मेज कुर्सी तख्ता टाट.. | हरि भटनागर
मेज कुर्सी तख्ता टाट.. | हरि भटनागर

मेज कुर्सी तख्ता टाट.. | हरि भटनागर – Mej Kursee Takhta Taat..

मेज कुर्सी तख्ता टाट.. | हरि भटनागर

खलील को अफसोस हो रहा है

यह अफसोस तब से शुरू हुआ जब वह बीमार पड़ा। हाथ-पैर या कहा जाए पूरा शरीर बेकाबू हो गया। चुल्लू भर पानी उठकर पीने की कूवत न रही।

गर वह रत-जत रखता या मिलनसार होता तो आज यह दिन न देखना पड़ता। लोग दौड़ पड़ते। दवा-दारू की जुगाड़ बैठाते। अब कौन है जो उसकी देख-भाल करेगा? जलील भी तो नहीं। उसने तो उसे लात मारकर भगा दिया…

खलील सोचता जाता और उसकी तकलीफ बढ़ती जाती। वह एकलखोर किस्म का था। न किसी का संग-साथ, न किसी से कोई मतलब। यहाँ तक कि किसी खुशी-गम में कभी शरीक नहीं हुआ। यह ढब उसमें नसों की तरह तब फैला जब कबाड़ के साथ के कुछ लोगों ने फँसा दिया और उसे हवालात की लंबी हवा खानी पड़ी। इसमें उसकी जरा भी गलती नहीं थी। थी तो बस यही कि शिवशंकर वकील के यहाँ से वकालत की चुराई गई किताबों का पर्दा खोल दिया था, थाने में मार-पिटाई के बीच। सो साथ के दो-तीन लोग बँध गए थे जिन्होंने किताबें चुराई थीं। लेकिन उन्होंने भी उसे बख्शा नहीं। छूटते ही कबाड़ के एक झूठे लफड़े में धरवा दिया! बहरहाल, वह बंद हुआ और छूट गया। लेकिन इस वाकये से हिल गया। उसे न केवल फँसानेवाले बल्कि पास-पड़ोस के लोग भी खतरनाक लगे। मुमकिन है, ये लोग भी उसे किसी चक्कर में डाल दें। किसी का भरोसा नहीं! वह सबसे दूर रहता और हर वक्त गुस्से और नफरत में काँपता रहता और बेतहाशा गालियाँ बकता। गालियों की रफ्तार उस वक्त और बढ़ जाती जब वह अंडा बेचकर घर आता और ठर्रा चढ़ा लेता। टोले-पड़ोस के लोगों को यह नागवार गुजरता। अलफ हो जाते और वे भी गालियाँ देते। धीरे-धीरे उनमें तकरार होने लगती। और यह तकरार जल्द हाथापाई में तब्दील हो जाती। इस बीच कोई उसे बुरी तरह पीटने लग जाता। यह पिटाई ही थी जिसने उसे लोगों से और दूर ला पटका। पता नहीं क्यों, लोगों से पीटे जाने के बाद वह अपना सारा गुस्सा बेटे, जलील पर निकालता। वह उसे बेतरह पीटता। जो चीज सामने पड़ जाती उसी से सूँट डालता। रस्सियों से बाँध देता। पेड़ से लटका देता। जलील की उमर ही कितनी थी उस वक्त! दस-बारह साल!

खलील ने गहरी साँस छोटी। जलील कितना रोता था। कितनी मिन्नत-विनती करता था कि अब्बा माफ कर दो लेकिन वह था कि पूरा कसाई। जिबह करके ही दम लेता था… अब… अब वह क्यों झाँकेगा? खूनी शख्स की शक्ल क्यों देखेगा जिसने मुहब्बत की जगह नफरत की दाग-बेल रखी!

तीन दिन तक खलील जबरदस्त तखलीफ के बीच नम जमीन पर पड़ा कूँथता रहा। पूरा जिस्म बेपनाह दर्द से टूटता रहा। आँखें परपराती रहीं। बूँद भर पानी न मिलने की वजह से हलक में पपड़ी-सी जम गई थी।

चौथे दिन तड़के जब उसने आँखें मिचमिचाई और अफसोस में डूबे-डूबे अल्ला-अल्ला की गुहार लगाई, माथे पर उसे किसी की सख्त उँगलियों का एहसास हुआ।

उसने आँखें खोलीं – सिरहाने जलील था जो उसका माथा टीप रहा था और उस पर बेना डोला रहा था। सामने टोले के दो-चार लोग खड़े थे, मुँह बाँधे जो जलील को बुला लाए थे।

खलील ने सोचा था कि उसके रवैये से कोई झाँकेगा नहीं और वह घिसट-घिसट कर मर जाएगा। लेकिन यहाँ हिसाब ही कुछ और था। उसे झटका-सा लगा कि वह लोगों को कमीन समझता था! लोग इतने खराब नहीं, गर ऐसे होते तो जलील को क्यों बुलाकर लाते!

