लवर्स | निर्मल वर्मा
लवर्स | निर्मल वर्मा

लवर्स | निर्मल वर्मा – Lovers

लवर्स | निर्मल वर्मा

‘एल्प्स’ के सामने कारीडोर में अंग्रेजी-अमरीकी पत्रिकाओं की दुकान है। सीढ़ियों के नीचे जो बित्ते-भर की जगह खाली रहती है, वहीं पर आमने-सामने दो बेंचें बिछी हैं। इन बेंचों पर सेकंड हैंड किताबें, पॉकेट-बुक, उपन्यास और क्रिसमस कार्ड पड़े हैं।

दिसंबर… पुराने साल के चंद आखिरी दिन।

नीला आकाश… कँपकँपाती, करारी हवा। कत्थई रंग का सूट पहने एक अधेड़ किंतु भारी डील-डौल के व्यक्ति आते हैं। दुकान के सामने खड़े होकर ऊबी निगाहों से इधर-उधर देखते हैं। उन्होंने पत्रिकाओं के ढेर के नीचे से एक जर्द, पुरानी-फटी मैगजीन उठाई है। मैगजीन के कवर पर लेटी एक अर्द्ध-नग्न गौर युवती का चित्र है। वह यह चित्र दुकान पर बैठे लड़के को दिखाते हैं और आँख मारकर हँसते हैं। लड़के को उस नंगी स्त्री में कोई दिलचस्पी नहीं है, किंतु गाहक गाहक है, और उसे खुश करने के लिए वह भी मुस्कराता है।

कत्थई सूटवाले सज्जन मेरी ओर देखते हैं। सोचते हैं, शायद मैं भी हँसूँगा। किंतु इस दौरान में लड़का सीटी बजाने लगता है, धीरे-धीरे। लगता है, सीटी की आवाज उसके होंठों से नहीं, उसकी छाती के भीतर से आ रही है। मैं दूसरी ओर देखने लगता हूँ।

मैं पिछली रात नहीं सोया और सुबह भी, जब अक्सर मुझे नींद आ जाती है, मुझे नींद नहीं आई। मुझे यहाँ आना था और मैं रात-भर यही सोचता रहा कि मैं यहाँ आऊँगा, कारीडोर में खड़ा रहूँगा। मैं उस सड़क की ओर देख रहा हूँ, जहाँ से उसे आना है, जहाँ से वह हमेशा आती है। उस सड़क के दोनों ओर लैंप-पोस्टों पर लाल फैस्टून लगे हैं… बाँसों पर झंडे लगाए गए हैं। आए-दिन विदेशी नेता इस सड़क से गुजरते हैं।

जब हवा चलती है, फैस्टून गुब्बारे की तरह फूल जाते हैं, आकाश झंडों के बीच सिमट आता है… नीले लिफाफे-सा। मुझे बहुत-सी चीजें अच्छी लगती हैं। जब रात को मुझे नींद नहीं आती, तो मैं अक्सर एक-एक करके इन चीजों को गिनता हूँ, जो मुझे अच्छी लगती हैं, जैसे हवा में रंग-बिरंगे झंडों का फरफराना, जैसे चुपचाप प्रतीक्षा करना…

अब ये दोनों बातें हैं। मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ। उसे देर नहीं हुई है। मैं खुद जानबूझकर समय से पहले आ गया हूँ। उसे ठीक समय पर आना अच्छा लगता है, न कुछ पहले, न कुछ बाद में, इसीलिए मैं अक्सर ठीक समय से पहले आ जाता हूँ। मुझे प्रतीक्षा करना, देर तक प्रतीक्षा करते रहना अच्छा लगता है।

धीरे-धीरे समय पास सरक रहा है। एक ही जगह पर खड़े रहना, एक ही दिशा में ताकते रहना, यह शायद ठीक नहीं है। लोगों का कौतूहल जाग उठता है। मैं कारीडोर में टहलता हुआ एक बार फिर किताबों की दुकान के सामने खड़ा हो जाता हूँ। कत्थई रंग के सूटवाले सज्जन जा चुके हैं। इस बार दुकान पर कोई गाहक नहीं है। लड़का एक बार मेरी ओर ध्यान से देखता है और फिर मैली झाड़न से पत्रिकाओं पर जमी धूल पोंछने लगता है।

कवर पर धूल का एक टुकड़ा आ सिमटा है। बीच में लेटी युवती की नंगी जाँघों पर धूल के कण उड़ते हैं। …लगता है, वह सो रही है।

