मन का पुरुष | प्रतिभा राय
मन का पुरुष | प्रतिभा राय

मन का पुरुष | प्रतिभा राय – Man Ka Purush

मन का पुरुष | प्रतिभा राय

पत्‍थर की दीवार-सा दोनों में प्‍यार था, ठोस – अभेद्य। प्‍यार – वह भी दांपत्‍य प्‍यार – दीर्घ, व्‍यापक। जिधर से भी देखो, बड़ा मजबूत, बड़ा दुरुस्त!

पति-पत्‍नी को जिसने भी देखा है, यही कहा है, ‘रेंड़ी का तेल, भेड़ का बाल।’

पैंतालीस साल का मधुर दांपत्‍य जीवन है। पति-पत्‍नी में कभी भी मुँह सूखा-सूखी नहीं। जब भी देखो, हँसी-खुशी, मौज-मस्‍ती, कुतूहल। पति निर्मल की ऊँची आवाज कभी किसी ने नहीं सुनी, जब भी सुना है खुशी, उल्‍लास, रहस्‍य और हर्षोल्‍लास भरा स्‍वर ही सुना है। गुस्‍सा, खीझ, गर्जन-तर्जन हो-हल्‍ला उनके संसार रूपी आसमान में अमावस का चाँद था। जब कभी भी ऊँची आवाज में पत्‍नी से कुछ कहते, वह बनावटी, प्रेम-भरा अभिनय होता।

कमला का पत्‍नी रूप जिसने देखा है, उसने सोचा है पत्‍नी नहीं, साक्षात सीता, सावित्री, दमयंती, लक्ष्‍मी, सरस्‍वती, पार्वती है। रूप, गुण सहनशीलता, नम्रता, अतिथि-सत्‍कार, पति-भक्ति, प्‍यार, स्‍नेह – भला किसमें उन जैसी नारी दिखाई देती है! तकदीर है – तकदीर के सिवा और क्‍या हो सकता है? कभी-कभी पति निर्मल भी पत्‍नी के एकाग्र प्रेम से गले तक छककर मुँह खोलकर कह डालते, ‘औरत का जीवन मिला है, तुममें गुस्‍सा, अहंकार, अभिमान, ईर्ष्‍या, द्वेष कुछ भी तो नहीं! कभी-कभी मुझे संदेह होता है, वाकई तुम ‘औरत’ हो या नहीं, जी!’

गोधूलि आसमान-सा चेहरे पर आँखों में प्रेम का रंग बिखेरकर, होठों पर हँसी का अमृत लगा कमला कहती, ‘किस पर गुस्‍सा करूँ? किससे ईर्ष्‍या करूँ? किससे वाद-विवाद करूँ? तुमसे? तुम क्‍या पराये हो! यदि तुमसे ही वाद-विवाद करूँगी तो फिर… आखिर जीना तो तुम्‍हारे ही साथ है, मरूँगी तो तुम्‍हारी ही गोद में सिर रखकर…!’

इस मरने के प्रसंग को लेकर पति-पत्‍नी में सचमुच ही खींचा-तानी शुरू हो जाती। कौन पहले मरेगा, कौन बाद में मरेगा, इस बात का समाधान नहीं हो पाता। निर्मल कहते, ‘तुम्‍हारी मौत मैं सह नहीं सकता, मैं पहले मरूँगा, हाँ… मैं ही पहले मरूँगा…’

‘और मैं सह लूँगी वह दुख। पति होकर कितना भला चाह रहे हो मेरा? जान गयी तुममें कितना प्‍यार है। सब स्‍वार्थ है, निजी स्‍वार्थ….’ कमला का गला रुँध जाता।

