माँ | प्रमोद कुमार तिवारी
माँ | प्रमोद कुमार तिवारी

माँ | प्रमोद कुमार तिवारी

माँ | प्रमोद कुमार तिवारी

पता नहीं
कैसी है माँ
गुमसुम खोई-खोई
कुम्हार की माटी
आटे की लोई,
निर्विकार आँखों से देखती
नारी शुभचिंतकों को।
आँचल पसार लेती
बुआ के ताने
दादी की गाली।
कोई अंतर नहीं दिखता माँ में
जब गाहे बगाहे उसे
फींच देते हैं मेरे पिता
बस, वो चूल्हे के पास बैठ आँखें मलने लगती है
या गीले चेहरे पर क्षीण मुस्कान लपेट
लग जाती है काम में।
बड़ी गीतगवनी है माँ
गाती है आदिम लोकधुनों में
उसकी पतली आवाज में
सुनाई देता है औरों को संगीत
मुझे आदिम रुदन।

बहुरूपिया है माँ
अंडा देखते ही उबकाने वाली
पिता के लिए मांस पकाती माँ,
दिन में बहूपन बचाती
रात में गोबर पाथती माँ
पिता की खैनी मलती
खाँसते-खाँसते आँसुओं से गीली होती माँ
खुरदुरे हाथों से आँगन चिकनाती
किसी कोने में भात घोटती माँ।

पता नहीं क्या है माँ
अभिनेत्री, देवी, माया, पागल
अभिशप्त हूँ, देखने को
उसका सपाट खामोश चेहरा।
उसके टनों भारी मौन तले
कुचल जाता है अक्सर मेरा वजूद।
कभी-कभी हँसती है माँ
एक अजीब सी हँसी
देखता हूँ उसकी हँसी
और घिसटता पाता हूँ खुद को
अनंत अँधेरी खाई में
खुद को बचाने के लिए
टोक देता हूँ उसे।
तब गोद में ले
जोर से भींच लेती है वह
मुझे
और मेरे प्रश्नों को।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *