मैं भी जाऊँगा | गंगा प्रसाद विमल
मैं भी जाऊँगा | गंगा प्रसाद विमल

मैं भी जाऊँगा | गंगा प्रसाद विमल – Main Bhi Jaunga

मैं भी जाऊँगा | गंगा प्रसाद विमल

अनेक आधी-अधूरी कथाएँ इधर-उधर कागजों में बिखरी पड़ी हैं। कभी उन्हें लिखने का मन बना तो कुछ और पन्ने जुड़ गए वरना कभी किसी न किसी वजह से वे वहीं छूट गईं। उनके मुख्य चरित्र कहाँ बिला गए नहीं पता। पर इधर वर्षों बाद उस जिस आदमी को मैं मुकम्मल कहानी समझता था, वह भी एक-दो बार पन्नों पर उतरा था। फिर कहानी आगे बढ़ ही नहीं पाई। फिर वह स्मृति से उतर विस्मृति के घटाटोप में विलीन हो गया। वही आदमी, समूचा वही आदमी उस जगह अवतरित हो गया जहाँ मैं अपने जैसे बूढ़ों के बीच जवानी की गप्पों में मस्त रहता था।

वही आदमी। आपने न देखा होगा। अरे! वैसा ही जवान जैसे वह विलुप्त होते वक्त था। ठीक वैसे ही उसके बाल। ठीक वैसा ही चेहरा। मुश्किल पहचानने में जरा भी न हुई। यहाँ तक कि उसके कपड़े भी वैसे ही थे, सलीकेदार, ठीक ढंग के रंग-रोगनवाले। मैंने अपने हाथों को देखा, वे एकदम मुरझाए हुए। रक्तविहीन सफेद। मैंने हाथ से ही तुलना कर डाली इसलिए पाठक थोड़ा अटकेंगे। सोचेंगे क्या बात हुई? अरे भाई सीधे उस आदमी पर आओ। उसके जीवन की कोई चटपटी चीज सुनाओ। आप तुलना करने लगे!

हुआ यह कि उसने भी मुझे देखा। वह चकित लग रहा था। उसे उम्मीद नहीं थी कि मुझमें इतना बदलाव आ जाएगा। फिर भी उसी ने हिम्मत की। मेरी ओर बढ़ा, अभिवादन किया। और बातचीत में पहल करने के बहाने बोला, ‘तो आप… आप ही न हैं?’

मैं झेंपा। शायद इसे झेंप ही कहेंगे। तुलनात्मक रूप से वह ज्यादा प्रभावशाली लग रहा था। एक प्रभावशाली आदमी की तरफ सब खिंचते हैं। यह बात मैं पहले से गौर करता आ रहा था कि अब वे नए लोग जो किसी काम की वजह हमेशा इर्द-गिर्द मँडराते और चापलूसीभरी शब्दावली में मीठी-मीठी बातें करते अब या तो तारिकाओंवाले पन्ने पलटते रहते या ऐसे लोगों के गिर्द रहते जिनसे कुछ हासिल होनेवाला था। माफ करें इस बड़े शहर में मैंने तहसील स्तर की एकजुटता की भीड़ देख कर कहा था, जल्दी ही ऐसी नजरवालों का रुतबा बढ़नेवाला है जो अपनी तहसील को ही दुनिया समझते हैं। उनके पुरातत्त्व का महत्वपूर्ण ज्ञान उन्हीं के मुहल्ले-टोलों को मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से पुराना साबित करने की जुगत में भिड़ा रहता। असल में ये लोग बड़े लोगों के गिर्द मँडरा कर, उनके नामों की बैसाखियों के सहारे कुछ दिन चल कर अपना गंतव्य पा लेते हैं तो फिर बदलने में भी देर नहीं लगाते। मेरे एक मित्र का कहना है कि पहले ये जो साइकल रिक्शा खींचते थे कुछ दिन बाद मारुति में ठसके से चलते हैं। मैं उन्हें कहता कि भाई, ऐसे लोगों को तो मैं आदर्श समझता हूँ। ये स्वयं ही कुछ बन जाते हैं। मेरे दोस्त मुस्कुराते, कहते, इन्हें समझना थोड़ा कठिन है। चालाकी और काँइयाँपन में इनका कोई मुकाबला नहीं है। आज ये कम्युनिस्ट हैं तो कल कम्यूनलिस्ट होते इन्हें देर न लगेगी।

और इधर इस प्रवृत्ति से भिन्न यह आदमी जिसका मैं कुछ भला नहीं कर सकता था मेरी तरफ खिंचा और मुझसे सवाल कर रहा कि मैं मैं ही हूँ या कोई दूसरा आदमी। जो बूढ़े आदमियों की समान काठी में आ घुसा हो।

वर्मा, शर्मा, तिवारी, सिंह… अरे कुछ भी तो कह सकता था वह। पर इधर बढ़ती भीड़ में अब संज्ञाओं के इन नाम रूपों का महत्व खत्म हो गया था। अब अगर कोयले की दलाली या कुत्तों की खाल के व्यापार से आप अरबपति बन गए हों तो आप राय साहबों या पद्म पुरस्कारों से सज्जित संज्ञाओं से ज्यादा बड़े हैं। बशर्ते रुपए-पैसे के मामले में आप समझदार हों।

तो वह आदमी मुझसे पूछ रहा था कि सत्यापित करो कि तुम तुम ही हो। मुझे चुहल सूझ सकती थी। पर मैं उस रहस्य को जानना चाहा था कि उसके वर्तमान रूप का राज क्या है?

‘छोड़िए भी सवाल-जवाब।’ उसने बातों को मोड़ देना शुरू किया, ‘आप आजकल क्या कर रहे हैं?’

‘बस रिटायर हो चुका हूँ।’

‘वह तो आपके चेहरे को देखते ही मैं समझ गया था।’

‘और आप क्या कर रहे हो?’

‘मैं… मैं ज्यादातर विदेश में रहता हूँ। मैं भी लिखने-पढ़ने का ही काम कर रहा हूँ।’

‘तो भारत में कितने दिन रहेंगे?’

‘कुछ भी तय नहीं है।’

‘अचानक ही जाना पड़ेगा क्या?’ मैंने पूछा।

‘कुछ-कुछ वैसा ही। अब दुनिया बदल गई है। माफिक जगह पहुँच कर आप मुक्त हो जाते हैं। और फिर जैसी दुनियावी तस्वीर होती है वैसा ही करने लगते हैं।’

‘दिलचस्प।’ मेरे मुँह से निकला, ‘बड़ी विचित्र बात है।’ मैंने प्रस्ताव दिया, ‘आओ चाय पीते हैं।’ और उसके उत्तर के इंतजार से पहले पास की सीट पर बैठ गया।

‘जरूर-जरूर!’

‘कोई जल्दी तो नहीं है न?’ मैं आश्वस्त होना चाहता था ताकि उनके साथ काफी वक्त बिता कर जानकारियों से वाकिफ हो लूँ।’

‘बिल्कुल निश्चिंत रहें।’ वह कहते-कहते मुस्काया। ‘हिंदुस्तान में …’ उसने बातचीत को झटके से विराम दे डाला।…

‘क्या दीखा… क्या दीखा आपको हिंदुस्तान में?’

‘बस कुछ नहीं। एक लंबी फुर्सत। लोग फुर्सत में हैं। जो कुछ होगा वह पश्चिम से ही आएगा। यह अगर आप गौर करें तो एक तरह का ब्राह्मणवाद है। ब्राह्मणों ने यह व्यवस्था पहले से की हुई है। जो कुछ होगा ऊपरवाला करेगा परंतु यह कहते हुए भी वह अपनी दक्षिणा झपोर लेगा।’

‘फुर्सत में और दक्षिणा …’ मैंने कहा, ‘अब जजमान लोग इतने मूर्ख नहीं रह गए। सब कुछ ठोंक-बजा कर देखते हैं न?’

‘भई यही है न पश्चिम का असर!’ वह मुस्कुराते हुए बोला, ‘वहाँ सब ठोंक-बजा कर देखते हैं। पहले गारंटी दो फिर माल लेंगे।’ उसने जेब से एक छोटी-सी डिब्बी जैसी चीज निकाली, ‘अब मैं सारा दफ्तर इसी डिब्बी से यहाँ से चलाता हूँ।’ उसने डिब्बी खोली तो मोबाइल टेलीफोन से थोड़ा चौड़ा-सा कुछेक इंच भर मोटा सपाट-सा यंत्र निकला।

‘यह क्या है?’

‘बस एक यंत्र।’

‘पर किस उपयोग के लिए?’

‘कहा न, मैं अपना सारा दफ्तर इसी से चलाता हूँ। कहीं से भी यह मुझे सूचनाएँ देता है।’

‘यहाँ, इस जगह आवाजवाली चीज का प्रचलन नहीं हो सकता। यहाँ तो हम मोबाइल का इस्तेमाल भी नहीं करते।’

‘मैं यह नियम जानता हूँ। हमारे देश में यानी जहाँ मैं अब रहता हूँ कई जगह पाबंदियाँ हैं।’

‘यहाँ पर कुछ पढ़ तो सकते हैं पर बोल नहीं सकते।’

‘मुझे मालूम है। मालूम है।’

‘पर इस यंत्र में बोलने की जरूरत नहीं पड़ती, जो कुछ बोला जा रहा हो कहीं भी वह लिख कर आ जाता है।’

‘क्या मतलब?’

‘यही न कि यह यंत्र बोले को लिपिबद्ध कर देता है और इसी के बाहर के मानीटर पर छाप देता है। हुआ न आसान? आप चाहें तो बस अपने हाथ के स्पर्श से या किसी भी नुकीली चीज से लिख कर वह तत्काल दूसरी पार्टी को भेज सकते हैं। फिर बोलने की जरूरत ही कहाँ पड़ी?’

‘चमत्कार!’

‘बस यंत्र है। मशीन का चमत्कार!’

‘हर लिपि में लिखता है क्या?’

‘हाँ।’

‘यह तो बहुत काम की चीज है।’

‘इसीलिए तो पश्चिम के लोग तरक्की कर रहे हैं। अब करोड़ों लोगों के लिए यह यंत्र सुलभ होगा। देखो न वे कितने होशियार हैं। हर बार इस यंत्र में सुधार कर हर बरस लोगों को नए यंत्र लेने के लिए मजबूर करते रहेंगे।’

‘यही व्यापारिक जगत का अनैतिक काम है?’

‘बस इसी बात पर तो हम मार खाते हैं।’

‘पर सोचो तो भाई। एक कंपनी एक साल में इतने यंत्र पैदा करे और एक ही साल में इतने ही पुराने यंत्र कूड़ा बन जाएँ तो यंत्रों का कूड़ादान हो गई न धरती।’

‘अरे इसी बात को तो आप लोग समझ नहीं रहे।’ वह थोड़ा झल्लाया।

‘सोचना तो पड़ेगा ही न कि ये कंपनियाँ पूरी दुनिया में कुछ बुराइयाँ भी फैला रही हैं, दुनिया को कूड़ेदान बना रही हैं।’

‘बस यही बात… यही बात मुझे हिंदुस्तानियों की नहीं भाती। अरे…’ वह जैसे कुछ गुस्से में आ गया था। फिर वह नरम पड़ता बोला, ‘मान लेते हैं थोड़ी देर के लिए।’

‘क्यों, थोड़ी देर के लिए ही क्यों? मेरी बात को पूरी तरह मानने में हर्ज क्या है?’

‘हर्ज तो कोई नहीं।’ उसने फिर संयम बरता। पर गुस्सा झलक रहा था।

‘व्यापारिक दुनिया में पैसे कमाने के लिए कुछ भी किया जा सकता है?’

‘आप कहना क्या चाहते हो?’ वह थोड़ा संबोधनों में अटका।

‘देखो मित्र! एक कंपनी एक यंत्र बनाती है। चलो मान लिया उस पर सारे खर्चें करती है। शोध करती है, उसे ठीक-ठाक बनाती है। उससे मुनाफा कमाती है। सवाल इतना है कि यह मुनाफा जो उसे मिला यह उन लोगों की मेहनत का है जिन्होंने काम किया, उन्हें उसने ढेरों पैसा दिया – जैसे नए उद्यमियों को प्राप्त हुआ। यह तो न्यायपूर्ण-सा लग रहा है न? पर इसी में अन्याय छिपा हुआ है। उसने, बनानेवाले ने, गौर नहीं किया वह कैसे छिपे-छिपे लूटने का आयोजन कर रहा है?’

