मैं उन्मुक्त गगन का पंथी | प्रेमशंकर मिश्र
मैं उन्मुक्त गगन का पंथी | प्रेमशंकर मिश्र
मैं उन्मुक्त गगन का पंथी
मुझको अपनी राह चाहिए।
यह जग है
इसका युग-युग से
मानव को छलने का क्रम है।
नेह प्यार या स्वांग मनोहर
केवल मायाविनि का भ्रम है।
एक-एक तिनके को चुनकर
तुमने सुंदर नीड़ रचाया
किंतु नियति की झँझा सम्मुख
विफल तुम्हारा सारा श्रम है।
अस्तु तुम्हें अपने जीने मरने की खुद परवाह चाहिए।
मैं उन्मुक्त… ।
प्यार और दुनिया दोनों दो ओर छोर हैं इस जीवन में
एक अगर है दीप दूसरा प्रबल प्रभंजन इस जीवन में
इस धरती के नियम निराले फूँक-फूँक पग धरना पंथी
जनम जनम रोते बितेंगे, हँसे अगर पल भर जीवन में
अपनी मौज और मस्ती में अपना प्रबल प्रवाह चाहिए।
मैं उन्मुक्त… ।
देख लिए मैंने दूनिया के सारे धोखे गोरखधंधे
आँख खुली रह जाती फिर भी रह जाते अंधे के अंधे
धमप-छाँव, सर्दी-गर्मी, तू-तू मैं-मैं की क्या सीमाएँ
पाप पुण्य का व्यर्थ झमेला ढोता मानव अपने कँधे
अपना क्या अपने को केवल पर भरने की चाह चाहिए।
मैं उन्मुक्त गगन का पंथी…