माँ के झूठमूठ का ‘उँ उँ’ करके रोने पर चंचल लड़का जिस तरह अपनी जिद छोड़कर कहता है, ‘नहीं-नहीं, अब ऐसा नहीं करूँगा,’ ठीक उसी तरह निर्मल सहम जाते कमला का करुण दर्द थम-थम चेहरा और दुर-दुर बरसने का इंतजार करती दोनों आँखों को देख। वे सुधरे हुए बच्‍चे सा कहते, ‘नहीं-नहीं,तुम पहले मरोगी। भले ही मुझे जितना दुख होगा हो, तुम्‍हें विदा करके ही मैं जाऊँगा। मेरे बाद तुम्‍हारे दिल की बात कौन समझेगा? तुमने जीते-जी मुझे कोई दुख नहीं दिया, पहले मरकर मैं तुम्‍हें विधवा का दुख नहीं दे सकता कमला, यह बात तय है। पर तुम्‍हारे बाद मेरी गाड़ी ज्‍यादा दिन नहीं खिंचेगी – जब तक जिंदा रहूँगा, नरक ही भोगता रहूँगा। तुम्‍हारे सिवा इस दुनिया में मेरा मन समझने वाला इंसान और कोई नहीं जन्‍मा, न ही जन्‍मेगा…!’

अब सधवा होकर मरने के सुख के गर्व से उल्‍लसित होने के बजाय पलकों पर रोके हुए दो बूँद आँसुओं को गालों पर छोड़ते हुए कमला कहतीं, ‘वाकई मेरे बाद तुम कैसे रहोगे… कौन सँभालेगा तुम्‍हें… हे भगवान! इनके बगैर जीने में जितना दुख है, इन्‍हें छोड़कर मरने में उससे कम दुख नहीं! मैं क्‍या करूँ…!’

कमला को दिलासा देते हुए निर्मल कहते, ‘हम एक साथ मरेंगे कमला, एक ही चिता में लेटेंगे। मेरा मन कहता है कि इससे भिन्‍न नहीं होगा। तुम घबराओ मत… तुम्‍हारी याद मुझे नहीं करनी पड़ेगी, ना ही मेरी याद तुम्‍हें।’

कुछ क्षण दोनों एक-दूसरे को देखते रहते – फाँय से हँस देते एक साथ। अपनी बचकानी हरकत के लिए दोनों खुद ही शरमा जाते। मानो यमराज ने उनकी जागीर खायी हो, जो दोनों को एक साथ बाँध ले जाएँगे!

उम्र बढ़ने के साथ-साथ अब मरने की बात कोई नहीं उठाता। पर अंदर ही अंदर मन में खटका बढ़ता रहता – किसे किसका दुख सहने के लिए विधाता दिमाग दौड़ा रहा है, कौन जाने!

बच्‍चे बड़े-बड़े हो जाने पर भी पति-पत्‍नी ने अंतरंगता, प्‍यार में कोई आड़ नहीं की। अपनी उम्र के कई अन्‍य दंपतियों की तरह लोगों को दिखाने के लिए सांसारिक वैराग्‍य नहीं अपनाया। जवानी और बुढ़ापे के बीच दांपत्‍य प्रेम का कम-ज्‍यादा होना उन्‍होंने महसूस नहीं किया। बल्कि दोनों ने महसूस किया है कि गरमी के दिनों का कुआँ ऊपर से खुद-ब-खुद गहरा दिखने-सा उम्र बढ़ने के साथ-साथ प्‍यार और गहरा हुआ है, आपस की समझ गाढ़े औंटे दूध की तरह खाँटी हुई है। किसी एक की भूल के लिए दूसरे के दिल में कितना तर्क-प्रमाण जुट जाता है। बच्‍चे माँ या बाप की गलती भूले-भटके पकड़ लें, तो एक दूसरे को बचाने के लिए दोनों एक साथ झपट पड़ते बच्‍चों पर। सांध्य आकाश में अँधेरा गहरा जाने पर टिमटिम धुँधला तारा बड़ा दिखने की तरह, एक के जीवन-भर का त्‍याग, समर्पण, दायित्‍व, कर्तव्‍य और निष्‍ठा, दूसरे को बड़ा होकर दिखाई दिये हैं।

