रहती उसके साथ-साथ जो निश्चिंतता से उसे जीने नहीं देती थी किसी भी पल।

वह लौटी तो बस दिन के ढाई ही बजे थे। उसने सोचा अभी से ही उसे अकेलापन सहना होगा,। पर चारा भी नहीं था कोई और वह बहुत थक चुकी थी। चाभी ले कर अभी उसने सीढ़ियाँ चढ़नी शुरू ही की थी कि ऊपर से कुर्ते-पायजामे में उतरते हनीफ सर उसे दिखे थे। उसका मन अचानक खुशी से छलक पड़ा। उसे अपनी इस खुशी पर खुद ही हैरत हो रही थी। इसमें खुश होने की ऐसी कौन सी बात थी। कई बार कुछ बातें अकारण भी होती या घटती हैं… पर यह अकारण घटी कोई घटना नहीं थी… सच तो यह होता है कि कई बार हम खुद को समझने में भी गलती कर जाते हैं। हम जो सोचते हैं कि हम हैं वैसे होते नहीं। कि चीजें भी वैसी हमें नहीं लगती जैसी वे ठीक-ठीक होती हैं… सर को देख कर उसे ऐसा ही लगा था उस वक्त… उसने हनीफ सर को फिर गौर से देखा था। उनके हाथ में कुछ किताबें थीं, जिन पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था – मेवाड़, बूंदी और किशनगढ़ शैली… सर इस वक्त कहाँ जा रहे थे… वह सोच ही रही थी कि उन्होंने पूछा था, तुमने खा लिया… नहीं… तो चलो… और वे डाइनिंग हॉल की तरफ बढ़ चले थे… खाते वक्त ही तय हुआ था, अभी वक्त है और वे लोग कहीं घूम कर आ सकते हैं… खाते-खाते तय हुआ था, ‘आमेर का किला’… ‘हवा महल’ और ‘जल महल’ भी रास्ते में ही पड़े शायद।

हमेशा की तरह सर उसे रास्ते में बताते रहे थे – आमेर जयपुर रियासत की पुरानी राजधानी है; राजधानी जयपुर के शहर में तब्दील होने के पहले की राजधानी। शहर से 11 किमी दूर का भव्य पहाड़ी क्षेत्र काली खोह नामक पहाड़ी श्रृंखला से घिरा हुआ है। इसका निर्माण राजा मानसिंह ने करवाना प्रारंभ किया था और लगभग सौ वर्षों के बाद सवाई जयसिंह ने पूरा करवाया। इसकी भव्यता का अंदाजा इस से भी लगाया जा सकता है कि इसे पूर्ण होने में 100 वर्ष लग गए। वह थोड़ी निश्चिंत सी हो चुकी थी। टैक्सी में लगभग हनीफ सर से सट कर बैठी वह, अपना सिर उनकी कुहनियों पर डाले सब सुन रही थी, पहले की ही तरह निश्छल भाव से। कि जैसे बीच के समय का सब कुछ मिट चुका था अचानक। यह कैसे वह नहीं जानती थी। पर जो कुछ था उसे बहुत अच्छा लग रहा था। ऐसा पहले सिर्फ उसने अपनी कल्पनाओं में देखा या चाहा था। कल्पनाओं का सच हो जाना किसे अच्छा नहीं लगता, सो उसे भी लग रहा था। अपने कमरे से बाहर वह हनीफ सर के साथ कभी इस तरह नहीं रही। यह एक सुखद अहसास था।

रास्ते में जब हवा महल आया उसने टैक्सी रुकवा ली थी। देर हो जाएगी कल फिर… कहते-कहते भी सर उतर ही चुके थे उसके पीछे-पीछे। यह सम्मोहन था उसका या कि फिर उस महल का। पर वह उदास हुई थी यह जान कर कि महल इन दिनों बंद है… यहाँ सुधार का काम चल रहा है…। वह निराश सी गाड़ी में आकर बैठी तो सर ने उसका सिर सहलाया था बिल्कुल बच्चों की तरह… कोई बात नहीं… आगे फिर कभी… हम अंतिम बार थोड़े ही आए हैं…

उदास हो रही नंदिता को जैसे बहला रहे थे वे… जानती हो, हवा महल को देखकर एविन एर्निल्ड ने कहा था ‘अलादीन का जादुई चिराग भी इससे शानदार महल नहीं बना सकता था। लाल पत्थर से बना यह भवन शिल्पकला के लिए भी एक चुनौती है। पिरामिड के आकार के बने इस पाँचमंजिला भवन में अर्द्ध अष्टकोण में बाहर निकलती हुई वो जो जालीदार खिड़कियाँ देख रही हो न तुम वो रानियों-राजकुमारियों के लिए बनी थीं कि वे उससे ही सही राजोत्सव और राजा की सवारी का निकलना देख सकें। उसे याद आया लाल किले के मीना बाजार में वसीम का यह कहना कि – ‘उन पर किसी दूसरे पुरुष की छाया भी न पड़ सके… कि उनकी सारी भौतिक जरूरतें उनकी बंद दुनिया में ही पूरी हो जायँ…’ एक क्षण को उसका मन विचलित हो उठा था, वह तनकर बैठ गई थी, हनीफ सर की पहुँच से अलग। विचलन किस बात से था वह तय नहीं कर पा रही थी… यूँ वसीम की स्मृति से या कि उसकी स्मृति के साथ अपने प्रेम में कैदी और गुलाम हो जाने की स्मृति से…

जल महल आ गया था। टैक्सी धीमी हुई थी वहाँ। हनीफ सर ने उसके कंधों को छुआ था। देखो इसे… चारों तरफ से जल से घिरा यह महल स्थापत्यकला का अद्भुत नमूना है जो कभी ग्रीष्मकाल में जयपुर के राजाओं का निवास स्थल था… उसने क्षण भर को यह कल्पना किया कि वह और हनीफ सर एक साथ हैं उस महल में… और इस कल्पना के साथ ही खुद से एक वायदा भी कि सपनों की तरह गुजरते इस दिन में किसी कल, किसी स्मृति और किसी भी शख्स को वह घुसपैठ नहीं करने देगी अब, बिल्कुल भी नहीं।

और अपने आप को निढाल छोड़ दिया था उसने हनीफ सर की बाजुओं पर। शायद इस बीच सो भी ली थी वह एक नींद… वही नींद जो कल से लाख चाहतों और कोशिशों के बावजूद उसके आसपास भी नहीं फटकी थी। उसका मन हल्का हो आया। मन जब हल्का हो जाए तो शरीर भी हल्का हो जाता है। आमेर के किले में वह फर्र-फर्र सीढ़ियाँ चढ़-उतर रही थी। हनीफ सर देखते ही रह जाते उसका इस तरह इत-उत फुर्र-फुर्र आना-जाना। दीवाने आम, शीश महल, जय मंदिर, सुहाग मंदिर… एक एक कर के… उन्हें लगा वे बूढ़े हो रहे हैं शायद… नंदिता के आगे कमजोर भी। वरना शिलामाता के मंदिर में वे वह तो नहीं कह जाते जो उन्होंने कहा था। उस पर से नंदिता की चुप्पी… आमेर के किले में घुसते ही जब शिलामाता का भव्य मंदिर आया तो फुसफुसाकर हनीफ सर ने उससे कहा था; नंदिता मैं तुमसे ब्याह करना चाहता हूँ। हम यहीं शादी कर लें तो… और वह दौड़कर भाग ली थी उस जगह और उस पल से। शर्म या झिझक से नहीं, खुद कमजोर न पड़ जाए इस से। बिना कुछ बताए… यह संभव कैसे हो सकता था। वह ऐसा होने भी नहीं देना चाहती थी। वर्ना बरसों बरस वह… उसने भले कुछ न कहा हो पर सुने हुए शब्द उसके शरीर में हुलस रहे थे। उमंग बन कर बाहर आ रहे थे और वह उसी में उमगी सी दौड़ रही थी, उड़ रही थी इत-उत। हनीफ सर समझे तो वह क्या कहना चाहती है… बिना यह समझे कि यह दीए के बुझने से पहले की ज्योति है… एक दम से रौशन और शफ्फाक, किसी भी कल्पना और उपमा से परे…

लौटने में सर ने कहा था… थक गई हो बहुत… नहीं… सचमुच… हाँ, सचमुच और आप… बिल्कुल भी नहीं… तो चलें एक और जगह कि यह दिन अमर हो जाए अपने हर पल की स्मृति में… ऐसी कौन सी जगह है जो दिन को अमर बना दे। दिन को स्मृतियों में अमर इनसान बनाते हैं कि जगह… उसके स्वर में चुलबुला रोमांस था, मजाक का एक हल्का सा पुट भी… उन्होंने ड्राइवर से कहा था – चोखी ढाणी…

वह गाँव न हो कर राजस्थान के एक गाँव (आदर्श गाँव) का मॉडेल था। एक बृहत क्षेत्र में बिखरा फैला हुआ। खाट, झोपड़ी, दीए, झोपड़ी के भीतर बाजरे की रोटी, लहसुन की चटनी और गुड़ देती महिला नृत्य-गायन में डूबे राजस्थानी लोक कलाकार, मदारी, नट, छोटे-छोटे दुकानदार… सब के सब लोगों को अपने पास आने के लिए आमंत्रित करते हुए… आवो सा, पधारो सा… उन दोनों ने गोइठे पर सेंकी गई उस रोटी का स्वाद एक साथ चखा; और एक ही साथ उनके मुँह से निकला था अद्भुत… उसने ऊँट की सवारी भी की बिल्कुल उनसे चिपक कर, उन्हें कंधे से कस कर पकड़े हुए… वे घूमते हुए हँस रहे थे। इतना डरती हो तुम, मुझे तो हमेशा लगता रहा बहुत बहादुर हो तुम… लोक कलाकारों ने जब उन्हें पगड़ी पहनाई तो और से और हो गए हनीफ मियाँ… नंदिता को लगा जैसे उसका दूल्हा ही है सामने, लाल राजस्थानी कुर्ता, लाल ही पगड़ी, साफ गंदुमी रंग, तीखे नक्श। हनीफ मियाँ सज गए थे बिल्कुल। हुलास में नंदिता भी खूब नाची उन नर्तकियों के संग उन्हीं की संदलवाली चुनरी ओढ़कर। ऐसी ही महकती, उमगती, इतराती, बलखाती दुल्हन उनके सपनों में आती थी जवानी के दिनों में। पर नफीसा तो इसके बिल्कुल उलट थी… गंभीर, संजीदा, जिम्मेदार… उनका मन हुआ था वे दौड़कर जाएँ और अपनी बाँहों में उठाकर ले आएँ नंदिता को किसी क्षत्रिय राजकुमार की तरह हर कर।

दीपकों की लौ ऐसे जल रही थी झोपड़ियों में जैसे कभी बुझती या कि भुकभुकाती ही नहीं होंगी; नंदिता ने सोचना नहीं चाहा था कि ये बुझेंगी… ये जलती रहे हमेशा, उसने मन से कहा था… वे दोनों एक दूसरे का हाथ थामे घूमते रहे थे देर तक, ऐसे जैसे कभी वे जुदा नहीं थे… ऐसे जैसे वे कभी जुदा नहीं होंगे।

नंदिता उन दीपकों के पास गई थी। दीयों में तेल नहीं बल्ब थे, छोटे-छोटे टिमटिमाते से। उसका मन जैसे थोड़ा बुझ सा गया था…। कितना सुखद और सुंदर है सब कुछ। लेकिन यह सब किसी सपनों के बेचे जाने जैसा है। है तो यह गाँव जैसा ही, लेकिन गाँवों का मूल जैसे सिरे से गायब हैं यहाँ… भूख, गरीबी, सूखा, बाढ़, किसानों की आत्महत्याएँ और न जाने बहुत कुछ…। नहीं यह गाँव नहीं हो सकता… यह तो गाँव का आभास देती एक चमकीली दुनिया दुनिया भर है जो एक कॉन्सेप्ट की तरह बिकती है। आखिर क्या कहा जाय इसे सपना या कि छद्म…? हनीफ सर ने जैसे उसके मन का बुझना समझ लिया था…। उसने हौले से उनकी हथेलियाँ दबाई थी, जैसे कह रही हो जाने भी दीजिए सर… हम तो कुछ पल की शांति और आनंद के लिए यहाँ आए हैं, इतना भी क्या सोचना…?

नंदिता ने उन छोटी-छोटी झोपड़ियों को हसरत भरी निगाहों से देखा था… हनीफ सर ने वहाँ रात में रुकने की कीमत पता की थी… एक रात का टैरिफ सुन कर नंदिता जैसे सकते में आ गई थी… खुले तारोंवाले आकाश के नीचे टिमटिमाती सी एक झोपड़ी… सब कुछ सपनों जैसा जादुई… पर हर सपने की कीमत… कितनी ज्यादा…। हनीफ ने सोचा था वह अपनी नंदी के लिए कुछ भी कर सकते हैं… उस नंदी के लिए जिसने आज तक उससे कुछ नहीं चाहा अपने प्यार के एवज में… यह कीमत तो बहुत छोटी है उसकी खुशियों के आगे…

चलो खाना खाते हैं… दाल-बाटी-चूरमा, केर और सांगरी की साग, फाफड़े… घी में चुपड़ी बाजरे की रोटी… कितनी-कितनी मिठाइयाँ… इतना सब कुछ और इतनी तरह का… नंदिता की भूख तो जैसे थाली देख कर ही चली गई थी।

रात सपनोंवाली ही थी, वही झोपड़ी, खाट, खुला आकाश और वे दोनों… रात कट रही थी सपनों जैसी। अधलेटे हनीफ सर की गोद में लेती थी नंदिता, आँखें जैसे मुँदी हुई, इस अनुपम सुख में। सर उसके बाल सहला रहे थे हौले-हौले… रात अधिया रही थी। वे लेट चुके थे समानांतर।, एक दूसरे को जकड़े हुए… जैसे कभी-कहीं छूटकर जाने नहीं देंगे एक दूसरे को… हनीफ सर की उँगलियाँ टटोल रही थीं नंदिता का चेहरा… रोशनी की लौ अब कम हो चली थी… टटोलती उँगलियाँ जैसे फिर से तराश रही हों उसका एक-एक नक्श।

एक सधा हुआ चुंबन उसकी सारी उलझनें पोंछ देना चाहता था पेशानी से… वह भी भूल जाना चाहती थी पिछला सब कुछ… तपते होंठ धीरे-धीरे नीचे उतरने लगे थे… गला, कंधा, छाती… कि छाती तक उमड़ आया था कुछ उबकाई और रुलाई सा… नंदिता ने उन बढ़े हुए होंठों को रोक दिया था… गड़ा दिया था उनकी छाती में सिर और हिलक-हिलक कर रो उठी थी… वसीम…

वह रात उतर आई थी उन दोनों के बीच… और बीच में पसर कर लेट गई थी, उन्हें अलगाती हुई। हनीफ सर जैसे छिटक कर दूर खड़े हो गए थे… उसे अजीब सी निगाहों से घूरते हुए… तारों की टिमटिमाहट थम गई थी… दीए बुझ चुके थे… सुबह होने को थी पर होने से पहले ही जैसे थम गई थी…

18

जब नंदिता का मैसेज आया वे और वसीम दोनों चाय पी रहे थे, वसीम के कॉलेज-कैंटीन में। वसीम का कहना था कि वहाँ की चाय बहुत लाजवाब होती है, वह कभी आई तो उसे वहाँ की चाय जरूर पिलाएगा। और वह मौका तुरंत ही आ गया था।

अब एमीलिया के सिवा यह कोई दूसरा थोड़े ही जानता था कि उसने यह मौका पहली बार छीना है किसी से। जबरन थोप लिया है अपने सिर कि वह वसीम से मिल सके… दरअसल यह रिपोर्ट किसी और की जिम्मेदारी थी, उसे तो विधवाओं पर एक फीचर करने के लिए काशी और बृंदावन जाना था। वह जानती थी कि यह एक महत्वपूर्ण काम है। इसे करने से उसकी पहुँच और पूछ दोनों ही बढ़ेंगे और यह कि उसकी काबिलियत को देखते हुए बॉस उसे हमेशा बेहतर ही काम थमाते हैं। फिर भी… उसने दीपा से कहा था कि उसे उज्र न हो तो वह उसका काम निबटा दे… दरअसल उसकी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही और दूसरे काम के लिए उसे शहर से बाहर जाना होगा… वह खुशी-खुशी तैयार हो गई थी… और फिर उसने इस संदर्भ में बॉस से बात भी कर ली थी।

उसने देखा वसीम की आँखों में एक खास चमक थी उसे अपने दोस्तों से मिलवाते हुए। उसे अच्छा लगा था। पर वह यह तय करना चाहती थी कि वसीम उसे लेकर इतना खुश है या कि दोस्तों से यह जता कर कि एक पत्रकार उसकी करीबी है, मित्र है। यह तय करना बहुत मुश्किल था, ठीक पहले दिन की मुलाकात की तरह। जब वह बिल्कुल भी तय नहीं कर पा रही थी कि वह उससे मिलकर खुश है या दुखी। वह बात-बात पर हँस रहा था और बात-बेबात उसकी आँख आँखें नम भी हो आतीं। उस दिन भी यह तय करना मुश्किल था कि वह उससे यानी एमीलिया से मिलकर प्रसन्न है या वह उसमें नंदिता की ही परछाईं तलाश रहा है।

