मंच और मचान | केदारनाथ सिंह
मंच और मचान | केदारनाथ सिंह

मंच और मचान | केदारनाथ सिंह

मंच और मचान | केदारनाथ सिंह

पत्तों की तरह बोलते
तने की तरह चुप
एक ठिंगने से चीनी भिक्खु थे वे
जिन्हें उस जनपद के लोग कहते थे
चीना बाबा

कब आए थे रामाभार स्तूप पर
यह कोई नहीं जानता था
पर जानना जरूरी भी नहीं था
उनके लिए तो बस इतना ही बहुत था
कि वहाँ स्तूप पर खड़ा है
चिड़ियों से जगरमगर एक युवा बरगद
बरगद पर मचान है
और मचान पर रहते हैं वे
जाने कितने समय से

अगर भूलता नहीं तो यह पिछली सदी के
पाँचवें दशक का कोई एक दिन था
जब सड़क की ओर से भोंपू की आवाज आई
‘भाइयो और बहनो,
प्रधानमंत्री आ रहे हैं स्तूप को देखने…’

प्रधानमंत्री!

खिल गए लोग
जैसे कुछ मिल गया हो सुबह सुब
पर कैसी विडंबना
कि वे जो लोग थे
सिर्फ नेहरू को जानते थे
प्रधानमंत्री को नहीं!

सो इस शब्द के अर्थ तक पहुँचने में
उन्हें काफी दिक्कत हुई
फिर भी सुर्ती मलते और बोलते बतियाते
पहुँच ही गए वे वहाँ तक

कहाँ तक?
यह कहना मुश्किल है

कहते हैं, प्रधानमंत्री आए
उन्होंने चारों ओर घूम कर देखा स्तूप को
फिर देखा बरगद को
जो खड़ा था स्तूप पर

पर न जाने क्यों
वे हो गए उदास
और कहते हैं, नेहरू अकसर
उदास हो जाते थे,
फिर जाते जाते एक अधिकारी को

पास बुलाया
कहा, देखो, उस बरगद को गौर से देखो
उसके बोझ से टूट कर
गिर सकता है स्तूप
इसलिए हुक्म है कि देशहित में
काट डालो बरगद
और बचा लो स्तूप को

यह राष्ट्र के भव्यतम मंच का आदेश था
जाने अनजाने एक मचान के विरुद्ध
इस तरह उस दिन एक अद्भुत घटना घटी
भारत के इतिहास में
कि मंच और मचान
यानी एक ही शब्द के लंबे इतिहास के
दोनों ओरछोर
अचानक आ गए आमने सामने

अगले दिन
सूर्य के घंटे की पहली चोट के साथ
स्तूप पर आ गए
बढ़ई
मजूर
इंजीनियर
कारीगर
आ गए लोग दूर दूर से

See also  मकर संक्रांति के दिवस का शीर्षक | ज्ञानेन्द्रपति

इधर अधिकारी परेशान
क्योंकि उन्हें पता था
खाली नहीं है बरगद
कि उस पर एक मचान है
और मचान भी खाली नहीं
क्योंकि उस पर रहता है एक आदमी
और खाली नहीं आदमी भी
क्योंकि वह जिंदा है
और बोल सकता है

क्या किया जाय?
हुक्म दिल्ली का
और समस्या जटिल
देर तक खड़े खड़े सोचते रहे वे
कि सहसा किसी एक ने
हाथ उठा प्रार्थना की,
चीना बाबा,
ओ…ओ चीना बाबा!
नीचे उतर आओ
बरगद काटा जाएगा
काटा जाएगा?
क्यों? लेकिन क्यों?
जैसे पत्तों से फूट कर जड़ों की आवाज आई

ऊपर का आदेश है
नीचे से उतर गया

‘तो सुनो,’ भिक्खु अपनी चीनी गमक वाली
हिंदी में बोला,
‘चाये काट डालो मुझी को
उतरूँगा नईं
ये मेरा घर है!’

भिक्खु की आवाज में
बरगद के पत्तों के दूध का बल था

अब अधिकारियों के सामने
एक विकट सवाल था – एकदम अभूतपूर्व
पेड़ है कि घर –
यह एक ऐसा सवाल था
जिस पर कानून चुप था
इस पर तो कविता भी चुप हैं
एक कविता प्रेमी अधिकारी ने
धीरे से टिप्पणी की

देर तक
दूर तक जब कुछ नहीं सूझा
तो अधिकारियों ने राज्य के उच्चतम
अधिकारी से संपर्क किया
और गहन छानबीन के बाद पाया गया,
मामला भिक्खु के चीवर सा
बरगद की लंबी बरोहों से उलझ गया है
हार कर पाछ कर अंततः तय हुआ
दिल्ली से पूछा जाय

और कहते हैं
दिल्ली को कुछ भी याद नहीं था
न हुक्म
न बरगद
न दिन
न तारीख
कुछ भी – कुछ भी याद ही नहीं था

पर जब परतदरपरत
इधर से बताई गई स्थिति की गंभीरता
और उधर लगा कि अब भिक्खु का घर
यानी वह युवा बरगद
कुल्हाड़े की धार से बस कुछ मिनट दूर है
तो खयाल है कि दिल्ली ने जल्दी जल्दी
दूत के जरिए बीजिंग से बात की
इस हल्की सी उम्मीद में कि शायद
कोई रास्ता निकल आए
एक कयास यह भी
कि बात शायद माओ की मेज तक गई

