मेज | इला प्रसाद
मेज | इला प्रसाद

मेज | इला प्रसाद – Mej

मेज | इला प्रसाद

जब घर पूरी तरह व्यवस्थित हो गया और उसके बाद भी हम यह तय नहीं कर पाए कि इस छोटी काठ की चौकी को कहाँ रखें तो अंततः हमने उसे आँगन में निकाल दिया। आँगन में मेज सहित चार कुर्सियाँ पहले से पड़ी थीं इसलिए वस्तुतः उसका वहाँ होना भी निरर्थक ही था। किंतु, थोड़े समय के लिए हमने उससे एक तरह से मुक्ति पा ली। भारत होता तो शायद वह चौकी हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज होती, सत्यनारायण कथा में उपयोग में आती और घर के बाहर न होकर पूजा की वस्तु बनती। लेकिन परिवेश की भिन्नता के साथ चीजों के मायने भी बदल जाते हैं और यही इस चौकी के साथ भी हुआ। अमेरिका के कालीन बिछे घर में, जहाँ आप सत्यनारायण कथा जैसे आयोजनों की कल्पना भी नहीं कर सकते और सारे पर्व-त्योहार मंदिरों में या अन्य सार्वजनिक स्थलों में मनाए जाते हैं, इस चौकी की सत्ता अर्थहीन थी।

मेरे इस निर्णय को किसी ने चुनौती नहीं दी। किंतु, बाहर खुले में रहकर, धूप- बारिश झेलकर अतंत वह टूटकर खत्म हो जाएगी, यह एहसास हर किसी को था।

‘ठीक है सुधा, इसे पेंट कर दो।’ सचिन ने कहा।

पेंट कर देने के बाद यह बैठने के लायक हो जाएगी और जब चार से पाँच लोग जुटेंगे तो कोई इस चौकी का उपयोग बैठने के लिए कर लेगा, यह समझ में आने वाली बात थी। मैंने स्वीकार लिया। कोई उपयोग होगा तो यह हमें भी फालतू नहीं लगेगी।

जब मैंने उसे घर में पड़े हरे रंग के वार्निश से पेंट कर डाला तो सचिन ने माथा ठोंक लिया।

‘मैंने सोचा था, तुम इसे कायदे से पेंट करोगी। कोई अल्पना जैसा डिजाइन बना दोगी कि यह खूबसूरत लगे। तुमने तो इसे और बेकार कर डाला।’

मैंने इतना सोचा ही नहीं था। पेंट इसलिए करना था कि धूप-बारिश में सड़ न जाए, टूट न जाए। पेंट रक्षा कवच था बस। उसका सौंदर्य से क्या संबंध?

लेकिन सचिन को हर चीज में सलीका, कायदा और सौंदर्य चाहिए था सो उनकी अवहेलना भरी दृष्टि अब बार-बार चौकी पर पड़ती और घूमकर मुझ पर टिक जाती।

‘इस पर कोई गमला रख देते हैं। वो पीले फूलों वाला। या एक प्लास्टिक का मेजपोश डाल दूँ? अच्छा लगेगा। कभी बाहर बैठकर अखबार पढ़ने हों तो इस पर रख सकते हैं।’ मैं सुझाव देती।

सचिन के चेहरे का भाव यथावत। उन्हीं गर्मियों में एक नील पंछी के जोड़े ने हमारे आँगन के सामने वाले पेड़ पर बैठना शुरू किया।

बहुत सुंदर होते हैं नील पंछी। उनकी भी कई प्रजातियाँ होती हैं। ह्यूस्टन में जो प्रजाति दिखती है, उसका नाम ब्लू जे है और यह आकार में बड़ा और काले, सफेद नीले रंगों के धब्बे वाले पंखों का बहुत ही खूबसूरत पक्षी होता है। गले में एक कालापन लिए नीली धारी होती है और सही अर्थों में नीलकंठ शायद इसे ही कहा जाना चाहिए।

वह हमारे मैदान में उतरता तो नीले रंगों की आभा एक छोर से दूसरे छोर तक बिखर जाती। किंतु यह होना कुछ क्षणों का होता। बेहद डरपोक वह, वापस किसी पेड़ पर गायब हो जाता।

मैंने किताबों में पढ़ा। उसे पानी में खेलना पसंद है।

हमें लगा अब चौकी काम में आने वाली है।

‘इस पर एक कठौत पानी भर कर रख देते हैं। ब्लू बर्ड नहाएगी।’

यह क्रांतिकारी विचार सचिन को भी पसंद आया।

किंतु डरपोक ब्लू बर्ड ऊपर से गुजर जाती। आँगन में उतरे बिना।

हमने कई दिन इंतजार किया। फिर एक लोहे के स्टूल पर मैदान के बीच, दूर में पानी का कठौत रखा। और लो, नीली चिड़िया का पानी में खेलना शुरू हो गया। वह अपने मोरपंखी पंखों को छितरा कर जब-तब पानी में उतर आती। पानी पीती, पंखों को फैला पानी में छपछपाती और हम निहाल होते।

चौकी अपनी जगह पड़ी रही। उसकी ऊँचाई कम थी। घास के मैदान में लकड़ी जल्द ही सड़ जाती और हम अभी तक उसको लेकर किसी फैसले तक नहीं पहुँच पाए थे।

गर्मियाँ बीतीं, पतझड़ आया। चौकी पर अक्सर ही पीले-भूरे पत्तों का ढेर जमा हो जाता। मैं जब अँगने में बैठती, पहले चौकी साफ करती। धूल झाड़ती। किसी काम की तो है नहीं, बस काम बढ़ा दिया। इससे तो अच्छा, यह न होती।

लेकिन नई-सी दिखती, मजबूत चौकी को फेंकना भी गवारा न था हमें। हम बस उसे झेल रहे थे। ह्यूस्टन में पतझड़ और बारिश एक साथ होते हैं। धार-धार पानी बरसता। जल्दी ही नई दिखने वाली चौकी का रंग-रोगन उतरने लगा।

टूट जाए तो फेंक दूँ – मैं मन ही मन सोचने लगी। शायद कुछ ऐसा ही सचिन भी सोचते होंगे क्योंकि जब वह आँगन में उतरते तो एक ठोकर मार कर देखते। तसल्ली करते होंगे कि बेकार हो गई क्या!