उसे पता है उम्र का यह दौर बहुत भावुक होता है। उसने देखा तो है नंदिता को उस दौर से गुजरते हुए। और खुद को सहेजती सँभालती भी रही है नंदिता के उदाहरण से… पर अब… अब क्यों नहीं सँभाल पा रही वह खुद को… आखिर वसीम में ऐसा क्या है… वह इसी सोच में तल्लीन थी कि नंदिता का मैसेज आया था… ‘एमी कुछ पैसे होंगे तुम्हारे पास? जरूरत है। फिर लौटा दूँगी, पापा के पैसे भेजने पर। अभी उनसे नहीं कहना चाहती। वे दस सवाल करेंगे… क्यों… किसलिए…

वह चाहती थी वसीम न पूछे कुछ इस बाबत। पर उसने उसके चेहरे के उड़ते रंगत को देख पूछ ही लिया था – क्या बात हुई… एमीलिया चाहकर भी झूठ नहीं बोल पाई थी… कि इतनी तेजी से उसका दिमाग कोई झूठा किस्सा नहीं गढ़ सका था… कि झूठ बोलने की उसकी आदत बिल्कुल ही नहीं थी… नंदिता का मैसेज है… वसीम के चेहरे पर एक लौ कौंधी थी और फिर थिर हो गई थी… क्या बात हुई… पता नहीं, पर उसे कुछ पैसे चाहिए… मैं चलती हूँ बैंक जाना जाना होगा… देर हो जाएगी।

क्या बात है फोन करके पूछो उससे। वह ठीक तो है न…। एमीलिया ने सँभलते हुए उससे कहा था यह ठीक नहीं होगा। अगर उसे फोन करना होता तो उसने जरूर किया होता। मेरे कुछ पूछने पर वह ठीक महसूस नहीं करेगी… थोड़ा ठहर कर कहा था उसने, तो इसीलिए अब्बू जल्दी लौट कर आ रहे हैं, आज हीं… उसके चेहरे पर चिंता की रेखाएँ आ-जा रही थीं। नंदिता के लिए वह परेशान था, एमी को यह बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था… वह उठकर अपने कपड़े की सिलवटें निकालने लगी थी।

…वसीम के चेहरे पर जैसे निर्णय की रेखाएँ कौंधी थीं… चलो मैं ही फोन करता हूँ उसे… एमीलिया ने चौंककर अप्रत्याशित तेजी से कहा था। चलो फोन मैं कर लेती हूँ, तुम फोन रखो… वसीम ने चौंक कर फोन काट दिया था…

कैसी हो नंदी…? उधर से एक चुप्पी के बाद जवाब आया था – ठीक हूँ…। क्या हुआ… कुछ खास नहीं, बस मैं कुछ दिन और रुकना चाहती हूँ यहाँ… घूमना चाहती हूँ आसपास की जगहें… कुछ दिन एकांत में रहकर सोचना चाहती हूँ अपने बारे में। मम्मी-पापा से यह सब कहा तो वे बेमतलब परेशान होंगे… बस इसीलिए… अगर परेशानी हो तो… कैसी बात कर रही है तू, मैंने तो बस तुम्हारा हाल चाल जानने के लिए फोन किया था… अभी ही बैंक जा रही हूँ… हनीफ सर… वे लौट गए आज ही… दोनों तरफ एक लंबी चुप्पी थी…।

एमी को कहना चाहिए था, एमी ने एक पल को सोचा भी था वह कहे – तू भी लौट आ नंदी… पर उसने ऐसा कहा नहीं था। उसने कहा तो बस यह था… ठीक है, तू आराम से आ, जो मन हो वही कर और पैसे की कोई चिंता मत करना… फोन कट गया था। उसने देखा वसीम का मुँह खुला हुआ था। वह बिल्कुल भी तय नहीं कर पाई कि वह नंदिता से कुछ कहना चाह रहा था या कि उसका मुँह हैरत में खुला हुआ था कि उसने ऐसी बात कैसे कही थी।

वसीम जिद पर अड़ गया था कि पैसे वह उससे ले ले। एमी हार कर चुप हो गई थी। उसके अकाउंट में सिर्फ तीन हजार रुपए थे। नौकरी बिल्कुल नई थी। नंदी न जाने कितने दिन तक बाहर रहे… उसे तो ज्यादा पैसों की जरूरत होगी।

दस हजार रुपए वसीम ने नंदी के अकाउंट में डाले थे, पर दुखा एमी का कलेजा था। कितना प्यार करता है वह उससे… अपनी पूरी जमा पूँजी खर्च करने में भी उसने एक बार नहीं सोचा। स्कॉलरशिप के पैसे उसने नंदी की एक इच्छा को पूरा करने की खातिर… यह जानते हुए भी कि नंदी उससे प्यार नहीं करती… यह जानते हुए भी कि नंदी उसके अब्बू के साथ…

वह दफ्तर न जा कर कमरे पर लौट आई थी। उसने बॉस को फोन किया था – तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही, मैं रिपोर्ट फैक्स कर दूँगी शाम तक… कमरे में वह बैठी थी चुपचाप… अकेली… पर कोई था उसके पास… वह जो छिन गया था उससे। वह भी तब जब छिनने और खोने का अर्थ भी नहीं जानती थी वह…। और प्यार के बारे में भी उसे पता नहीं था। जिंदगी के उन मासूम वर्षों में जब सब कुछ खुशनुमा था, सब कुछ सुंदर। तब जब माँ-पापा के बीच की दूरी का भी उसे पता नहीं था। तब जब माँ गई नहीं थी उसकी जिंदगी से और तब जब नंदी भी नहीं आई थी उसकी जिंदगी में… बस उसका साथ उसे अच्छा लगता, बहुत-बहुत अच्छा। वे दोनों जितना वक्त मिल सकता एक साथ बिताते। गर्मी की छुट्टियों में पुराने ढंग के बड़े-बड़े पलंगों के नीचे उनकी गृहस्थी सजती थी। किचेन, स्टडी और ड्राइंग रूम… चादरों से घेर-घूर कर वे अलग-अलग कमरे तैयार करते थे। वह ऑफिस जाता… वह उसके लिए माँ से फल… मिठाइयाँ जैसी चीजें माँग कर उन्हें पकाने का अभिनय करती… शाम को उसका इंतजार करती। छोटे-छोटे गुड्डे-गुड़िया जो उसके बच्चे बनते थे को सजाती-सँवारती, खिलाती-पिलाती और उसके दफ्तर से आने का इंतजार करती… दफ्तर वह जो कि कुर्सियों को घेर कर उनमें चादर डाल कर तैयार किया जाता। उन दोनों की दुनिया एक-दूसरे के होने से ही भर जाती थी।

और भी खेल वे सब साथ खेलते। बुढ़िया कबड्डी में वह उसे बुढ़िया बनाकर रख लेता और पहरेदारी करता रहता उसकी कि कोई और उसे छू न पाए। आइस-पाइस में वे एक दूसरे को ही ढूँढ़ते पहले और खेल जैसे उन तक ही सिमट जाता मानो दूसरे बस यूँ ही हों…

पढ़ते थे साथ-साथ… उन्हें किसी ट्यूटर की जरूरत नहीं थी, बिल्कुल नहीं। एक को जो न समझ आए उसे दूसरा समझ कर जरूर समझा देता। स्त्री-पुरुष सचमुच एक दूसरे के पूरक होते हैं या नहीं पता नहीं, पर वे दोनों बच्चे एक दूसरे के पूरक जरूर थे, और वह भी इस हद तक कि उन्हें देखकर बड़े बुजुर्गों को भी ईर्ष्या हो उठे।

… उसकी मम्मी कहती अगर तेरी दुल्हन एमी जैसी न हुई तो, तू तो जान ले लेगा मेरी… वह कहता धत और शरमा जाता।

पहले पहल सब हँसते थे मिलकर इस बात पर। सब मतलब, वे चारों। पापा, अम्मा, बस्सी की अमिया और उसके अब्बू। फिर धीरे-धीरे माँ इस मजाक से कुढ़ने लगी थी। बाद में वे पापा से कहतीं, उस पापा से जिससे जितना कम बोल कर वे काम चला सकती थी, चला लेती थी… देखिए जी ये यासमीन जो बोलती रहती है न हमेशा बच्चों के आगे मुझे अच्छा नहीं लगता बिल्कुल। बच्चे हैं, मन में गाँठ पड़ती जाएगी इस बात की। और बड़े भी तो हो रहे हैं वे… जो नामुमकिन हो उस बात को मजाक में भी क्यों कहना… पापा शुरुआत में अम्मा को डाँट देते… मजाक ही तो करती हैं वो। पड़ोसी हैं, अच्छी दोस्त हैं तुम्हारी और तुम हो कि मजाक की बातों को भी… पर धीरे-धीरे उनका चेहरा भी सख्त होने लगा था इस मजाक पर। पापा एक दिन कह रहे थे, वे लोग शायद इंटेंशनली कहते हैं यह सब… अब इनका मिलना-बैठना कम होना चाहिए… और बस्सी और एमी भी…

यह सब बातें उस बरस के पहले की बातें हैं। उस बरस से पहले तो यह दोस्ती चाह कर भी कम न हो सकी थी। बस्सी की अम्मी जो कुछ पकाती मांस-मछली-अंडे, पापा के लिए जरूर दे जातीं। बदले में मम्मी को भी कुछ न कुछ करना ही था। अगर वे महीने में दो बार खाने के लिए न्योतते तो माँ एक बार तो बुलाती ही न…

पर उस बरस अपने आप कमने लगा था यह सिलसिला। सब जैसे कतराने लगे थे एक-दूसरे से। मेल-जोल अपने संप्रदाय के लोगों तक ही सिमटने लगा था। गो कि उस कालोनी की आबादी आधी-आधी नहीं तो तीन-एक के अनुपात में तो जरूर रही होगी। पर एक तरह से देखें तो मुस्लिम बहुल जैसी ही थी। हिंदू बँटे हुए थे, जाति-गोत्र के नाम पर। लेकिन वे मेल-मुहब्बत रखते आपस में। शायद यह उनकी नीति थी। शायद यह अल्पसंख्यक होने की नीति थी। अगर टूट-टूट कर, बिखर-बिखर कर रहें तो…

पर उस बरस बिखरे-बिछड़े हिंदू एक हो आए थे। अजान से भी तेज स्वर में भजनों का सिलसिला शुरू हो गया था। प्रवचन-कथा के लिए आनेवाले साधु-महात्माओं की संख्या भी जैसे अचानक बढ़ने सी लगी थी… एक दिन अफवाह फैली थी और न जाने कैसी फैली थी कि सारे के सारे टंकियों का पानी सड़क पर गंगा जल बन कर बहने लगा था। ऊपर से मौसम भी बरसात का। गड्ढों, पोखरों और नालों तक में समाइश नहीं थी उनकी। हाँ उसके घर का पानी नहीं बहा था। बस्सी के अब्बू आए थे, पड़ोसी होने के नाते और कहा था अगर पानी टंकी में जहर होता तो मेरे घर के पानी में भी होता न। मेरे यहाँ तो खाना भी उसी पानी से पका है। और मैं आपके घर का पानी भी पी लेता हूँ। और उन्होंने गिलास में डालकर पानी भी पीया था। उन्होंने कहा था पापा से, हो सके तो रोको सबको ऐसा करने से। पानी बहुत बेशकीमती चीज है, उसे यूँ जाया करना… पापा ने कई लोगों को फोन भी किया था पर किसी ने मानी कहाँ थी उनकी बात… इससे चाहे जितनी मुसीबतें आई हो, हम दोनों को तो जैसे बहार ही हो गया था। स्कूल बेमौसम बंद थे उन दिनों… हाँ, चुपके-चुपके हम पानी में जरूर निकल जाते। पौधे, जोंक और मछलियाँ देखने को… बस्सी ने कई सारी मछलियाँ पकड़ी थी और मुझे भेंट की थी, जिन्हें अचार के एक पुराने मर्तबान में मैंने रखा था और रोज-रोज एक्वेरियम लाने की जिद करने लगी थी पापा से।

दूसरे दिन तक सारा पानी निकल चुका था लेकिन दहशत अभी भी बाकी थी लोगों के दिलों में। सब्जी बेचनेवाली कुंजड़िनें आती और लिए-लिए लौट जातीं हरी-हरी ताजी सब्जियाँ, कम से कम दाम रखने के बावजूद। आसपास की महिलाएँ बतियाती थीं आपस में… सारी की सारी मुसलमान हैं… सब्जी में भी अगर जहर हुआ तो… उस बरस आखिर ऐसा क्या हुआ था मैं अब भले ही जानती हूँ तब मुझे पता नहीं था…

पूरा बरस यूँ ही बीत गया था। उस खास दिन की बरसी आने तक… वह शहर, हमारे ही शहर में उतर आया था जैसे। फिर गली-मुहल्ले घूमता-घूमता हमारे घर में भी… वह शहर धधक रहा था, अतः हमारा घर भी… टीवी पर खबरें उस शहर की आतीं और इस शहर की हवा को धुआँती…। धुआँ-धुआँ हमारा शहर भी था और घर भी। …मरे… मारा… बम फटे… हम बच्चे घरों में बंद कर दिए जाते। मैं और वस्सी दोनों अपने-अपने घर में… और तिस पर दुखड़ा यह कि माँ और पापा दोनों इस मुद्दे पर एकमत होते… हम दियासलाई और तारों को जोड़कर वस्सी के द्वारा बनाए गए यंत्र से एक-दूसरे को असफल संदेश भेजने की कोशिश करते रहते। मन नहीं लग रहा… मेरा भी नहीं… बाहर आओ न… कैसे आऊँ… कोई उपाय… देखता हूँ… दिन पर दिन बीत रहे थे उदास, अनमने…

लोगबाग आकर पापा से कहते, डॉक्टर साहब यह तो कोई तरीका ही नहीं हुआ… अपना शहर और फिर यह मुहल्ला भी साफ-साफ बँटा हुआ है कम्युनिटी के अनुसार। फिर यहाँ रहने का क्या तुक… आपने तो पड़ोस में… समझाते क्यों नहीं… यह मकान बेच दें… चले जाएँ अपने लोगों के बीच… वे भी चैन से रहेंगे और हम भी… स्वर में बुजुर्गियत थी उम्र की तरह ही… और नहीं गए तो हम भेजकर ही दम लेंगे… साम-दम-दंड-भेद जैसे हो… यह स्वर युवा और आक्रोशी था… जो चंदा माँगनेवालों में अग्रणी था उस बरस घर-घर से ईंट इकट्ठा करता हुआ। यह वही था जो मस्जिदों पर गेरुए झंडे लगाने की बात कर रहा था उस दिन और माँ चुपचाप सुन रही थी। आँखों में डर भर कर उन्होंने वस्सी और एमी को भीतर जाने को कहा था।

उस दिन फिर उनका फोन जुड़ गया था या कि उसका मन, जो दूर कहीं बैठकर भी एक-दूसरे के मन की आवाज सुन लेते थे। वस्सी की अम्मी सो रही थी, अब्बू कारखाने गए थे। अम्मा की तबीयत खराब होने के शुरुआती दिन थे शायद… वे बुखार चढ़ने के बाद दर्द और नींद की गोली खाकर सोई हुई थीं… टिन-टिन-टिन… यह बुलाहट की आवाज थी… टन-टन-टन उसने कहा था वह आ रही है… और चुपके से कुर्सी लगाकर पिछवाड़े की छिटकनी खोलकर निकल आई थी। वस्सी पहले से ही खड़ा था। वे खेलने लगे थे लुका-छिपी का खेल; धूल-धुएँवाली वह दोपहर बीतने को ही थी। छुपी वह थी… छुपने की बारी उसी की थी। उसे क्या पता था कि वस्सी छुपेगा और वह ढूँढ़ती फिरेगी उसे और वह कहीं नहीं मिलेगा उसे ताउम्र। उसे पता था वस्सी उसे ढूँढ़ लेगा। वह झाड़ियों में छिपी-छिपी देख रही थी उसकी राह कि उसकी तरफ आते वस्सी को कुछ लोगों ने घेर लिया था और उठा कर चलते बने थे। वह बहुत कसकर चीखी थी… पर चीख शायद उसके गले में ही अटकी रह गई थी, बुरे सपने में गोंगियाने जैसी कुछ-कुछ। वह जैसे घर का रास्ता भूल गई हो, झाड़ी में ही बैठ गई थी घबड़ा कर। पता नहीं कितनी देर बाद वह घर लौटी थी। पता नहीं कितनी कोशिशों के बाद उसने माँ को जगाया और बता पाई यह बात। बुखार में तपती माँ ने खिड़की-दरवाजे सब बंद कर लिए थे अच्छी तरह… और उसे कहा था वह किसी से न कहे यह बात।