अब यह कितना सही है
कितना गलत
साक्ष्य नहीं कोई कि जाँच सकूँ इसे
पर मेरा मन कहता है काश यह सच हो
कि उस दिन
विश्व में पहली बार दो राष्ट्रों ने
एक पेड़ के बारे में बातचीत की

See also  घबराहट | अलेक्सांद्र ब्लोक

तो पाठकगण
यह रहा एक धुँधला सा प्रिंटआउट
उन लोगों की स्मृति का
जिन्हें मैंने खो दिया था बरसों पहले

और छपते छपते इतना और
कि हुक्म की तामील तो होनी ही थी
सो जैसे तैसे पुलिस के द्वारा
बरगद से नीचे उतारा गया भिक्खु को
और हाथ उठाए – मानो पूरे ब्रह्मांड में
चिल्लाता रहा वह,
‘घर है…ये…ये….मेरा घर है’

पर जो भी हो
अब मौके पर मौजूद टाँगों कुल्हाड़ों का
रास्ता साफ था
एक हल्का सा इशारा और ठक्‌…ठक्‌
गिरने लगे वे बरगद की जड़ पर
पहली चोट के बाद ऐसा लगा
जैसे लोहे ने झुक कर
पेड़ से कहा हो, ‘माफ करना भाई,

कुछ हुक्म ही ऐसा है’
और ठक्‌ ठक्‌ गिरने लगा उसी तरह
उधर फैलती जा रही थी हवा में
युवा बरगद के कटने की एक कच्ची गंध
और ‘नहीं…नहीं…’
कहीं से विरोध में आती थी एक बुढ़िया की आवाज
और अगली ठक्‌ के नीचे दब जाती थी
जाने कितनी चहचह
कितने पर
कितनी गाथाएँ
कितने जातक
दब जाते थे हर ठक्‌ के नीचे
चलता रहा वह विकट संगीत
जाने कितनी देर तक

कि अचानक
जड़ों के भीतर एक कड़क सी हुई
और लोगों ने देखा कि चीख न पुकार
बस झूमता झामता एक शाहाना अंदाज में
अरअरा कर गिर पड़ा समूचा बरगद
सिर्फ ‘घर’ वह शब्द
देर तक उसी तरह
टँगा रहा हवा में

तब से कितना समय बीता
मैंने कितने शहर नापे
कितने घर बदले
और हैरान हूँ मुझे लग गया इतना समय
इस सच तक पहुँचने में
कि उस तरह देखो
तो हुक्म कोई नहीं
पर घर जहाँ भी है
उसी तरह टँगा है

केदारनाथ सिंह की रचनाये

होंठ | केदारनाथ सिंह

होंठ | केदारनाथ सिंह होंठ | केदारनाथ सिंह हर सुबहहोंठों को चाहिए कोई एक नामयानी एक खूब लाल और गाढ़ा-सा शहदजो सिर्फ मनुष्य की देह से टपकता है कई बारदेह से अलगजीना चाहते हैं होंठवे थरथराना-छटपटाना चाहते हैंदेह से अलगफिर यह जानकरकि यह संभव नहींवे पी लेते हैं अपना सारा गुस्साऔर गुनगुनाने लगते हैंअपनी जगह…

सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह

सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह जड़ों की डगमग खड़ाऊँ पहनेवह सामने खड़ा थासिवान का प्रहरीजैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस -एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्षजिसके शीर्ष पर हिल रहेतीन-चार पत्ते कितना भव्य थाएक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी परमहज तीन-चार पत्तों का हिलना उस विकट सुखाड़ मेंसृष्टि पर पहरा…

सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए |केदारनाथ सिंह

सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए | केदारनाथ सिंह सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए | केदारनाथ सिंह भर लोदूध की धार कीधीमी-धीमी चोटेंदिये की लौ की पहली कँपकँपीआत्मा में भर लो भर लोएक झुकी हुई बूढ़ीनिगाह के सामनेमानस की पहली चौपाई का खुलनाऔर अंतिम दोहे कासुलगना भर लो…

सन ४७ को याद करते हुए | केदारनाथ सिंह

सन ४७ को याद करते हुए | केदारनाथ सिंह सन ४७ को याद करते हुए | केदारनाथ सिंह तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंहगेहुँए नूर मियाँठिगने नूर मियाँरामगढ़ बाजार से सुरमा बेच करसबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियाँक्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंहतुम्हें याद है मदरसाइमली का पेड़इमामबाड़ा तुम्हें याद…

सुई और तागे के बीच में | केदारनाथ सिंह

सुई और तागे के बीच में | केदारनाथ सिंह सुई और तागे के बीच में | केदारनाथ सिंह माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही हैपानी गिर नहीं रहापर गिर सकता है किसी भी समयमुझे बाहर जाना हैऔर माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है यह तय हैकि मैं बाहर जाऊँगा तो माँ…

Loading…

Something went wrong. Please refresh the page and/or try again.

Leave a comment

Leave a Reply