बीमार होने का उसे इस वक्त उतना नहीं जितना अपने तल्ख रवैये का गम हुआ। उसने जलील का हाथ पकड़ लिया और सिसक पड़ा गोया अपने किए-धरे की माफी माँग रहा हो। उसके आँसू चू पड़े और कानों में भरने लगे।

जलील बाप की तकलीफ समझ रहा था। उँगलियों से उसके आँखू पोंछे और धीमी आवाज में कहा – पुरानी बात भूल जाओ अब्बा, भूल जाओ।

इस बीच टोले के एक आदमी ने घड़े में कुएँ से पानी लाकर रख दिया। एक ने चाय लाकर दी। एक कोठरी बुहारने लगा।

खलील बाईं कुहनी के बल कराहते हुए किसी तरह बैठ मुँह बना-बनाकर चाय पीने लगा गोया नीम का अरक पी रहा हो और परपराती आँखों टोले के लोगों को देखता जाता, अंदर ही अंदर भीगता।

थोड़ी देर बाद टोले के लोग सामने खड़े एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे। खलील को लगा कि ये लोग अभी चले जाएँगे, जलील भी… उसकी कराह बढ़ गई। हड़ीली छातियों को वह ठोंकने-सा लगा।

जलील ने दिलासा दी और कहा कि घबराइए नहीं। अब वह उसे छोड़कर नहीं जाएगा। उसकी खिदमत करेगा। हकीम को दिखाएगा।

और यकीनन जलील उसे छोड़कर नहीं गया। पास की चाय की एक दुकान में काम करने लगा और मालिक से पैसे उधार ले हकीम को दिखाकर बाप का इलाज शुरू किया।

पहले जलील जब बाप के साथ था और बाप बेतरह पीटता था तो उसे उससे सख्त नफरत थी। वह छिपा-छिपा फिरता और हमेशा सोचा करता कि अब्बा मर जाए तभी अच्छा। लेकिन अब बीमार हालत में देख जलील को उससे हमदर्दी है और चाहता कि जल्द अच्छा हो जाए। वह दुकान में काम करता लेकिन दिमाग में बाप बना रहता। उसे यह खटका रहता कि अब्बा प्यासा पड़ा होगा, दवा नहीं खाई होगी – वह तेजी से हाथ चलाता, काम जल्द निपटा लेने के लिए। काम खत्म होने का अपना समय था। लेकिन जलील उसको फलाँगने के लिए जल्दबाजी करता। इसी रौ में गहकी चाय पी नहीं पाए होते, वह गिलास छीनने लग जाता या आधी पी चाय का गिलास ही उठा लाता जिस पर उसे कभी मालिक की, कभी गहकियों की डाँट-मार खानी पड़ जाती लेकिन बाप के ख्याल के आगे वह यह सब कुछ भूल जाता और काम से छुट्टी पाते ही तीर की तरह घर पहुँचता।

और जैसा कि उसे खटका होता, बाप असल में प्यासा पड़ा होता, दवा धरी रह गई होती, दर्द के आगे। वह उसे पानी पिलाता, दवा खिलाता और टीपता हाथ-पैर।

इस बीच चौक में उसने फूलचंद रामनिवास के यहाँ भी काम करना शुरू कर दिया जहाँ वह रात में जाता। वहाँ वह हल्दी, धनिया, मिर्च के बोरों को ट्रक से उतारता और गोदाम में पहुँचाता और देर रात गए घर आता।

जब तक वह नींद के आगोश में आ न जाता, बाप की फिक्र में खोया रहता। उसे होश ही न रहता अपना और न साथी काले का, जिसके बिना वह एक पल भी रह नहीं सकता था। अब वह दूसरा धंधा कर रहा है या कबाड़ के धंधे में ही लगा है या ‘उठा-पटक’ में लग गया जिसे दिन-दहाड़े या रात के अँधेरे में लोगों की आँखों में धूल झोंककर किया जाता है। एक दिन उसने सुना कि वह ‘उठा-पटक’ में लग गया लेकिन बाप की फिक्र के आगे उसने इस बात को ज्यादा देर तक दिमाग में टिकने नहीं दिया।