माँ उसे किसी के सामने होने ही नहीं देती थी… जब तक वस्सी मिल न गया था वापस। पर अभी भी जो लौटा था वह उसका वस्सी नहीं था, उसका प्यारा दोस्त वस्सी। उसका सबसे ज्यादा खयाल रखनेवाला, उसके सारे राज जाननेवाला। वस्सी बेहोश था लंबे समय तक। घर से अस्पताल तक। वे लोग अपना घर बंद कर चले गए थे उस तरफ अपने रिश्तेदारों के पास। फिर वहाँ से कहीं और, वस्सी के इलाज की खातिर… और फिर वे कभी नहीं लौटे… उनका घर हमेशा बंद ही दिखा था, उसके दिल्ली आने तक। और वह उस बंद घर को देख कर बार-बार रो उठती थी अपने उस दोस्त की खातिर जो कभी लौटा ही नहीं; जो खो गया था। उस बरस के बीत जाने के बाद भी… वह एक बंद बड़ा सा ताला था जो दरवाजे से उठकर उसके सीने पर जड़ गया था।

…नंदिता आई थी और जगह घेर गई थी उसकी जिंदगी में पर वसीम की नहीं… इसीलिए नंदी इन दिनों जब-जब चर्चा करती वह ताला हिलता, कुछ सुगबुगाता, चिलकता उसके सीने में… वह सोचना चाहती सिर्फ नाम से क्या होता है… और उसका वसीम वसीम नहीं ‘वस्सी’ था। जैसे कि वह एमीलिया नहीं एमी थी उन दिनों… पर नाम भर से ही एक बेचैनी, एक चाहत, एक खुशी उभरने लगती उसके भीतर। सब एक साथ… सब गड्डमड्ड।

वह बहुत रोई थी उस वक्त, इतना कि रिपोर्टिंग की बात भी भूल चुकी थी… किसके लिए… अपने वस्सी उर्फ वसीम के लिए या कि इस वसीम के लिए जो चाहने पर भी उसका नहीं नंदी का ही था; उसकी लाख कोशिशों के बावजूद।

फोन की घंटी फिर बजी थी और उसे रिपोर्ट फैक्स करने की बात याद हो आई थी। उसने फोन बंद करके पहले रिपोर्ट टाइप किया फिर फैक्स। और फिर अपने धुआँए-उदास चेहरे के साथ बाल्कनी में कॉफी का मग ले कर बैठ गई थी। उसने बीच में उठकर रिकॉर्डर ऑन किया… ‘आँख में क्यों नमी सी रहती है / जाने कैसी कमी सी रहती है / हँस लिए रो लिए जी-मर के, जीना सीखा है जीते जी भर के / साँस फिर भी थमी सी रहती है… वह सैडिज्म जिसके लिए कभी वह नंदी को डाँटती थी… जिसके लिए वह उसे आधुनिक मीरा और मीना कुमारी कहकर चिढ़ाती थी, आज उसके हिस्से था। और उसे उसका रंग इस घड़ी अच्छा लगा था। वह भी अपनी उस उदास सी आवाज में साथ-साथ गुनगुना उठी थी… जिंदगी अब कभी न रास आए। दफ्न कर दें हमें तो साँस आए / साँस ऐसे जमी सी रहती है…

19

चोखी ढाणी से लौटते ही हनीफ ने अपना सामान पैक किया था। वे नंदिता के कमरे तक आए थे। वह उकड़ू बैठी हुई थी, घुटनों में अपना सिर रखे। उन्होंने पूछा था चलना नहीं है? वह चुप ही रही थी… तुम अभी तक ऐसे ही बैठी हुई हो… वह फिर भी बैठी ही रही थी जड़वत… देखो मैं निकलनेवाला हूँ… दो घंटे बाद फ्लाइट है। जल्दी से सामान पैक करो और फ्रेश हो लो। नंदी फिर भी चुप ही थी। हनीफ खीज उठे थे… सुनो ऐसा करो, अगर तुम्हें यहाँ रुकना है तो कोई बात नहीं, कमरे की बुकिंग पूरे एक सप्ताह की है, पर मैं आज ही जाऊँगा… मुझे कॉलेज से कुछ जरूरी काम के लिए वापस बुलवा लिया गया है… नंदिता ने जैसे पूरी शक्ति बटोरकर कहना चाहा था… और आपकी कॉन्फ्रेंस…? आवाज टूटती-फूटती सी निकली थी… कान्फ्रेंस… वह सारा काम कल ही खत्म हो गया था। नंदिता फिर भी नहीं उठी थी सामान पैक करने की खातिर। वे कमरे से चले गए थे… जबकि नंदिता को इंतजार था, वे खुद उसका सामान उठाएँगे और डाल देंगे सूटकेस में। उसे कंधों से झकझोर कर कहेंगे – उठो मुँह-हाथ धो लो। वे चले गए थे। और नंदी जो कुछ घटा था उस पर भरोसा करना चाहती हुई, बिस्तर पर ही थी।

नंदी ने पूछा था खुद से, अब? प्रत्युत्तर में उसके भीतर से एक सवाल ही आया था, अब? जैसे किसी अँधेरे खोह में हो वह और जहाँ अपनी आवाजों कीए गुंजन के सिवा और कुछ हो ही नहीं… रोशनी की एक किरण तक नहीं। हनीफ जाते वक्त आए थे और खड़े रहे थे कुछ पल दरवाजे पर, फिर उन्होंने कहा था मैं चलता हूँ। उन्होंने उसके सिर पर हमेशा की तरह हथेलियाँ रखी थी पर क्षण भर में हटा भी ली थी। उन्होंने उसके तरफ कुछ पैसे बढ़ाए थे… शायद तुम्हें जरूरत हो… वह छिटक गई थी… और इस छिटकने से पैसे भी छिटक कर गिर पड़े थे। उन्होंने बिखर पड़े नोटों को समेटा था और कुछ देर की स्तब्धता के बाद चल दिए थे।

पड़े-पड़े बहुत देर तक सोचने के बाद भी वह तय नहीं कर पाई थी कि क्या करे… उसने हनीफ सर की दी वह किताब खोल ली थी… महावीर के बताए त्रिरत्न – सम्यक विश्वास, सम्यक ज्ञान और सम्यक आचरण। तीर्थंकरों पर विश्वास, चूकि तीर्थंकर सत्य बोलते हैं… इस तरह सत्य पर विश्वास। तीर्थंकर अपने अनुभव और तप से संचित ज्ञान से ऐसे नियम बनाते थे जिससे सांसारिक भवसागर को पार कर मोक्ष अर्थात निर्वाण की प्राप्ति होती थी। सत्य पर विश्वास, संशय रहित विश्वास पर यह विश्वास अंधविश्वास नहीं हो।

एक पल को उसने सोचा जब विश्वास संशयरहित हो फिर अंधविश्वास कैसे नहीं होगा। जहाँ संशय नहीं हो अंधता वहीं होती है। उसे कभी हनीफ सर पर संशय नहीं हुआ, न हीं अपने प्रेम पर। उसका प्रेम अंधा था… तो क्या यही गलती हो गई उससे… संशयरहित होना था पर प्रेम में अंधा नहीं… संशयरहितता और अंधत्व क्या एक ही नहीं… वह बार-बार सोचती पर निस्तार नहीं पा रही थी…

आत्मा अमर है, अनश्वर है। सत्य है। परंतु शरीर आत्मा से भिन्न है, नश्वर है। आत्मा का परम लक्ष्य मोक्ष है। यह सिद्ध होगा सम्यक ज्ञान और आचरण से, तीर्थंकरों पर किए गए विश्वास से। क्यों कि जो ज्ञान हम पाना चाहते हैं उसकी प्राप्ति के लिए पर्याप्त साधना और उपाय हम कर नहीं पाते। तीर्थंकर वही ज्ञान प्राप्त कर हमारी मुक्ति का मार्ग आसान करते हैं। सदाचारयुक्त नैतिक आचरण, इंद्रिय, वाणी और कर्म पर पूर्ण नियंत्रण। इससे आत्मा पर बोझ नहीं बढ़ता। सम्यक अचरण दो तरह के हैं – पाँच अणुव्रत जो कि सिर्फ गृहस्थों के लिए हैं, जिन्हें श्रावक-श्राविका कहा जाता था – अहिंसा, सत्य वचन, अस्तेय अर्थत बिना अनुमति, चोरी और दिए जाने पर भी किसी की कोई चीज न लेना, अपरिग्रह अर्थात धन का त्याग, कामनाओं और आसक्तियों का संग्रह नहीं। माया लोभ और इच्छाओं का त्याग और अंतिम ब्रह्मचर्य।

उसने गौर किया उसकी जिंदगी पाँच अणुव्रतों के नियमों पर सही उतर सकती थी क्या… उसने मन ही मन सही किया, लगभग हाँ… सत्य वचन… लगभग हाँ… अस्त्रेय… लगभग हाँ… अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य… माया लोभ और इच्छाओं का त्याग… अभी तो वह ऐसा ही महसूस कर रही थी… और ब्रह्मचर्य का तात्पर्य यहाँ विवाह के परित्याग में नहीं… असंयम, कुव्यसनों और वासनाओं के त्याग से था। एक बृहत दर्शन धर्म का… एक बृहत सोच और उसे भी अपनी तरह से अपनाने की अंधानुकरण न करने की आजादी भी… यह धर्म उसका मन मोह रहा था।

या कि हनीफ सर से टूटे हुए दिल का उपचार भर था अनासक्ति और अनावलंब का यह रास्ता… वह सोच रही थी और सोचती ही रह गई थी देर तक।

उसने आगे पढ़ा था – पाँच अणुव्रतों के अलावा पाँच महाव्रत भी होते हैं जो श्रमन अर्थात भिक्षुओं के लिए होते थे – जहाँ नारी हो ऐसे घर में निवास नहीं करना। किसी नारी की ओर वासना से नहीं देखना। स्त्री से बातचीत तक की मनाही। स्त्री संसर्ग से विरक्ति। आरामगद्दों का परित्याग; कठोर स्थान पर शयन और अल्प भोजन। नंदिता ने किताब बंद कर दी थी। उसका मन क्षोभ से भर गया था। क्या मुक्ति की मार्ग में स्त्रियाँ ही खड़ी थी रोड़ा बनकर। हरेक धर्म घूम-फिर कर स्त्रियों को ही नर्क के द्वार तक ले जानेवाला क्यों मानता है। वह धर्म जो हर तरह की रूढ़ियों को तोड़ रहा था, इस रूढ़ि से क्यों बँधा रह गया। उसका मन और ज्यादा वितृष्णा से भर गया था। उसने सोचा, बहुत पढ़ ली उसने ये पुस्तकें।

उसने ठहरकर फिर सोचा था, समाज में ठहराव एक बड़ा कारण था जैन धर्म के उदय का। जो कुछ भी ठहरा या रुका हुआ था, सड़े हुए जल की तरह, जैन धर्म सब में गति संचालित करता है। चूँकि कृषि के लिए पशु आवश्यक थे वह पशुबलि पर रोक लगाता है। ब्राह्मणों के वर्चस्व से शूद्र और अन्य दूसरे वर्ण दुखी थे इसलिए उनके वर्चस्व को चुनौती देता है। स्त्रियाँ उपेक्षित थी, वे मोक्ष की अधिकरिणी नहीं थी अतः यह उन्हें भी ये सारे अधिकार देता है।

प्रभावती, पद्मावती, मृगावती, चेलन्ना और शिवा के अतिरिक्त महावीर की पत्नी यशोदा और उनकी पुत्री प्रियदर्शना और अर्णिज्या के अलावे जिन स्त्रियाँ ने जैन धर्म में बहुत महत्वपूर्ण स्थान बनाया है, वे हैं चेलन्ना की पुत्री चंदना जो प्रथम भिक्षुणी बनी। यह अजातशत्रु की बहन थी। और पार्श्वनाथ युग में पुष्यचूला जो महिला संघ की प्रधान हुई।

फिर पाँच महाव्रत… नंदिता ने सोचा सारे बदलाव एक ही बार नहीं आते। एक-एक सीढ़ी चढ़ कर ही हम ऊपर जाते हैं… फिर हर बदलाव क्रांति नहीं लाता। हाँ क्रांति का सूचक जरूर हो सकता है… जब आज तक स्त्रियाँ दुखी हैं, दलित हैं तब उस युग से क्या अपेक्षाएँ रखी जा सकती है… और क्या रखी जानी चाहिए…

फिर भी किताब उसने दुबारे नहीं छुआ था। अपना जीवन दर्शन वह खुद गढ़ेगी… अपने मन, सोच और विचार के अनुकूल… उसे जो जँचे… जो सही लगे वही…

पर किताब रख देने के बाद एक खालीपन था और था तो अपनी पूरी व्यापकता में था, उसे घेरता हुआ… सवाल करता हुआ। उसे अचानक लगा जैसे भूख लगी है… वह खाने के लिए उठना ही चाह रही थी कि उसे खयाल आया, नहीं अब यहाँ खाना उचित नहीं होगा। सर कहकर गए थे कि रूम का बिल पेड है… खाना तो… और वह… उसे तो बाहर निकलकर ही खाना चाहिए, जेब में बचे पैसे के अनुकूल…

जेब और पैसे की बात याद आते ही अपना खाली हाथ उसे परेशान करने लगा। उसने अटैची खोल कर पैसे निकाले थे बाहर, पर्स और डायरी में रखे हुए… उसने गिना था उन्हें, कुल 830 रुपए… दिल्ली में होती तो शायद काम चल जाता।, महीने के बचे सिर्फ सात दिन… फिर पैसे घर से आ ही जाने थे। पर अभी जब लौटने का मन वह बिल्कुल भी नहीं बना पा रही… उसने सब सोच समझ कर एमी को मैसेज किया था… पर एमी के फोन से ठीक पहले वसीम का फोन आना और कट जाना… उसे बहुत अजीब सा लगा यह। तो क्या वह भी एमीलिया के आसपास था, आसपास क्या बिल्कुल साथ ही… अगर था तो यह उसे अजीब क्यों लग रहा है…? उसे तो अच्छा लगना चाहिए था… कोई तो है जो वसीम को उसके दिए झटके से उबारने की कोशिश में है… पर सच कहें तो उसे यह अच्छा नहीं लगा था। दुख रहा था कहीं कुछ भीतर जिसे मानने से उसे इन्कार था… वह सोचने की कोशिश कर रही थी, एमीलिया वसीम से कहीं उसी के संदर्भ में बतिया रही हो, कहीं इंतजार करने की कोई हिदायत… उसने खुद को बरजा था वह ऐसा क्यों सोचना चाहती है और एक शाकाहारी हिंदू होटल में जा कर 65 रुपए की थाली का ऑर्डर दे दिया था… ये पैसे उसकी जेब के हिसाब से कुछ कम नहीं थे पर बहुत ज्यादा भी नहीं। खाना बुरा नहीं लगा उसे, खास कर के अपने बजट को देखते हुए।

होटल में आई तो फिर वही एक सवाल… अब क्या करना है… क्या सातों दिन इसी होटल में बैठी रहेगी और आठवें दिन लौट जाएगी… उसने खुद से कहा… नहीं…

उस रात उसने राजस्थान गाइड पढ़कर कुछ जगहों की एक सूची बनाई। ये वे जगहें थी जहाँ जैन धर्म से जुड़ा कुछ-न-कुछ था। इस सूची में माउंट आबू, जैसलमेर और उदयपुर व अहमदाबाद के बीच का एक स्थान ऋषभदेवली मुख्य थे।

वह फिर-फिर सोचती रही ऐसा क्यों… फिर उसे याद आया… हनीफ सर ही तो कहते थे, हम अपने या अपने इतिहास को जानते ही कितना हैं… तभी तो बुरे लोग वहाँ से जो कुछ भी चाहे उसे जैसे भी उठाकर इस्तेमाल कर लेते हैं और हम देखते रहते हैं चुपचाप… चूँकि हमारे पास देखने के सिवा और कोई चारा नहीं होता। कि हमने उसे पढ़ा और जाना ही कितना है… और वह जानना चाहती थी सब कुछ अपने तई। सही-गलत सब। परखना चाहती थी उसे अपने दिल और दिमाग के तराजू पर।

उसने दूसरी लिस्ट उस किताब से ही बनाई, उन जगहों की जो जैन मूर्तियों, कलात्मक वस्तुओं और स्मारकों से जुड़ी थी। वह नोट कर रही थी – मथुरा, पार्श्वनाथ पहाड़, पवापुरी, गिरनार, पालीथाने (सौराष्ट्र), उज्जैन, बड़वानी (मध्य भारत), बुंदेल (हिमाचल प्रदेश)... खजुराहो में घंटाई आदिनाथ जैन मंदिर, हाथी गुफा, अलोरा में इंद्रसभा गुफा, उदयगिरि में सिंहगुफा, श्रवनबेलगोला के समीप बाहिबली की विशाल गोमतेश्वर प्रतिमा जो 70 फीट ऊँची है और मध्य प्रदेश में बड़वानी नगर में 84 फीट ऊँची जैन तीर्थंकर की प्रतिमा।

उसने पहली लिस्ट को टेबुल पर रखा और दूसरी को अपनी ब्रीफकेस में जहाँ वह अपनी महत्वपूर्ण चीजें रखती थी… आगे फिर कभी, जब समय मिला तो… उसने अपने आप से कहा और आज के लिए रिसेप्शन पर फोन मिलाया… जैसलमेर, आबूरोड और ॠषभदेवली जाने के लिए सुविधाजनक तरीका… तरीका उसने नोट कर लिया था।