‘समझ गया।’ वह कुछ सख्त हो गया, ‘तुम… सॉरी! आपसे अभी कम्युनिस्ट का प्रभाव नहीं मिटा, सारी दुनिया से कम्युनिस्टों की विदाई हो गई। पर आप जैसे लोगों में अभी है…।’

‘अब यह मामला दूसरी तरह का है। समतावादी जरूर बाहर हो गए पर अभी लोगों की बातों को न्यायपूर्ण ढंग से सोचनेवाले तो अमेरिका में भी हैं।’

‘अमेरिका का सोच एक है। 11 सितंबर ने पूरे अमेरिका को एक कर दिया।’

‘हादसे अक्सर एकजुटता ले आते हैं। फिर उसी ढर्रे पर जीवन चल पड़ता है। खैर आप अपने यंत्र की बात कर रहे थे न? इसे आप एक अटकल से जानने की कोशिश कीजिए।’

‘कौन-सी अटकल?’

‘यह व्यापारिक कला है। अपने उत्पाद का क्षेत्र विस्तार जरूरी है और इसके लिए एक ही नियम है कि जितने बड़े वर्ग को उल्लू बनाओ उतना अच्छा।’

‘मुझे यह अटकल ठीक नहीं दीख रही।’

‘ये तो केवल कल्पना कर रहा हूँ।’

‘कल्पना, इसकी कल्पना भी बुरी चीज है।’ उसने थोड़ा गुस्सा झलकाया।

‘देखिए, सृष्टि में मनुष्य ही बुद्धि का उपयोग करनेवाला प्राणी है। हम कैसे मान लें यह असली झंझट है।’

‘अपनी बुद्धि से ही तो मनुष्य आगे बढ़ रहा है।’

‘आप ठीक कहते हैं। आइए दूसरी परीक्षा करें…।’

‘देखिए बुद्धि का पराक्रम व्यक्तिशः फलित नहीं होता।’

‘कैसे?’

‘यह बुद्धि इस मस्तिष्क में है।’

‘हाँ।’

‘जैसे पेड़ में फल है। फल उपयोग के लिए है।’

‘किसके उपयोग के लिए है, उद्यमी के लिए न?’

‘आपने ठीक कहा। यहीं से परीक्षा करें। क्या पेड़ स्वयं फल खाता है?’

‘नहीं।’

‘तो अर्थ हुआ सृष्टि में जो भी फलदायी है वह दूसरों के लिए भी है।’

‘आप बातों को उलझा रहे हैं। जो लोग अपने मस्तिष्क से कुछ रचते हैं वह उनका है। अपना। निजी। व्यक्तिगत। आप लोग जो समाजवाद के पक्षधर हैं व्यक्ति को गौण कर सब चीजों को गड़बड़ कर देते हैं। अब पश्चिमी वैज्ञानिक ने जो कुछ भी निर्मित किया है उससे समाज का, पूरी मनुष्य जाति का भला हुआ है। हुआ है न? कोई भी दृष्टांत लीजिए। इन महान आविष्कारकों ने यदि अपने मेहनताने के रूप में कुछ ले लिया तो इतना हो-हल्ला क्यों? तमाम क्रांतिकारी लोग उन महान अन्वेषकों को, उनकी परंपराओं को नष्ट करने की प्रक्रिया में विश्व के सुखद भविष्य की हत्या नहीं कर रहे हैं क्या?’ वह ज्यादा आवेश में आ गया था।

‘चलिए, आपकी बात मानते हैं। यह तो आप मानेंगे कि इस पृथ्वी का भी इस सारे प्रकरण में कुछ योगदान है। अगर यह पृथ्वी न होती तो क्या मनुष्य संभव था?’

‘आप तो ऐसा सवाल कर रहे हैं जिसका मामले से कोई ताल्लुक नहीं है।’

‘है।’ मैंने जोर दे कर कहा।

‘कैसे?’

‘अरे भाई, यह हवा, पानी, यह वातावरण क्या यह सब कुछ आपके आविष्कारों से प्रभावित नहीं होता है?’

‘होता होगा। आविष्कारक इसकी चिंता क्यों करें?’

‘आखिर आविष्कार का मूल लक्ष्य क्या है?’

‘मूल लक्ष्य अलग-अलग दृष्टियों से देखा जाता है?’

‘कैसे?’

‘एक व्यक्ति जो अपनी बुद्धि से कुछ चीजें अन्वेषित करता है वह यह बताना चाहता है कि मनुष्य मस्तिष्क यदि विकसित हो तो वह सृष्टि के रहस्यों को जान सकता है?’

‘माफ करें। यहीं पर गड़बड़ है।’

‘कैसी गड़बड़?’

‘इस मामले में व्यक्ति यानी वह मनुष्य बड़ा हो गया।’

‘क्यों न हो वह बड़ा?’

‘दुनिया की सारी जनसंख्या में सिर्फ एक आदमी ही बड़ा हो…’

‘इसमें हर्ज ही क्या है?’

‘यही तो वह बिंदु है जहाँ से व्यक्तिपूजा शुरू होती है। व्यक्ति सीखता किससे है? निकटस्थ से, प्रकृति से, समाज से और समुदाय में वह सुरक्षित भी है।’

‘बिल्कुल नहीं।’

‘अब जैसे गांधी को लें?’

‘गांधी के त्याग को तो देखो।’

‘ऐसे हजारों त्यागी मिलेंगे दुनिया में।’

‘समझो। गांधी ने अपनी पश्चिमी शिक्षा के अहंकार को त्याग कर भारत की सेवा करने का संकल्प लिया।’

‘इस बात से मैं सहमत नहीं हूँ।’

‘कोई कारण?’

‘असल में गांधी ने भारत को प्रगति के रास्ते से सौ वर्ष पीछे धकेल दिया।’

‘क्या आप इसे सिद्ध कर सकते हैं?’

‘यह तो स्वयं सिद्ध है।’

‘कैसे?’

‘क्या दिखाई नहीं देता?’

‘दुनिया में गांधी की प्रतिष्ठा देखी है क्या?’

‘यह सब विज्ञापनबाजी है।’

‘क्या मतलब?’

‘मतलब साफ है, जो राज्य हथियाना चाहते थे उन्होंने भारतीय जनता को उल्लू बनाने का सबसे आसान तरीका समझा।’

‘मैं सोचता हूँ आपको अपनी इस राय पर पुनर्विचार करना चाहिए।’

‘भला क्यों? क्या यह सच्चाई नहीं है?’

‘इतिहास के संदर्भ में देखें तो यही एकमात्र सच नहीं है।’

‘देखिए आप लोग इसी तरह तर्क-कुतर्क के द्वारा इतिहास का हवाला दे कर उन्हीं शक्तियों का समर्थन करते हैं जो राजसत्ताओं से फायदा उठाते हैं।’

‘हम अपनी मूल बातचीत में वापिस चलें तो बेहतर,’ मैंने प्रस्ताव दिया।

‘मूल बात यही है कि नए-नए आविष्कारों ने मनुष्य को जो नई सुविधाएँ दी हैं उनके आविष्कारकों और उत्पादकों ने जो नई दुनिया बनाई है, उस व्यवस्था का परिपूर्ण रूप से विकास होना चाहिए।’

‘इसमें कोई दो राय नहीं है। व्यवस्थाएँ विकसित होती रहती हैं। परंतु मनुष्य को लूटने की दृष्टि से जिन सुविधाओं की विज्ञापन और प्रचार द्वारा बढ़ा-चढ़ा कर विज्ञप्ति की जाती है वह शोषण का नया तरीका है। पहले आदमी के श्रम पर कुछेक पूँजीपति डाका डालते थे, अब पूँजीपति घराने, कारपोरेट जगत विश्व को…’

मेरे वाक्यों से वह आहत हुआ – ऐसा मुझे महसूस हुआ, क्योंकि मेरी बात सुनते-सुनते वह यकायक खड़ा हुआ – बोला, ‘आपकी और मेरी बातचीत हो ही नहीं सकती। हम दो अलग दृष्टियों से सोचनेवाले लोग हैं। आप भूल जाते हैं कि मनुष्य को मनुष्य की दासता से मुक्ति का काम पश्चिमी सत्ताओं ने किया। उसका ‘क्रेडिट’ तो उन्हें देना ही चाहिए।’

‘बैठिए… बैठिए। बहस में उत्तेजित होना बुरा नहीं। हम आपस…’

मैं कह ही रहा था कि उसके ‘इंस्ट्रूमेंट’ में कोई हलचल हुई।

‘एक मिनट!’ उसने मुझे हाथ से बरजा।

‘क्या हुआ?’

‘शायद कोई संदेश हो?’

‘देख लें।’

उसने थोड़ी देर अपनी डिब्बी को हिलाया। पर उस पर कोई संदेश दर्ज नहीं हुआ।

ठीक इसी बीच दो लोग आपस में जोर-जोर से बातें करते अंदर घुसे, ‘सब साले लुटेरे हैं।’ उनमें से एक बोल रहा था। वे भूले-से हुए थे कि इस जगह जोर-जोर से बोलना तो ग्राम्यता की निशानी थी। सब लोग जो चुपचाप बैठे हुए थे, उन्हें सर उठा कर ताकने लगे।

‘छोड़ो भी यार…’

‘क्यों छोड़ो?’

‘हम क्या कर लेंगे?’

‘क्यों, कंपनियों पर दावा तो ठोक सकते हैं?’

‘अबे कितना पैसा लेंगे वकील लोग?’

‘अब जब लाभ लेना है तो?’

‘यह बनियों, तस्करों, लुटेरों की व्यवस्था है। इसमें लाभ की गुंजाइश कहाँ है?’

‘क्यों अधिकार तो हैं। मूलभूत अधिकार।’

‘यारो, अपने अधिकार… ‘ वह कह कर ठहाकेमार हँसी हँसा।

दोनों जन बोलते-बोलते अपनी सीटों पर बैठ गए। ऐसे बहुत कम अवसर होते थे जब उस जगह लोग जोर-जोर से बोलते और बहस करते थे। खुद को सुसंस्कृत कहाने के लिए कड़ी तपस्या जैसी बात थी।

‘शिष्टाचार नामक कोई चीज रह नहीं गई है।’ मेरे दोस्त ने हैरानी जताते हुए धीमे से कहा।

उसके हाथ में अब भी उसका यंत्र था, ‘एक सौ लोगों के व्यवहार पर अनुशासन का शिकंजा होना चाहिए। कहाँ है भारतीय संस्कृति, शिष्टाचार।’ वह भी आवेश में आ गया था।

‘आजकल शिष्टाचार राजनय की वस्तु रह गया है।’ मैंने विनम्रतापूर्वक बहुत धीमी आवाज में उत्तर दिया। साथ में जोड़ा, ‘लोग अपनी स्वतंत्रता का उपयोग कर रहे हैं न?’

‘ऐसा क्यों हो रहा है?’ वह तैश में था, ‘स्वतंत्रता का मतलब अराजकता नहीं है।’

‘वे अपने-अपने ढंग से विश्व की बदलती स्थिति पर गुस्सा जाहिर कर रहे हैं। इस तरह की दुनिया बना दी गई है… अब तो लाजिमी है… रसोईघर… विश्व का बाजार होना है।’

‘कैसे?’

‘अब ये दोनों जन जिस बात से त्रस्त हैं – उसका मूल केवल बाजार का पूरे जीवन में हस्तक्षेप है।’

‘यह आप अटकल लगा रहे हैं।’

‘आप ठीक हो सकते हैं। मैं अनुमान के सहारे आगे बढ़ रहा हूँ। अनुमान भी तो सत्य की प्राप्ति का एक साधन है।’

‘देखिए हम लोग दर्शनशास्त्र की गुत्थियों में न जाएँ। परंतु आप जानते हैं कि ज्ञान की हर शाखा में अनुमान की एक जगह है।’

‘चलिए। सुन लेता हूँ आपकी बात।’

‘कोई उत्पाद्य जब बनता है तो उसमें बहुत-सी चीजें शामिल होती हैं।’ …अचानक बोलते हुए उसे रोक वे मेरे प्राचीन दोस्त यानी पूर्व परिचित बड़ी बेचैनी से बोले, ‘सब पुरानी बातें हैं।’

‘कहने तो दीजिए।’

‘अरे क्या फायदा?’

‘यही मूल भाव है न? हम हर चीज में फायदा देखने के आदी हो गए हैं?’

‘तो आप बताइए न क्या कोई नुकसान या हानि के कोई काम शुरू करेगा?’

‘चलिए इसी बिंदु से शुरू करते हैं।’ मुझे बहस में मजा आ रहा था।

‘करिए।’

‘कोई आदमी एक कारखाना लगाता है। वह फायदे के लिए प्रतिश्रुत है। पर क्या यह फायदा एकांगी है?’

‘क्यों? जो भी काम करेगा फायदा ही उसका लक्ष्य होगा न? फिर एकांगी क्या हुआ।’

‘क्या उत्पाद्य से दूसरे का फायदा नहीं है?’

‘मुख्य क्या है – इस पर फैसला दें आप?’