जलील की इस जद्दोजहद के बीच खलील माह भर में ठीक तो हो गया लेकिन पहले जैसी न देर रही, न ताकत। पथ्य न मिलने की वजह से देह खाज मारे कुत्ते की तरह खुरदरी और हड़ीली हो आई। हाथ पैर टुंड-मुंड पूँछ की तरह। आँखों में जर्दी घुल गई। चलना-फिरना तो दूर, बैठने में दिक्कत आती। निढाल-सा वह नीम अँधेरे कोने में पड़ा रहता। लेकिन अपनी सारी तकलीफ भुला देने की कोशिश करता ताकि जलील को इसकी भनक न लगे, वह हलाकान न हो, पहले ही वह काफी परेशानी झेल चुका है।

लेकिन जलील था कि उससे उसका यह हुलिया देखा न जाता, परेशान हो उठता। शाम को जब काम से लौटता, अपने साथ कड़ू का तेल लाता और तब तक मालिश करता जब तक फूलचंद रामनिवास के यहाँ जाने का वक्त न हो जाता।

लेकिन दो-तीन माह बाद जब कर्ज का भार बढ़ा और तकाजा – रोटी की हाय-हाय तो थी ही, तेल के लिए एक पैसा न बचता, उधार पर उधार कोई न देता, उस पर बाप की हालत ज्यों की त्यों – उसका दिमाग बाप और मालिश से उखड़ गया। बाप को देखते ही वह गुस्से से भर उठता। मन-ही-मन मोटी गालियाँ देने लगता और सोचता, किस लफड़े में फँस गया। जी खुदकुशी करने का होता। मगर थोड़ी देर बाद सोचता, वह गलती कर रहा है। अब्बा बीमार हैं, मरघिल्ला है तो उसमें उसकी क्या गलती। अगर वह ऐसा होता तो क्या अब्बा उसके लिए परेशानी न झेलता। उँह झेलता परेशानी! सीधे मुँह साले ने कभी बात नहीं की, सिवाय मार-पिटाई के!

वह कड़वाहट से और भी भर जाता जब आधा पेट पानी से भरना पड़ता। चाय की दुकान से निकल वह गली-गली भटकता और घर जाना न चाहता। जाता भी तो रोटी के वक्त। गुस्से में भरा, बड़बड़ाता। बाप को फूटी आँख देखना पसंद न करता, बोलने पर खौंखिया पड़ता।

जलील की मुहब्बत, तीमारदारी और लगन के आगे खलील झुका हुआ था और अल्लाहताला से उसकी लंबी उम्र की भीख माँगा करता हर वक्त। जलील का चेहरा, जिस पर हमेशा पसीने की पर्त छाई रहती और तखलीफ की सतरें बनती-बिगड़ती, देखकर उसे कचोट होती और यह ख्याल दिमाग में चक्कर काटता कि मेरी वजह से ही जलील गर्क हो रहा है। ऐसे में उसे यह बात काँटे की तरह चुभती कि उसने उस पर काफी जुल्म ढाया जिस वजह अल्लाहताला उसे कभी माफ नहीं करेगा। लेकिन जलील के चेहरे पर इस बात की कोई शिकन न देख उसे अजीब तरह की खुशी और तसल्ली होती… ये वही दिन थे जब जलील उसको चंगा करने के लिए कड़ू का तेल लाता और घंटों मालिश करता। पर ये खुशनुमा लमहे धीरे-धीरे कब पार हो गए, खलील को पता ही न चला। ये दिन ख्वाब लगे जब उसे जलील के चेहरे पर, उस चेहरे पर जिस पर पसीने की पर्त छाई रहने और तकलीफों के दौड़ते रहने के बाद भी प्यार झाँका करता था, कोई दूसरा शख्स बैठा नजर आया जो किसी मानी में जलील नहीं था। मगर नहीं, वह जलील ही था जो उस पर बिफर रहा था, खौंखिया रहा था।

उसे अपने पर कोफ्त होती कि वह मर क्यों नहीं गया। क्यों किसी पर मुनहसिर हुआ? वह यह समझ रहा था कि जलील तंगी की वजह से ही झूँझल खाता, फिर भी उसे उसके रवैये पर गुस्सा आता और गमगीन हो जाता।