पहले वह जैसलमेर के लिए निकली थी। दो दिनों तक होटल में रहने और सोचने के बाद। यह बड़ी अजीब सी बात थी कि उसने एक बार भी यह नहीं सोचा था कि वह जयपुर घूम ले, आई है तो… कारण… उसे खुद नहीं पता। यूँ तो हनीफ सर के चले जाने के बाद भी कितनी ही जगहें बची थी, वहाँ घूमने के लिए और आसपास भी। पर पता नहीं क्यों उसका मन जयपुर से उठ गया था… इस उठ चुकने के बाद भी उसने पूरे तीन दिन उसी जयपुर में बिताए थे, चाहे होटल के कमरे में कैद हो कर ही सही। और अब वह एक और दिन नहीं बितानेवाली थी। जैसलमेर से लौटने और माउंट आबू जाने के बीच का एक दिन। नंदिता जानती थी उसके पास पैसे बहुत कम हैं और उसे इसी में अपना वक्त गुजारना है, कितना वक्त… कितना ज्यादा या कितना कम यह अभी तय नहीं था इसलिए भी वह सोच समझ कर खर्च करना चाहती थी। चूँकि होटल का बिल पेड था… नंदिता ने सोचा था जब उनके दिए पैसे से उसे इन्कार था तो फिर उनके लिए कमरे में रहना… पर उसकी व्यावहारिक बुद्धि ने जैसे उसे तर्क दिया… पैसे उसके हाथ में दिए जा रहे थे और… होटल का बिल उसके अनजाने में दिए गए थे… सब कुछ खत्म होने से पहले… फिर नासमझी ही होगी कि…

वह अटक रही थी भीतर भी और बाहर भी। घूम रही थी तीर्थ-तीर्थ अपनी ही तलाश में। उसको चाहिए क्या था… वह क्या सोचती है… वह खुद भी जानना चाहती थी। उसे याद आया माँ जब भी तीर्थ पर जाने की बात करती तो पिता मजाक में कहते, बूढ़ी हो गई क्या… कि बहुत पाप कर डाले हैं…? नंदी ने पूछा था खुद से… बहुत पाप कर लिए क्या जो जैन तीर्थों की पूरी लिस्ट बना ली इसी उम्र में। पापा का उसे पता नहीं था, पर आईना देखने पर उसे लगा कि वह असमय ही बुढ़ी जरूर हो गई थी… कब… कैसे… उसे भी नहीं पता… वह नंदिता कहीं खो सी गई थी जो व्यवस्थित थी, सुंदर थी… जिसकी आँखें कभी सपनीली होती थी और कपड़ों में अनगिन रंग। उसने गौर किया, कई दिनों से उसने कपड़ा भी नहीं बदला था… होटल में आकर नाइट सूट डाल लेती और बाहर निकलते वक्त वही एक कुर्ता-जींस। उसे एमीलिया याद हो आई इसी तरह अपनी ही दुनिया में मस्त एमीलिया। इतने तेज सुर्ख दुपट्टे जो उसने यहाँ खरीदे थे, सब के सब पड़े थी अनछुए। पहलेवाली नंदिता ऐसा कर सकती थी क्या… नए कपड़े और यूँ ही पड़े रहें अनछुए ही… असंभव।

जैसलमेर के जैन मंदिर को देख कर वह हतप्रभ रह गई। पार्श्वनाथ, ॠशभदेव, संभवनाथ की प्रतिमाओं और स्थापत्य के अलावा जिस चीज ने उसे सबसे ज्यादा प्रभावित किया या मोहा वे थीं संभवनाथ के मंदिर में भूमि तल पर स्थित भद्रासुरि ज्ञान आगार, जहाँ देश के अनेक भागों से एकत्र की गई पांडुलिपियाँ थी। जैन साहित्य, वैदिक, बौद्ध, न्यायशास्त्र, अर्थशास्त्र, वैदक, दर्शनशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र और भाषाकोश भी, जो प्राकृत से ले कर मागधी, संस्कृत, अपभ्रंश और ब्रजभाषा में लिखी गई थीं। जिनमें से 1226 ताड़पत्रों पर लिखी हुई थी और 2257 कागज पर। वे वक्त के साथ कमजोर और पीली जरूर हो गई थीं पर उनकी सोंधी गमक खींचती थी अपने ओर… मुझे छुओ, मुझे पढ़ो।

नंदिता ऐसा चाहती भी थी। किताबों की गमक हमेशा उसे अपनी ओर खींचती रही है, बचपन से ही… खासकर पुरानी किताबों की… पर वक्त… उसे आगे जाना था। उसने सोचा आगे जाना भी तो लौटने के लिए ही होता है। जब जिंदगी लौट रही है अपनी धुरी की तरफ… वह भी लौटेगी एक दिन… जरूर।

वह बस से आबू रोड के लिए निकली थी जयपुर से… जब वह पहुँची सुबह होने-होने को थी। वह सीधे-सीधे शिखर पर्यटक बँगला पहुँची थी… जयपुर से होटलवालों ने ही वहाँ बात कर रखी थी, वर्ना सीजन में जगह मिलने की संभावना कम ही होती है… वे बता रहे थे…

नहा-धो कर वह घूमने के लिए निकल पड़ी थी, और वह इत्मीनान से घूमना चाहती थी। किसी हड़बड़ाहट या जल्दबाजी में नहीं, जैसलमेर की तरह। उसने एक गाइड कर लिया था…। क्यों, क्या इस डर से कि हनीफ सर की कमी महसूस करेगी वह… हनीफ सर ऐसी जगहों पर उसे लगातार बताते-समझाते रहते हैं… कला और इतिहास के प्रति दूसरों से अलग सोच रखनेवाले सर। उनका साथ न होना उसे खला था…

खुद पर ही हँस पड़ी थी वह। गाइड की पुरानी आदत जो रही है उसे। पहले माता-पिता का मोह संरक्षण, फिर एमीलिया और उसके बाद हनीफ सर… उसे राह बतानेवाला, दिशानिर्देश देनेवाला कोई चाहिए ही चाहिए… उसने तय किया उसे इस आदत से निजात पाना होगा। जब अकेले ही रहना है तो… ऑटो चली जा रही थी हरी-भरी वादियों और पहाड़ियों से गुजरती हुई। साथ बैठा व्यक्ति लगातार बोल रह था अरावली पर्वतमाला की श्रृंखला के दक्षिण-पश्चिम में 400 फीट ऊँची पहाड़ी पर मनोरम और मनमोहक घाटी में स्थित है राजस्थान का यह एक मात्र पहाड़ी तीर्थ जो कि पर्वतों के ठीक मध्य में स्थित है ‘माउंट आबू’। उत्तर में हिमाच्छादित हिमालय और दक्षिण में भव्य नील गिरि के बीच के मध्य सबसे ऊँची 5653 फुट की चोटी गुरु शिखर यहीं स्थित है। यहाँ को लेकर अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं… कि यह सतयुग में भी विद्यमान था… कि यह हिमालय का पुत्र है… कि यह वशिष्ठ मुनि का प्रिय रहा है और इतिहास में भी इसके पुरातन होने के प्रमाण उपलब्ध हैं। चंद्रगुप्त के शासन काल में आए मेगास्थनीज जो कि यूनान के राजदूत थे ने भी लगभग 410 वर्ष ई.पू. इसका उल्लेख किया है।

नंदिता को गाइड का बोलना भला लग रहा था… किसी कमी को पूरता हुआ। पर मन तो लगा हुआ था सुहावने हरे-भरे जंगलों, गहरी खाइयों और काले पत्त्थरों के विशाल चट्टानों को देखने में। ठंडी हवा उसके बालों को उड़ा रही थी। हमेशा खुले रहनेवाले बाल आज बंद होने पर भी क्लचर से निकल-निकल कर उसकी आँखों और चेहरे को ढाँपने लगते। वह उन्हें कानों में लपेटती और सिर बाहर निकाल लेती, ड्राइवर और गाइड के बार-बार मना करने के बाद भी। चोट लग सकते है इस तरह… पहाड़ से चट्टान निकले होते हैं और बृक्षों की टहनियाँ भी, उस पर से रास्ता भी घुमावदार वह क्षण भर को उनके बात मन लेती पर फिर देखने का और जी भर के देखने का मोह… देखते-देखते राह बीत गई थी…

बिना मीटरवाली वह ऑटो रुकी थी। जगह थी, दिलबाग जैन मंदिर… गाइड कह रहा था आज आबू पर्वत जिस चीज के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है वह है, पत्थरों की खुदाई कर के बना भव्य दिलबाग जैन मंदिर। दिलबाग जैन मंदिर भारतीय शिल्पकला का एक अभूतपूर्व उदाहरण है। यह 12वीं शताब्दी की बात है, श्वेत संगमरमर पर सूक्ष्म-कलात्मक खुदाई बहुत ही कौशलपूर्वक की गई है। यह विश्वप्रसिद्ध मंदिर पाँच मंदिरों का समूह है जिसमें विमलबसही और लूणबसही मुख्य है। अन्य तीन मंदिर हैं रिषभदेव, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी के।

सन 1931 में 18 करोड़ 53 लाख रुपए की लागत से गुजरात के महाराजा भीम के मंत्री विमलशाह द्वार निर्मित उन्हीं के नाम पर नामाकृत यह मंदिर प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित है। यह जो मुख्य मंदिर क मंडप आप देख रही हैं, ध्यान पूर्वक देखिए, यह अष्टकोणीय है जिसमें 48 स्तंभ हैं। लहरदार मेहरावें एक-दूसरे से मिल रही हैं संगमरमर के ग्यारह छल्लों द्वारा निर्मित इस छत पर जो मूर्तियाँ देख रही हैं आप वे मानव, हाथी व अन्य प्राणियों की चेतना बोधक मूर्तियाँ हैं और मंडप के चारों ओर तीर्थंकरों की ये मूर्तियाँ… धूप नहीं थी फिर भी उसने रुककर पानी पिया था… गला सूख रहा था उसका शायद बोल-बोलकर। इस सुहावने मौसम में भी कनपटी से निकल कर बहती पसीने की बूँदें… कोई भी काम आसान कहाँ होता है… उसने अब जा कर गौर किया, गाइड की उम्र भी हनीफ सर के जितनी ही होगी। पर उनसे कुछ ज्यादा गहरा रंग, कुछ ज्याद पके बाल और उम्र का वह बोध जो खुद हो तो चेहरे पर भी छाने लगता है। सब कुछ पका-तपा सा। जिंदगी आसान कहाँ। चेहरा तक पक-तप जाता है। उसने देखा था एक-एक सैलानी पर टूट पड़नेवाली गाइडों की भीड़… मोल-तोल… गिड़गिड़ाना-रिरियाना। पर वह अलग लगा था उस भीड़ में। जैसे शर्मिंदगी हो रही हो उसे इन सारी बातों से… और उसने निराश नहीं किया था उसे। उसमें समझाने की कला थी, कहने का अंदाज था और आवाज मीठी और तीखी के बीच की एक कड़ी… सोंधी, सधी थोड़ी कच्ची… थोड़ी पकी…। वह सोचती रही थी देर तक उसकी आवाज का अपना प्रभाव…

वह खुद चल कर गई थी उस तक। उसके चेहरे पर एक तृप्ति आई थी। नंदिता भी खुश थी। किसी को खुशी देकर ऐसी ही तृप्ति मिलती है… यह उसने आज कोई पहली बार नहीं जाना था। पर हर बार जानकर भी यह अनुभव नया और अनजाना ही था। अब चलें… इस स्वर ने उसे खींचा था अपनी तरफ… वह चल पड़ी थी उसके पीछे-पीछे।

वस्तुपाल और तेजपाल ने अपने मृत भाई की स्मृति में इसे बनवाया था। इसे तेजपाल मंदिर भी कहते हैं। यह मंदिर नेमिनाथ को समर्पित है। यह मंदिर विमल वसही के तुलना में छोटा जरूर है पर भीतर से उसी की तरह भव्य है। इसके सुंदर स्तंभ, तोरण, गुंबद और भीतरी प्रकोष्ट की नक्काशी देखिए… वे दोनों गुरु शिखर की तरफ चल पड़े थे। उस हिमालय और नीलगिरि के मध्य की सबसे ऊँची चोटी से जब नंदिता ने नीचे देखा तो जैसे देखती ही रह गई। नीचे बच्चों के जैसे छोटे-छोटे घर थे, नदियाँ, पानी सारा का सारा आबू पर्वत और उसके आसपास की जगह। गाइड बता रहा था यह चोटी समुद्रतल से 5653 फीट ऊँची है। उसने उस पीतल के घंटे को छू कर देखा था जिस पर अंकित था सन 1411। फिर नीचे जाती उस नागिन सी पक्की सड़क को जिस पर से उसकी सवारी ऊपर तक आई थी।

नीचे उतरते-उतरते वह थक गई थी। गाइड ने आशा भरी नजरों से उसे देखते हुए पूछा था… कल होटल ही आ जाऊँ…? उसने कुछ सोच कर कहा था… मैं फोन कर लूँगी और उसने उसका नंबर सेव कर लिया था।

उसने तय किया, आगे के दिनों में वह अकेली ही घूमेगी। अपने हिसाब से रुककर, ठहरकर… अपनी तरह से इन जगहों को देखेगी… कथाओं, किंवदंतियों और इतिहास को पीछे छोड़कर, अपनी कल्पना और मन की निगाहों से… हालाँकि ऐसा सोचते वक्त लगातार उस गाइड की नजरें उसका पीछा करती लगी थी… उसने खुद को बहलाने की खातिर सोचा था… उसे कोई दूसरा पर्यटक मिल ही जाएगा।

रात उसे फिर से अकेली कर गई थी… वही एकांत, वही उजड़ापन। शिखर पर्यटक बँगला बिल्कुल शांत और निचाट हो चुका था। थके हारे पर्यटक, ऊँघता चौकीदार और सो चुकी रसोई… उसे लगा उसे कुछ खा-पी कर ही लौटना था।

थकान से उसे नींद आ रही थी पर भूख उसे परेशान किए हुए थी। उसने भूख से ध्यान हटाने के लिए सोचा, आत्मा की पवित्रता के लिए जैन धर्म व्रत-उपवास पर जोर देता है। अल्प भोजन पाँच महाव्रतों में से एक है। तप के दोनों प्रकारों बाह्य और आभ्यांतर में से बाह्य तप अर्थात काया क्लेश, रस का परित्याग, अनशन व्रत उपवास।

वह जितना उपदेशित करती है खुद को, इच्छाएँ और भूख उतना ही परेशान करती है उसे। भागते फिरो बाहर लेकिन लौटना तो होगा कभी एकांत में। एकांत में वही दुख वही यादें, वही क्लेश…

हनीफ सर एक छोटा सा सच नहीं स्वीकार सके… जबकि उसने उनके प्यार में सब कुछ स्वीकार किया था। अपना एकांत। अपना अपमान… उनकी पत्नी, उनका परिवार, उनके बच्चे बचा-खुचा जो कुछ था वही उसका था और उसने उसी में संतुष्ट होना सीख लिया था। कैसा प्यार था उनका… जबकि उसने कहा भी था यह एक दुर्घटना भर थी इच्चा-अनिच्छा जैसी कोई बात ही नहीं थी वहाँ।

और वह वसीम… उसने लाख उपेक्षित किया हो उसे, यह जानते हुए भी कि वह उसके पिता से प्यार करती है, जुड़ा रहा उससे… प्यार करता रहा उससे… प्यार ऐसा ही होता है शायद… उसमें और वसीम में यहाँ तो समानता थी ही, पर वह नकारती रही उसे; और फिर छटपटाती रही उसकी खातिर… जो रोकता रहा उसे क्या वह सिर्फ एकनिष्ठ न कहलाने का भय था… पर अब जब वह कभी फोन या मैसेज नहीं करता, वह बार-बार दौड़ती है मोबाइल तक…

वह घूम रही है हर कहीं। बगैर इच्छा… कुछ भी तो क्षणांश के बाद उसे बाँधता नहीं… सब कुछ फीका… सब उदास… इसीलिए धर्मस्थलों की शरण में चली आई थी वह… यहाँ आकर शायद मुक्ति मिले उन तकलीफदेह यादों से… पर नहीं, वह कामनाओं से मुक्त नहीं… उन्हें दमित करना नहीं आता उसे। कामनाओं-आसक्तियों से जिस त्याग की बात धर्म करता है, वह उससे संभव ही नहीं। फिर क्यों मारी-मारी फिर रही है वह। …वह श्रमणी तो क्या श्राविका भी कहलाने योग्य नहीं। वह धर्म के चरणों में भी समर्पित नहीं कर सकती खुद को, फिर… शायद कोई पुकार ले इस आशा में। पर कोई नहीं पुकारता उसे। पुकारे भी कौन… हनीफ सर… वह तो उसे छोड़कर चले गए थे… वसीम और उसके प्यार को तो वह जैसे झुठलाकर ही निकली थी… एमीलिया… उसका साथ तो उसने कब का त्याग दिया था, हनीफ सर की खातिर… फिर और दूसरा कौन… कौन है उसका…? क्या मम्मी-पापा से कहे वह सब कुछ… वह सचमुच ले चलेंगे उसे अपने साथ घर… उसने पूछा खुद से वह घर लौटना चाहती है… जवाब फिर भी नहीं ही था, न जाने क्यों…