फुटपाथ पर पत्तों का शोर है। यह शोर मैंने पिछली रात को भी सुना था। पिछली रात हमारे शहर में तेज हवा चली थी। आज सुबह जब मैं घर की सीढ़ियों से नीचे उतरा था, तो मैंने इन पत्तों को देखा था। कल रात ये पत्ते फुटपाथ से उड़कर सीढ़ियों पर आ ठहरे होंगे। मुझे यह सोचना अच्छा लगता है कि हम दोनों एक ही शहर में रहते हैं, एक ही शहर के पत्ते अलग-अलग घरों की सीढ़ियों पर बिखर जाते हैं और जब हवा चलती है, तो उनका शोर उसके और मेरे घर के दरवाजों को एक संग खटखटाता है।

यह दिल्ली है और दिसंबर के दिन हैं और साल के आखिरी पत्ते कारीडोर में उड़ रहे हैं। मैं कनॉट प्लेस के एक कारीडोर में खड़ा हूँ, खड़ा हूँ और प्रतीक्षा कर रहा हूँ। वह आती होगी।

मैं जानता था, वह दिन आएगा, जब मैं ‘एल्प्स’ के सामने खड़ा होकर प्रतीक्षा करूँगा। कल शाम उसका टेलीफोन आया था। कहा था कि वह आज सुबह ‘एल्प्स’ के सामने मिलेगी। उसने कुछ और नहीं कहा था… उस पत्र का कोई जिक्र नहीं किया था, जिसके लिए वह आज यहाँ आ रही है। मैं जानता था कि मेरे पत्र का उत्तर वह नहीं भेजेगी, वह लिख नहीं सकती। मैं लिख नहीं सकती – एक दिन उसने कहा था। …उस दिन हम दोनों हुमायूँ के मकबरे गए थे। वहाँ वह नंगे पाँव घास पर चली थी। मुझे नंगे पाँव घास पर चलना अच्छा लगता है – उसने कहा था। मैंने उसकी चप्पलें हाथ में पकड़ रखी थीं। उसने मना किया था। ‘इट इज नॉट डन,’ उसने अंग्रेजी में कहा था। यह उसका प्रिय वाक्य है। जब कभी मैं उसे धीरे-से अपने पास खींचने लगता हूँ, तो वह अपने को बहुत हल्के से अलग कर देती है और कहती है – इट इज नॉट डन। मैंने उसकी चप्पलों को अपने रूमाल में बाँध लिया था। रूमाल का एक सिरा उसने पकड़ा था, दूसरा मैंने। हम उस रूमाल को हिला रहे थे और चप्पलें बीच हवा में ऊपर-नीचे झूलती थीं। मकबरे के पीछे पुराना, टूटा-फूटा टैरेस था, उसके आगे रेल की लाइन थी, बहुत दूर जमुना थी, जो बहुत पास दीखती थी।

उसके नंगे, साँवले पैरों पर घास के भूरे तिनके और बजरी के दाने चिपक गए थे। मेरी ऐनक पर धूल जमा हो गई थी, लेकिन मैं रूमाल से उसको नहीं पोंछ सकता था, क्योंकि रूमाल में चप्पलें बँधी थीं और उसके पाँव अभी तक नंगे थे। तब मैंने उसकी उन्नाबी साड़ी के पल्ले से अपनी ऐनक के शीशे साफ किए थे। वह नीचे झुक आई थी और उसने धीरे-से पूछा था – तुम यहाँ कभी पहले आए थे?

– हाँ, अपने दोस्तों के संग।

– क्या किया था? – उसने मेरी ओर झपकती आँखों से देखा।

– दिन-भर फ्लैश खेली थी – मैंने कहा।

– और? और क्या किया था? – उसके स्वर में आग्रह था।

– शाम को बियर पी थी, वे गर्मी के दिन थे।

– तुम पीते हो?

– हाँ – मैंने कहा – पीता तो हूँ।

– किसी ने देखा नहीं?

– नहीं, अँधेरा होने पर पी थी और जाने से पहले बोतलें नीचे फेंक दी थीं।

– नीचे कहाँ?