‘मुख्य एक नहीं है, यही तो मैं कह रहा हूँ। यह सब एक सामुदायिकता का प्रतिफल है जो सामुदायिकता को ही संबोधित है।’

‘फिर आप उलझा रहे हैं?’

‘मैं यही कह रहा हूँ कि कोई भी शुरुआत, किसी भी चीज की हो… वह अपने आप में बहुमुखता लिए हुए है। हम इस सच से क्यों मुँह मोड़ना चाहते हैं?’

‘आपका आधार ही गलत है।’ उसने कुछ-कुछ ऊबते हुए, मेरी नासमझी पर तरस खाते हुए कहा, ‘कोई चीज किसी और के उपयोग की हो या उसे भा जाय तो यह अलग-सी बात है। यह तो आप मानेंगे कि उसका ताल्लुक एकदम उत्पादित वस्तु से नहीं है। आपने कोई फर्नीचर बनाया। किसी पैसेवाले ने उसे किसी भी प्रयोजन से खरीदा हो, उसका क्या अर्थ?’

अब मेरे लिए कुछ कठिन-सा रास्ता था। उस आदमी को किसी भी कोण से समझाने में मैं असमर्थ सा महसूस कर रहा था कि अचानक उसके हाथ से मेज पर रखे यंत्र में कुछ हलचल हुई। पर फिर वह शांत हो गया। मेरे मित्र ने उसे हर कोण से पलटा पर वह निर्जीव ही रहा।

मैंने बात बदलने के लिहाज से, सारे प्रसंग को वहीं दफनाते हुए, नए ढंग से बातचीत को मोड़ने के लिए पूछा, ‘आपने अपना परिवार यहीं रखा हुआ है कि वे बाहर ही रहते हैं?’

वह कुछ भड़के हुए स्वर में बोला, ‘इसका कोई अर्थ हमारी बातचीत से नहीं है। क्या परिवार उत्पाद-सी चीज है? मार्क्सवाद में परिवार के लिए क्या जगह है?’

मैं हथियार डालने के लिए तैयार हो गया। मैंने घड़ी देखी। जाहिर है यह उसके लिए भी संकेत था कि बस इससे आगे बात बढ़ेगी नहीं।

‘नहीं… नहीं… मेरा मतलब परिवार को वर्तमान बातचीत से जोड़ना नहीं था। मैं माफी चाहता हूँ अगर कोई ऐसा संकेत मेरी बातचीत से उभर रहा हो?’

उसने फिर यंत्र उठाया। उसे चारों तरफ से निहारा। पीछे से उसे खोला। उसकी महीन-सी काया को गहराते संदेह से देखा। वह यंत्र मुझे विचित्र लगा। दीखने पर मोबाइल जैसा, पर उसके भीतर परतों के भीतर परतें थीं जैसे गुड़िया के भीतर गुड़िया होती है।

‘मैं जरा बाहर हो आऊँ। शायद यहाँ सिग्नल पकड़ने में गड़बड़ी है।’

‘इस तरफ से,’ मैंने बगीचे की तरफ इशारा किया।

‘ओह! धन्यवाद। माफ करेंगे। बस जल्दी ही लौटा,’ वह कुछ चिंतामग्न-सा दिखा। उसे किसी फौरी संदेश का इंतजार था। और यंत्र था कि कुछ सूझा ही नहीं रहा था।

अंदर बहुत-से लोग बैठे थे। एक मेज के इर्दगिर्द नामी-गिरामी पत्रकार थे। वे अपनी बहसों में निमग्न थे। एक ओर राजनीतिज्ञों का जमावड़ा था। वे भी अपनी बातों में मशगूल थे। आज की महत्वपूर्ण खबरों पर विमर्श में निमग्न। वे लोग सभी ऐसे विचारवान थे जिनके पास न सिर्फ आलोचनात्मक दृष्टि थी बल्कि वे राष्ट्रीय नीतियों को अपनी ओर मोड़ने में कुशल थे। इससे अंदाजा लग सकता है कि मेरे विदेश में निवास कर रहे मित्र क्यों वर्ष के कुछ दिन इन्हीं केंद्रों की ओर आते हैं।

‘माफ करना।’, वे जितनी तेजी से गए थे उतनी ही तेजी से लौटे, ‘इस यंत्र में कुछ गड़बड़ है। और मुझे नहीं मालूम कि यहाँ इसका उपचार हो पाएगा। परंतु मैं थोड़ा बाहर बाजार की ओर जा कर कहीं से अपने नगर में फोन कर लेता हूँ।’ उसने घड़ी देखी, ‘अभी सुबह का वक्त होगा वहाँ कोई न कोई मुझे ‘अटेंड’ कर लेगा।’

‘अगर बुरा न मानो तो मेरे इस भारतीय मोबाइल टेलीफोन को ले लो। इसमें बाहर फोन की सुविधा है।’

‘व्यर्थ में आपके पैसे खर्च हो जाएँगे।’

‘उसकी फिक्र न करें।’ मैंने कहा, ‘मुझे यह सुविधा किसी कारण मिली हुई है। कारण मैं फिर बताऊँगा पर इसका बिल कोई अन्यत्र देता है। आप बेफिक्र हो जितनी देर चाहें बाहर खड़े हो कर बातें करते रहें।’

मेरे आग्रह पर उसने फोन ले लिया। और तत्काल बाहर चला गया।

लौटा तो वे थोड़े खिन्न-से थे।

‘क्या बात हुई?’ मैं उत्सुक था जानने के लिए कि क्या घटा होगा?

‘हाँ, बात तो हुई। पर यंत्र में जो गड़बड़ी है वह कंपनी के ही द्वारा ठीक की जाएगी। अब समझ में नहीं आ रहा, क्या करूँ?’

‘सोचना क्या है? आजकल कूरियर सर्विस ऐसी है कि उन्हें यंत्र कल ही मिल जाएगा और वे ठीक कर लौटा दें तो बहुत अच्छा।’

‘कुछ शर्तें बहुत कड़ी हैं। सामान्य ग्राहकों पर वह लागू नहीं होनी चाहिए।’ वह बोला। उसके बोलने में क्षोभ ज्यादा था। वह बोला तो ऐसे लगा कि वह किसी अंतर्वेदना से पीड़ित हो।

मैंने उसे उबारने के लिए कहा, ‘हमारे शहर में भगीरथ पैलेस और नेहरू प्लेस दो ऐसी जगहें हैं जहाँ अत्यंत प्रतिभाशाली लोग हैं। वे आपके यंत्र को यहीं दुरस्त कर देंगे। पर अब शाम हो चली है, कोई मिलेगा नहीं।’

‘नहीं… संभव नहीं है। दुख यह है कि ठीक करने की जो राशि उसने बताई वह यंत्र के मूल्य से दुगुनी है।’

‘यह तो एकदम चोरी और सीनाजोरी हुई।’

‘ऐसी बात नहीं। मैं इन कामों की कुछ सच्चाइयाँ जानता हूँ। शायद यंत्र में जमा ‘रिकार्ड’ की सुरक्षा के कारण यह हो…’

‘यही तो मैं कहना चाहता था। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ अपने मुनाफे के लिए उपभोक्ताओं को उल्लू बनाने के नए-नए रूप, नए-नए कार्यक्रम बनाती चलती हैं।’

‘आपकी बात सही हो सकती है। अपने इस ताजे से अनुभव से तो यही लगता है।’ वह बदला हुआ आदमी लग रहा था। उसकी आवाज बहुत कोमल हो आई थी। मैंने कल्पना की कि पूँजीवाद के खिलाफ एकजुटता में यही एक स्वानुभूति से उत्पन्न विनम्रता एक नए प्रजातांत्रिक मूल्य के रूप में उभरती है।

‘मैं इस बात पर फिर से बहस करना चाहता हूँ कि अपने विकास के लिए आदमी किस हद तक निजता का उपयोग कर सकता है?’

‘यह बड़ा कठिन इलाका है।’ मैंने स्पष्ट किया, ‘न्यायविद, समाजशास्त्री सारे के सारे इस इलाके में घूमे हैं यानी उन्होंने विचार किया है पर अभी तक कुछ ऐसा फल नहीं दीखता…’

‘क्या इससे कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता है?’ वह बोल ही रहा था कि तभी अचानक एक बवंडर की तरह लोगों का बड़ा हिस्सा दौड़ता-भागता इस ओर आया। लोग छिपने के लिए दरवाजों के पीछे, शौचालयों की ओर लपके। यह पल भर में हो गया। हम बैठे लोग हतप्रभ थे, क्या हुआ। दौड़ते हुए एक आदमी ने कहा, ‘शायद आतंकवादी घुस आए हैं।’ बाद में पता चला कि किसी के भाषण पर बिदक कर दक्षिणपंथी लोगों ने हंगामा किया और मारपीट करते हुए लोगों को दौड़ाते रहे।

‘यह अराजकता है।’ मैंने कहा, ‘दक्षिणपंथी लोग तर्क सुनना नहीं चाहते।’

‘इसमें थोड़ी रियायत भी रखनी चाहिए। अगर कोई किसी की भावना भड़का रहा हो तो उसका विरोध करना ही चाहिए। यही एक न्यायपूर्ण रास्ता है।’ उसने अपना पक्ष रखा।

‘प्रजातंत्र की यह खूबी है।’, मैंने अपनी बात उसके पक्ष में रखी कि ‘जो भी हो, उस पक्ष का आधार जरूर जानना चाहिए।’

‘नहीं, सभी तंत्रों में यह छूट होनी चाहिए।’

‘पर कैसे कर पाएँगे ऐसे मामलों पर ऐसी व्यवस्था?’

‘कानून से।’

‘कानून भी प्रजातंत्र में बहुमत से पारित होते हैं।’ मैंने स्पष्ट किया, ‘यह संभव नहीं है। दक्षिणपंथी लोग कभी भी मतदान के वक्त भावनात्मक रूप से किसी चीज का दोहन कर सकते हैं।’

‘ऐसा तो सभी कर सकते हैं। बल्कि करते ही रहते हैं।’

‘नहीं, नहीं… ऐसा आरोप हम कुछ विज्ञ लोगों पर नहीं लगा सकते।’

‘क्यों इसमें क्या तर्क है? विज्ञ लोगों की अलग कोटि क्यों?’

‘मैं इसे मूलनीति के विरुद्ध समझता हूँ। मेरे पास तर्क हैं।’

‘क्या यह स्वातंत्र्य की रक्षा का छोटा-सा काम नहीं है जिसे बेजुबान लोग इस्तेमाल कर रहे हैं।’ उसने तर्क दिया।

‘वे हिंसा से प्रेरित हैं। उनका लक्ष्य एकदम कुछ और है।’ मैंने दृढ़ हो कर कहा।

‘पर मैं ऐसा नहीं मानता।’

‘व्यक्तिशः बहुत चीजें ग्राह्य नहीं होतीं।’

मैं संक्षिप्त उत्तर दे कर सोचने लगा कि इस व्यक्ति को किस रूप में समझाऊँ कि यह उस सत्य का साक्षात कर सके जो इस बहस के मूल में है।

तभी कुछ पुलिसवाले धड़धड़ाते हुए सीधे रेस्तराँ में पहुँचे। हम लोगों की चाय बहस के बीच ही ठंडी हो चली थी। मैं दूसरी चाय के लिए बोलते-बोलते सोच भी रहा था।

‘सुनिए।’ एक कटी-सी आवाज में पुलिसवाला सबको संबोधित हुआ, ‘कुछ उपद्रवी लोग परिसर में घुस आए हैं। आप किसी को पहचान सकते हों तो हमें उन्हें पकड़ने में सहयोग दें। कानूनी धारा के अनुसार उन्होंने ऐसे परिसर में घुसने की चेष्टा की है जहाँ केवल अधिकृत लोग ही आ सकते हैं।’

वह कुछ बोलने के लिए तैयार हुआ। पर मैंने उसे रोक दिया।

पुलिसवाले चारों तरफ आ गए। जैसे उन्होंने घेरा डाल दिया हो।

‘जो लोग अधिकृत नहीं हैं वे लोग कृपया अपने हाथ खड़ा करें।’

मेरे साथवाला आदमी अधिकृत नहीं था। वह जरूर किसी का मेहमान था। इस पल वह मेरा ही मेहमान था। वह हाथ उठाने ही वाला था कि मैंने उसे फिर रोका।

वह चुपचाप मेरी तरफ देखता रहा।

थोड़ी देर बाद पुलिस के लोग चले गए। एक सज्जन खड़े हुए बोले, ‘आजकल आतंकवाद का जमाना है। पुलिस को अपने कर्तव्य कर लेने चाहिए।’

‘पर अनधिकृत लोगों को रोकेंगे कैसे?’ एक व्यक्ति ने जो भीतर बैठा था, ने शंका व्यक्त की।’ यहाँ ढेरों लोग सुस्ताते रहते हैं। राजनीतिज्ञों से मिलने के लिए ही जैसे यह चायघर बनाया गया हो।’

‘सही कहते हैं आप!’ किसी ने समर्थन किया।

‘आजकल पहचानना मुश्किल है कि कौन असली है और कौन नकली।’

‘असल में पूरे मुल्क में ही यह वातावरण है।’ एक ने टिप्पणी कर दूसरे की ओर देखा। वह प्रतिपक्षी था। बोला, ‘अरे, यह सब सरकारी चोंचले हैं।’ वार्ता चल ही रही थी कि कुछेक पदाधिकारीगण घुसे, उनके हाथों में कुछ कागज थे।

परंतु भीतर के लोगों ने उन पर ध्यान नहीं दिया। वे सब अपने में मशगूल थे।

मेरे मेहमान ने कहा, ‘मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि ऐसे माहौल में हम बड़े-बड़े सवालों के बारे में कैसे एकजुट हो पाएँगे।’ मैं इस मामले में चुप ही रहा क्योंकि बड़े-बड़े सवालों पर एक राय रखना कठिन था।

‘मुझे आपके फोन की दुबारा आवश्यकता पड़ सकती है। मुझे अपने एक अन्य फोन पर यह संकेत छोड़ना है कि वे मुझे आपके नंबर पर संपर्क करें। क्योंकि आपके फोन से यहाँ से नंबर मिलाने पर बहुत खर्चा निकल आता है।’ उसने संकोच से कहा।

‘उसकी आप परवाह न करें।’

‘फिर मैं अंदर की घटना से भी क्षुब्ध हूँ।’

‘हम भारत में इसे अपने ही ढंग से देखते हैं। इसे अप्राकृतिक नहीं मानते।’

‘इसमें प्राकृतिक क्या है?’

