मछली की चाह | पंकज चतुर्वेदी
मछली की चाह | पंकज चतुर्वेदी

मछली की चाह | पंकज चतुर्वेदी

गीतकार ने गाये कई गीत 
कंठ मधुर था 
श्रोता थे गद्गद विभोर

अंत में उन्होंने कहा : 
अब मैं वह गीत आपको सुनाऊँगा 
जो मेरी कीर्ति का शिखर है 
जो वर्षों पहले ‘धर्मयुग’ में छपा 
और बी.बी.सी. लंदन से 
जिसका प्रसारण हुआ कई बार

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गीत में मछुआरे से निवेदन था 
कि वह एक बार और जाल फेंके 
शायद किसी मछली में 
बंधन की चाह हो

मेरे साथ अष्टभुजा जी बैठे थे 
बोले : जाल फेंकने तक तो ठीक है 
पर किसी मछली में 
बंधन की चाह 
कैसे हो सकती है ?

उनके सवाल से 
मेरी तो आँखें खुल गईं 
श्रोता अब भी झूम रहे थे 
मैंने सोचा, उन सबसे जाकर पूछूँ : 
इस पर क्यों मुग्ध हुए जाते हो मित्रो ! 
मछली कोई मरना क्यों चाहेगी ?

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