मत छितराओ | प्रेमशंकर मिश्र
मत छितराओ | प्रेमशंकर मिश्र
मत छितराओ इतना दर्द
कि राहें रुँध-रुँध जाए
कि राहें आँखों में बिंध जाए
तुमको छू कर
रोज धुआँ मुझको छूता है
फट जाता है
क्या बस इतना ही काफी है
कट जाता है?
मत उधिराओ इतनी गर्द
कि सूरज, कँध-कँध जाए
कि सूरज मौसम में सध जाए।
पत्ते-पत्ते पड़े चकत्ते
परत दर परत उड़े झरोखे
खुशगवार दक्खिनी हवा के
गुच्छे-गुच्छे धोखे-धोखे
मत कतराओ यों होकर बेदर्द
कि बाहें सध-सध जाए
कि बाहें नागों में बँध जाए।
मत छितराओ।