‘जहाँ लोग रहेंगे समस्याएँ तो रहेंगी ही।’

‘यह पराजित मनोवृत्ति है।’

‘हम ऐसे ही रहते हैं भाई।’

‘सदियों की आदत है।’

‘तभी कहता हूँ न इसे बदलना चाहिए।’

‘अब हमारे लोक में। मनोचित्त में, हमारी तमाम साधनाओं में यह है। कैसे बचें इससे?’

‘बस यही बात है न। मैं कतई सहमत नहीं हूँ।’ वह क्षोभ में बोला, ‘जो भी हो, भारत को अपने को बदलना होगा। इस अर्थ में भारतीय को भी। हमारी समूची दृष्टि में जो प्रबंधन की कमी है उसे भीतर प्रविष्ट कराना होगा।’

मैंने पाया कि वह काफी क्लिष्ट भाषा बोलने लगा था। उसने मेरा टेलीफोन अपने हाथ में ऊपर उठाया, ‘पश्चिम की इस छोटी-सी चीज ने कितना क्रांतिकारी काम किया है। कभी आपने इस पर सोचा है।’

मैं सिर्फ मुस्कुरा दिया।

वह इससे कुपित-सा जान पड़ा, ‘मैं जरा बाहर जा कर फोन कर आऊँ।’ वह उठ कर चला गया तो मैं सोचने लगा अमेरिका में बसा एक आदमी घर लौटता है तो उसे अपने घर की दीवारें ज्यादा काली लगती हैं।

मुझे याद आया। मेरा एक सहयोगी यूरोप में कहीं नौकरी करने लगा। गाहे-बगाहे वह आता रहता था। भारत में उसे कोई नौकरी मनचाही-सी नहीं मिली थी तो उसने कोशिश कर विदेश की जुगत भिड़ा ली। वह दोस्त था तो बीच-बीच में खत लिख दिया करता था। उसके खतों में देश की यादों की सतरें भरी रहतीं। वह पहली बार आया तो मुझसे भिड़ गया। बोला, ‘बड़ा पुराना देश है। खूब सुसंस्कृत। पर यूरोप के मुकाबले में हम अभी पशु हैं।’

‘भला कैसे?’

‘अबे न ढंग का खाना, न पहनावा। साले जो देखो धोती झटकारते आ जाता है। दक्षिण जाओ तो साले लुंगी गंजी में काला बदन उघाड़ते हैं, छी छी…।’

मैं उसकी बातों पर हँसा, ‘तूने अभी गोरों की गंदगी नहीं देखी। अच्छा ही हुआ।’ मैं बोला, ‘पर जिस दिन तेरा सामना उस गंदगी से हो जाएगा, तू अच्छाई का तुलनात्मक रूप समझ जाएगा।’

वह मेरी बात कतई नहीं मानता। मैं जैसे भी कहता। मैंने सोचा उसे उसी के हाल पे छोड़े रहूँ। पर एक दिन तो हद हो गई। हम लोग दिल्ली के आई.टी.ओ. इलाके में मिल गए। मैं मंडी हाउस जाने के लिए तैयार था। और पैदल ही चल पड़ा था कि पीछे से वह मुझे आवाज दे कर रोकने लगा, ‘रुको, रुको।’ उसने मुझे कहा, ‘मैं भी वहीं चल रहा हूँ।’

‘तो चलो।’

‘पैदल?’

‘और क्या। एकदम पैदल।’ मैंने उत्तर दिया।

‘पर यार टैक्सी से चलें।’

‘बहुत नजदीक है मंडी हाउस।’

‘पर टैक्सी से चलें?’

उसकी जिद मुझे समझ नहीं आई, ‘टैक्सी शायद ही मिले।’

‘क्यों?’

‘इतनी नजदीक जाने के लिए कोई तैयार न होगा।’ मैंने उसे समझाने के लहजे से कहा।

‘तभी हमारा मुल्क तरक्की नहीं कर रहा।’ उसने उत्तर दिया।

‘ऐसा करते हैं टैक्सी स्टैंड यहीं पास है कोटला के पास। वहाँ चले चलते हैं। फिर टैक्सी से जल्दी पहुँच जाएँगे।’

‘परंतु प्यारे, वहाँ उतनी दूर पीछे जाने के बजाय हम आगे चलें तो अगले छह मिनट में मंडी हाउस पहुँच जाएँगे।’

‘अबे यार, आदमी की टाँग और पहिए का घुमाव, उनका कोई मुकाबला नहीं। जब से चक्के की ईजाद हुई है तब से उसे तेजी के फंदे में ज्यादा से ज्यादा तेज कर रहे हैं।’

मैं उसके तर्क से सहमत नहीं था। पर पीछे जाने के लिए उसके साथ हो लिया।

हम टैक्सी स्टैंड पहुँचे तो इस बात से निराश थे कि कोई टैक्सी तो वहाँ है ही नहीं? अब… अब क्या किया जाय यह सोच ही रहे थे कि एक लाल-पीली टैक्सी स्टैंड पर आ लगी।

‘चलो भई।’ मेरे दोस्त ने कहा।

‘कहाँ साहब?’

‘मंडी हाउस!’

‘खाली नहीं साहब।’

‘जितने पैसे चाहे ले लो।’

‘खाली नहीं साहेब।’ उसने हुड उठा कर गाड़ी की जाँच करनी शुरू की थी कि मेरा दोस्त बैचेन हो उठा। वह सीधे टैक्सी के पास गया।

‘तुम ना नहीं कह सकते।’ मेरे दोस्त ने जोर दे कर कहा, ‘मैं तुम्हारी रिपोर्ट करूँगा।’

‘ओय जो करना है जल्दी कर!’

‘तमीज से तो बात करो।’

‘ओय लो देखो मैंने कौन-सी बदतमीजी की।’ वह गरजा और आव देखा न ताव उसने अपनी गाड़ी से एक गोल डंडा बाहर निकाला।

मैं समझ गया वह लड़ने के लिए तैयार है, ‘जा साले जहाँ अपने बाप को रिपोर्ट करने जाना हो…’ और वह डंडा उठाए मेरे दोस्त के सामने खड़ा हो गया।

‘क्या करोगे तुम?’

‘साले रिपोर्ट से पहले तुम्हारी खोपड़ी न फोड़ दी तो बात ही क्या।’

मैं लपक कर अपने दोस्त के करीब चला गया। कुछेक तमाशबीन और जुट आए थे। वह सरदार लाठी ले कर खड़ा तो ऐसा था कि किसी भी पल प्रहार कर दे। पर वह थोड़ा गुस्से के कारण आवेश में था।

‘रिपोर्ट तो मैं तुम्हारी करूँगा ही।’ मेरे दोस्त ने कहा, और पीछे मुड़ कर मेरी ओर चला आया कि तभी तेजी से सरदार लाठी ऊँची किए पीछे से चिल्लाया, ‘ओय हिम्मत है तो एक बार फिर बोल।’ इतने में पास खड़े दूसरे टैक्सी ड्राइवरों ने उसे रोका। एक ने उससे डंडा खींच लिया। वह चिल्लाने लगा कि दूसरे ने उसे अपनी भुजाओं में जकड़ लिया।

‘पागल हो गया है क्या? देखता नहीं ‘फारेन’ की सवारी है?’

‘मैं क्यों देखूँ। कोई उसके बाप का नौकर हूँ। जब मर्जी होगी चलूँगा।’

‘बस कर।’ एक सीनियर ने डाँटा, और हमारी ओर संकेत कर कहा, ‘टैक्सी सड़क पर मिल जाएगी सर, यहाँ असल में नंबर का कोई चक्कर है इसीलिए यहाँ से सवारी नहीं लेते।’ उसने सफाई दी।

हम तुरंत सड़क की ओर निकले।

एक गाड़ी खाली जा रही थी। उसे रुकने का इशारा किया तो वह दूर जा कर रुकी।

‘मंडी हाउस!’ मेरा दोस्त बोला।

‘बैठो जी।’ उसने दरवाजा खोला।

‘मीटर डाउन कर लो।’

‘मीटर तो खराब है सर।’

‘तो पैसे कैसे लोगे?’

‘आप जो देंगे वही काफी होंगे सर…’

हम लोग शायद चार मिनट में ही मंडी हाउस पहुँच गए थे। टैक्सीवाला यह भी झगड़ालू था, पैसे के लिए हुज्जत करने लगा। मेरे दोस्त ने न सिर्फ बढ़े हुए पैसे दिए ऊपर से उसे कुछ टिप भी दे डाली।

यह सिर्फ दृष्टांत है कि हम पर बाहर से आने का एक अदृश्य-सा सांस्कृतिक दबाव रहता है जो पैसे से जुड़ा रहता है और हम उसका उपयोग गाहे-बगाहे मुल्क की दयनीयता से जोड़ते कर देते हैं। ठीक यही भाव उन तमाम लोगों का है जो लंबे अरसे बाद भारत आते हैं। बीच के वर्षों के संघर्ष और राजनैतिक कुचक्रों की जानकारी के अभाव में पश्चिम की चमक-दमक की तुलना करने लगते हैं और अपने उस अभाव के बारे में अनजान पैसे से ही सब कामों के निष्पादन का मूलमंत्र प्रचारित करने लगते हैं।

वह मेरा परिचित जो टेलीफोन करने बाहर गया था लौट आया। कुछ संतुष्ट-सा वह बोला, ‘घर-दफ्तर बातें तो हो गई हैं, पर मेरे यंत्र के ठीक होने के आसार नहीं है?’

‘भारत में बहुत कुशल कारीगर रहते हैं। कहीं जा कर टेलीफोन यंत्र सुधारनेवाले को दिखा। वह पलभर में ठीक कर देगा। दिल्ली में तो अकेले गफ्फार मार्केट में असंख्य विशेषज्ञ मिल जाएँगे। वह तो चाँदनी चौक और भगीरथ पैलेस को भी मात दे रहा है। बस जेब बचा कर रखना।’

मेरी सलाह पर वह सिर्फ हँसा।

‘जेब बचा कर…’ उसने मेरी बात दुहराई, ‘ऐसा क्यों बना हुआ है भारत में?’

‘गरीबी के कारण। मोटे तौर पर मुझे लगता है हमारे देश में जनता ज्यादा है काम कम है। फिर शिक्षा… यानी सभी जगहों पर कुछ न कुछ अभाव है।’

‘परंतु यह सब कर्णधारों की हरकतें हैं। हर काम के लिए रिश्वत?’ वह बोलते-बोलते चुप लगा गया।

‘यह तो आप ठीक कह रहे हैं।’ मैंने उसका समर्थन किया। और ताजा चाय का कप उसकी तरफ बढ़ा दिया। पर मैंने फिर जोड़ा, ‘जैसा आप कह रहे हैं, इन सब बातों के कुछ और कारण हैं। मैं शुरू से उन्हीं की तरफ इशारा कर रहा हूँ। हम लोग अगर असली समस्या की ओर देखें तो…।’

‘एक मायने में तो सुलझी लग रही हैं कि वहाँ सड़कें हैं, कामकाज में काफी खुलापन है परंतु बेकार वहाँ न हों। विषमता वहाँ न हो… इस पर राजी होना मुश्किल है।’

उसने अपनी घड़ी देखी। मुझे लगा वो मेरी बातों को बेकार समझ अब चुपा गया है। मैंने बातों को मोड़ देने के लिए उससे पूछा, ‘आप कितने दिन और हैं दिल्ली में?’