– टैरेस के नीचे।

टैरेस के नीचे रेलवे लाइन है। जमुना है, जो बहुत दूर है और बीच में पुराने किले के खंडहर हैं। बहुत शुरू का मौन है, और सर्दियों की धूप है, जो किले के भग्न झरोखों पर ठगी-सी ठिठकी रह गई है।

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वह शुरू दिसंबर की शाम थी और हम हुमायूँ के मकबरे के पीछे छोटे टैरेस पर बैठे थे। बाईं ओर पुराने किले के टूटे पत्थर थे, धूप में सोते-से। सामने ऊबड़खाबड़ मैदान था, जिसे बाढ़ के दिनों में जमुना भिगो गई थी, और जहाँ चूने-सी सफेदी बिछल आई थी। जब वापस आने लगे, तो वह सीढ़ियों पर उतरती हुई सहसा ठिठक गई।

– तुमने देखा? – उसकी आँखें कहीं पर टिकी थीं।

उधर, हवा में उसकी निगाहों पर मेरी आँखें सिमट आई थीं।

उसने हाथ से दूर एक पक्षी की ओर संकेत किया। वह मकबरे की एक मीनार पर बैठा था। वह चुपचाप निरीह आँखों से हमें देख रहा था।

यह नीलकंठ है। …तुमने कभी देखा है? – उसने बहुत धीरे-से कहा – नीलकंठ को देखना बड़ा शुभ माना जाता है।

क्या हम दोनों के लिए भी? – मैं हँसने लगा। मेरी हँसी से शायद वह डर गया और अपने पंख फैलाकर गुंबद के परे उड़ गया था।

क्या हम दोनों के लिए भी, यह मैंने कहा नहीं, सिर्फ सोचा था। कुछ शब्द हैं, जो मैंने आज तक नहीं कहे। पुराने सिक्कों की तरह वे जेब में पड़े रहते हैं। न उन्हें फेंक सकता हूँ, न भुला पाता हूँ।

जब वह आई, तो मैं उसके बारे में नहीं सोच रहा था। मैं क्रिकेट के बारे में, सिनेमा के पोस्टरों के बारे में और कुछ गंदे, अश्लील शब्दों के बारे में सोच रहा था, जो कुछ देर पहले मैंने पब्लिक लेवेट्री की दीवार पर पढ़े थे। ऐसा अक्सर होता है। प्रतीक्षा करते हुए मैं उस व्यक्ति को बिलकुल भूल जाता हूँ, जिसकी मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ। सामने जो पेड़ों की कतार है, वह ‘सिंधिया हाउस’ की क्रॉसिंग तक जाती है, और वहाँ ट्रेफिक-लाइट लाल से गुलाबी होती है और गुलाबी से हरी। जब वह आई, तो मुझे कुछ भी पता नहीं चला था। मैं ट्रेफिक-लाइट को देख रहा था और वह मेरे पास चली आई थी – बिलकुल पास, बिलकुल सामने। उसने काली शाल ओढ़ रखी है और उसके बाल सूखे हैं। उसके होंठों पर हल्की, बहुत ही हल्की लिपस्टिक है, जैसी वह अक्सर लगाती है।

– तुम क्या बहुत देर से खड़े हो? – उसने पूछा।

– मैं तुमसे पहले आ गया था।

– कब से इंतजार करते रहे हो?

– पिछले एक हफ्ते से – मैंने कहा।

वह हँस पड़ी – मेरा मतलब यह नहीं था। तुम यहाँ कब आए थे?

मैं नहीं चाहता कि वह जाने कि मैं रात-भर जागता रहा हूँ। मैं सिर्फ यह जानना चाहता हूँ कि उसने क्या निर्णय किया है। शायद मैं यह भी नहीं जानना चाहता। मैं सिर्फ उसे चाहता हूँ और यह मैं जानता हूँ।

हम दोनों ‘एल्प्स’ की तरफ बढ़ जाते हैं। दरवाजे पर खड़ा लड़का हमें सलाम करता है। वह दरवाजा खोलकर भीतर चली जाती है। मैं क्षण-भर के लिए बाहर ठिठक जाता हूँ। लड़का मुझे देखकर मुस्कराता है। वह हम दोनों को पहचानने लगा है। उसने हम दोनों को कितनी बार यहाँ एक संग आते देखा है।

‘एल्प्स’ के भीतर अँधेरा है, या शायद अँधेरा नहीं है, हम बाहर से आए हैं, इसीलिए सबकुछ धुँधला-सा लगता है। बाहर दिसंबर की मुलायम धूप है। जब कभी दरवाजा खुलता है, धूप का एक साँवला-सा धब्बा खरगोश की तरह भागता हुआ घुस आता है, और जब तक दरवाजा दोबारा बंद नहीं होता, वह पियानो के नीचे दुबका-सा बैठा रहता है।

– आज अखबार में देखा? – उसने पूछा।

– न – मैंने सिर हिला दिया।

– शिमले में बर्फ गिरी है, तभी कल रात इतनी सर्दी थी – उसने कहा – मैं सारी खिड़कियाँ बंद करके सोई थी।

कल रात मैं जागता रहा था, मैंने सोचा और बाहर सूखे पत्तों का शोर होता रहा था। दिसंबर के दिनों में बहुत-से पत्ते गिरते हैं, रात-भर गिरते हैं।

– तुमने बर्फ देखी है, निंदी? – उसने पूछा।

– हाँ, क्यों?