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पोते-पोती ठुकुर-ठुकुर चलने लगे हैं, फिर भी पति-पत्‍नी का बिस्‍तर अलग नहीं हुआ है। कभी-कभी निर्मल चुटकी लेते हुए कहते, ‘हमारी उम्र के बूढ़े-बुढ़िया अलग-अलग कमरे में सोने लगे हैं। बाहर कमरे में बूढ़े का बिस्‍तर और पोते-पोती को लेकर अंदर कमरे में बुढ़िया का बिस्‍तर लगने लगा है। एक तरह से अच्‍छा ही है। बिछड़ने से पहले आदत पड़ चुकी होगी, फिर ज्‍यादा कष्‍ट नहीं होगा। क्‍यों हैं न? इसके अलावा बहुएँ सोचती होंगी, बुढ़िया इस उम्र में ससुर जी को पल-भर नहीं छोड़ती, जब उम्र रही होगी तब ससुर के साथ दफ्तर भी जाती होगी…!’ निर्मल हँसने लगते।

कमला गंभीर हो कहतीं, ‘अपनी बचकानी बुद्धि से वे लोग जो कुछ कहते हैं, कहें। उम्र होने पर खुद ही समझेंगे पति-पत्‍नी के प्‍यार में, उठने-बैठने में जवानी-बुढ़ापे का सवाल नहीं है। शारीरिक संबंध ही पति-पत्‍नी का असली संबंध नहीं है। इन चमड़े से ढकी हड्डियों में भला अब कितनी चंचलता है। लेकिन हड्डियों के साँचे में अनुभव नामक जो एक अदृश्‍य दर्द है, वह तो जैसा था वैसा ही है। तुम अकेले क्यों सोओगे, आधी रात को प्‍यास लगेगी, शरीर में दर्द होगा, सिर-पैर में फटकन मचेगी, अकेला-अकेला लगेगा, कौन पूछेगा यह सब? तुम तो आज तक गोद के बच्‍चे की तरह आधी रात को बड़बड़ाते हो – बदन में हाथ लगाकर हिलाने पर करवट बदलकर सो जाते हो। जीने को जो भी चंद दिन बचे हैं, इसी तरह तुम्‍हारी देखभाल करती रहूँगी। आँखें मुँद जाने पर क्‍या होगा, कौन आयेगा देखने! मुझे तो रह-रहकर तुम्‍हारी ही चिंता सताती है…।’

वाकई मृत्‍युशय्या पर पड़ी कमला बेटी-बेटा, पोते-पोती की चिंता से परेशान नहीं हुईं। उनके बाद निर्मल जितने दिनों तक जियेंगे, उनके दिन कैसे अच्‍छी तरह कटेंगे, बस इसी चिंता से दुबली हो गयी हैं। कमला के अनुभवी हृदय ने समझा है – उनके वियोग के शोक से पुत्र, कन्‍या को कष्‍ट होगा, यह सच है, लेकिन असमय बादल की तरह एक-दो बार बरसकर थम जायेगा। आसमान में भिन्‍न-भिन्‍न ऋतुओं के प्रकाश, अंधकार, मौसमी प्रवाह के खेलों के बीच शोक के प्रवहमान बादल स्‍वाभाविक रूप से छँट जाएँगे। किंतु निर्मल के आकाश में बुढ़ापे और कमला की मृत्‍यु – शोक की ऋतुओं के सिवा अन्‍य ऋतु-प्रवाह की हवा, ठंड, ओस, मलय नहीं आयेगी। इसलिए वे शोक भूलकर सहज मनुष्‍य की तरह जी लेंगे, कमला को विश्‍वास नहीं होता।

मौत से जूझते हुए भी कमला पति को गोद के बच्‍चे की तरह सँभालती थीं। उन्‍हें अपने मरने का दुख नहीं था, अपनी अनुपस्थिति में पति की हालत क्‍या होगी, उस दुख को वे मृत्‍यु की पीड़ा के साथ मिलाकर अविरत छटपटाती थीं। हर वक्‍त बेटे, बहू, बेटी, पोते, पोती को समझाती थीं, ‘पिताजी का हालचाल पूछते रहना, उन्‍हें दुख मत देना। जिंदगी-भर वे नहीं जान पाए कि दुख, लापरवाही क्‍या है। इस उम्र में सहसा जरा-सी भी लापरवाही का अहसास होने पर उन्‍हें बहुत दुख होगा। कष्‍ट और पीड़ा से बहुत डरते हैं तुम्‍हारे पिताजी। मैंने तुम लोगों की जितनी देखभाल की है, तुम्‍हारे पिता की उससे अधिक देखभाल की है जीवन-भर। मेरे बाद कहीं उन्‍हें मेरा अभाव न खटके…।’