‘कहने के लिए तो मैं पंद्रह दिन की तफरीह पर आया था। पर अब लगता है जल्दी ही लौटना पड़ेगा।’

‘ठहरे कहाँ हैं?’

उसने जोरबाग के एक गेस्ट हाउस का नाम लिया, ‘मैंने वहीं से बुक करा लिया था। अच्छा साफ-सुथरा है।’

‘यहाँ से बहुत नजदीक है।’

‘हाँ, इसी से तकलीफ भी होती है। कोई सवारी नहीं मिलती।’

मुझे वर्षों पहले का वह किस्सा याद आ गया जब हम आई.टी.ओ. से मंडी हाउस जाने के लिए टैक्सी से पहुँचे थे। मैं मन ही मन सोचने लगा, यह क्या पैसों के आधिक्य से पैदा हुई स्थिति है या एक मानसिकता। मैं सोच ही रहा था कि वह बोला, ‘जोरबाग से टैक्सी तो कभी नहीं मिल पाती। कई दफे तो टैक्सी खोजते-खोजते मैं इस जगह तक पहुँचता हूँ। लौटते वक्त भी करीब-करीब यही होता है। बस मेरी चिंता तो यही है कि हिंदुस्तान कब तरक्की करेगा?’

उसके वाक्य समाप्त करते ही मेरे चेहरे पर हँसी की परत छा गई। बाहर से आनेवाले लोगों की निगाह और चिंता भारत की तरक्की पर अटकी हुई है।

‘हिंदुस्तान तो तरक्की कर ही रहा है।’ मैंने कहा।

‘खाक।’ वह बोला।

‘अब आप देखो कितने पढ़े-लिखे लोग यहाँ पैदा हो रहे हैं। और सब अमेरिका और दूसरे देशों को जा रहे हैं। वहाँ नाम कमा रहे हैं।’

‘वहीं उन्हें तमाम सुविधाएँ मिल रही हैं न?’ वह बोला, ‘वहीं उन्हें सब कुछ मिल रहा है।’

‘वो लोग दूसरे गैर मुल्कों की मिल्कियत बढ़ाने में लगे हैं यह बात तो गौर करने लायक है।’

हम लोग अपनी बहस में घूम-फिर कर उन्हीं बिंदुओं पर आ जाते थे, जिनसे हमारे सैद्धान्तिक किस्म के आग्रह हमें एकपक्षीय बना देते थे। ऐसे में कठिन था कि मैं उसे अपनी तरफ कर पाता। बस उसका यंत्र ही ऐसा पक्ष था जहाँ वह कुछ टूटता-सा नजर आता था। मैं बातचीत में उसकी हताशा और पश्चिम की अकर्मण्यता या पैसा ज्यादा बटोरने की प्रवृत्ति पर सब कुछ केंद्रित करना चाहता था।

‘आप गफ्फार मार्किट जाएँ तो आपका यंत्र ठीक हो जाएगा, जरूरी काम भी निपट आएँगे।’

‘यह आप ठीक सुझा रहे हैं।’ उसने मेरी बात का समर्थन किया, ‘शायद किसी के पास इस यंत्र का मैनुअल भी हो। क्योंकि मैं मैनुअल वहीं छोड़ आया हूँ।’

‘मैनुअल खरीद सकते हैं यहाँ।’

‘शायद ही मिले खरीदने के लिए।’

‘कोशिश कर देखिए।’

‘मैनुअल भी उतने ही छापते हैं जितने इन्स्ट्रूमेंट होते हैं। खुदरा तो बेचते ही नहीं है।’

‘कापी कर डालिए…’

‘न… न… यह अनैतिक बात है।’

‘पर यह भी अनैतिक है न कि उत्पाद्य पर इतना अधिक नियंत्रण रखा जाय।’

‘यह नई दुनिया की नियमबद्धता है।’

‘अगर इससे हम व्यक्ति की स्वतंत्रता का पक्ष जोड़ें तो क्या ऐसा नहीं लगेगा कि ऐसी नियमबद्धता में कुछ टूटता रहता है।’

‘असल में इतने गहरे में तो सभी चीजों की स्थिति हमें मानव विरोधी लगेगी। अब हम काफी आगे चले गए हैं। आखिर दुनिया का जो नया रूप बन रहा है उसी की संगति में सब कुछ देखना पड़ेगा न?’

हम दोनों अंत में मसलों को शांतिपूर्ण सुलझाने के अंतरसृष्टि सिद्धांत की आड़ में विदा हो रहे थे।

‘तो कल मिलेंगे।’

‘मैं सोचता हूँ आपको वक्त हो तो कल टैक्सी ले कर करोल बाग गफ्फार मार्केट चले चलेंगे। अगर यह यहाँ न ठीक हुआ तो मुझे ही लौटना पड़ेगा।’

हम लोग विदा हुए और अपनी-अपनी दिशाओं को चल दिए।

सड़कें कारों से भरी थीं। कोई खिसके तो पीछेवाला आगे बढ़े। लगभग सभी कारों में जोरदार स्पर्धा थी कि कौन कितना ज्यादा शोर करे। प्रजातंत्र में आजादी है।…

मैं पैदल ही दूसरी दिशा यानी अपने घर की तरफ चला। वह भी डग बढ़ाता हुआ। परंतु वह मेरा परिचित ठंडे कदमों से चल कुछ दूर पर खड़ा हो गया। मैं लौटा। यह सोच कि कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं। मैंने लाल बत्ती होते ही सड़क पार की।

‘क्या हुआ?’ मैंने जिज्ञासा और चिंता में पूछा, ‘क्या कोई परेशानी तो नहीं?’

उसने सिर हिलाया, ‘नहीं, कुछ नहीं।’ उसने कुछ देर रुकने के बाद जवाब दिया।

‘मैं लौटा, सोचा कुछ परेशानी तो नहीं,’ मैंने अपना वाक्य दुहराया।

‘सवारी के लिए सोच रहा था?’ उसने मेरे पिछले अनुभव की फिर से याद दिला दी। इस इलाके के टैक्सीवाले कुछ ज्यादा ही हजरत थे। कहीं किसी लफड़े में न फँस जाय, मैंने सुझाया, ‘यह रहा आपका गेस्ट हाउस दो कदम पर। पैदल निकल जाइए न?’

‘जल्दी पहुँचने की सोच रहा था।’ उसने अपनी मजबूरी का तर्क दिया।

‘पर जितनी देर तक टैक्सी न मिली उतनी देर तक तो आप तीन बार लौट कर आ सकते हैं,’ मैंने उसे प्रेरित करने का विचार किया।

वह फिर भी खड़ा रहा। तभी दो नौजवान करीब-करीब झगड़ते-से वहाँ से गुजरे।

‘दोनों ने पी हुई है।’ मेरे दोस्त ने कहा, ‘यही भारत की गंदगी है। पी कर सड़कों पर हंगामा करो।’

‘इसीलिए तो मैं कह रहा था आप जल्दी यहाँ से चले जाओ। आजकल कुछ हालत ऐसे हैं कि किसी के साथ भी कुछ हो सकता है।’

‘पर कल जरूर मिलेंगे। ठीक यहीं सेंटर में। दुपहर में।’ वह अपनी दिशा में तेजी से अपने कदम बढ़ाता बढ़ा। और मैं अपनी दिशा में।

वह तो अचानक रात में ही उसका मुझे फोन आया कि उसका यंत्र काम करने लगा है। मैंने उसे बधाई दी। मैं भी हैरान था कि यह कैसे हुआ। पर रात में ज्यादा बात की गुंजाइश नहीं थी।

तय समय के मुताबिक हम लोगों ने दुपहर के खाने पर मिलने की योजना बनाई थी। उसे वैसे ही रहने दिया। और मिलने के लिए इकट्ठे होने की बात दुहरा डाली, अक्सर ऐसा होता ही है। प्रयोजन पीछे रह जाते हैं कुछ और चीजें आगे आ जाती हैं।

इस बीच मैं उसके बारे में याद करने लगा। वह हमारे एक चित्रकार का मित्र था। वह हम सबका मित्र बन गया था। अब अमेरिका में सुसंपन्न था।

दुपहर में वह बाहर ही मेरा इंतजार कर रहा था। तय समय पर ही हम मिले।

मिलते ही मैंने कहा, ‘चलो अच्छा हुआ यंत्र ठीक हो गया।’

‘खाक।’ वह बोला, ‘बस रात में थोड़ी देर न जाने क्यों ठीक हो गया? बाद में फिर वही हाल।’

‘बैटरी वगैरह परख की थी।’

‘सब कुछ। बस मैनुअल हाथ में न होने के कारण ज्यादा गड़बड़ का पता नहीं चला।’

‘चलो गफ्फार मार्केट चलते हैं। वहाँ बड़े-बड़े तकनीकी दिमाग हैं। हैं तो ज्यादातर अनपढ़ पर इलैक्ट्रोनिक चीजों के गहरे जानकार।’

हम लोग टैक्सी से ही गए। पर टैक्सी बहुत दूर जा कर रुकी। आगे एक तरफ ही चल सकते थे। उस एक तरफ भी इतनी भीड़ थी कि हम लोग लोगों के धक्के बचाते फिर भी धीरे-धीरे चल रहे थे। आखिर में उस इलाके में पहुँचे जहाँ गलियों में छोटी-छोटी करीने से सजी दुकानें थीं।

एक जगह दो युवक भीतर अपनी दुकान में खड़े थे, ‘क्या यह नया टेलीफोन-कंप्यूटर यहाँ ठीक हो सकता है?’

दोनों युवकों ने उसे बारी-बारी देखा। उसकी बैटरी की पड़ताल की, फिर बोले, ‘चार दुकानें छोड़ कर पाँचवीं दुकान में जाएँ, वहाँ शायद इसे ठीक करनेवाला मिल जाय?’

हम पाँचवीं दुकान पर गए।

‘साहब, यह छोड़ना पड़ेगा।’ मैकेनिक ने कहा।

‘नहीं।’

उसने उलट-पुलट कर देखने के बाद वापिस कर दिया। और अपने काम में लग गया।

‘घंटे – आधे घंटे में ठीक कर दो। हम यहीं खड़े रहेंगे।’

‘नहीं साहब, इसका मैनुअल होता तो मैं अभी खोल देता। इसके फंक्शन देख कर मैं इसका मैनुअल बनाऊँगा तब काम शुरू करूँगा। आपको छोड़ने में क्या एतराज है?’ उसने सीधे सवाल दागा।

‘भई, इसमें इतनी जानकारियाँ हैं कि किसी के हाथ लग गईं तो मेरे लिए मुसीबतें खड़ी हो जाएँगी।’ मेरे मित्र ने चिंता और आशंका व्यक्त करते हुए कहा।

‘मैं वो खोलूँगा ही नहीं।’

‘नहीं। नहीं। हम यही खड़े रहेंगे।’

‘आप खड़े रहोगे तो मैं काम नहीं कर पाऊँगा।’

‘हम थोड़ी देर में आ जाते हैं।’

‘फिर एक-डेढ घंटे बाद आना।’

मुझे बीच में बोलने की जरूरत हुई, ‘इसकी बात का यकीन कर लेते हैं।’

बहुत हील-हुज्जत के बाद एक घंटे में लौटने की बात तय हुई। परंतु पाँच मिनट बाद ही मेरे मित्र ने बेचैनी दिखानी शुरू की, ‘क्यों न आसपास की दुकानों में बैठें…’ उसने कहा।

‘पर यहाँ इतनी छोटी दुकानें हैं, कहीं बैठने की जगह नहीं है।’

वह अशांत लगा तो मैंने सुझाया, ‘कहीं चल कर खा-पी लेते हैं।’ वह बहुत ना-नुकर के बाद तैयार हुआ। पर उसकी बैचेनी बरकरार रही और वह किसी दूसरी चीज में दिलचस्पी न ले पाया।

हम थोड़ी ही देर में फिर उस दुकान में थे।

तब तक मैकेनिक ने एक बड़े कागज पर तीन-चार चित्र बनाए हुए थे। और गहराई से उन्हें देख रहा था। साथ में कुछेक छोटे-छोटे बिंदु भी बनाए हुए थे।

हमें वहाँ देख कर वह मुस्कुराया, ‘थोड़ा-बहुत पता तो चल गया।’ वह बोला।

‘तो ठीक हो जाएगा?’

