माँ के रोने | राजेंद्र प्रसाद पांडेय
माँ के रोने | राजेंद्र प्रसाद पांडेय

माँ के रोने | राजेंद्र प्रसाद पांडेय

माँ के रोने | राजेंद्र प्रसाद पांडेय

माँ का रोना था
लौंगी भौजी का न रह जाना
गाँव भर की गर्भवतियों की
सोवर की दाई के हाथ के हुनर की
समाप्त हो गयी भूमिका

माँ का ही रोना था
मंगल भाई का
बैदकी-भरा पोढ़ हाथ
साँप और बिच्छू के
अंग-अंग पसर चुके
विष के बंधन
खोलती मुक्ति का
खुद धर लिया जाना

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रोना था माँ का
बाबू द्वारा दूध न देने वाली गाय
(नखाना) बचाने के लिए
न बेची जाने की दलील
असफल हो जाना

और था रोना ही माँ का
बाज द्वारा गौरैया पर
मारा गया झपट्टा
नैहर छोड़ती बिटिया-बहिनी
चढ़े असाढ़ तक
न बरसते बादल
रघुराज सिंह का
निरबंसी रह जाने का डर
या गोकुल बनिया के घर
तीसरी नकबजनी

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पूरे गाँव जगमगाते थे
करुणा से उत्फुल्ल
रूप की तुरही बजाते
फूट पड़े पौधों-जैसे
माँ के रोने
विचलित न होने को
चुनौती-दर चुनौती

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