उसकी गमगीनियत उस वक्त और बढ़ जाती जब जलील किसी-किसी दिन घर न आता। वह भूख से तड़पता और उसका इंतजार करता।

अगल-बगल भुरभुरी दीवारों के मकान थे जो फट्टियों के सहारे बोरों-पन्नियों से अपने को रोके हुए थे। इनमें रहने वाले ज्यादातर धोबी, नाई और चिकवा-कसाई थे, जो सबेरा होते ही निकल पड़ते और अँधेरा होते आते। खलील इनका जाना देखता और लौटना। एक-एक करके सब निकल जाते और लौट आते। न आता तो महज जलील जिसका उसे इंतजार होता। आँखें उसकी दर्द से टपकने लगतीं। भूख के मारे सारे जिस्म में झुनझुरी-सी चढ़ती महसूस होती गोया बहुत सारी चींटियाँ हों जो अपने छोटे-छोटे मुँह से बदन की सारी ताकत खींचने में लगी हों। इस सबके बाद भी, उसकी आँखें बाहर लगी रहतीं। जलील किसी भी वक्त टपक पड़ता।

ऐसे ही एक दिन फरार रहने के बाद, दूसरे दिन भी जलील नहीं आया, शाम होने को आई, खलील भूख से बेहाल है। वह सबेरे से गरदन उठा-उठाकर बाहर की तरफ देखता कि जलील आ आए लेकिन जलील नहीं आया। टोले-पड़ोस के लोग अपने काम-धंधे में फँसे थे। किसे फुर्सत थी उसके पास आने की। जलील है तो फिर सवाल ही नहीं था। खलील थक गया इंतजार कर-कर के। आँखें दर्द करने लगीं। बदन में झुनझुनी चढ़ गई। यकायक उसे किसी की आहट सुनाई दी। समझा, जलील आ गया, पर था नूरे कसाई जो धीरे-धीरे घिसटकर दरवाजे के पास आ खड़ा हुआ था। वह सिसक रहा था। नूरे हाथ-पैर से माजूर है और बेटे, रसूल पर मुनहसिर। रसूल उसे रोजाना टिक्कड़ तो देता लेकिन पचीसों गाली और गुच्चे रसीदकर। आज भी उसने ऐसा ही किया। फर्क इतना था कि गुच्चे की जगह उसने लातें रसीद कीं और टपरे से बाहर ढकेल दिया!

खलील को लगा कि उसकी भी यही हालत होने वाली है। दूसरे पल इस बात के शक के बाद भी उसके दिमाग में यह बात चमकी कि नहीं, जलील ऐसा नहीं है। वह उसके साथ ऐसा सलूक कभी नहीं करेगा! कभी नहीं करेगा!!

थोड़ी देर बाद नूरे खिसक के आगे बढ़ गया और खलील के दिमाग में यह बात बज रही थी कि किसी की फटर-फटर चलने की आवाज आई। यह कोई और न था, जलील था। जलील का हुलिया बदला हुआ था। पाजामे की जगह कसी पैंट पहने था जिसके पाँयचे उधड़े थे। ऊँची-ऊँची नीम आस्तीन कमीज की जगह ढीली-ढाली पसीने से गीली बुशर्ट थी। बुशर्ट की आस्तीनें बेतरतीब से कुहनियों तक मुड़ी थीं। पाँव में हवाई चप्पल थी जिनके पट्टे केंचुल की तरह लग रहे थे। कमीज का कालर खड़ा था और गले में लाल रूमाल तस्बीह की तरह पड़ा हुआ था। बेतरह पान चबाता, झूमता हुआ-सा वह उसकी तरफ देख रहा था। उसके हाथ में रोटी का पुड़ा था।

जलील को देखकर खलील दंग रह गया। उसकी हरकत से उसे शक तो काफी पहले हो गया था कि वह गलत सोहबत में फँस गया है – चोरी-चकारी या उठाईगिरी में। आज पक्का यकीन हो गया। मगर उसके दिमाग ने इस बात की जरा भी चीर-फाड़ न की और न ही खौफजदा हुआ। मुमकिन है, वह भूखा था, जलील के पुड़े पर ताबड़तोड़ टूट पड़ा, इसलिए। पर एक बात जरूर थी जिसकी चीर-फाड़ चलने लगी। वह थी जलील का उसके सामने रोटी का पुड़ा फेंकने का अंदाज। उसे लगा जलील ने रोटी का पुड़ा नहीं, कूड़े का पुड़ा फेंका। वह भी उसकी तरफ – कूड़ेदान पर! नूरे से भी गया गुजर हो गया वह!