‘सेंट परसेंट’ उसने नीचे झुके उत्तर दिया, ‘पर आप लोग मुझे डिस्टर्ब न करें। मैं कुछ ही देर में आपको बुला लूँगा। आप ‘रोशन दी कुल्फी’ में बैठ जाएँ।’ उसने खाने-पीने की, बैठने की जगह सुझा दी और उसने हमारी ओर सिर उठा कर भी नहीं देखा। वह अपने काम में तन्मय था।

हम उठ कर ‘रोशन दी कुल्फी’ में आ गए। वहाँ काफी भीड़ थी। पर हमें बैठने की जगह मिल ही गई। लोग बहुत इत्मीनान से बैठे हुए थे।

‘पंजाबियों में यह खूबी है।’ उसने कहा, ‘अपने जीवन में कोई कमी नहीं आने देते। देखो मंदिर की बिल्कुल बगल में खाने-पीने का इंतजाम किया हुआ है।’ मेरे दोस्त ने मुझे बगल की ही गली में उस मंदिर की तरफ देखने को प्रेरित किया जो रेस्तराँ वाली गली में ही था और खिड़की से दिखाई दे रहा था।

‘तुमने… आपने कुछ देखा?’ उसने कुछ सहमी-सी आवाज में अपनी बात जारी की…

‘नहीं तो।’

‘देखा ही नहीं?’

‘मैं उधर ही देख रहा हूँ। कुछ नजर तो आया नहीं। काफी देर से खिड़की के बाहर कोई हलचल मुझे नहीं दिखाई दी।’

‘अचरज है?’

‘क्या था वहाँ?’ मैंने पूछा।

‘क्या बताऊँ?’ उसने हताशा में कहा।

‘बताओ न! ‘

‘अभी तो वहीं था दृश्य और अब…’

‘कोई धोखा हुआ होगा।’

‘नहीं। वही था। वही दृश्य… वह कुछ उत्तेजित-सा था।’

‘था क्या?’

‘कुछ नहीं…’ लेकिन यह कहते हुए लगता था जैसे वह ज्यादा बेचैन हो रहा हो।

‘बताओ न।’

‘कुछ नहीं।’

‘पर इतने बेचैन क्यों हो?’ मैंने जोर दे कर पूछा।

जो बात सामने आई वह अकल्पनीय थी। उसने कहा कि एक लाठी टेकती औरत फर्राटे से रूसी बोलती हुई उसे सामने के मंदिर में जल चढ़ाती हुई दीखी। यह चकित करनेवाला ही मामला था। मैं चुप रहा। मैं सीट की दूसरी तरफ बैठा हुआ था। नजारा तो मुझे भी दिखाई देता था पर उतना साफ नहीं। अब वह औरत तो वहाँ नहीं थी। मुझे बहुत सी मिली-जुली आवाजों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सुनाई दे रहा था।

‘पर आपको भाषा कैसे सुनाई दी?’ मैंने उससे पूछा क्योंकि कुछ सुना तो मैंने जरूर था पर वह क्या आवाजें थीं मुझे मालूम नहीं था।

‘मैंने एक औरत देखी। हाथों में बिल्कुल मेरे जैसा यंत्र था। बिल्कुल मेरे जैसा।’

‘नामुमकिन।’

‘अरे सच कह रहा हूँ। तुम मुझे पागल समझोगे। पर मैंने देखा। वह ठीक वैसे ही इस्तेमाल कर रही थी जैसे मैं।’

‘तुम ज्यादा ही अपने यंत्र के प्रति संवेदनशील हो। अरे वह कोई मोबाइल होगा। अब सब मोबाइल आकृति में तो एक ही जैसे हैं। यह खा-पी लो।’ मैंने मेज पर पड़ी खाद्य सामग्री की तरफ इशारा किया, ‘फिर हम मैकेनिक के पास चले चलेंगे।’

‘पर वह गई कहाँ? कहाँ लुप्त हो गई?’

‘यार, क्यों न हम लोग मैकेनिक के पास चलें। उसी से कहीं यंत्र ठीक हो गया हो और उस औरत ने ले लिया तो।’ वह अब बोलते हुए काँप भी रहा था।… उसकी हालत मुझे विचित्र लग रही थी।

‘तुम्हारा यंत्र है, तुम चाहे जब ले लो।’ मैं कह ही रहा था कि वह खिड़की की तरफ इशारा कर बोला, ‘देखो वो रही औरत।’

हमारी बातचीत की वजह से दूसरों की आँखें भी उस दिशा की ओर मुड़ीं। लोग अपनी मेजों के गिर्द बैठे हमारी तरफ आकर्षित-से हुए।

मैंने भरपूर खुली आँखों से उसे देखा। वह एक मामूली घरेलू औरत थी। उसके एक हाथ में गंगाजली थी तो दूसरे हाथ में मोबाइल जैसा यंत्र।

‘अरे भाई, वह कोई और मोबाइल होगा।’

‘नहीं। तुम उसके हाथ में देख सकते हो कि वह उसकी हथेलियों से बड़ा है।’

‘वह औरत की हथेली है न? कुछ न कुछ फर्क तो होगा।’ मैंने विनोदपूर्वक हँसते हुए कहा।

‘पहले मैंने भी यही सोचा था। पर मुझे पूरा यकीन है कि वह दौड़ कर मैकेनिक से ले आई होगी।’

‘तो जल्दी यह व्यंजन खत्म करो। चलते हैं वहीं।’

मैंने कहा, ‘पर याद रहे उसने हमें एक घंटे बाद बुलाया है।’ तब भी उस मित्र की बेचैनी छिपी न रही। उसने जैसे-तैसे प्लेट की सामग्री निगली और खड़ा हो गया।

‘रोशन दी कुल्फी’ से निकल पहले हम मंदिर की गली में घुसे। मंदिर का एक दरवाजा मुख्य सड़क की ओर भी था। पर वह बंद रहता था। गली की इस तरफ के दरवाजे से निकल कर आसानी से दूसरी गली में दूसरी तरफ के दरवाजे से निकला जा सकता था। इस वक्त मंदिर में औरतों की भीड़ थी। पंडितजन औरतों में ही व्यस्त थे।

‘हमारा धर्म औरतों के सहारे ही चल रहा है।’ मेरे दोस्त ने टिप्पणी की… ‘उन्हें जब फुर्सत मिलती है वे चली आती हैं।’ कह तो वह गया पर सामान्य नहीं हो पाया। वह उसी औरत को खोज रहा था।

तमाम औरतों की तरफ देखने के बाद वह बोला, ‘न जाने कहाँ चली गई। चलो…’ उसने हड़बड़ी दिखाई, ‘मैकेनिक के पास चलते हैं। कहीं वहीं पहुँच गई हो। मेरा तो भंडाफोड़ हो जाएगा।’

‘मैं कुछ समझा नहीं।’

‘यह समझना सचमुच कठिन है।’ वह बोला, ‘असल में हम लोग अमेरिका में ज्यादा ही शक्की हो रहे हैं। कोई नहीं चाहता उसका सीक्रेट दूसरा ले उड़े।’ उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे लिए मंदिर के बाहर दूसरी गली से बाहर निकल आया।

‘यह गलत गली है।’ मैंने कहा।

हम एक बार फिर मंदिर के भीतर घुसे और दूसरी गली में आ गए। गली में ही एक मोबाइल टेलीफोनों की दुकान थी। वहाँ ठीक मेरे मित्र के यंत्र जैसा एक यंत्र लटक रहा था।

‘रुको तो।’ उसने मुझे रोका, ‘देखो मेरे जैसा यंत्र। क्यों भाई यह क्या है?’

‘यह मल्टीपर्पज मोबाइल है। ब्लैक बरीज से आगे। कंप्यूटर की अब जरूरत नहीं रहेगी।’

मेरे मित्र ने यंत्र हाथ में लिया, ‘एकदम मेरे जैसा है। कीमत?’

‘बहुत ज्यादा नहीं है – असली तीनेक हजार डालर में अमेरिका में और यूरोप में मिलता है। मेरावाला तो ब्लैकबरीज से भी सस्ता है। अठारह हजार का है।’

‘अठारह हजार।’ मेरे मुँह से निकला। बहुत महँगा।

‘सस्ता है।’ मेरे मित्र ने मेरे अचरज को देखते हुए कहा, ‘ये ठीक कह रहे हैं सामान्यतः ब्लैकबरीज न्यू जनरेशन तीन हजार अमेरिकी डालर का है। लगभग डेढ़ लाख रुपए हिंदुस्तानी में…।’ मेरे मित्र ने यंत्र हाथ में पकड़ा हुआ था और बहुत प्रमुदित हो कर उसे देख रहा था। उसकी छवि थोड़ी देर की चिंतामग्न छवि से एकदम भिन्न थी। वह अपने यंत्र के बारे में जैसे भूल-सा गया था।

‘पसंद आया, सर? कुछ कम कर दूँगा अपने कमीशन में से। मेरे पास दो फोन हैं। बहुत दिक्कत से मिले हैं।’

‘दिक्कत से क्यों?’

‘असल में ये नकली हैं।’

‘क्या मतलब?’

‘अजी यहीं-कहीं एसेंबल हुए हैं।’

‘यहीं कहीं?’

‘हाँ!’

‘जानते हो इसके लिए कैसी टेक्नालाजी चाहिए?’

‘जानता हूँ सर। हमारे यहाँ ऐसी खोपड़ियाँ हैं जो आदमी की भीतरी दुनिया का डुप्लीकेट बना डालें।’

‘कैसे, कैसे?’ उसने व्यग्र हो पूछा।

‘सर, क्या बताऊँ। मैं उतना पढ़ा-लिखा नहीं हूँ।’

‘क्या कहा तुम्हें… तुमने कुछ भी इस बेतार के यंत्र के बारे में शिक्षा नहीं पाई?’

‘नहीं सर, मैं तो यहीं मार्केट में पहले थैले बेचने का काम करता था। पुलिसवालों ने पहले पकड़ा फिर रिश्वत ली और छोड़ दिया। तब से धंधा बदल दिया है। अब यही करता हूँ।’

‘तो यह काम कैसे कर रहे हो?’

‘बस सीख गया। मोबाइल से खेलते-खेलते ही सीख गया।’

‘आश्चर्य है। अरे भाई कुछ तो तुम्हें आता होगा?’

‘यह खोपड़ी है न सर।’ उसने अपने सिर को अपने बाएँ हाथ की मुट्ठी से बजाया। यह कूड़ा इसी में भरा है।’

‘तुम्हें इसके नाम वगैरह भी आते हैं?’

‘नहीं साहब। मैंने कुछ दिन पहले एक सर्किट बनाया था। मैं उसे अपने मानीटर पर फिट कर देता हूँ और उसकी फोटो प्रिंट अपने पास रख लेता था। वे आखर मुझे समझ ही नहीं आते थे। मैं रखता इसलिए था कि वायस का चित्र में जो ट्रांसफर हो रहा है यह ठीक है या नहीं… पर सर, एक नए मोबाइल के रिकार्डों में मुझे अंक गणित के आँकड़े भी मिले। तब तक सर यह नया माडल आ गया। बाजार में इसके बड़े दाम थे। मैंने तय किया बेटा महँगे से ही चिपकना ठीक है। मजदूरी ज्यादा मिलेगी।’ वह हँसने लगा।

उसका बोलना रुक नहीं रहा था। मैंने अपने दोस्त को कुहनी मारी तो चित्रलिखित-सा ठिठका हुआ वह मेरी तरफ देख मुस्कुराया।

‘वंडर …’ वह बोला, ‘वाकई कमाल है।’ उसने जोड़ा।

‘किस बात का कमाल! क्या वंडर?’ मैंने सवाल दागा।

‘अरे भाई, एक अनपढ़ आदमी एलिक्ट्रिल सर्किट की मूल बातें जान रहा है। क्या यह कम कमाल है। हाँ, बोलो कितना दाम लोगे?’

‘साब, अट्ठाइस हजार से कम तो नहीं। पर आप अगर इस डुप्लीकेट का भी डुप्लीकेट देखना चाहें तो मैं पाँच मिनट में ला सकता हूँ।’ उसने कहते-कहते अपने मोबाइल पर एक अंक पर दबाव दिया कि तत्काल उसे नंबर मिल गया, ‘बरींदर ओय मैं जरा गाहकों में फँसा हूँ तू एक जुड़वाँ भाई भेज दे।’

‘क्या मतलब?’ मैं चौंक गया, ‘डुप्लीकेट का भी डुप्लीकेट?’