फिर कौन बुलाएगा उसे, उसे जाना कहाँ है… यही तो वह तलाश रही है शायद… ढूँढ़ती फिर रही है एक ठौर; जहाँ यह मन रम जाए… जहाँ जाकर रुक और ठहर सके यह जिंदगी। संयम और नियम इसी से लगे हैं जीवन में। इसी से शायद मन भी बँधे… वह आरामदायक गद्दे और बिछावन से नीचे उतरती है और एक चादर बिछा लेती है… शायद अब नींद आ जाए उसे… पाँच महाव्रतों में से एक यह भी तो है… आरामदेह बिछावन का त्याग, कठोर स्थान पर शयन… कहीं किसी कीड़े-मकोड़े ने काट लिया तो… एमीलिया सोती थी कभी-कभी नीचे बिछावन डालकर और वह चिढ़ती थी। तब तक अड़ी बैठी रहती जब तक वह ऊपर न चली आए। वह जिद करती… नीचे कुछ काट लेगा… वह कहती… ऊपर भी काट सकता है, तू चैन से सो… तू ऊपर आती है कि नहीं… जिद करने और मनवाने में वह हमेशा से तेज रहे हैं। पहले मम्मी-पापा… फिर एमी… वसीम तक से भी… पर उसकी एक जिद धरी की धरी रह गई थी, सर ने पलटकर भी पीछे नहीं देखा था…

उसका मन रोने को हो आता है, जोर-जोर से। इतनी जोर से कि इस कमरे में इसकी आवाज गूँजे और कोई भी चला आए उसके पस… कोई तो आया है, एक छिपकली उतर कर आ लेटी है; उसके समानांतर… उसकी आँखों में आँखें डाल कर देखती हुई… वह डरी नहीं… आश्चर्य। सुबह उसे हैरत होती है, वह सचमुच जमीन पर ही सोई थी।, कोई सपना नहीं देखा था उसने… वह छिपकली को ढूँढ़ रही है… पर कोई छिपकली कहीं नहीं है…

वह निकलने को होती है कि उसे गाइड का फोन आता है रिसेप्शन से… वह परेशान होती है… होटलों के नंबर तो इनके पास होते ही है… मैडम, जब चलना ही है तो… वह चिढ़ के साथ नकार देती है। वह अकेली घूमना चाहती है, बिल्कुल अकेली…

वह खीज में देर तक नहीं निकलती कमरे से। जब निकलती है तो निकलते ही ऑटो ले लेती है जैसे कोई बिल्कुल पीछे खड़ा हो… ऑटो चलने के बाद पीछे मुड़ती है वह। पीछे कोई कहाँ था… उसे तो बस…

वह फिर अकेली घूमती है हर जगह। अचलेश्वर महादेव, अचलगढ़। उसने पहली बार देखा है, शिवमंदिर में शिवलिंग की जगह सिर्फ एक रुद्र है… उसे अच्छा लगता है वह आबू से कई किलोमीटर आगे तक चली आई पर कोई आवाज उसे परेशान नहीं कर रही। कोई पुरानी-धुरानी कहानी उसे कोई सूत्र नहीं थमा रही, ऐसे देखो, इस नजरिए से इस जगह को। … वहाँ से अंचलगढ़ किला और जैन मंदिर… फिर अर्कदा देवी का मंदिर… पर यह बड़ी अजीब सी बात ही उसे अकेले देखकर पर्यटक भी आपस में कुछ बुदबुदाते, गाइड इशारा कर लेते आँखों-आँखों में एक दूसरे को… वैसे हीं जैसे शिखर पर्यटक बँगले के स्टाफ और वहाँ ठहरे सैलानी… सिर्फ वही गाइड नहीं हँसता था आँखों-आँखों में उसे देखकर… उसने गौर किया वह किसी भी पर्यटक टोली के साथ नहीं दिखा था… उसे अजीब तो लग रहा था यह सब पर वह ऐसे रहना सीख रही थी धीरे-धीरे… एमी होती तो… पर वह एमी नहीं थी और उसने यह भी सीखा तो अभी-अभी…

सनसेट प्वाइंट पर भी उसे एक भव्य विशाल सूर्य उतरता दिख रहा था धीरे-धीरे, विशाल और सुंदर मैदानों के बीच। सूरज का लाल-पीला गोला धीरे-धीरे अंधकार में विलीन हो रहा था, उस अंधकार को भी अपना रंग देता हुआ। दृश्य सचमुच अनुपम था। डूबना और बीत जाना भी इतना सुंदर… इतना आकर्षक… क्या तभी लोग मोक्ष या कि मुक्ति की कामना में अपना पूरा शरीर, अपना पूरा जीवन जला-गला देते हैं… क्या फिर मुक्ति भी इतनी ही खूबसूरत होते होगी… रिरियाती-गिड़गिड़ाती एक-एक साँस के लिए हाथ जोड़ती, कलपती हुई नहीं… आम लोगों की तरह। अगर ऐसा होता होगा तो सचमुच कितना भव्य होता होगा सब कुछ। क्या निर्वाण की परिकल्पना इसी से उपजी होगी… जैन धर्म तो कहता है हर जीव अपने आप में अलग है… सबकी आत्मा अलग-अलग… तो क्या मुक्ति के सच भी अलग-अलग होते होंगे सबके और उसे अपना तरीका ढूँढ़ना होगा। अपना बनाया एक अलग रास्ता… क्योंकि ये धर्म और ये नियम तो उससे बिल्कुल भी नहीं निभाए जाते। इच्छाओं को जितना परे फेंकती है वह उससे उतनी ही ज्यादा लिपटती जाती हैं वे… सबको पीछे छोड़ आई तो किसी के द्वारा बुला लिए जाने की आकांक्षा… नंदिता परेशान थी सर जैसे चकरा रहा हो उसका। वह जागी तो शिखर पर्यटक बँगले के कमरे में ही थी। पर जागना शब्द उसे उचित नहीं लगा। वह सोई ही कब थी…? वह तो सनसेट प्वाइंट पर थी… और अब… सामने वही चेहरा आ गया था जो दो दिन उसके साथ था और आज जिसके साथ को उसने उपेक्षित किया था। पर आज जो मृदुता वहाँ थी वह पहले कभी नहीं दिखी थी उसे। पानी दो इन्हें। उसके सामने दो-दो हाथ थे पानी का गिलास लिए हुए। उसने थाम लिया था। वे तीनों हँस दिए थे एक साथ। उस चेहरे ने जिसके पके हुए गंदुमी रंग से पहले उसे हनीफ सर की उम्र का समझा था आज हँसते हुए होने के कारण आज उतना बड़ा नहीं लगा… उसने कहा था, कुछ खिलाओ-पिलाओ इन्हें, वर्ना यहाँ की खूबसूरती में डूब कर सुध-बुध खो देंगी और इल्जाम हम आबूवालों के सिर पर होगा।

इतनी खूबसूरत है आपकी धरती… और नहीं तो क्या… और इतना प्यार है इससे… है, बिल्कुल है… होना नहीं चाहिए क्या… वह चुप हो गई थी और फिर वे सब समवेत स्वरों में हँस रहे थे।

…वह चिढ़ी होगी कुछ… पर उसने जो कहा था वह सच था… इस छोटी सी जगह में क्यों सड़ रहे हैं आप… आप पढ़े-लिखे लोग हैं, समझदार भी… बाहर निकलिए, देखिए कितना कुछ होगा आपके झोले में… आपके पास ज्ञान है। और आप तो रटी-रटाई बातें भी नहीं कहते…

उस शख्स के चेहरे पर स्वाभिमान की बूँदें कौंधी थी पर शायद मुरझा गई थीं। शायद इसीलिए आपको मैं गाइड के रूप में पसंद नहीं आया…

नहीं वह तो मैं अपनी दृष्टि से देखना चाह रही थी हर चीज; दरअसल मैं बस एकांत चाह रही थी… भीड़ भरी जगहों में एकांत खोजने आई हैं आप, कमाल है। वह अभी भी तुर्श था… नहीं अपने एकांत को भरने आई हूँ मैं… नहीं शायद यह भी नहीं… शायद…

…रहने दीजिए… खा लीजिए कुछ वर्ना फिर चक्कर आ जाएगा। दिमाग पर इतना जोर न डालिए

वह उठ खड़ी हुई थी, बगैर जाने कि वह कहाँ है और उसे जाना किधर है… वह डगमग कदमों से निकल ही पड़ती शायद कि उन हाथों ने बढ़कर उसे रोक लिया था, कहाँ?

वह रुक गई थी। रुकी तो धीरे-धीरे तनी प्रत्यंचा भी थम गई थी। तय यह भी हो गया था कि बची-खुची जगहें वह प्रवीण के साथ ही देखेगी।

देर रात तक प्रवीण बतियाता रहा था उससे। पर हैरत यह कि उसके बारे में उसने कुछ भी नहीं पूछा था, एक बार भी नहीं। जबकि वह चाह रही थी, प्रवीण पूछे कुछ भी और वह सब कुछ उगल दे। उसने पूछा था बस नंदी से कल यहाँ कहाँ घूमी थीं आप… नंदी ने कहा अचलेश्वर महादेव, अकंदा देवी और अंचल गढ़ का किला और जैन मंदिर। सन सेट प्वाईंट पर तो आप मुझे मिले ही थे। वह हँसा था, हाँ उन तीन विदेशी सैलानियों के साथ आप तब बेहोश हो कर गिर पड़ी थीं। कोई बढ़ ही नहीं रहा था आपको उठाने को… बहुत मुश्किल से मैंने मनाकर उन महिलाओं को दूसरे गाइड को सौंपा था, फिर आपको उठा कर यहाँ लेता आया… आपके पैसे उन्होंने दिए… थोड़ी देर चुप रहने के बाद प्रवीण ने कहा था… छोड़िए न इन बातों को… मैंने कह दिया था सारे पैसे उस दूसरे गाइड को… वह भौंचक सी उसका चेहरा देखती रह गई थी… बात बदलने की खातिर ही प्रवीण ने हिसाब लगना शुरू किया था… अब बचे रह गए हैं गौमुख, टाँड़ टाक, नक्खी तालाब व तालाब से लगा हुआ रघुनाथ जी का मंदिर। पूरे इत्मीनान से घूमें तो दो से तीन दिन… नहीं तो एक दिन में भी… प्रवीण का मोबाइल बज रहा था लगातार… चुप्पी तोड़ते हुए नंदी ने कहा था, कॉल लीजिए… नहीं बाद में। फिर पूछा था, वैसे आपके पास वक्त कितना है… उसने कहा था बस वक्त ही वक्त है, आप पूरे इत्मीनान से घुमाना मुझे। फिर भी… वह न चाहते हुए भी खीजने-खीजने को हो आई थी… कहा ना बहुत वक्त है… उतना, जितना कि आप निकाल सको, मुझे घुमाने की खातिर। या यों कहें कि उससे भी ज्यादा।

वही चाहती थी कि वह कुछ पूछे और वह फूट पड़े… पर पहले सवाल से ही उसे परेशानी हो उठी थी… प्रवीण ने समझ ली थी शायद उसकी झिझक और कहा था। एक काम करते हैं, जहाँ जहाँ घूमना है हमें उन जगहों के बारे में संक्षेप में मैं आपको अभी ही बता देता हूँ। हालाँकि पूर्वाग्रह तो फिर भी निर्धारित हो जाएँगे पर उस वक्त की तल्लीनता में कोई बाधा नहीं होगी इससे… आपको यूँ भी घूमने देता था पर कल की घटना से थोड़ा डर गया हूँ मैं… मेरी इतनी चिंता क्यों हो रही है आपको? …प्रवीण कुछ नहीं कहता, बस सोचता है… यह रहे-रहे इतनी तुर्श क्यों होने लगती है किसी से भी।

प्रवीण के मोबाइल की घंटी फिर बज रही है। बज-बज कर चुप हो गई फिर। नंदिता हँसी थी… पर प्रवीण सचमुच गंभीर था… और विषय पर भी… हँसने की बात नहीं है यह पर बाधा तो होती ही है इससे। आपकी सोच, आपकी कल्पना सब बाधित होती है इस तरह की कमेंट्री से… मैं भी मानता हूँ आपकी बात को… पर क्या करूँ मेरा पेशा ही ऐसा है…

इसीलिए तो कहती हूँ छोड़ दो यह पेशा, मेरे साथ दिल्ली चले चलो… सपरिवार। नंदिता ने बाद में जोड़ा था यह शब्द।

वह मैं कह नहीं सकता। इस जगह के मोह से बेतरह बँधा हुआ हूँ मैं। इसे छोड़ नहीं पाऊँगा। उन आँखों में एक बेचैनी थी, बेबसी थी… नंदिता ने साफ-साफ देखा था यह और चुप हो गई थी।

शायद बात बदलने के लिए ही उसने कहना शुरू किया होगा पर इस वक्त नंदिता पूरी दिलचस्पी से सुन रही थी – टांड और नन रॉक… टांड शब्द टोड (मेढकों की एक प्रजाति) से बना होगा शायद इस एक पत्थर की आकृति मेढक जैसी है और दूसरे की घूँघट निकाले स्त्री जैसी। …यह नन रॉक क्यों कहा जाता है… ठीक-ठीक कह नहीं सकता क्योंकि ननों में घूँघट निकालने का प्रचलन तो है ही नहीं… शायद इसलिए कि यह स्त्री है।

नंदिता की आँखों में नींद उतर रही थी अपने आप… कई दिनों के बाद बिना किसी कोशिश के। वह फिर भी चेतन कर रही थी खुद को; उसे सुनकर जानना है सब कुछ… प्रवीण ने पूछा था, सोना चाहती हैं आप… नहीं… क्यों… क्या नींद नहीं आने की बीमारी आप को भी है… और दोनों हँस दिए थे। फिर हँसी थामकर नंदिता ने कहा था… थी नहीं इन दिनों हो चली है…

नींद न आने की बीमारी शायद उस ॠषि को भी थी… नंदिता चौंकी थी, किस ऋषि को… पर सवाल अभी जुबान तक पहुँचा नहीं था प्रवीण ने कहा था उसी ऋषि को जिसने नख से तालाब बनाया… या यू कहें कि उन सब लोगों को नींद नहीं आने की बीमारी होती है जिन्हें कभी प्रेम हुआ था या कि प्रेम है… बालम रिसयाँ नामक एक संत ने अपनी प्रेमिका को खुश करने अर्थात उसे पाने के लिए एक किंवदंती के अनुसार दिन-रात जुटकर अपने नाखूनों से यह तालाब खोदा था। इसीलिए इस तालाब का नाम नक्खी तालब पड़ा। यह अब हिंदुओं का एक पवित्र सरोवर है। इसके आस-पास हरा-भरा उद्यान है और उसमें एक महावीर स्तंभ भी। यहाँ नौका विहार भी होता है, झील के बीचोंबीच एक भव्य टापू भी बना है… प्रवीण ने रुककर पूछा था आपको बोटिंग का शौक है? नंदिता ने इतने दिनों बाद किलककर किसी से कहा था – हाँ… और फिर थम कर पूछा था… यह सच हो सकता है क्या कि कोई किसी के प्रेम में पूरा का पूरा तालाब अपने नाखून से खोद डाले… प्रवीण हमेशा की तरह गंभीर था… हाँ होता है, हो सकता है सब कुछ। प्रेम में असंभव कुछ भी नहीं होता आप अपने दुख में दुखी हो कर जो यह कह रही हैं वह बस इस क्षण का सच है… उसने सोचा था तो क्या प्रवीण समझता है उसकी मनोदशा को… इसीलिए अकेल नहीं छोड़ना चाहता उसे… इसीलिए बातों से बहलाता रहता है उसका मन… और फिर भी गलती से भी नहीं छेड़ना चाहता है उसकी दुखती रग… प्रवीण अभी भी कह रहा था… आप खुद से ही पूछो क्या यह संभव नहीं है… नंदिता ने देखा इस प्रश्न के साथ ही उसकी आँखों में एक चेहरा उतर आया था… वसीम का, हनीफ सर का नहीं, उसे आश्चर्य हुआ था… तो क्या उसकी मंजिल… उसने जैसे खुद से और इन बातों से भी कतराते हुए कहा था… और अब आगे कुछ नहीं… जम्हाई लेने के लिए उसने अपने मुँह पर हथेलियाँ रखी थी… प्रवीण चुपचाप उसके कमरे से बाहर निकल गया था…

वे इत्मीनान से घूमते, हँसते-बतियाते और रात को लौटकर होटल के उसी एकमात्र कमरे में पहुँच जाते। नंदिता को अब भूख भी अच्छी लगती थी और नींद भी अच्छी आने लगी थी…

उस दिन वह सबसे खुश थी। उस दिन ॠषभदेव जाने का प्लान था। इसके लिए उन्हें पहले उदयपुर लौटना था, फिर उदयपुर से 64 किमी की दूरी पर… प्रवीण उसके साथ उतनी दूर जाने को भी तैयार था…। नंदी ने पहली बार अपना मुँह खोला था… एक बात कहूँ अगर आपको बुरा न लगे तो… कहिए… मैं जाते-जाते मिलना चाहती हूँ उनसे… मतलब… मतलब उन्हीं बार-बार आपको कॉल करनेवाली और इतना उम्दा खाना बनानेवाली से… मेरी पत्नी… प्रवीण हँसा था… और हाँ एक बिटिया भी है मेरी छोटी सी… अगर वे दोनों तैयार हुई तो हम सब साथ-साथ ॠषभदेव चलेंगे।

