मैं तुम्हें पुकारता हूँ | विश्वनाथ-प्रसाद-तिवारी
मैं तुम्हें पुकारता हूँ | विश्वनाथ-प्रसाद-तिवारी

मैं तुम्हें पुकारता हूँ | विश्वनाथ-प्रसाद-तिवारी

मैं तुम्हें पुकारता हूँ | विश्वनाथ-प्रसाद-तिवारी

मैं तुम्हें पुकारता हूँ
जैसे झुलसी वनस्पतियाँ
बादल को पुकारती हैं।

तुम मैदान में उतरी हुई एक पहाड़ी नदी हो
बिजली की कौंध में चमकती हिम चोटी।

अर्धरात्रि में नींद सहसा उचट गई है
बियाबान में खोई हुई पगडंडी की तरह।

See also  मदर इंडिया

तारे आसमान में टिमटिमा रहे हैं
धरती पर सिहरता है एक खंडहर।
हवा में सूखी पत्तियाँ झड़ रही हैं
और बह रही हैं काले जल के साथ।

मेरा एकांत एक लपट है
पैरों के नीचे पड़ा विषधर।

मैं तुम्हें पुकारता हूँ
और आकाश को, क्षितिज को,
समुद्र को
बाँहों में भर लेना चाहता हूँ।

See also  झील | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

Leave a comment

Leave a Reply