‘अभी पंज मिंटा में आया साब। वो बरींदर से मँगा लिया न मैंने जुड़वाँ भाई…’ वह बोल कर अपने हाथ में लिए यंत्र को हिलाने-डुलाने लगा।

‘हमें तो जल्दी कहीं जाना है। पहले पता होता तो तुम्हारे पास आते। ऐसा एक मल्टीपर्पज मोबाइल थोड़ा खराब हो गया था। उसी के रिपेयर के लिए आए थे।’

‘ओय-साब जी यहाँ तो ऐसे कारीगर हैं कि नासा और सिलीकोन भैलीवाले अपने आप को भूल जाएँ…।’

वह बात कर ही रहा था कि दौड़ कर एक नौजवान आया और उसे वैसा ही मोबाइल थमा गया। मैंने गौर किया कि मेरे मित्र की आँखें चमक गईं।

‘ये सस्ता है सर, एकदम सस्ता। त्वाडे वास्ते बस छे हजार रुपए का। पर गारंटी कोई नहीं इसकी।’

‘क्रेडिट कार्ड से लोगे?’ उससे मेरे मित्र ने पूछा।

‘ना सर। मैं नकद लेता हूँ।’

‘दुनिया भर में क्रेडिट कार्ड चलते हैं।’

‘मेरे बिजनेस में क्रेडिट का कोई सवाल ही नहीं सर। इधर आपने दिए उधर मैंने डुप्लीकेट बनानेवाले को दिए।’

‘पर हर वक्त तो आदमी पैसा ले कर नहीं चलता।’

‘जब आप ले आओ सर, माल कहीं भागे थोड़े ही जाता है। अगर मिलेगा तो दाम देने पर आपका।’

‘थोड़ी देर में आ जाएँ?’

‘ठीक।’ और वह बोल कर अपने काम में लग गया। फिर उसने हमारी तरफ देखा भी नहीं। हम लोग वहाँ से किसी ऐसी युक्ति की तलाश में थे कि मेरे मित्र का काम हो जाय और वह अपना उपकरण ले ले।

‘यह एकदम मेरे जैसे यंत्र का डुप्लीकेट है।’ मेरे मित्र ने कहा, ‘और अचरज है कि एक अनपढ़ व्यक्ति हार्डवेयर के उस जंजाल भरे संसार की गुत्थियाँ जानता है। मैं सचमुच हैरान हूँ। बल्कि कहूँगा कि भारतीयों को आप ई-साक्षर कर दें तो वे दुनिया में क्रांति ला देंगे।’

‘ऐसे लोग अभ्यास से तैयार होते हैं। उन्हें कुछ बेसिक बातें बता दो वे अभ्यास और प्रयोग से कुछ भी कर लेंगे। ऐसे लोग देश में भरे पड़े हैं।’ मैंने स्पष्ट किया।

‘जो भी हो।’ उसने कहा, ‘यहाँ एटीएम नहीं होगा?’ हम चल ही रहे थे कि हमें एक जगह एटीएम मिल गया।

‘अपना पुराना यंत्र तो ले लो।’

‘वह तो ले लेंगे। मैं सोचता हूँ एक डुप्लीकेट भी खरीद डालूँ। मैं इस भारतीय चमत्कार का लाभ उठाना चाहता हूँ।’

वह एटीएम के अंदर घुसा। वहाँ सीमा पंद्रह हजार रुपए की थी। उसने दो क्रेडिट कार्ड इस्तेमाल किए और चुटकी बजाते ही उसके हाथों में तीस हजार रुपए आ थमे थे।

‘चलो जल्दी से गली में चलो।’ वह मुझे खींच कर ले गया।

‘क्या अपना यंत्र पहले न लोगे।…’ मैंने जोर दिया, ‘अभी कुछ देर पहले तो आप उसे ले कर बेहद बेचैन थे।’

‘अब इस बात को समझो। जब एक मामूली आदमी विश्व के बड़े से बड़े आविष्कार की नकल करने की क्षमता जुटा लेता है तो उसकी असलियतों को भी जानने की कोशिश होनी चाहिए।’ उसने एटीएम से लिए नोट कस कर जेब के भीतर पकड़े हुए थे।

हम लोग गली में पहुँचे तो वह युवक वैसे ही अपने यंत्रों में मशगूल था।

‘लो पैसे ले आया हूँ।’ मेरे मित्र ने उससे कहा।

‘कौन-सा लाऊँ?’

‘क्यों, तुम्हारे पास यहाँ नहीं?’

‘बहुत-सी चीजें यहाँ रखने में खतरा है न?’

‘खतरा! …काय का खतरा?’

‘अजी वो पुलिसवाले हैं न? आ धमकते हैं। कहते हैं नकली माल बेच रहे हो। हम कहते हैं भाई हम बेच रहे हैं तो बनानेवालों को पकड़ो न? साब वे मोटी रकम दे देते हैं और छूट जाते हैं। मिलीभगत इतनी तगड़ी है साब कि उतने ओरीजनल नहीं बिकते जितने डुप्लीकेट बिकते हैं। और यहाँ ही नहीं, बड़ी कोरियाई और दूसरी कंपनियाँ भी सस्ता माल खरीद कर अपने माल की जगह ये बेच कर मालामाल हो रही हैं।’ अपना लंबा वाक्य बोल वह तुरंत उठा और गली में आगे की ओर भाग गया…। थोड़ी ही देर में वह दो डिब्बे ले कर आ गया। हमें हैरानी थी कि वह उसी गली की किसी दुकान से दूसरी गली में जाता था और अपना मनचाहा माल ले आता था।

‘ये दो देखिए साब। जो लेटेस्ट चल रहे होंगे अमेरिका में उनकी नकल है।’

‘हिंदुस्तानी ही है न?’

‘एकदम खाँटी भगीरथ पैलेस की चीज है सर और डिब्बे पर नाम पढ़िए तो जापानी कंपनी का माल लगेगा। कुछ बरस पहले जापान टाप पर था, अब हमारा भगीरथ पैलेस नकल बनाने में माहिर हो गया। वहाँ आपको ऐसे-ऐसे सधे एक्सपर्ट मिलेंगे कि आप दाँत तले अँगुली दबा लेंगे।’

मेरे मित्र ने वह लिया और उससे सीधे पहले अपने-अपने उस सूत्र को अंकित किया जहाँ से सब सूचनाएँ मिल सकती थीं।

‘आश्चर्य!’ उसने चीख कर कहा, ‘ठीक वैसा ही। अब मैं मजे में अपनी गोपनीय चीजें इसमें ट्रांसफर कर सकता हूँ।’ वह कुछ ज्यादा ही खुश दीख रहा था – ‘चलो तो अपना ओरिजनल यंत्र भी ले लें। डर है कहीं कोई सूचना लीक न हो जाय।’

हम पैसे चुका सीधे वहाँ से गफ्फार मार्केट की ओर चले। हम उस दुकान पर पहुँचे तो अभी वह युवक उसी यंत्र पर झुका हुआ था।

‘आप ठीक टाइम पर आए!’ उसने कहा, ‘मैं करीब-करीब ठीक ही कर चुका हूँ।’ बस इसका एक सर्किट कहीं बाहर से कनेक्ट है। उसके खुलने भर की देर है।’

‘क्या तुम इसके रिकार्ड इस नए यंत्र में ट्रांसफर कर सकते हो?’

‘हाँ – क्यों नहीं। पर जो चीज क्लोज होगी वह ऐसी ही रहेगी। जब तक बाहर का कोड सिग्नल्स की तमाम चीजों को नहीं खोलता।’

मेरे मित्र ने उसे नया मोबाइल दिया।

‘यह तो बड़ा अच्छा है। पर भगीरथीयन है।’ वह बोला।

‘क्या मतलब?’

‘अजी भगीरथ पैलेस का बना हुआ। कुछ दिन तो काम चला लेगा। बाकी का अल्लाह मालिक।’ उसने एक छोटी तार से दोनों यंत्रों को जोड़ा और उनके तमाम संरक्षित रिकार्ड दूसरे में भरने लगा।

‘बस वही क्लोज्ड सर्विसवाला मामला, यहाँ रिकार्ड नहीं होगा।’

‘तो कहाँ होगा?’

‘मैं सोचता था कि ओरिजिनल कंपनी को भेजना पड़ेगा। जरा अपना पासवर्ड तो बताना…’

‘यह मुझे पकड़ा दो तो मैं पासवर्ड दर्ज कर लूँगा।’

उसने हैरानी में मेरे मित्र को देखा। वह थोड़ा चुप रहा। फिर उसने धीरे से नीचे पड़े एक डुप्लीकेट का बटन दबाया और कहा, ‘आप न बताएँ उससे क्या फर्क पड़ता है। हमारा डुप्लीकेट हर रहस्य को बता देता है।’ उसने अपने डुप्लीकेट मोबाइल को मेरे दोस्त के सामने किया, ‘देखिए आपका बारह डिजिट का सीक्रेट पासवर्ड।’

मेरा मित्र हैरानी में कभी उसे देखता तो कभी मुझे। वह असमंजस में था और उसके चेहरे पर थोड़ा गुस्सा झलका, ‘मैनुअल में तो लिखा था कि इसे कभी कोई कहीं डिटेक्ट नहीं कर सकता।’

‘सर… मैनुअल मैंने देखा नहीं। हमारे यहाँ तो ऐसी प्रतिभाएँ हैं जो आपके टेलीफोन के पैरेरल अपना नंबर लगा कर आपकी बातें सुन सकते हैं और आपको पता भी नहीं चलेगा।’

‘सत्यानाश।’ उसने कहा, ‘इसका मतलब है कि मेरा गोपनीय डाटा सार्वजनिक हो सकता है?’

‘कौन-सी चीज गोपनीय रह गई है साहब। आप जो कुछ फोन पर बात करते हैं वह बिना आपको पता चले, बिना रिकार्ड सुनी जा सकती है। मेरे पास तो विचित्र-सी चीज है। इस इन्स्ट्रूमेंट से आप अपने किसी भी जानकार का मोबाइल जैम कर सकते हैं। इस नए युग में असंभव भी अब संभव है, सर…’ वह बोला।

अपने मित्र को विचलित देख मैं कुछ उपाय सोचने लगा। मुझे महसूस हुआ कि मुझे इसमें कूद ही पड़ना चाहिए।

‘अब इसका हिसाब करो भई।’ यह बात दोनों को संबोधित थी।

‘क्या हिसाब?’ मेरा मित्र चीखने के अंदाज में बोला, ‘जो चीज मैं यहीं देखना चाहता था वह यांत्रिक विवशता के कारण अमेरिका में ही खुल पाएगी और यह बच्चा कहता है सब कुछ यह जान सकता है।’

‘नहीं, मैंने ऐसे नहीं कहा साहब… मैं तो बोल रहा था आप पासवर्ड मुझे न भी बताएँ तो भी मैं उसे जान सकता हूँ। इससे ज्यादा कुछ नहीं।’

‘यही तो समझ में नहीं आ रहा है?’

‘पर यह आसान चीज है।’

‘कैसे।’

‘आप उम्र में बड़े हैं। फिर भी बताता हूँ। आदमी कुछ खाता है तो उससे रक्त बनता है। यह सामान्य-सी चीज है। मशीनों में भी यही मामला है। उसमें हम जो फीड करेंगे उन्हीं के अनुरूप वह काम करेगी। है न?’

‘परंतु कुछ चीजों को तो सिर्फ वही जान सकता है जो प्रयोगकर्ता यानी यूजर है?’

‘साब थ्योरी में सब ठीक है। हम इन पुर्जों के भीतरी रहस्य जानते हैं। इनमें क्या है यह तो एक इंजीनियर जानता ही है – क्या छिपाया हुआ है कहाँ है, यह हम जैसे बेपढ़े लोग खोज लाते हैं।’

‘अच्छा मेरा पुरानावाला क्या पूरी तरह ठीक हो जाएगा?’

‘मैं यहीं ठीक कर लेता पर उसके भीतरी लाक के कुछ पुर्जे हैं जो यहाँ मिल नहीं रहे। बना तो दूँगा। पर फाउंड्री इतने बारीक चिप्स की खराद पर काम नहीं करती। इन्हें हाथ से बनाना पड़ेगा, कुछ वक्त लग जाएगा।’ उसने कहा।

‘जितना हो सके मेरे पुराने की डिटेल्स नए में ट्रांसफर कर दो।’

‘यह तो मैं कह ही रहा था।’

‘बाकी कब तक ठीक हो जाएगा?’

‘आप पासवर्ड दे देंगे तो…’

‘पर उसकी सीक्रेसी की क्या गारंटी?’

‘सर, मुझसे बाहर नहीं जाएगी और आप जानते ही हैं मैं सिर्फ एक मैकेनिक के रूप में काम करता हूँ। मैं मिलियन बिलियन डालर्स की सिर्फ फीगर्स देख सकता हूँ।’

उसकी गहरी बातें सुन कर मुझे भी हैरानी हो रही थी।

‘नहीं, इसमें इससे भी ज्यादा गोपनीय है। मैं नहीं चाहता कि तुम जानो।’

‘आप ठीक कह रहे हैं, सर।’ उसने अपनी आँखों से कुछ ऐसा भाव झलकाया, बच्चे हमसे टकरा कर क्या करोगे। और इसी बीच वह फक्क से हँस दिया। उसके हँसने की कोई वजह नहीं थी। वह हँसे ही जा रहा था। आसपास के लोग खड़े हो गए थे। जैसे पूछ रहे हों, ‘क्या हो गया…’

सचमुच मेरे दोस्त ने पूछा, ‘क्या मामला है?’