यह बात उसे लग गई। उसने आगे से पुड़ा न लेने की कसमें खाईं, लेकिन दूसरे दिन जब जलील आया और उसकी तरफ पुड़ा फेंका, लापरवाही से, वह सारी कसमें-बातें भूल गया, रोटियाँ खा लीं तो एक झटका-सा लगा गोया उससे कुछ गड़बड़ हो गया।

खलील ने जैसा सोचा था जलील के बारे में – सच निकला। वह काले का दामन पकड़ चुका था और उसके साथ ‘उठा-पटक’ में लग गया था। शुरू में ऐसा कुछ करते उसके हाथ-पैर काँपे, बोटियाँ थर्राईं, लेकिन धीरे-धीरे जब उसने एक-दो मोटे ‘काम’ पर हाथ साफ किया और उसे कामयाबी हासिल हुई तो उसकी धड़क जाती रही। काले, जो अब उसका उस्ताद था, उसकी पीठ ठोंकता और अपने पान से रंजे दाँतों के बीच मूँछ के बालों को दबाता हुआ बहुत ही संजीदा हो उसे नए-नए गुर बताता, और जलील उसके नक्शे-कदम पर ऐसा चलता कि खुद काले को हैरत होती।

नए काम को करते जलील को एक ऐसी खुशी हुई जो मौन होकर उसकी रग-रग में समा गई। वह बेफिक्र था। मगर इस बेफिक्री में जो उसको चेहरे से छलछला पड़ती थी, उसका सब कुछ उलट-पलट गया था। उसके सोने-उठने का कोई वक्त नहीं था। कभी भी सोता, कभी भी उठता, कभी भी चल देता, और कभी भी घर आता। न दिन, दिन था, न रात, रात। सब बराबर। बाप से वह पहले से फिरंट था, इस व्यस्तता ने उसमें और इजाफा किया। लिहाजा वह उससे कतई न बोलता। उसकी किसी बात का जवाब न देता। हाँ-हूँ में भी नहीं। जैसे कुछ सुना ही न हो। कठचेहरा बनाए रहता। हाँ, इतना जरूर करता, जब घर आता साथ रोटी का पुड़ा लाता और उसकी तरफ बेरुखी से फेंक देता।

घर वह झूमता आता, फिल्मी गीत की कोई कड़ी गुनगुनाता, बायाँ कंधा झुकाए, हाथों को बिना आगे-पीछे फेंके गोया बेजान हों। पान बुरी तरह चाभे होता जिसका लुआब होंठों के कोरों पर जमा होता। पान की कूच के जर्रे सामने कमीज पर बिछे होते। पुड़ा फेंककर वह कबाड़ से लाए हिलते, चूँ-चूँ करते तख्त पर औंधा गिर जाता। थोड़ी देर उसी तरह पड़े-पड़े धंधे के बारे में सोचता, जिसे जल्दी निपटाना होता। फिर खर्राटे लेने लगता और फिर पता नहीं कब उठकर फरार हो जाता। इस तरह दिन, महीने, साल गुजरते गए। दोनों एक कोठरी में रहते हुए भी, नहीं रहते थे। पता नहीं क्या था जिसके तहत जलील उसके लिए पुड़ा लाता और पता नहीं क्या था जिसके तहत खलील सारी अकड़-फूँ भूल रोटी खा लेता!

लेकिन उस दोपहर खलील भन्ना गया। हुआ यह जब जलील पुड़ा फेंक रहा था, उस पल उसके दिमाग में कंजर टोले की वह लड़की झिलमिला रही थी जिसके इश्क में वह हाल ही में कैद हुआ था। वह पुड़ा फेंके इसके पहले ही वह हाथ से छूट कर जमीन पर गिर पड़ा। उसने उठाने की तखलीफ नहीं की। पैर का पंजा बढ़ाया और बाप की तरफ उछाल दिया जो सीधे बाप के मुँह से टकराया।

खलील को यह बात नागवार गुजरी। लगा, वजूद खो चुका है तभी जलील ने ऐसा किया। बेवजूद होने की वजह ही वह रोटी का पुड़ा नहीं, कूड़े का पुड़ा फेंकता है! वह भी उस पर – कूड़ेदान पर!

