मर्यादा प्रेम में नहीं बैर में होनी चाहिए | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
मर्यादा प्रेम में नहीं बैर में होनी चाहिए | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

मर्यादा प्रेम में नहीं बैर में होनी चाहिए | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

मर्यादा प्रेम में नहीं बैर में होनी चाहिए | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

तुमने एक दिन धीरे से पूछा था – 
तुम्हारे प्यार में कोई मर्यादा है? 
मैं चुप रहा और तुम्हें देखता रहा 
तुमने हँसी के छींटे मार कर कहा – 
मर्यादा प्रेम में नहीं बैर में होनी चाहिए…

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मैंने नदी के किनारे तुम्हारे शब्दों को दोहराया – 
मर्यादा प्रेम में नहीं बैर में होनी चाहिए 
और सब तरफ देख कर अंकल जैसे पहाड़ की नजरें बचाईं 
बच्चों जैसे पेड़ों से कहा – झील के उस पार ऊँट देखो 
और तुम्हारे हाथों पर चुंबन ले लिए थे

तुमने आँखों से मुस्कुरा कर कहा 
तुम्हारे किस झील और पहाड़ ने देख लिए 
तुम चोरी भी नहीं कर पाते – सबने तुम्हारा प्यार देख लिया

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मैंने झील के सामने ही कहा – 
अब चलो इस मर्यादा को कही दूर रख आएँ 
कुछ घृणा करने और कुछ कराने वालों को दे दें 
ताकि उनको पता रहे घृणा में मर्यादा होती है

कुछ इस देश के हिंदू मुसलमानों में बाँट दें 
ताकि वे दुश्मनी करें तो मर्यादा में करें 
और झील पर प्यार करने वालों से कुछ न कहें

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