‘बस्स साहब। इसमें एक लिंक वीडियो भी है जो कैमरे के साथ छिपा है।’

‘अरे बाप रे… तूने उसका भी पता लगा लिया।’ मेरे दोस्त ने लपक कर अपना यंत्र अपने हाथ में ले लिया।

‘थोड़ा इसे ठीक कर लूँ… मैं तो काम में लगा था।’

‘अब क्या ठीक करना है?’

‘सर, इसके कई सर्किट जो गोपनीय क्षेत्र के हैं, एक दूसरे पर ‘जंबल्ड अप’ हैं। उन्हें ठीक करना है।’

‘अब रहने ही दो।’

‘आप लोग जल्दी आ गए न?’

‘चलो अब बताओ पैसे!’

‘आप जल्दी आ गए न? मैं पूरी तरह दुरुस्त कर ही चुका था। खैर पैसे जितने आपकी मर्जी हो। कुछ भी दे दें।’

‘हमें देर हो रही है। कहीं पहुँचना भी है। अगर कोई कंप्लीकेशन हुई तो…’

‘नहीं होगी।’ उसने कह कर बात खत्म कर दिया फिर अपने दूसरे यंत्रों में व्यस्त हो गया।

हम लोग अनिर्णय में खड़े थे।

मेरे दोस्त ने जेब से पर्स निकाला, ‘पैसे तो बताओ?’

‘क्या मैंने पहले नहीं बताए थे?’

‘नहीं।’ मेरे दोस्त ने कहा।

‘आप जो मुनासिब समझें।’

‘अरे भाई बताओ भी।’ मेरे दोस्त ने फिर दुहराया।

‘दो हजार रुपए दे दें।’

‘ज्यादा हैं?’

वह अपने काम में लगा रहा। उसने कोई उत्तर नहीं दिया।

‘मुझे कुछ परेशानी होगी तो मैं आपको फोन कर लूँगा।’ मेरे मित्र ने पैसे देते हुए कहा, ‘अपना नंबर तो दे दो।’

‘आप इस नंबर पर रमेश पूछ लीजिए… हम एक दर्जन रमेश हैं जो इसी काम में माहिर हैं। बस हम कहीं बाहर आ-जा नहीं सकते।’

‘मतलब हमें यहीं आना पड़ेगा।’

‘जी यही बात है। आना आपको ही पड़ेगा। हाँ कभी मैं नहीं मिला तो दूसरा मिल जाएगा। फोन भी हमारा एक ही नंबर का है।’

‘एक ही नंबर का टेलीफोन?’ मेरे दोस्त ने हैरानी जताई।

‘जी हाँ। हम द्रौपदी के देश के हैं न? जहाँ एक बच्चे के पाँच बाप हो सकते हैं। पाँच जनों की एक पत्नी हो सकती है।’ वह हँसने लगा, मेरी माँ कहती है ‘मोये… कहीं सारे एक लड़की से शादी न कर लेना। महाभारत छिड़ जाएगा। एकदम महाभारत।’

‘क्या कह रहे हो यार।’ मेरा दोस्त विचलित हो गया, ‘क्या मैं सचमुच हिंदुस्तान में हूँ?’

‘सर… आपका यंत्र हम टेलीफोन पर ही ठीक कर देंगे। जो भी सुनेगा समझ कर वह तत्काल काम कर देगा।’ इसी बीच उसका फोन बज उठा। वह शहनाई की तरह घंटी थी जो बाद में सबद-कीर्तन की तर्ज पर फैल गई थी और अनुगूँज के रूप में उसी का अहसास करा रही थी।

‘मैं इसी पर फोन करूँगा।’ मेरे दोस्त ने कहा, ‘परंतु यहाँ से जाने से पहले यह जरूर पूछना चाहूँगा कि क्या नकल की इस दुनिया को सरकार लगाम नहीं लगाती।’

‘क्यों नहीं सर?’

‘तो फिर इतने खुले में कैसे करते हैं लोग?’

‘सर सच कहूँ।’

‘हाँ बोलो।’

‘यह सब मिलीभगत है।’ वह जोरों से हँसा और हँसता रहा।

अपना यंत्र ले कर हम लौटने को हुए। हम मैकेनिक को अलविदा कहने ही वाले थे कि उसने हमें रुकने के लिए इशारा किया।

‘असल में सर जब मैं मिलीभगत कहता हूँ तो सच कहता हूँ, एकदम सच। साले बिचौलिए करोड़ों-लाखों डकार जाते हैं और पता भी नहीं चलता कि क्या हुआ। अब हमारी हालत देखिए, नई से नई चीज बनाते हैं, पर हमारी कोई पूछ ही नहीं। इन गलियारों में आप एक से एक आदमी देखेंगे जो बहुत ही दिमागवाले हैं। पर उन्हें कौन पूछता है?’

मेरे मित्र थोड़ा विचलित हो गए थे।

मैंने उन्हें उस स्थिति से मुक्त करने के लिए प्रस्ताव दिया, ‘ऐसा करते हैं बाजार का एक चक्कर लगा लेते हैं। शायद कुछ लेने की इच्छा हो जाय।’

‘ठीक है।’ हम लोग अब चलने को ही थे कि वह युवक एकदम खड़ा हो गया। बोला, ‘साहब, जाने से पहले मेरी एक प्रार्थना जरूर सुनें।’

‘हाँ बताओ।’

‘साब वादा करें कि आप मान जाएँगे।’

‘माननेवाली बात होगी तो जरूर मानेंगे।’

‘मैं नाइजीरिया के एक आदमी को यहाँ फिरते देखता हूँ, वह आपके जैसे यंत्रों की टोह में रहता है। बस ऐसे ही लोगों से बचे रहिए।’

‘सो तो मैं हर पुख्ता गोपनीयता बरतता हूँ।’

‘उतना ही काफी नहीं है।’ उसने मेरे कान में कहा, ‘अपने पासवर्ड में कुछ बौद्ध मंत्र डाल दें। किसी के बाप की हिम्मत न होगी छेड़ने की।’

‘यह तो ठीक रहा।’ मैं संदेह में था। वह मुझे क्या बता रहा है? पर क्यों, यह पूछता तो काफी समय लगता।

‘मैं ठीक कह रहा हूँ, सर।’ उसने फिर मुझे रोकने के ही अंदाज में बोलना शुरू किया, ‘मैं यह सब इसलिए कह रहा हूँ सर कि जब तक आप सचेत नहीं हो जाते कुछ लोग आपको नुकसान पहुँचाने के फिराक में हैं।’

‘ठीक है, मैं ऐसा ही कर लूँगा।’ मैंने जल्दी के मारे कहा।

‘तो फिर आपको बाद में फोन करूँगा।’

‘ठीक है…’ और हम आगे बढ़ आए।

‘करोलबाग की एक विचित्र दुनिया है,’ मेरे दोस्त ने कहा।

‘हाँ, विचित्र ही है।’ मैंने हामी भरी।

‘यह व्यापारियों का स्वर्ग है।’

‘निश्चय ही।’ मैंने उत्तर दिया।

‘परंतु आज अनुभव हुआ कि नई से नई चीज की नकल में भी यह सबसे आगे है।’ मेरे मित्र ने टिप्पणी कर डाली।

मेरा खयाल है इस पर गंभीरता से सोचना होगा कि यह कैसे हो रहा है?

अब मेरे मित्र के पास दो यंत्र थे। और वे उतावले थे कि अपने डेरे पर जा कर कुछ देर अपना काम करें। मुझे भूख लग रही थी सो मैं उन्हें किसी अच्छी जगह ले जाना चाहता था।

‘क्यों न कहीं बैठें?’ मैंने प्रस्ताव दिया।

‘नहीं भाई। मैं सीधे डेरे पर जाना चाहता हूँ।’

‘इस वक्त और डेरे पर?’

‘दरअसल, पीछे छूटे हुए काम पूरा करना चाहता हूँ।’ उसने उतावली दिखाई।

‘तो फिर सेंटर में कुछ खा लेंगे।’ मैंने प्रस्ताव दिया।

‘परंतु मित्रवर, मुझे अब इन दो यंत्रों से अपने काम पूरे करने हैं। मैं मूर्खता में अपने लौटने की टिकटें भी बनवा चुका हूँ। अगर इन यंत्रों से काम चल जाता है तो मैं यहाँ भी रुक सकता हूँ।’

‘सेंटर में पर्याप्त एकांत है।’ मैंने सुझाया

‘परंतु…’

‘अब ज्यादा क्या सोचना?’

‘कुछ कागज डेरे पर हैं।’

‘जितनी देर कागजों के बिना काम चल सकता है उतनी ही देर, बस उतनी ही देर चलाओ। फिर वापिस हो लेंगे!’ तभी यंत्र में हलचल हुई।

मेरे मित्र ने जेब से निकाल कर नया यंत्र बाहर किया। उसका चेहरा खिल गया था।

‘यह नए यंत्र में मेरी सूचनाएँ आने लगी हैं, यह बहुत अच्छा है।’ वह खुश हुआ। हम किसी सवारी की तलाश में आगे निकल आए।

‘वो देखो तो एक टैक्सी खड़ी है।’ मेरे मित्र ने बताया।

जब तक हम वहाँ पहुँचे टैक्सी जा चुकी थी।

‘चलो थोड़ी देर इंतजार कर लेते हैं।’ मैंने यह सुझाव इसलिए दिया कि उसे अपने यंत्र से खेलने का मौका मिल जाय।

‘मैं जिस चीज से बेचैन था अब उससे मुक्त हूँ। क्योंकि सभी सूचनाएँ ठीक-ठीक आ रही हैं। विचित्र हैं ये लड़के, उसने सारी चीजें इसमें ट्रांसफर कर दी हैं।’ मेरा मित्र अब खूब खुश दीख रहा था। पहले जैसी मुर्दनी, संदेह और अविश्वास उसके चेहरे से गायब थे। वह हिंदुस्तानी कारीगरों की कारीगरी से विस्मित था। एकदम विस्मित।

‘बस मुझे डेरे पर पहुँच कर इस सूचना का मिलान करना है। है यह आसान काम पर गणितीय समीकरण के कारण इसे एकदम सही होना चाहिए।’

तभी कहीं से एक टैक्सी आती दिखाई दी। हमारे हाथ देने पर वह रुकी, ‘सर, सिर्फ साउथ चलूँगा।’ ड्राइवर सरदार था, सीधे बोला।

‘ओ चलो नी साउथ ही चलते हैं।’ मेरे मित्र ने दरवाजा खोला। पहले मुझे सवार कराया फिर खुद बैठा, ‘सर कित्थे?’ सरदार ने गंतव्य पूछा।

हमने एक साथ कहा, ‘लोधी गार्डन के पास।’

‘पैसे आप ही सोच कर देना साहब।’ वह बोला और तेज रफ्तार गाड़ी चलाने लगा। वह कुछ-कुछ हँसमुख था।

‘जरा धीरे चलो भाई।’ मैंने टोका।

‘सड़क साफ है न जी…।’ वह अपनी रफ्तार से चलता रहा, ‘ये साले अमेरिकी इस इलाके में भी अपनी नाक घुसा रहे हैं।’ वह अपनी रौ में बोलने लगा, ‘लो जी अपना चूल्हे तक के बीच…’

‘क्या कह रहे हो भाई?’ मैंने पूछा।

‘अजी ये अमेरिकी हैं न? अब देखो बगल में पाकिस्तान में घुसे हुए हैं।’

‘अरे भाई, तुम्हारी ये सवारी भी अमेरिकी है,’ मैंने टैक्सी ड्राइवर से अपने मित्र का परिचय कराते हुए कहा।

‘ये तो हिंदुस्तानी लग रहे हैं और हिंदुस्तानी बोल रहे हैं।’

‘अब वहाँ जो हिंदुस्तानी रहते हैं वे अपनी जुबान ही बोलेंगे न?’

‘वोह! तो रब्ब की मेहरबानी है। साब, मुझे भी वहीं ले चलो। मैंने सुना है अमेरिका में सड़कों पर डालर झड़ते रहते हैं… मैं भी अमेरिका जाऊँगा… उसने स्टेयरिंग व्हील पर ताल देना आरंभ कर दिया… मैं भी जाऊँगा… मैं भी जाऊँगा…’

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मैं भी जाऊँगा – Main Bhi Jaunga

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