पतझड़ के बाद ठंड उतरी।

आम तौर पर यहाँ इतनी ठंड नहीं पड़ती लेकिन इस साल पड़ी। पत्तों पर बारिश की बूँदें बर्फ की झालर बनाने लगीं। चौकी का रंग और खराब हुआ। हरा वार्निश जगह- जगह से उतर गया था और काठ का रंग नजर आने लगा था। वह अब हमारी दृष्टि से ही नहीं मन से भी उतर रही थी। दूसरी ओर ब्लू बर्ड के लिए हमारा आकर्षण बढ़ता जा रहा था।

सर्दियों के बाद जब वसंत आया तो ब्लू बर्ड ही नहीं, कार्डिनल, अमेरिकन राबिन, कठफोड़वा अदि कई पक्षियों के दर्शन होने लगे।

‘इनके लिए दाना डालेंगे।’ मेरा मन मचला। ‘दाना खाएँगे तो देर तक हमारे करीब रहेंगे। आजकल एक लाल फिंच भी आने लगी है।’ मैंने सचिन को बतलाया। सचिन पहले तो मेरे इस बचपने पर हँसे, फिर सारा दिन मैं घर में अकेली रहती हूँ तो मन लगेगा, यह सोचकर मेरे साथ बाजार जाकर बर्ड फीडर और उनका दाना साथ-साथ ले आए।

पक्षियों ने हमारे इस निर्णय का स्वागत किया। बस ब्लू बर्ड दूर-दूर रहती। गहरी असंतुष्ट नजरों से वह दूर से देखती, कभी पानी पीती और फिर फुर्र हो जाती। हाँ, गौरैयों की संख्या बढ़ती जा रही थी। एक समस्या और आई।

गिलहरी को हमारा बर्ड फीडर पसंद आ गया था। वह चुपके से आकर ढक्कन खोल पक्षियों का दाना खा जाती।

अब हमारे काम में बर्ड फीडर की चौकसी करना और शामिल हो गया। दिन- दुपहर अब मैं आँगन के सामने, कमरे में परदे की आड़ में बैठने लगी। गिलहरी जिस गति से खा रही थी वह बहुत ज्यादा थी और हमारे बजट में पक्षियों के लिए इतनी जगह नहीं थी।

कभी-कभी लाल फिंच आकर पुकारती। हम समझ जाते। दाना या तो खत्म हो गया या फिर गिलहरी ने खा डाला है।

इन्हीं दिनों एक दिन मूसलाधार पानी बरसा।

छुट्टी का दिन। सचिन घर पर ही थे। वरना ऐसी बारिश में निकलना चिंता का सबब होता है। तमाम व्यवस्था के बावजूद सड़कों पर पानी भर जाता है। एक्सीडेंट होते हैं और बाढ़ की स्थिति भी आती रहती है। यह दीगर बात है कि ऐसी स्थिति देर तक बनी नहीं रहती और बारिश थमते ही कुछ घंटों में स्थिति ठीक हो जाती है।

लेकिन तब, जब बारिश थमे। कई बार बारिश थमने का नाम नहीं लेती। आज ऐसा ही था।

‘फिंच कई बार पुकार चुकी। आप कब दाना डालेंगे उसके लिए?’ मैंने हँसकर सचिन से कहा।

सचिन सोच में पड़े खिड़की से बारिश देखते रहे।

‘नहीं, बर्ड फीडर में डालना मुश्किल है। पूरा ही भीग जाऊँगा। रुको, मैं छाता लेकर चौकी पर दाने बिखरा आता हूँ।’

मैंने उन्हें अविश्वास से देखा।

लेकिन वे दॄढ़ थे। कुछ बोलना बेकार।

वे गए और ढेर सारे दाने चौकी पर बिखरा आए।

कुछ समय बीता। सामने पेड़ पर तीन नील पंछी बैठे थे।

‘देखो, तीन हैं।’ मैं बेहद खुश हो आई। लगता है अब तक जो ये पक्षी हमारे दाने को अनदेखा कर रहे थे, वह इसीलिए। मैंने पढ़ा है। गौरैया ब्लू बर्ड के अंडे खा जाती है। हमने उन्हें दाना खिलाकर ब्लू बर्ड की सहायता की है। इसीलिए वह दूर से देखती थी और अब अपने बच्चे के साथ हाजिर है। उत्तेजित मैं सचिन को लगभग खोंचते हुए खिड़की के पास ले आई।

धीरे से वे पक्षी चौकी पर उतर आए।

‘यह इनकी डायनिंग टेबल है। आराम से खाएँगे।’ सचिन मुसकराए। और सचमुच अगले कुछ ही मिनटों में ढेर सारी गौरैया, लाल फिंच का जोड़ा, पंडुक, मैना, कौवा और कबूतर मेज पर फैलकर एक दूसरे से लड़ते-झगड़ते खाना खा रहे थे।

‘पार्टी देर तक चलेगी। चलो इन्हें खाने दो।’ सचिन ने कहा और हँसते हुए मुझे अंदर ले गए।

हमें वह बदरंग हो आई, अधटूटी चौकी आज बहुत अच्छी लग रही थी। अब वह मेज थी, चौकी नहीं।

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