जिंदगी की अंतिम घड़ी में कमला अपने बड़े बेटे का हाथ अपनी हथेली में लेकर अति करुण रूप से रुकते-रुकते स्‍वर में विनती कर रही थीं, ‘बेटे… पिताजी का खयाल रखना…।’

कमला की मृत्‍यु स्‍वाभाविक थी – प्राप्‍त आयु में भरा-पूरा संसार फैलाकर वे चली गयीं। दुनिया का यह निष्ठुर नियम एक न एक दिन सबको मान लेना होता है, सगे-संबंधियों को यह धक्‍का सहना पड़ता है, सँभालना पड़ता है। लेकिन निर्मल बिल्‍कुल नासमझ बच्‍चे की तरह पागल से ही गये पत्‍नी शोक में। जीवन-भर पान से लेकर चश्‍मा ढूँढ़ने तक, दवा से लेकर सुश्रूषा तक सबके लिए वे ‘कमल’, ‘कमला’ नाम जपते थे। कमला के मरने के बाद वे ‘कमला’ नाम का जाप और अधिक करने लगे। कमला ऐसे खाना पकाती थी, ऐसे परोसती थी, ऐसे बिस्‍तर लगाती थी, ऐसे पैर दबाती थी, ऐसे हँसती थी, बैठती थी, बातें किया करती थी, इत्‍यादि जपने लगे। सबके हर काम में वे कमला का प्रसंग छेड़कर तुलना करने लग जाते। बेटा, बहू, पोता-पोती, कमला के काम करने के तरीके का अनुकरण करके पिताजी के मन से माँ का शोक कम करने की जितनी भी कोशिश करते, निर्मल शोक का बोझ उतना ही सीने से चिपका लेते थे। बहुएँ हर काम खूब सँभालकर सावधानीपूर्वक करतीं, फिर भी निर्मल उनके काम की तुलना कमला से करते तो बहुएँ हार जाती थीं, ‘तुम्‍हारी सास के हाथ जैसा नहीं बन पाया खाना, उनका पैर दबाना बिल्‍कुल न्‍यारा था, तुम लोगों का हाथ वैसा नहीं है,’ इत्‍यादि-इत्‍यादि बकर-बकर करते रहते दिन-भर। खाना-पीना, सोना-उठना सब बिगड़ गया था। कमला के बिस्‍तर लगा देने पर उन्‍हें जैसी नींद आती थी, वैसी नींद भी अब कहाँ!

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कमला की चूड़ियाँ, चश्‍मा, साड़ी, ब्‍लाउज, पेन, कंघी, सिंदूर – काम में आने वाली तमाम चीजों को रोजाना हाथ लगा-लगाकर छुआ करते थे निर्मल। पोंछ-पाँछकर करीने से रखते थे। मानो वे कमला को छू रहे हों, उनके होने का अहसास कर रहे हों हर चीज में।

बुढ़ऊ दिन-प्रतिदिन कमजोर होने लगे। जिस दिन से कमला मरी हैं, उनके चेहरे पर किसी ने मुस्‍कुराहट नहीं देखी – कमला-प्रसंग के सिवा अन्‍य कोई बात किसी ने उनसे नहीं सुनी। पत्‍नी-शोक से जर्जर निर्मल खुद मृत्‍यु-यंत्रणा भोग ही रहे थे, बेटे-बहू अन्‍य सभी को अशेष यंत्रणा में डाल रहे थे। सुबह से शाम तक कमला के गुणों का बखान कर-करके बेटे-बहू सगे-संबंधियों को खिझा देते थे। कोई मित्र आकर यदि निर्मल का पत्‍नी-शोक कम करने के लिए कमला के अलावा कोई दूसरा प्रसंग छेड़कर उनका मनोरंजन करने का प्रयास करता तो निर्मल किसी-न-किसी बात की लीक पकड़कर कमला तक पहुँच जाते थे। अंत में कमला के बारे में सुनते-सुनते वे मित्र उकताकर लौट जाने को बाध्‍य होते।