– सच? – आश्चर्य से उसकी आँखें फैल गईं।

– तब मैं बहुत छोटा था। …अब तो कुछ भी याद नहीं रहा। – मैंने कहा।

– तुम अब भी छोटे लगते हो! – उसने हँसकर कहा – जब तुम फुल स्लीव का स्वेटर पहनते हो। – उसने अपना छोटा-सा पर्स पास की खाली कुर्सी पर रख दिया और अपने दोनों हाथ शाल से बाहर निकाल लिए। वह मेरे स्वेटर को देख रही है, मैं उसके हाथों को। उसके दोनों हाथ मेज पर टिके हैं, लगता है जैसे वे उससे अलग हों। वे बहुत नर्वस हैं। आधे खुले हुए, आधे भिंचे हुए। लगता है, वे किसी अदृश्य चीज को पकड़े हुए हैं।

हम कोने में बैठे हैं, जहाँ वेटर ने हमें नहीं देखा है। सुबह इतनी जल्दी बहुत कम लोग यहाँ आते हैं। हमारे आस-पास की मेज-कुर्सियाँ खाली पड़ी हैं। डांसिंग-फ्लोर के दोनों ओर लाल शेड से ढक लैंप जले हैं। दिन के समय इनसे अधिक रोशनी नहीं आती, जो रोशनी आती है, वह सिर्फ इतनी ही कि आस-पास का अँधेरा दिख सके। कुछ फासले पर डांसिंग-फ्लोर की दाईं ओर जार्ज और उसकी फियान्स ने मुझे देख लिया है, और मुस्कराते हुए हवा में हाथ हिलाया है। जार्ज ‘एल्प्स’ का पुराना ड्रमर है। साढ़े दस बजे आरकेस्ट्रा का प्रोग्राम आरंभ होगा, तब तक वह खाली है। वह जानता है, मैं आज इतनी सुबह क्यों आया हूँ। वह मुझसे बड़ा है और मेरी सब बातें… खुली-छिपी सब बातें जानता है। उसने मुझे देखा और मुस्कराते हुए अपनी ‘फियान्स’ के कानों में कुछ धीरे-से फुसफुसाने लगा। वह अपना सिर मोड़कर गहरी उत्सुक आँखों से मुझे… मुझे और उसे देख रही है। उसकी आँखों में अजीब-सा कौतूहल है। यदि जार्ज उसकी बाँह को खींचकर झिंझोड़ न देता, तो शायद वह देर तक हम लोगों को देखती रहती।

मेरे एक हाथ में सिगरेट है, जिसे मैंने अभी तक नहीं जलाया। दूसरा हाथ टाँगों के नीचे दबा है। मैं आगे झुककर उसे दबाता हूँ। मुझे लगता है, जब तक वह मेरे बोझ के नीचे बिलकुल नहीं भिंच जाएगा तब तक ऐसे ही काँपता रहेगा।

वेटर आया। मैंने उसे कोना-कॉफी लाने के लिए कह दिया। वह चुप बैठी रही, कुर्सी पर रखे अपने पर्स को देखती रही।

– मैंने सोचा था, तुम फोन करोगी – मैंने कहा।

उसने मेरी ओर देखा, उसकी आँखों में हल्का-सा विस्मय था – तुम काफी अजीब बातें सोचते हो – उसने कहा।

शायद यह गलत था – मैंने कहा – शायद तुम नाराज हो।

– पता नहीं… शायद हूँ… उसने कहा।

मैं हँसने लगा।

– क्यों? तुम हँसते क्यों हो?

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– कुछ नहीं, मुझे कुछ याद आ गया।

– क्या याद आ गया? – उसने पूछा।

– तुम्हारी बात, इट इज नॉट डन!

उसका निचला होंठ धीरे-से काँपा था, तितली-सा, जो उड़ने को होती है, और फिर कुछ सोचकर बैठी रहती है।

– तुम उस दिन ठीक समय पर घर पहुँच गई थीं?

