माँ के नाम एक पत्र
माँ के नाम एक पत्र

तू अभी जिंदा है, ओ मेरी बूढ़ी माँ?
जिंदा हूँ मैं भी। प्रणाम तुझे प्रणाम!
तेरी झोंपड़ी के ऊपर सदा चमकता रहे
साँझ का सुंदर सुखद आलोक!

गाँव वालों ने लिखा है तू अपनी चिंताओं में खोई
बहुत उदास रहती है मेरे लिए,
कि अक्‍सर निकल आती है बाहर रास्‍ते पर
पुराने फैशन का जर्जर चोगा पहने!

साँझ के नीले धुँघलके में तुझे
दिखता हे बस एक ही दृश्‍य
जैसे शराबखाने के झगड़े में
मेरे दिल में किसी ने घोंप दिया है चाकू।

माँ, शांत रह, ऐसा कुछ नहीं होगा,
यह बस तकलीफ देह बड़बड़ाहट है
मैं ऐसा पिय्यकड़ नहीं
कि मर जाऊँ तुझे देखे बिना।

मैं पहले की तरह उतना ही नाजुक हूँ,
बस एक ही सपना रहा है मेरा
कि जल्‍द-से-जल्‍द इस बोझिल अवसाद से।
लौट सकूँ गाँव, अपने छोटे-से घर।

मैं लौट आऊँगा जब हमारा बगीचा
बहार की तरह फैलायेगा शाखाएँ
बस तू जगाना नहीं सुबह-सुबह
जगाया करती थी जैसे आठ बरस पहले।

जगाना नहीं जिसके सपने देखे थे,
याद न दिलाना जिसे हासिल नहीं कर सके!
सहन करने पड़े है जिंदगी में समय से पहले
थकान और नुकसान तरह-तरह के।

सिखाना नहीं प्रार्थना करना! इसकी जरूरत नहीं।
वापिस पुराने की तरफ जाने का कोई रास्‍ता नहीं।
सुख और सहारे का तू अकेली है स्‍त्रोत
तू अकेली है मेरे लिए वह सुखद आलोक।

भूल जा तू अपनी सब चिंताएँ,
इतनी उदास न हुआ कर तू मेरे लिए!
इतना अक्‍सर निकला न कर सड़क पर
पुराने फैशन का जर्जर चोगा पहने।

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