निर्मल का अगाध पत्‍नी-प्रेम सबको मालूम था, परंतु वह प्रेम उनके जीवन के अंतिम हिस्से को इतना यंत्रणामय कर देगा, यह बात किसी ने सोची तक नहीं थी। मानो निर्मल के सारे जीवन का सुख आज अभिशाप में बदल चुका है।

कमला को मरे तीन महीने हो चुके हैं। अब निर्मल कमला का बक्‍सा झाड़-झूड़कर उनके कपड़े, सोना-गहना सब सजा-सँभालकर रखते हैं। मानो कमला मायके गयी हैं, लौट आयेंगी। कमला के पूरे जीवन के दौरान निर्मल ने कभी भी कमला की निजी चीजों पर कोई अधिकार नहीं जताया। सब कुछ छोड़ दिया था कमला पर। कमला के शोक, आनंद, रुचि पर निर्मल की कोई बंदिश नहीं थी। कमला की जमा-पूँजी से भी निर्मल का कोई सरोकार नहीं था। वे जानते थे कि कमला कभी फिजूलखर्च नहीं थीं, न ही कंजूस थीं। ‘रुपया-रुपया’ की रट लगाकर किसी भी दिन निर्मल के जीवन को असह्य नहीं किया था। यदि कभी निर्मल मजाक में कहते, ‘तुम तो दूसरी औरतों की तरह कुछ बचा-बचाकर जमा तो कर नहीं रही हो… मेरे मरने के बाद क्‍या करोगी?’ कमला महज दर्द भरी निगाह से पति की ओर सिर्फ ताकती रहतीं, जिसका अर्थ होता – ‘तुम्‍हारे बाद मेरा जीवन भी कोई होगा, जो पैसे जमा करके रखूँगी!’

एक दिन कमला की बकसिया (छोटा बकसा) खोलकर यों ही सजाते-सजाते निर्मल एकाएक फफक-फफककर रोने लगे। बहू-बेटे घबराकर दौड़े। रुपयों की एक थैली पकड़े वृद्ध निर्मल हृदयविदारक आँसू बहा रहे थे। बेटे के हाथ में वह थैली पकड़ाते हुए बोले, ‘देख, तेरी माँ का काम – इसके सहारे भला मैं उसके बगैर जी सकूँगा!’

बेटे ने थैली खोलकर देखा – रुपयों के साथ एक कागज भी था। उस पर कमला के हाथ से लिखे अक्षर – ‘तुम्‍हारा स्‍वभाव मैं जानती हूँ। मेरे बाद तुम बेटे-बहू से पाँच रुपये तक नहीं माँगोगे। इसीलिए सारा जीवन अपने ही खर्च से बचाकर इतने छोड़े जा रही हूँ।’ रुपया देखकर बेटे-बहू अवाक थे। इतने रुपये इकट्ठा करने के लिए माँ ने जीवन-भर कितना त्‍याग नहीं किया होगा।

उसके बाद निर्मल को दिन काटने की चीज मिल गयी थी। कमला के हाथ से लिखी एक कॉपी। इधर-उधर की तमाम बातें कमला ने उसमें लिखी थीं। नियत रूप से तारीख, माह वर्ष के अनुसार लिखी न होने पर भी वह कमला की डायरी कही जा सकती है। विवाह के बाद से लेकर मरने तक जीवन की खास-खास घटनाएँ बना-सनाकर कमला निस्‍संकोच, निर्भीक रूप से लिख गयी हैं। बच्‍चों का जन्‍म, उनका लालन-पालन, शिक्षा, विवाह, पोते-पोतियों का जन्‍म इत्‍यादि कुछ भी नहीं छोड़ा था। कहा जाए तो निर्मल के वंश का इतिहास लिख गयी हैं कमला। उनके दांपत्‍य जीवन की अनेक बातें, अनेक कष्‍ट, अनेक घटनाएँ, दुर्घटनाएँ, सुख-दुख का विश्‍लेषण कर गयी हैं। ऐसी अनेक घटनाएँ कमला लिख गयी हैं जिसके बारे में निर्मल को कभी पता तक नहीं चल सका, पता चलने ही नहीं दिया कमला ने। अनेक जटिल पारिवारिक समस्‍याएँ पति को बताये बगैर स्‍वयं ही उनका समाधान कर गयी हैं। चार-चार बच्‍चे पैदा करने से लेकर उन सबके विवाह तक न जाने कितनी समस्‍याओं का सामना करना पड़ा है कमला को। उनमें से अनेक घटनाएँ निर्मल तक नहीं पहुँची हैं। ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जिनमें निर्मल के पितृहृदय को ठेस पहुँचती, रक्‍तचाप बढ़ जाता, हृदय-यंत्र को बिगाड़ जातीं, परंतु कमला सारी बातें अपने आँचल में छुपाकर भले ही खुद उस आग से झुलसी हों, लेकिन पति को उस आग की आँच तक लगने नहीं दी।