…उस दिन वे सब साथ थे, प्रवीण की पत्नी, उसकी बच्ची, प्रवीण और खुद वह। उन लोगों ने उस दिन खूब मस्ती की थी। पिकनिक मनाया था और अंत्याक्षरी खेली थी जमकर। फिर बोटिंग… निशा तो बस चिपकी फिर रही थी उससे… पर प्रवीण की पत्नी कभी खुलती कभी बंद हो लेती अपने आप में। उसकी नजरों में कुछ था जिसे नंदिता भाँप नहीं पा रही हो ऐसा भी नहीं था। नंदिता कोशिश करती कि किसी भी तरह प्रवीण की पत्नी के दिल से वह वहम जाता रहे… पर इस वहम का जाना इतना आसान भी नहीं था और ना ही यह वहम अस्वाभाविक। नंदी सोचती, खुद में कोई भी औरत किसी गैर स्त्री को अपने प्रिय के इतने पास देखे तो शायद ऐसा ही सोचे, ऐसा ही महसूसे… वह भी शायद… इतना कन्सर्न्ड देख कर तो और भी। नंदिनी ने हार कर कोशिश छोड़ दी थी।

…और फिर उसे लगा था कोशिश छोड़ते ही वह थोड़ी सहज दिखने लगी। शायद उन दोनों की नजदीकी से भी ज्यादा परेशान वह नंदी के चौकन्नेपन और सफाईपरस्ती से थी।

उसी दिन प्रवीण ने बताया था उसे… वहाँ आदिनाथ जी की मूर्ति है… यहाँ प्रतिदिन उनकी मूर्ति को इतना केशर चढ़ जाता है कि शाम तक सारी मूर्ति ही केसरमय हो जाती है। इसीलिए लोग इन्हें केसरिया बाबा भी कहते हैं और इस ग्राम धुलेद के नाम पर धुले बाबा भी। सबसे हैरत की बत तो यह है नंदिता कि यह स्थान वैष्णव और जैन दोनों के लिए समान रूप से पूजनीय है।

नंदिता हुलसकर बोली थी तभी तो मैं यहाँ आई हूँ… जानते हो, मेरे पापा जैन हैं और मम्मी ब्राह्मण… यह जगह तो मेरे लिए घर जैसी ही हुई न… और सब ठठाकर हँस दिए थे।

हँसी उस दिन बहुत हो चुकी थी, इतना ज्यादा कि नंदिता अब हँसने से डर रही थी। इतना ज्यादा हँसना भी ठीक नहीं… मम्मी हमेशा कहती थी ज्यादा हँसो तो रोने की बारी आ जाती है… और शायद ठीक ही कहती थी वो… एमीलिया का मैसेज आया था अचानक… लौट आओ, जहाँ कहीं हो… परसों शाम तक तो जरूर ही… और लौटकर मेरे फ्लैट पर आने की बजाय वसीम के घर आना।

नंदिता को खुश होना चाहिए था। इसी बुलावे के इंतजार में थी वो कबसे… और अब तो बुलावा भी आ गया था। पर खुश बिल्कुल भी नहीं हो पा रही थी वह…। उसने फोन किया तो वह उठा ही नहीं रही थी। उसके होंठों पर आया… बदमाश…

आखिर उसे यूँ हड़बड़ी में बुलाए जाने का कारण क्या होगा, वह चाह कर भी तय नहीं कर पा रही थी। क्या एमी उसे फिर से जोड़ना चाहती है… वसीम या कि हनीफ सर से… हनीफ सर से तो बिल्कुल भी नहीं… कभी पक्षधर नहीं रही वह इस रिश्ते की… नहीं एमी ऐसा बिल्कुल भी नहीं कर सकती… निजी स्वतंत्रता की बातें वह तो जोर-शोर से करती है… फिर कैसे थोप सकती है अपनी इच्छा उस पर… बिना मिले वह एमी से ऐसा सोच भी रही है तो क्यों… कोई दूसरा भी तो कारण हो सकता है… फिर और क्या… वह टूटकर रो पड़ी थी… इतना कि सब चौंक पड़े थे…

अब जब कि उसने एक दुनिया ढूँढ़ ली थी खुशियों की… एक सांत्वना, एक मार्ग तलाश लिया था अपने लिए, उसे लौटना था… और वह भी किसलिए यह तक नहीं पता था उसे… वह प्रवीण की पत्नी के गले मिल कर रोई थी… निशा को कलेजे से लगा लिया था उसने… और ट्रेन की खिड़कियों को तब तक थामे रही थी जब तक प्रवीण की हथेलियाँ दिखती रही थी उसे। ट्रेन ने तेज गति पकड़ ली थी… और प्रवीण छूट गया था बहुत पीछे…

20

एमीलिया ने जब नंदिता को आने की खातिर मैसेज किया वे दोनों साथ ही थे। वे दोनों चाहते थे फोन करके उसे बुलाएँ पर एक अजीब सी वजह बीच में दीवार की तरह आ ख्ड़ी हो जाती। आज ही नहीं पिछले तीन दिनों से… उससे क्या कहें वे… कैसे कहें… और फोन पर कैसे और किस तरह सब कुछ बता और समझा पाएँगे वे उसे। अगर आ गई तो कुछ वे, कुछ दूसरे और कुछ… माहौल सब कुछ वह खुद ब खुद समझ जाएगी। आखिरकार उन दोनों ने तय किया था कि वे नंदिता को एसएमएस करेंगे। एसएमएस करने के बाद एमीलिया ने अपना मोबाइल स्विच ऑफ कर लिया था, उसे दिखाकर। वसीम फिर भी इस आस में था कि नंदिता थक-हार कर उसके मोबाइल पर फोन करेगी… पर उसके पास कोई फोन न आना था न आया… हाँ नंदिता जरूर पहुँच आई थी दूसरे दिन…

उसने यह तय किया कि वह नंदिता के सामने पहले पहल नहीं पड़ेगा। वे और एमीलिया ही हों पहले आमने-सामने… और हुआ भी ऐसा ही था। नंदी जब पहुँची तो वहाँ सिर्फ एमीलिया और घर में सिर्फ मम्मी मौजूद थीं। पर कहीं कोई अनाम सा अपराध बोध उसे परेशान किए हुए था। जबकि वह जानता था नंदिता ने कभी उससे प्यार नहीं किया… न कभी कुबूल ही किया उसका प्यार। फिर कैसा अपराधबोध और क्यों… वसीम ने मन ही मन कुबूला वह अपराधी तो था ही चाहे अपनी नजर में ही सही… एकतरफा ही सही प्यार तो उसने किया ही था नंदिता से टूटकर, फिर इस प्यार की मियाद इतनी छोटी कैसे हो गई… क्या थोड़ा और सब्र और इंतजार नहीं कर सकता था वह… रुककर देखता तो… पर रुक नहीं पाया था। वह जब गले-गले तक दर्द में डूबा हुआ था कोई हथेली बढ़ी थी उसकी ओर, उसे उबार लेने को। यह कहने को कि न आनेवाले का इंतजार करना… खड़े रहना उसके लिए बीच राह गलत है। सामनेवाले की सोच को गलत समझना, उसे मजबूर करना या कि दया की भीख माँगने जैसा…

और दया क्यों चाहता वसीम, और वह भी अपने पूरे समर्पण और प्यार के एवज में। उसके लिए तो नंदिता ही उसकी जिंदगी थी, पर नंदिता…

वसीम के पास तर्क मौजूद थे… और तर्क भी ऐसे जो नाकाबिल और कमजोर तो बिल्कुल नहीं थे… वह क्यों बना रहे किसी की राह का काँटा। अगर वह आजादी चाहती है उससे तो… वह तो उसकी एक हाँ के लिए फिर भी इंतजार करता रहता ताउम्र… पर अम्मी ने एमी को देखा और जिद लगा बैठी थीं… वसीम भूल जा उस नंदिता को। उसके प्यार की कद्र जरूरी है जो तुझे प्यार करता हो… और कारण तो उसके पास भी थे ही… पर्याप्त नहीं तो अपर्याप्त भी नहीं… जैसे चाँद को न छू पानेवाला बच्चा थाली में उसकी परछाई को ही छूकर किलक ले।

एमीलिया के साथ होता तो लगता नंदिता उसके साथ ही है। वही हँसी, वही बचपना, वही लगाव। हालाँकि सुनता आया था वह नंदिता से, एमी बिल्कुल उलट है उसकी। पर उसे ऐसा नहीं लगा तो कभी नहीं लगा… ये वही दिन थे जब नंदी उसे छोड़कर चली गई थी, बिना एक भी शब्द कहे। बिना उसे मनाने या समझाने का एक भी मौका दिए, उससे बहुत दूर… तभी एमीलिया आई थी उससे मिलने और आई तो जैसे वह देखता ही रह गया था। जैसे उसकी नंदी लौट आई है उस तक। अब तक वह गलत ही समझता रहा है उसे, अम्मी जो भी कह रही थीं वह सब गलत था। पर उसी नंदी ने जब नंदी के चले जाने की हामी भरी थी, फूट पड़ा था वह। हिलकता हुआ अपना माथा डाल दिया था उसके कंधे पर और उसने कोई प्रतिवाद नहीं किया था; न एनवक्त, न बाद-वक्त। वह जब भी रोने के लिए कोई कंधा चाहता, एमी हाजिर हो जाती, बिना शिकवा… बिना शिकायत। जबकि अम्मी तब तक सब्र खोने लगी थीं। चीखने लगी थीं – गारत हो जा उस लड़की के पीछे, तब जबकि वह कोई मोल ही ना समझ रही हो… परे हो जा मेरी नजरों के आगे से… अब्बू तो देखना तक नहीं चाहते थे उसे… टूर से लौटकर आने के बाद तो और…

वह जब अकेला था सिरे से, एमीलिया ही तो आई थी उसे सँवारने, सँभालने… और कोई भले ही कहे अभी वक्त ही कितना हुआ था… माह-डेढ़ माह… लेकिन सदियों जैसे वे दिन उसीने काटे थे और अकेले काटे थे… अगर एमी साथ न होती तो… वह कैसे भूल सकता है एमीलिया का सहारा जो न होता तो शायद वसीम होता ही नहीं।

बची बात प्यार की तो प्यार तो वह करता ही है एमीलिया से। किसी के बिना एक भी दिन नहीं रह पाना, उसे देखने की लत लग जाना भी तो प्यार ही है। प्यार ही है किसी से अपना सब कुछ बाँट लेना, उसे अपने इतना करीब पाना… प्यार तो वह करता ही है एमीलिया से, भले ही नंदिता की तरह न करता हो… होशोहवास को भुला कर किया जानेवाला प्यार। किसी के लिए अपने वजूद को मिटा दिया जाय ऐसा प्यार… और जिंदगी में ऐसे ही प्यार की जरूरत होती है… न कि उस प्यार की… जिंदगी एक दोस्त चाहती है, जीने के लिए, संग रहने के लिए और फिर भी जिसमें अपना आप जीवित रह जाए बचा हुआ… अम्मी ऐसा ही तो कहती है… इसीलिए अम्मी ने एमीलिया से मिलने के बाद राहत की साँस ली थी जबकि नंदिता से मिलकर आने के बाद बिल्कुल हताश थीं वो… वस्सी वो हाँ नहीं कहेगी कभी… और कभी गलती से कह भी दिया तो…

अम्मी की ही जिद थी, इस रिश्ते को कोई शक्ल दे दिया जाए जल्दी से जल्दी… अम्मी का इख्तियार होता तो वे शादी करवा के ही दम लेतीं उन दोनों का उसी दिन… पर घर में अब्बू भी थे… और चलती उन्हीं की चलती थी अभी भी इस घर में… अब्बू तो बिल्कुल भी नहीं चाहते थे कि पढ़ने-लिखने की इस उम्र में वह इन पचड़ों में पर जाए। पर अम्मी की जिद… उन्होंने कहा था शादी वसीम के पढ़ाई खत्म कर लेने पर ही होगी। तुम चाहोगी यह कि एमीलिया नौकरी करे और तुम्हारा बेटा अभी पढ़ाई ही करता रहे… रिश्ते हमेशा बराबरी की बुनियाद पर ही पनपते हैं; वसीम को भी पढ़ाई पूरी कर लेने और नौकरी कर लेने दो… झुके अब्बू ही थे और बात सगाई पर थम गई थी… अब्बू ने कहा था कम से कम लोग हों… बहुत ही नजदीकी रिश्तेदार और मित्र। बस एक सीधा-सादा समारोह और उनके अपने ही घर में…

अब्बू डरे हुए भी थे शायद… उसने सुना था अम्मी-अब्बू को बतियाते… मुझे तो डर लग रहा है नसीमा… ताज होटल पर हुए आतंकवादी हमले के कारण माहौल अभी गरम है… भले ही हमला आतंकियों ने किया हो पर नजर पर सारे मुसलमान हैं। मुझे डर लगता है, इस समय यह मँगनी कोई दूसरे तरह का बवाल न खड़ा कर दे… इसलिए हमें कम से कम लोगों को इस मौके पर बुलाना होगा, कुछ बेहद खास लोगों को ही…

शादी का वक्त आएगा तो देख लेंगे कि… देखना क्या है, एमीलिया इस्लाम कुबूल करेगी और निकाह पढ़ा दिया जाएगा उसका… इसमें देखने-सुनने की कोई बात है ही नहीं। कम बोलनेवाली नसीमा इस मसले पर बिल्कुल दो टूक थी… हनीफ मियाँ के सामने भी।

यहीं खाईं खड़ी हो जाती थी हनीफ और नसीमा के बीच हमेशा से… यहीं दूर खड़े हो जाते थे वे एक दूसरे से… इसी तरह जगह बन गई होगी नंदिता के लिए उनकी जिंदगी में, हनीफ ने सोचा था। पर सोचने से पहले ही उसने साफ कर दिया था… नहीं, शादी जब भी होगी दोनों रीतियों से होगी। मिला-जुलाकर या कि क्रम से यह वसीम और एमीलिया तय करेंगे, वह भी एमीलिया के पिता से पूछ कर… नसीमा उदास हो गई थी, चुप्प सी। उसकी तो कोई भी बात आज तक मायने ही नहीं रखती इस घर में… समझी कुछ…?

नसीमा हैरत में थी, कभी कुछ न कहनेवाले हनीफ मियाँ ने उसे डाँटा था और इस कदर डाँटा था… वह भी उसी के बच्चे वसीम की शादी के मामले पर। वह चुप रह जाने के सिवा कर भी क्या सकती थी। वह चुप ही तो रही थी ताउम्र, हर बात की अनदेखी करती हुई… वर्ना जीना मुश्किल हो जाता उसका।

इसीलिए उसने चाहा था वसीम अपनी मर्जी से शादी करे। कम से कम एक समानता तो होगी उनके विचारों में। वर्ना वह तो हनीफ मियाँ की उम्र, अनुभव और काबिलियत के बोझ से ही दबी रह गई सारी उम्र… इतना ज्यादा कि उनकी गलत-सही किसी बात पर कभी कोई उज्र नहीं कर पाई। वसीम और एमीलिया के बीच उसने एक अपनापा देखा था। बराबरी या दोस्ती जैसा कुछ। कहने से पहले ही एक-दूसरे के मन को समझ लेने की काबिलियत। वह तो परवरदिगार से बस दुआ ही माँग सकती है… उनका रिश्ता फले-फूले, हमेशा खुश रहें वे दोनों… पर डर उसे एक ही बात से लगता है, वह है नंदिता… और नंदिता को वसीम और एमीलिया फोन कर-कर के बुलाए जा रहे थे। उनकी समझ से तो उसे अभी बुलाए जाने की कोई जरूरत ही नहीं थी। मँगनी हो रही थी बस… कोई शादी तो हो नहीं रही थी अभी… और उनका बस चलता तो शादी ही करवा डालतीं सीधे-सीधे… वसीम से तो उन्होंने कहा था, पढ़ाई छूट थोड़े ही जाएगी, एमीलिया के आने से… बल्कि उसके आ जाने से तो एक दबाव ही बना रहेगा कि जल्दी से जल्दी अपने पैरों पर खड़ा होना है… तू कह अब्बू से कि…

मगर वसीम ने एक भी न सुनी थी उनकी… और उसने जब एमीलिया को यह सब कुछ बताया तो वह खिल-खिल हँस पड़ी थी… अम्मी भी…