और जब उसने अपने वजूद के बारे में गहराई से सोचा, पिछली सारी बातों की रोशनी में, कोई नतीजा न निकाल सका। हैस-बैस में था। जलील रोटी लाता था, वजूद की ही वजह तो! इस बात को किस सीगे में डालता।

लेकिन कुछ ही दिन बाद एक ऐसा वाकया हुआ – वह सन्न रह गया!

बात यह थी कि जलील जिस कंजर टोले की लड़की के इश्क में कैद था, उसे अपने घर लाना चाहता था, क्योंकि कंजर टोले में ‘वह काम’ मुमकिन नहीं था जो दोनों करना चाहते थे! बाप-भाई के डर से लड़की कहीं निकल भी नहीं पाती थी, लेकिन उस दिन निकली बाप-भाई की गैरहाजिरी में।

जलील आगे था, वह पीछे।

वह कसा सलवार-कुर्ता पहने थी जिस वजह उसका जिस्म कपड़े फाड़कर बाहर निकल आना चाहता था जिससे जलील को लग रहा था कि कहीं कुछ धमाका हो जाएगा। धमाका और कहीं न होकर उसके दिल में होगा। उसके टुकड़े-टुकड़े कर देगा। बार-बार उसे एहसास हो रहा था कि झिरझिर दुपट्टा जिसे वह लड़की डाले थी, के भीतर से कोई चीज उसकी पीठ में गुदगुदी मचा रही है और वह गुदगुदी उसके समूचे शरीर में फैलती जा रही है। वह लड़की को देखता और गहरी साँस ले-लेकर आगे बढ़ जाता। लड़की जूड़ा बाँधे थी और उसमें चमेली के ताजा फूलों का हार लिपटा था। उसके होंठ चटख लाल थे जिससे लगता था कि वह अभी-अभी लिपस्टिक लगाकर आई है। नाक में चाँदी की लौंग थी। कान में बुंदे थरथरा रहे थे। पाउडर से सनी गरदन में तस्बीह की तरह काला डोरा पड़ा था जिसमें भालू के नख की ताबीज थी जो छातियों के ऊपर डोल रही थी। हाथ में उसके एक छोटा-सा पर्स था जो पसीने की वजह से सरक रहा था। कीचड़-मैले पर मच्छर-मक्खियों से भरी चक्करदार गलियों और कुलियों से होती जब वह कोठरी के दरवाजे के सामने पल भर को ठिठकी, उस वक्त उसकी नाक पर रूमाल था। कीचड़-बदबू की आदत के बावजूद उसने जोरों से नाक दबा ली, क्योंकि जो मंजर उसने अभी-अभी देखा, घिन से भरा था। कोठरी के बगल, मोरी पर एक मुर्गी मरे हुए चूहे को चोंच में फँसाए गटक लेने के लिए बार-बार झिटक रही थी ताकि चूहा कुछ छोटा हो जाए। मुर्गी झटके पर झटके दिए जा रही थी। एक दूसरी मुर्गी उसका पीछा किए थी।

लड़की ने पलभर के लिए इठलाकर रूमाल हटाकर थूका और कोठरी में नमूदार हुई। जलील उसकी अँगुली पकड़े था। कोठरी में आते ही छोड़ दी।

कोठरी में घुसते ही लड़की की आँखों में अँधेरा झिपझिपाने लगा। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। एक पल ठिठकी खड़ी रह गई। धीरे-धीरे जब रोशनी लौटी, वह मुस्कुरा दी। नाक पर रूमाल जमाने की वजह दम फूल गया था – सो गहरी साँस लेते हुए तख्त पर बैठ गई। चेहरे पर उसके थकान थी। लंबी अँगड़ाई के साथ वह लेट गई और आँखें मूँद लीं।

थोड़ी देर वैसे ही पड़े रहने के बाद उसने आँखें खोलीं। मुस्कुराते हुए फिल्मी गीत की कोई दिलकश कड़ी गुनगुनाने लगी, पैर हिलाते हुए।