एक जगह कमला ने लिखा है – ‘पुरुष दुनिया का सारा बोझ सँभालते हैं, आर्थिक संकट से लेकर गंभीर पारिवारिक समस्‍या के समाधान की दिशा में दिमागी बोझ के कारण अकाल ही रक्‍तचाप, हृदय-रोग, मधुमेह जैसी बीमारियों का शिकार होते हैं। हमारे देश की पत्नियाँ आश्रित बेल की तरह पति के सहारे महज जिंदा ही नहीं रहतीं, तमाम पारिवारिक समस्‍याओं को और बढ़ाकर पतियों का खून चूसती हैं, सिर्फ बच्‍चे पैदा करना और खाना बनाने के सिवा अन्‍य कोई महत्‍वपूर्ण काम उनकी जिम्‍मेदारी के दायरे में नहीं है, यही उनका सोचना है। पति के आर्थिक संकट में तो सहायक होतीं नहीं, मानसिक तनाव में भी भागीदार नहीं होतीं। हमारे देश के सांसारिक पुरुष तरह-तरह से पिस रहे हैं, पीड़ित हो रहे हैं – सबकुछ होते हुए भी दिवालिया हैं, सगे-संबंधियों के बावजूद अकेले हैं…। मैं अपने पति को ऐसे दुख में नहीं डालना चाहती…।’

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डायरी पढ़ते हुए वृद्ध की कोटरगत आँखों से झर-झर आँसू झर रहे थे। डायरी नहीं, पति को समर्पित एक आदर्श नारी का जीवन-ग्रंथ है। निर्मल एक-एक करके बार-बार पढ़ते पन्‍नों को। उनकी जिंदगी में घटी अनेक अदृश्‍य घटनाएँ उन्‍हें नये रूप में दिख रही थीं, कमला धीरे-धीरे ‘देवी’ बनती जातीं और वृद्ध निर्मल का पत्‍नी-शोक दिन-प्रतिदिन नियंत्रण से बाहर होता जाता। निर्मल शोक भरे स्‍वर में सबसे कहते, ‘कमला इंसान नहीं थी, देवी थी। शाप पाकर मर्त्‍यलोक में जन्‍मी थी। वह स्‍वर्ग चली गयी। मैं उसके लिए आँसू बहाऊँ, क्‍या मैं वाकई उसके योग्‍य था!’ निर्मल रात-दिन डायरी लिये हुए इधर-उधर पन्‍ना पलटकर मन लगाकर पढ़ते थे। अब किसी पर नाराज नहीं होते थे। रात बीतने पर अब कमला-कथा नहीं सुनाते। गीता भागवत की तरह कमला की डायरी उन्‍हें पूरी तरह सराबोर करके रखती थी। बेटे-बहू, सगे संबंधी कहते, ‘अच्‍छा हुआ, खूब अच्‍छा हुआ। कमला को इंसान से ‘देवी’ के आसन पर बिठाकर सही, निर्मल एक तरह से अभिभूत हालत में रहते हैं। बाकी के दिन भी इसी तरह बीत जाएँ तो अच्‍छा है। काश, इस डायरी के पन्‍ने कभी खत्‍म न होते!’