वसीम गंभीर था, उसने पूछा एमीलिया से, तुमने पापा से बात की… अभी तक नहीं… कब करोगी… आज रात… नहीं अभी… वसीम ने फोन झटक लिया था उसके हाथ से और नंबर डायल कर दिया था… एमीलिया कहती रह गई थी बस… ये क्या कर रहे हो… उसके हिसाब से यह उसका निजी मामला था और पापा से वह कैसे कहेगी यह उसे ही तय करना था… लेकिन तब तक तो उसने नंबर डायल कर दिया था और पापा उधर फोन पर थे। उसे सुनाई दे रहा था… बोलो बेटा… हलो… हलो… पापा सॉरी… किसलिए बेटा… क्या हुआ… परसों मेरी सगाई हो रही है, वसीम से… आप सुन रहे हैं न पापा… बोलिए… आप चले आइए जल्दी से जल्दी… आप आ रहे हैं न पापा… चुप्पी उसे परेशान किए दे रही थी… आइ एम सॉरी पापा… दरअसल यह सब इतना अचानक… मुझे माफ कर दीजिए पापा… बेटा इस तरह बार-बार माफी नहीं माँगते… किस बात की माफी… तुमने मुझे वह खुशी दी है जिसका इंतजार हर पिता को रहता है… बस थोड़ा अप्रत्याशित तरीके से… मैं बहुत खुश हूँ बेटा तुम्हारे लिए… मैं तो बिल्कुल उम्मीद ही छोड़ चुका था… कि तुम इस रास्ते भी कभी मुड़ोगी… और जितनी बार यह उम्मीद टूटती उतना ही मैं अपराधी हुआ जाता… मैं आऊँगा बेटा… पापा की आवाज गीली थी। क्या आप वसीम से बात करना चाहेंगे… जरूर बेटा… पर उससे पहले एक और बात… आप एमीलिया आंटी को भी आने के लिए जरूर कहेंगे… कहेंगे न उन्हें आने को…? मैं अब तक के अपने व्यवहार के लिए माफी चाहती हूँ पापा… अब जा कर समझ पाई हूँ कि प्यार अपने आप घटित होता है… और इसके होने के लिए कोई जिम्मेदार नहीं होता… मैंने माँ की मजबूरी देखी थी पर आपकी या उनकी नहीं… अब सब कुछ समझ आने लगा है मुझे… मैं उनसे भी माफी माँगना चाहती हूँ… पापा ने धीमे से कहा था… ठीक है बेटा मैं कह दूँगा उनसे आने के लिए।

वह इतना ही सुन कर इतनी खुश हो गई थी कि उसे पता ही नहीं चला कि पापा और वसीम में क्या बात हुई… जब वसीम ने फोन लौटाया वह बहुत खुश थी… बहुत-बहुत खुश… उसने पूछा था क्या बातें हुई पापा से… तुम्हें मतलब… तुम भी तो यहीं थी… पापा ने क्या कहा तुमसे… कुछ नहीं… वह मुस्कुरा रहा था…

सुबह बिल्कुल नई होकर निकली थी…सुबह जल्दी उठने में उन दोनों को एकदम आलस नहीं हुआ… सुबह एक नई चुनौती लेकर आई थी उनके लिए… वसीम को इतनी सुबह दाढ़ी बनाते देख नसीमा बी मुस्कुराई थीं…वे दोनों साथ-साथ ही निकल पड़े थे… वसीम पापा को लाने जा रहा था और एमीलिया नंदिता को…

21

नंदिता ने स्टेशन पर एमीलिया को देखा और देखा तो जैसे दंग रह गई… क्या आईना देख रही थी वह… अपना ही कोई प्रतिरूप… पर उसे अगले ही क्षण याद आया अब वैसी कहाँ रह गई थी वह…। वह तो जैसे पिछले दिनों की नंदिता थी। पूरे माहौल में रंग भरने की ताव रखनेवाला लहराता दुपट्टा, नीला-पीला सा एक सूट और करीने से खुले हुए बाल। उसने गौर किया एमीलिया ने नेल-पेंट भी लगाया है। उसने गौर से देखा था खुद को, पुराना-धुराना सा उसका कुर्ता और नीचे से घिसी जींस… बाल कसकर पीछे बाँधे हुए। नेल-पेंट न जाने उसने कितने दिनों से नहीं लगाया, पर पाँव में थोड़े-बहुत बचे हुए हैं हल्के गुलाबी पेंट के निशान जैसे उसके पुरानी नंदिता होने का शिनाख्त भर हो वो… या कि बीती खुशियों के बचे-खुचे निशान। उसने गौर किया नाखून तक बढ़ आए हैं उसके बेतरतीब… उसे खुशी हुई एमीलिया की खातिर… एमी कितनी सुंदर दिख रही है… पर अपने लिए उदासीन ही रही वह। बुरा क्या है इसमें… और उसे खुशी हुई कुछ तो बदली आखिर, कुछ तो बदलाव आया उसमें, पर कैसे आखिर? यह प्रश्न जैसे घूम-घुमा कर उसे तंग करने लगा था।

कोई छोटी सी खुशी आई नहीं कि पीछे से उसे कुरेदता चला चला आता है कोई शुबहा; कोई प्रश्न। एमी खुश है। यही क्या कम है उसके लिए… क्यों, कैसे, क्या… यह अभी ही जानना जरूरी है… कोई कारण हुआ तो वह उसे जरूर बताएगी…

वे लपक कर एक दूसरे से गले मिली थीं… फिर एयर बैग उठा कर निकल पड़ी थीं बाहर की तरफ। एमी हतप्रभ थी, नंदी पूछ क्यों नहीं रही कुछ? अगर वह पूछेगी ही नहीं तो वह बतलाएगी कैसे? फिर उसने क्षण भर को यह भी सोचा अगर उसने पूछ ही लिया कुछ तब भी वह कैसे कहेगी उससे सब कुछ… इससे तो अच्छा है एमी पूछे ही नहीं कुछ उससे। वह ही तैयार हो ले कि किस तरह बतलाना है उसे सब कुछ। …पर कोई भी छोर, कोई भी तरकीब ढूँढ़ ही नहीं पा रही वह जिसे पकड़ कर बतियाने का कोई सिरा हाथ लग जाए उसे… नंदिता उदास थी उसे पता है। वह खोई सी लग रही थी अपने आप में। एमी को दिख तो रहा था साफ-साफ यह सब कुछ… पर वह करे भी तो क्या… उसने बहुत ताकत जुटा कर कहा था… दुबली हो गई हो बहुत… कुछ खाती पीती नहीं थी…? खाती तो थी; और इधर तो रोज पराँठे ही… फिर भी तुझे नहीं लगा कुछ। तुझे, जिसे खिला देने के लिए अल्ल-बल्ल खाना भी काफी हुआ करता था… नंदी ने भी जैसे ठंडी साँसें भरने जैसा दुहराया था… हुआ करता था। खूब घूमी न… मन लगा… नहीं भी लगता तो भी… तू कैसी है, बता… बहुत खुश दिख रही है, ऐसा नया क्या हो गया इस बीच?

एमीलिया घबड़ा उठी थी, अब क्या बोले वह? बातों का सिरा घूम फिर कर वहीं आ गया था जहाँ उसे पहुँचाना चाहती थी वह या कि फिर जहाँ पहुँचना था उसे आखिरकार… हाँ, खुश तो हूँ… एमी इतना ही कह कर काम चला लेना चाहती थी जैसे… मन ही मन बस एक ही प्रार्थना आगे कुछ नहीं पूछे वह… बात बदलने की खातिर उसने पूछा था… पहले बता मेरे लिए क्या लाई है तू… बहुत कुछ… घर तो चल पहले। नन्हू ताई आती है क्या अभी भी? मुझे कढ़ी-चावल खाना है उसके हाथों का। कितने दिन हो गए न… पर अभी तो हम… नहीं हम वसीम के यहाँ अभी नहीं चल रहे। पहले तेरे कमरे पर… मैं खाऊँगी भर पेट तुम्हें तेरे सारे गिफ्ट थमाऊँगी, तब चलूँगी वहाँ… और वहाँ जाना क्यों है? ऐसा क्या खास है वहाँ पर। किसी का जन्मदिन है आज या कि कोई त्योहार… तू भी न एमी अपना सोशल सर्विस कभी कम करेगी या नहीं…

नंदी को आज फिर वही शुबहा हुआ था… कुछ होगा आज और एमीलिया इसी बहाने उसे जोड़ना चाहती होगी उसके अतीत से… पर उसने यह तय कर लिया है कि…

मजबूर हो कर एमी नंदी को अपने कमरे तक ले आई थी। नन्हू ताई के आने का वक्त बीत चुका था और उन्हें पता था एमी के पाँव टिकते कहाँ है इस घर। सो वह छुट्टियाँ मना रही थी। एमीलिया ने ही नंदी के लिए तहरी बनाई थी और अचार ढूँढ़ कर निकाला था। किचेन में आने से रोकती रही थी उसे। ऐसी अस्तव्यस्तता बर्दाश्त नहीं कर पाएगी वह और चीखने लगेगी उस पर… लेकिन नंदी किचेन में भी आई थी और कमरे में भी घूमी थी उसके साथ, पर एक बार भी कुछ नहीं कहा था उसे इस सारी अस्तव्यस्तता के लिए। कहना तो क्या उसने ध्यान भी नहीं दिया उन बातों पर। एमीलिया को यह सब अजीब तो लग ही रहा था साथ ही नंदिता के लिए परेशान हो उठी थी वह भीतर से। क्या हो गया इस लड़की को? और ऐसे में वह इसे… बेहतर था कि उसने उसे यहाँ बुलाया ही नहीं होता। यह अपराधबोध उसे परेशान तो नहीं करता… अब कैसे कहेगी वह उससे…

उसके अंदर पहलेवाली एमी जागी थी। क्यों नहीं बताए वह नंदी को सब कुछ। कौन सा अपराध किया है उसने। अब अगर नंदी वसीम को नहीं प्यार करे, न अपनाए तो क्या दुनिया में और कोई भी… नंदिता को वसीम तक लौटना होता तो कब का लौट चुकी होती वह… वसीम के कहने पर… उसके समझाने पर या फिर अम्मी के जाने पर… पर वह तो हनीफ सर के… अब अपनी करनी का परिणाम तो उसे ही भुगतना होगा न? वह क्या कर सकती है इसमें जब कोई अपने पैर खुद कुल्हाड़ी पर दे मारे। और हनीफ सर को देखो ऐसे पेश आते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो। वह कह देगी नंदी से सब कुछ, उसने ऐसा किया ही क्या है… पर मन जैसे जुबान का साथ नहीं दे रहा था… उसने क्या नहीं किया था हनीफ को पाने की खातिर।

नंदी अपना पूरा बैग उसके सामने उड़ेल दे रही थी। ये सूट पीस, ये दुपट्टे, यह साड़ी, यह लहँगा… ये मोजरी और ये बैग…

इतना सब कुछ। एमी के भीतर का अपराधबोध और गहराने लगा था… कहाँ है इतना सब कुछ; पैसे ही नहीं थे ज्यादा… और तेरे लिए… लिया है न… चल दिखा… एमीलिया ने दूसरा पर्स खुद ही खोल लिया था वहाँ सिर्फ पुराने-नए कुर्ते, जींस और दो-एक पुराने सूटों के कुछ भी नहीं था।

तूने अपने लिए कुछ नहीं लिया या कि अपना सब कुछ मुझे दिए दे रही है? नंदी चुप थी कुछ देर… तुझे दे भी दिया तो कौन सा उपकार कर दूँगी तुम पर? तू मेरी सबसे अच्छी दोस्त है। और फिर ये चटख रंग तुम पर बहुत अच्छे लगते हैं। पहले कभी मैंने देखा ही नहीं… एमीलिया का मन भर आया था। लेकिन वह रोना नहीं चाहती थी, बिल्कुल भी नहीं।

तू आराम करेगी कुछ देर… अब भी वह सब कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा सकी थी… नहीं, अब चलते हैं… तेरे सरप्राइज विजिट पर। नंदी हँसी थी खुलकर, इतनी देर में पहली बार। पर हँसी में भी छुपा हुआ था उदासी जैसा कुछ। एमीलिया को हँसी नहीं आई थी, बिल्कुल भी नहीं। उसने भी ट्राई तो किया ही था; एक ही चीज थी जो अब तक नहीं बदली थी उसमें… झूठमूठ या दिखावे के लिए अभी भी वह कुछ नहीं कर पाती थी।

ऑटो में एमीलिया सोचती रही थी लगातार, वसीम अब तक पापा को ले कर आ चुका होगा। वसीम और पापा में ठीक से बातचीत तो हुई होगी न… वसीम नंदिता के सामने पड़ने पर कैसा व्यवहार करेगा उससे… एमीलिया के भीतर एक डर था… और उस डर का होना जायज था… वसीम भले ही कहता रहे वह भूल चुका है पुराना सब कुछ, पर उसे पता है वह कुछ नहीं भूला… यह डर बहुत बड़ा था।

नंदिता सोचती रही थी क्या वसीम होगा इस वक्त घर मे… क्या हनीफ सर भी… उसे शायद नहीं जाना चाहिए था… पर वह एमी का मन कैसे दुखा सकती थी… और वह क्यों डरे किसी का सामना करने में। उसने कौन सी गलती की है… उसके मन में किसी के लिए न कोई दुख है न प्यार… सब कुछ बहुत पीछे छूट गया था… ऐसा ही मानती आई थी वह पिछले दिनों में।

पर दुल्हन की तरह फूलों से सजे उस घर में उसकी आँखें वसीम को ही क्यों तलाश रही थीं… आखिर क्या कुछ बचा रह गया था उसके भीतर… कोमल, मुलायम सा। वसीम को नहीं दिखना था, नहीं दिखा। हनीफ सर दिखे थे उसे और कतराकर निकल गए थे पर हैरत यह कि इस घटना भर से उसे कोई तकलीफ नहीं हुई थी। जैसे कुछ बचा ही नहीं रह गया हो दुखने या तिलमिलाने को। वह सीधे अंकल के पास चली आई थी… अंकल यहाँ आए थे तो क्यों… और जो कुछ उसने सुना उससे उसके तलवे के नीचे की जमीन खिसक सी गई थी।

वह समझाती रही थी खुद को, वह तो वसीम से प्यार करती ही नहीं फिर किस बात की तकलीफ। कोई न कोई तो उसके जीवन में आखिरकार आता ही, अच्छा हुआ कि वह एमी निकली, उसे तो खुश होना चाहिए दोनों के लिए। अच्छा है कि वे दोनों ही जुड़े एक दूसरे से। उसके दोस्त उससे छिनेंगे तो नहीं। वसीम बहुत अच्छा लड़का है। एमीलिया कितनी खुश है। पहली बार तो उसकी जिंदगी में खुशी आई है… क्यों वह उसके कारण भी खुश नहीं हो पा रही… दिमाग की बात जैसे मन को छू ही नहीं रही थी। उसके पैर काँप रहे थे बेतरह। उसने वसीम की अम्मी से पूछा था टॉयलेट किधर है और जा घुसी थी अंदर। निकली तो वक्त काफी बीत चुका था। अब तक वसीम भी आ चुका था और अफरातफरी मची हुई थी पूरे घर में। अम्मा को अभी न्योता ही नहीं गया था… नंदिता ने बढ़कर कहा था वह चली जाएगी ‘आनंदवन’, उसने देखा हुआ है। प्रतिवाद करती-करती एमी अचानक चुप हो कर उसे कार्ड थमा गई थी… क्या जान बूझकर…

नसीमा बी खुश ही हुई थी उसके आने से। उन्होंने सोचा था अबकि आए वह तो जी भर सुनाएँगी; पर नंदी को देख न जाने कैसे सूख गया था उनका सारा उफान… मन उमड़ने लगा था उस लड़की के लिए जिसे पिछले दिनों वे अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझने लगे थीं। चेहरे की सारी रौनक, सारी सुर्खी जैसे किसी ने पोंछ दी हो चेहरे से… बुझी और उदास सी रंगत। वह जब तक बाथरूम में थी दरवाजे से सटकर खड़ी थीं उसकी सिसकियाँ सुनते हुए, और वो कसम खा कर कह सकती हैं कि उनका मन भी हिलक रहा था उसके साथ-साथ कि क्या गलती हो गई उन्हीं से उसे समझने में। कि उन्होंने ही गलती कर दी वसीम को एमीलिया से जोड़कर। पर अब सब कुछ पीछे छूट चला था; और वे कुछ भी नहीं कर सकती थीं, कुछ भी नहीं। इसीलिए उसके बाथरूम से निकलते वक्त वे फिर किनारे हो आई थीं। कहीं वह समझ न ले… बहुत अनापरस्त है यह लड़की। उसका दुख मैं जान गई यह जानकर वह इससे ज्यादा टूटेगी जितना इस दुख से… वसीम के लिए अपने प्यार की हवा तक नहीं लगने दी इसने किसी को… न खुद वसीम, न एमीलिया और न उन्हें ही। वे उसे बाहर जाते देख रही थी और उन्हें लगा था यह अच्छा ही है उसके लिए। इस घर में तो उसकी साँसें यूँ भी घुट जाएँगी। एमीलिया ने भी जान-बूझकर जाने दिया था उसे। वह नहीं चाहती थी कि वसीम और वह एक बार फिर एक दूसरे के आमने-सामने हों।

वह अब वसीम से नहीं डर रही थी। उसका जो भी निर्णय था उसका खुद का लिया हुआ था। और इस सँभलने में उसने वक्त भी लगाया था बहुत। पर नंदिता… उसके लिए तो सब कुछ अप्रत्याशित था, सब कुछ अचानक।

वसीम ने देखा तो था नंदिता को पर उसने सँभाल लिया था खुद को। अब जबरन तो किसी को खुद से बाँधा नहीं जा सकता न? पर नंदिता का सूखा-पीला चेहरा जैसे मथ गया था उसके हृदय को। अब्बू ने भी न… एक भोली-भाली लड़की की जिंदगी तबाह कर के रख दी… एक अबोला गुस्सा हर दम भरा रहता है उसके मन में… पर अम्मी ठंडे फाहे रखती रहती हैं उस पर… अब जब कि लौट आए वह तुझे यह भी नहीं भाता… तेरा क्या बिगाड़ा है उन्होंने… लेकिन जो बिगाड़ा था उसका भी था वह अम्मी को कैसे समझाता यह।