जलील तख्त के कोने पर बैठा पंजे से मुँह पर हवा कर रहा था, लड़की को देख, मुस्कुराया। दिल में उसके गीत से ताल्लुक रखती बात रोशन हुई कि घबराओ नहीं, अभी दंगल होगा। काफी इंतजार कराया। आज मुराद पूरी कर लेंगे। यह बुदबुदाता हुआ वह लड़की के बगल लेट गया। लड़की के बगल लेटते ही उसके पूरे जिस्म में सुरसुरी-सी मचने लगी। जिस्म के सारे रोयें काँटे की तरह खड़े हो आए। हाथ जो काँप रहा था, धीरे से उसने लड़की के गाल पर फिराया। एक लमहे के लिए लगा निहायत ही गुदगुदा मखमल छू लिया। ऐसा भी एहसास हुआ गोया फूलों से भरे बागीचे में किसी सतरंगी तितली को पकड़ लिया। लड़की उससे सट आई थी और उसके होंठों पर गर्मगर्म साँसों की बौछार कर रही थी जिससे जलील की साँसों की रफ्तार तेज होती गई और उसे पता न लगा कि कब उसके तन से कपड़े उतरकर अलग हो गए – कब आदमजात नंगा हो गया…

जलील ने पैंट चढ़ाई और बाल भरी छाती खुजलाता बंबे से प्लास्टिक के बड़े जग में पानी लेने गया। पानी लाकर उसने जग जमीन पर रख मेज पर गुड़ामुड़ा अखबार बिछाया और कागज का पुड़ा खोला। पुड़े में पन्नी की थैली में गोश्त था और नान और उन पर प्याज के बारीक लच्छे। इन चीजों को जब जलील ने जमाया, लड़की मुस्कुराती तख्त के छोर पर आ बैठी और मेज पर झुक जल्दी-जल्दी खाने लगी। जलील भी जल्दी-जल्दी खाने लगा।

दोनों भूखे थे।

दोनों जब खा चुके, जलील ने कागज बटोरे और लड़की तख्त पर पड़े चीकट चादरों से तेल सनी उँगलियाँ पोंछती कुर्सी की तरफ सरकी, जो पिछली टाँगों के गायब होने की वजह दीवार से टिकी थी। कुर्सी पर धूल से अँटा छोटा-सा आईना था और खम भरा कंघा। चूतड़ पर रगड़ कर लड़की ने आईने की धूल साफ की और उसमें अपने को निहारा। वह मुस्कुरा दी। आईने में दाँत में फँसे गोश्त के रेशे थे। जीभ और नाखून के सहारे उसने रेशों को निकाला। होंठ की लिपस्टिक पुछ गई थी। उसने पर्स खोला। लिपस्टिक चटख की। बालों में कंघा फेरा। हार कुम्हलाया दीख रहा था – उतार फेंका। अब वह मुस्कुरा रही थी और लग रहा था, आईने में कोई फूल उग आया!

उसने जलील की तरफ देखा मुस्कुराते हुए गोया कह रही हो, चलो तैयार हो गई।

खुशी से हाथ मलता, बायाँ कंधा झुकाए, झूमता हुआ, जलील कोठरी से बाहर निकल गया। लड़की जैसे ही सिर बचाकर बाहर निकलने को हुई कि उसे दरवाजे के पास कोने में पड़े टाट में हरकत होती नजर आई। उसने देखा – एक बूढ़ा था जो बिलकुल टाट था, बेतरतीबी से पड़ा हुआ! अगर वह हरकत न करता तो कहना मुश्किल था कि टाट है या कोई दूसरी चीज!

यक-ब-यक लड़की सकपका गई और जोरों से चीखी।

जलील काफी आगे बढ़ गया था, चीख सुनकर पीछे पलटा और लड़की के पास आ मुस्कुराकर भौंहें मटका पूछा – क्या हुआ?

लड़की काँप रही थी और कहे जा रही थी तकरीबन रोनी सूरत बनाए कि तूने बताया क्यों नहीं… यह देख… ये कौन है… इसने तो सब…

जलील ने आँखें सिकोड़ खलील पर नजर डाली, जो टाट ओढ़े था और धीरे-धीरे उठकर बैठ रहा था, कंधे झुकाए हाथों को लहराता जोरों से बोला – कहाँ क्या है रे? कुछ तो नहीं, मेज, कुरसी, तख्ता, टाट ही तो है यहाँ? वह भी कबाड़ का!!

और ठठाकर हँस पड़ा। हँसते-हँसते उसने लड़की की कलाई पकड़ ली और टेढ़ा मुँह कर ‘अर्रे चल्ल’ कह तेजी से उसे खींचता आगे बढ़ गया।

खलील पसीना-पसीना था।

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