लेकिन एक दिन सहसा कमला की डायरी का अंतिम पृष्‍ठ आ गया, कमला के मरने के कुछ ही दिन पहले लिखा गया था। अंतिम पृष्‍ठ पढ़ने के बाद निर्मल के भाव, भंगिमा, भाषा, व्‍यवहार, शोक का हाव-भाव, कहा जाए तो संपूर्ण व्‍यक्तित्‍व ही बदल गया। उन्‍होंने वह डायरी दूर फेंक दी, कमला की रोजमर्रा के प्रयोग में आने वाली चीजें, जो उन्‍होंने यादों का सहारा समझ सजा-सँवारकर रखी थीं, तोड़-फोड़कर इधर-उधर बिखेर दीं, कमला की तस्‍वीर फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दी! चिल्‍लाते हुए बोलने लगे, ‘सब झूठ है, सब माया है – पत्‍नी, बच्‍चे, परिवार, स्‍नेह, प्रेम, सारे रिश्‍ते दिखावा हैं, नाटक हैं, मनुष्‍य क्‍यों उस झूठी माया में उलझकर इतना कष्‍ट भोगता है… दिखावे को सच समझकर इस तरह रटता रहता है? …वाकई मैं कितना नासमझ और मूर्ख हूँ! नाहक ही जिंदगी के बाकी दिनों की हत्या करनेवाला था। मैं किसी का पति नहीं, मेरी कोई पत्‍नी नहीं, मैं अकेला हूँ, अकेला आया हूँ, अकेला जाऊँगा, छिः कमला! मैं तुमसे घृणा करता हूँ, सारी जिंदगी मुझे एक भेड़ बनाये रखकर अभिनय करके चली गयीं! आज से तुम मेरी कुछ नहीं हो, अब से मैं हँसूँगा, खुशियाँ मनाऊँगा, बाकी की जिंदगी स्‍वतंत्र आदमी बनकर जीऊँगा…।’

निर्मल हँसे, प्रफुल्लित हुए – पोते-पोतियों, बहू-बेटियों के साथ आनंद, खुशी मनाकर घर को सिर पर उठा लिया। कमला की बात छिड़ते ही खीझ उठते। कहते, ‘जो मर गया सो गया – भला उसे याद कर-करके सब क्‍यों सरें?’ निर्मल की इस तरह की चपल प्रगल्‍भता एक और खतरा बन गयी थी।

बेटे-बहू ने सहमते हुए डायरी उठाकर उसका अंतिम पृष्‍ठ पढ़ा। कमला ने लिखा था, ‘मेरे पति जैसा सरल, निर्मोही, अच्‍छा इंसान आजकल पाना मुश्किल है। उन्‍होंने मुझ पर दुनिया भर की सुख सुविधाएँ उँड़ेल दीं। अपनी क्षमता के मुताबिक उन्‍होंने मुझे क्‍या कुछ नहीं दिया। फिर भी अगले जन्‍म में मैं उन्‍हें पति के रूप में नहीं पाना चाहती, बेटे के रूप में पाना चाहती हूँ। जिंदगी-भर मैं उन्‍हें संतान का स्‍नेह ही देती आयी हूँ और उसी से वे पूरी तरह संतुष्‍ट हैं। उनमें कोई कमी नहीं है। पर सब कुछ पाने के बावजूद कुछ भी न पाए होने की व्‍यथा अंदर से बार-बार मेरे मन को कचोटती है… क्‍योंकि मेरे पति सब कुछ थे… पर वे मेरे कल्‍पना के आदमी, मेरे मन के पुरुष नहीं थे…।’

शायद निर्मल के कोई मित्र आये हुए हैं। उस कमरे से निर्मल की उत्ताल हँसी-मजाक का स्‍वर बहू-बेटों के कानों में हृदय-विदारक पीड़ा के आर्तनाद की तरह सुनाई दे रहा था।

कमला के जीवन के अंतिम पृष्‍ठ ने निर्मल के बाकी जीवन को सुख में डुबोया था या उनके सारे जीवन के सुख को शोक में बदल दिया था – यह बात दुनियादारी से बेखबर बहू-बेटों के दिमाग में घुस नहीं पा रही थी।

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