22

एमीलिया ने पापा से पूछा था… एमीलिया आंटी नहीं आईं… आपने नहीं कहा उनसे आने को… पापा जवाब देते इससे पहले वह खुद पर ही झेंप गई थी… जैसे रूस बगल में हो कहीं लखनऊ, कानपुर, इलहाबाद की तरह। जब चाहो कह दो और जब चाहे कोई आ जाए, ट्रेन की टिकट ले कर…

उसने हँस दिया था अपने बचपने पर। लेकिन पापा अब भी गंभीर थे… एमीलिया आई है, चलो मिलवाता हूँ उससे। वह हैरत में थी, पापा ने इस छोटे से घर में कहाँ छुपा दिया उन्हें… खिलौनेवाले गुड्डा-गुड़िया की तरह। पापा मेहमानवाले कमरे में ले आए थे उसे, जहाँ उनका सामान पड़ा था। पहले इन चिट्ठियोंको पढ़ लो… क्रम से कुल बारह चिट्ठियाँ थीं… बारह वर्षों के बीच लिखी गई और अंतिम छ: वर्ष पुरानी। उसे याद आया, इसी वर्ष वह दिल्ली आई थी। चिट्ठियाँ एमीलिया की ही थी।

उसने क्रम से चिट्ठियाँ पढ़नी शुरू कर दी थी। पहली चिट्ठी उसके जन्म के बाद की थी…

नन्ही गुड़िया तुम्हें मुबारक हो अजेय… मुबारक हो एक नन्हीं परी का आगमन तुम्हारे घर में… आशा करती हूँ उसे पाकर मुझे बिल्कुल नहीं भूल जाओगे तुम। तुम्हें कोई अफसोस नहीं होगा कि… इसे इतना प्यार देना कि जिंदगी में उसे और किसी के प्यार की जरूरत ही न हो। और हाँ सविता का भी ध्यान रखना। मैं इसी में खुश रहूँगी। सचमुच मेरी खुशी इसी में है। उस नन्हीं एंजेल का फोटो मुझे जरूर भेजना… याद से… एमीलिया।

अजेय, यूँ सोचो तो तुम्हें मैं रोज चिट्ठी लिखती हूँ, डायरी लिखकर। पर अब तय कर लिया है कि चिट्ठी तुम्हें इस नन्ही परी के जन्मदिन पर ही लिखा करूँगी। बेटी के पहले जन्मदिन की बधाई। मन तो यही होता है कि उसे कार्ड और गिफ्ट भेजूँ, खूब सारे खिलौने भी। पर सोचती हूँ सविता को बुरा लगेगा। और लगना भी चाहिए… बेटी पर हक तो उसी का है। उसी ने तरह-तरह की परेशानियों और कष्टों को सह कर जन्म दिया है उसे। इस अनमोल तोहफे को पाने के बाद उसे प्यार करना और उसका खयाल रखना तुम्हारा कर्तव्य है।

एमीलिया

नन्हीं एमीलिया अब तो दो वर्ष की हो चुकी है। बोलती भी होगी वह और डगमग-डगमग चलती भी। कितना अच्छा लगता होगा न… काश मैं देख पाती उसे, पर उसकी तस्वीरों से ही काम चला लेती हूँ। उसके गाल पर डिंपल पड़ते हैं न हँसते वक्त। उसके उन्हीं गड्ढों में मेरी ओर से प्यार देना, ढेर सारा प्यार।

एमीलिया

उसकी आँखों में आँसू आने लगे थे… आँसू ने अक्षरों को जैसे धुँधला कर दिया था। उसने मुड़कर आँखों को पोंछा था और पुनः पढ़ने लगी थी…

एमी स्कूल जाने लगी है… गुड। उसकी पढ़ाई पर ध्यान देना और उसे भी अपनी तरह डॉक्टर बनाना, अपने ही तरह नेक और रहमदिल इनसान भी। उसकी माँ को अब ज्यादा खालीपन लगता होग। एमी घर में जो नहीं रहती होगी। उसे वक्त देना…

एमीलिया से अब पढ़ पाना मुश्किल हुआ जा रहा था। उसने बीच की चिट्ठियाँ छोड़ दी थी और अंतिम चिट्ठी उठा ली थी।

एमी चली गई छोड़कर तुम्हें, दोषी मानती है वह तुम्हें अपनी माँ का, उसके चले जाने का। कोई बात नहीं, बच्ची है वह। वक्त आने पर समझ पाएगी तुम्हें और तुम्हारी मजबूरियों को भी… पर तुम उसका हाथ नहीं छोड़ना कभी। उसका खयाल हमेशा रखना। बच्चे यूँ भी छोड़ कर चले ही जाते हैं कभी-न-कभी। वह सविता की निशानी है। और कहीं मेरी भी। मैंने उसे हमेशा अपना अंश माना है। और हाँ, उसकी एक नई तस्वीर भी भेजना। वर्षों से तुमने उसकी तस्वीर पोस्ट करना छोड़ दिया है। चिट्ठी तो कभी खैर आती ही नहीं थी। मुझे डर हो रहा था, तुम्हें मेरे पत्र मिलते भी हैं या नहीं। पर तुम्हारी इस चिट्ठी ने मेरी यह चिंता दूर कर दी। ठीक से रहना तुम और अपना खयाल रखना। क्योंकि अब दूसरा कोई नहीं है तुम्हारे पास तुम्हारा खयाल रखनेवाला, सविता और एमी भी नहीं।

और मैं भी चली जाऊँ अब शायद इतनी दूर कि साल में यह एक चिट्ठी भी न डाल सकूँ। बीमार रहने लगी हूँ पिछले काफी दिनों से। डॉक्टर गर्भाशय का कैंसर बता रहे हैं। अजीब बात है न अजेय, जहाँ कुछ भी कभी नहीं पला, मेरी कलपना का एक बच्चा तक नहीं जहाँ… एमी के होने के दिनों से मैं सोचती रही थी, वह मेरे ही भीतर है। और तुम मजाक नहीं समझो अजेय तो मुझे उसका हिलना, डुलना उसकी आहटें सब महसूस होती थी… आज वही जगह…

मैंने चाहते न चाहते सविता से तुम्हें छीन लिया था न अजेय… हमेशा की तरह यह मत कहना कि मैं आई थी पहले तुम्हारी जिंदगी में… और वह शादी तुमने दवाब में की थी। छीना मैंने ही था उसे तुमसे, तुम अपनी पूरी कोशिश के बाद भी उसके कभी नहीं हो पाए। नन्हीं एमीलिया अगर ऐसा सोचती है तो इसमें गलत ही क्या है…। ठीक ही कहती है वह… और शायद उसके और उसकी माँ के आँसुओं की ही सजा मिली है मुझे इस बीमारी के रूप में। मैं भी तो देखूँ, महसूस करूँ कि कैसा होता है ऐसी बुरी बीमारी के साथ अकेले होना।

सविता के पास नन्हीं एमी थी, तुम थे, वह माने न माने, पर मेरे पास कोई नही है… और मैं होना भी नहीं चाहती किसी के साथ, किसी की दया पर आश्रित। तुम उदास मत होना… अपना खयाल रखना और एमीलिया को मेरा अंतिम प्यार…

एमीलिया

वह पिता के सीने से आ चिपकी थी, बहुत दिनों के बाद, शायद बचपन के बाद अब। अब वो… उसने पूछना चाहा था… पिता ने पूरा किया था उसका अधूरा वाक्य… नहीं है। वो उसी साल… आप मिलने गए थे… नहीं… पापा पूरी तरह शांत थे, सँभाले हुए खुद को। उसने पूछना चाहा था क्यों… पर पूछा नहीं था। शायद उसी की खातिर… उसकी नफरत को और हवा नहीं देने के खातिर… वह फफक-फफक कर रो पड़ी थी। पापा जब बिल्कुल अकेले थे, जब उनकी एमीलिया भी जा रही थी वह भी छोड़ कर चली गई थी उन्हें। बात करना और मिलना तक जरूरी नहीं लगता था उसे… कितने अकेले होंगे तब पापा… पापा ने ही उसे सँभाला था… उठो एमी बाहर चलते हैं। तुम्हें तैयार भी होना होगा न…। बाहर सब इंतजार कर रहे होंगे। मैं तुम्हें कुछ नहीं कहता शायद कभी भी नहीं। पर जब तुमने उस दिन उसे बुलाने के लिए कहा मैं चुप हो गया था। तुम खुश थी अपनी जिंदगी में पहली बार और तुम्हें उदास नहीं करना चाहता था मैं… आज भी अगर तुम नहीं पूछती तो ये चिट्ठियाँ मैं वापस लिए जाता और बंद कर देता उसी ड्रॉअर में, जिसकी चाभी मैं हमेशा छुपाता रहता था और तुम्हारी माँ तलाशती। लेकिन…

वे दोनों एक दूसरे का हाथ थामे हुए निकले थे उस कमरे से जैसे एक दूसरे के सहारे के बिना एक भी कदम नहीं उठा पाएँगे वे। एमीलिया को लगा था पापा कितने आश्वस्त हो गए हैं और पापा को लगा था बेटी कितनी कमजोर, और यह सब वे उस वक्त महसूस कर रहे थे जब उन्हें एक दूसरे की दुनिया से विदा लेना था; उस वक्त जब उन्हें अलग होना था एक दूसरे से।

23

नंदिता के आँसू फिर-फिर बहने शुरू हो गए थे ऑटो में बैठने के साथ ही, और वह उन्हें बहने दे रही थी। नहीं बहते हैं आँसू तो भीतर ही भीतर सेंध लगाते हैं, एमीलिया ही कहती थी उसे और उससे उसकी माँ ने कहा था कभी। और नंदिता ने तो इन आँसुओं को बहुत दिन से सहेज रखा है। ऑटोचालक उसे देख रहा है, सामने का शीशा सीधा करके, परवाह नहीं। फिर उसने पूछा था कहाँ चलना है… नंदिता ने खुद को सँभालते हुए पता बता दिया था।

वह सोच रही थी, क्यों इतनी दुखी है वह? उसे तो ठीक-ठीक पता भी नहीं कि क्या वह वसीम को पसंद करती है… यह सवाल उसने एकांत में कई बार अपने आप से किया था। पर जवाब उसे कभी भी नहीं मिला। वह इसी सवाल को मन में लिए भटकती फिरी थी। उसके जीवन की राह आगे किस तरफ जाती है… वसीम तक पहुँचती है कि नहीं वह… पर जवाब कोई नहीं। हाँ, वसीम उसे याद आता था, वह चाहे कि न चाहे। अगर प्यार यही होता है तो उसे पता नहीं… पर इस तरह तो उसने कितनों को याद किया है… फिर… शायद उसका होना एक भरोसा था, एक उम्मीद थी उसके लिए कि वह कभी लौटे… वही भरोसा टूट गया था आज। मुट्ठी में से रेत सरक गई हो अचानक। और जब चीजें पीछे छूट जाती हैं तो उसके कभी पास होने का अहसास ज्यादा परेशान करता है हमें, उनके पास न होने के अहसास से भी। अब वापसी की कोई राह उसके पास न थी। अब उम्मीद का कोई दीया नहीं टिमटिमा रहा था उसके लिए और उसे एक नई राह तलाशनी थी… और बहुत जल्दी ही।

अम्मा से मिल कर वह राह भी मिल गई थी उसे। वे दोनों साथ ही लौटी थीं जैसे कि युगों का साथ हो उनका। वे दोनों एक-दूसरे से घुली-मिली लौटी थीं। एमीलिया को अच्छा लगा था यह… नंदी अब सँभल जाएगी…

पर वह सँभलेगी कैसे यह चिंता हनीफ को सबसे ज्यादा थी। ठीक है वे उसे अकेला छोड़ आए थे वहाँ। हमेशा की तरह बढ़कर सँभाल नहीं लिया था उसे। माफी तक नहीं दी थी। पर इसके लिए वे खुद को दोषी नहीं मान रहे थे। वे चाहते थे नंदी सँभले, खड़ी हो जाए अपने पैरों पर। एमीलिया की तरह मजबूत स्त्री बने। पर यह उनके साथ होते कभी भी नहीं होना था… और उन्होंने अपनी बाँहें खींच ली थी सिरे से… उम्मीद था कि सँभल ही जाएगी वह। वसीम और एमीलिया थे उसके पास… पर परिस्थितियों ने जो मोड़ लिया था उसकी कल्पना तक नहीं की थी उन्होंने। और इस सब के बीच नसीमा के अपने आग्रह।

वह उम्र के इस ठौर पर अपनी गृहस्थी में लौट जाना चाहते थे, ठीक है… नसीमा का दुख, लोगों की कनफूसियाँ बच्चों के बड़े होने के बाद अखरती तो है ही पर…

वे इंतजार में थे, नंदी को कोई उसके जैसा मिल जाए… कोई उसका हमउम्र… हमखयाल… और इसीलिए वसीम को भेजा था उन्होंने नंदी के पास। वसीम उनकी परछाईं ही तो है। उनके रक्त-मांस से बना हुआ, उनके विश्वास का एक टुकड़ा… वे उस पर भरोसा तो कर ही सकते थे, नंदी की खातिर… उससे ज्यादा वे किस पर भरोसा करते… हालाँकि ऐसा करके उनका मन दुखता भी था। नंदी को खोना उनके लिए आसान नहीं था, वह उनके वजूद का एक हिस्सा थी, सबसे कोमल हिस्सा। जहाँ तनिक सी चोट भी उन्हें हिला देती थी। उस हिस्से को ही काटकर फेंक देना आसान कैसे हो सकता था। पर किया था उन्होंने इसे संभव… रुके रहे थे वहाँ उतने दिन, यह जानकर भी कि नंदी बीमार है।

…पर लौटे तो भी उन्हें कुछ बहुत बदला हुआ नहीं लगा था। नंदी थोड़ी-थोड़ी अपने में खोई रहती, वे सोचते हो जाता है ऐसा कभी-कभी… और इस तरह कुछ भी नहीं बदलने से बदलने लगा था उनका मन। नंदी के लिए प्यार और ज्यादा उमड़ने लगा था। कि हर हाल में वह उन्हें ही चाहती है। उसे उनके किसी भी कमी से कोई गुरेज नहीं… न उम्र, न रूप न और कुछ… वे कमजोर पड़ गए थे और उन्हें लगा था अब नंदी को नकारना उसके और अपने रिश्ते और प्यार की तौहीन होगी… सो वे मन बन चुके थे, मना लेंगे वे वसीम को… नंदी को उसका हक देना ही होगा उन्हें। और वे जयपुर चले थे संग-संग… अपने खयालों को अमली जामा देने की खातिर… पर वह रात आ गई थी उनके बीच… और उस रात के साथ एक और सच भी…। नंदिता एक बार उनसे कह कर देखती, भरोसा नहीं कर सकी उन पर… भरोसा करती तो… उन्होंने कब ऐसा नहीं चाहा था… वह जो राह चुनती उन्हें मंजूर होता… वसीम को या उन्हें… उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी… पर यह चुप्पी, यह अविश्वास वे सह नहीं पाए थे… इस तरह उनके यकीन पर चोट करना… कि यह समझना कि उनका दिल बहुत छोटा है, कि वे सच स्वीकार ही नहीं सकते… वे बिलबिला गए थे और चल दिए थे उसे छोड़कर… हालाँकि मना सकते थे उसे… वे रुक भी सकते थे…

पर अब जबकि सब कुछ उलट-पुलट चुका है, उनके न चाहते भी एमीलिया और वसीम की सगाई होने जा रही है, वे सचमुच नंदिता के लिए चिंतित हैं… क्या सँभल पाएगी वह… क्या वे पीछे मुड़कर उसे थाम लें… नहीं, पीछे मुड़कर भी कुछ बदला नहीं जा सकता… जिंदगी पिछले पड़ाव पार कर चुकी थी… और वहाँ लौटना असंभव था, उसी विश्वास, उसी बेदाग भरोसे तक… भरोसा तो दोनों का ही टूटा था फिर… वे नसीमा की जिद पर सिर्फ सगाई के लिए तैयार हुए थे तो यही सोचकर। शायद कल कुछ…

और सगाई हो रही थी सचमुच। एमीलिया ने जब वसीम को अँगूठी पहनाई, उसकी आँखों में आँसू चमक रहे थे… पिता की आँखें भी खुशी से सँवलाई थी… और वसीम की भी। पर हनीफ ने देखा था नंदिता ने अम्मा का कंधा थाम लिया है… एक क्षण को उदासी की परतें आई और बिला गई हैं…

नंदी सँभल जाएगी यह भरोसा होने लगा था उन्हें भी धीरे-धीरे। तब तो और भी जब पुराने घर को छोड़ देने की बात उसने एमी से की थी और एमीलिया के तत्काल साथ रहने और फिर उसके बाद उसी के घर में रहने के प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया था उसने… उन्होंने देखा उसकी आँखें बहुत चमकदार थी, बिल्कुल साफ और संयत… उसने अम्मा की हथेलियाँ थामी थी और निकल पड़ी थी उनके साथ…

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मेरा पता कोई और है – Mera Pata Koi Aur Hai

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