– किस दिन?

– जब हम हुमायूँ के मकबरे से लौटे थे।

– न, बस नहीं मिली। बहुत देर बाद स्कूटर लेना पड़ा… उस रात बड़ा अजीब-सा लगा।

– कैसा अजीब-सा? – मैंने पूछा।

– देर तक नींद नहीं आई – उसने कहा – देर तक मैं उस नीलकंठ के बारे में सोचती रही, जो हमने उस दिन देखा था, मकबरे के गुंबद पर।

नीलकंठ! मुझे वह शाम याद आती है। उस शाम हम पवेलियन के पीछे टैरेस पर बैठे थे। मेरे रूमाल में उसकी चप्पलें बँधी थीं और उसके पाँव नंगे थे। घास पर चलने से वे गीले हो गए थे और उन पर बजरी के दो-चार लाल दाने चिपके रह गए थे। अब वह शाम बहुत दूर लगती है। उस शाम एक धुँधली-सी आकांक्षा आई थी और मैं डर गया था। लगता है, आज वह डर हम दोनों का है, गेंद की तरह कभी उसके पास जाता है, कभी मेरे पास। वह अपनी घबराहट को दबाने का प्रयत्न कर रही है, जिसे मैं नहीं देख रहा। मेज के नीचे कुर्सी पर भिंचा मेरा हाथ काँप रहा है, जिसे वह नहीं देख सकती। हम केवल एक-दूसरे की ओर देख सकते हैं और यह जानते हैं कि ये मरते वर्ष के कुछ आखिरी दिन हैं और बाहर दिसंबर के उन पीले पत्तों का शोर है, जो दिल्ली की तमाम सड़कों पर धीरे-धीरे झर रहे हैं।

मुझे लगता है, जैसे मैं वह सबकुछ कह दूँ जो मैं पिछले हफ्ते के दौरान में, सड़क पर चलते हुए, बस की प्रतीक्षा करते हुए, रात को सोने से पहले और सोते हुए, पल-छिन सोचता रहा हूँ, अपने से कहता रहा हूँ। मैं भूला नहीं हूँ। कुछ चीजें हैं, जो हमेशा साथ रहती हैं, उन्हें याद रखना नहीं होता। कुछ चीजें हैं, जो खो जाती हैं, खो जाने में ही उनका अर्थ है, उन्हें भुलाना नहीं होता।

वेटर आया और कोना-कॉफी की बोतल से पहले उसके और फिर मेरे प्याले में कॉफी उँड़ेल दी। हमारे सामनेवाली मेज पर एक अंग्रेज युवती आकर बैठ गई। उसके संग एक छोटा-सा लड़का है, जो उसकी कुर्सी के पीछे खड़ा है। युवती का चेहरा मीनू के पीछे छिप गया।

– वाट विल यू हैव, सनी?

लड़का पंजों के बल खड़ा हुआ, सिर झुकाकर मीनू को देख रहा है, ऊँ…ऊँ…ऊँ…, लड़के ने जुबान बाहर निकालकर बिल्ली की तरह नाक सिकोड़ ली।

– ओ, शट अप! वोन्ट यू सिट डाउन?

डांसिंग-फ्लोर के पीछे जो कुर्सियाँ अभी तक खाली पड़ी थीं, वे धीरे-धीरे भरने लगीं। लगता है, बाहर सूरज बादलों में छिप गया है। सामने खिड़की के शीशों पर रोशनी का हल्का-सा आभास है। जब दरवाजा खुलता है, तो पहले की तरह धूप का टुकड़ा भीतर नहीं आता। सिर्फ हवा आती है, और मैली-सी धुंध। दरवाजा खुलकर एकदम बंद नहीं होता और हम बाहर देख लेते हैं। बाहर सर्दी का धुँधलका है और दिसंबर का मेघाच्छन्न आकाश… जो कुछ देर पहले बिलकुल नीला था।

जहाँ हम बैठे हैं, वह एक कोना है। जब कभी हम यहाँ आते हैं (और ऐसा अक्सर होता है), तो यहीं बैठते हैं। उसे कोने में बैठना अच्छा लगता है। वह चम्मच से मेजपोश पर लकीरें खींचती है और मैं अपनी उन कहानियों के बारे में सोचता हूँ, जो मैंने नहीं लिखीं, जो शायद मैं कभी नहीं लिखूँगा, और मुझे उनके बारे में सोचना अच्छा लगता है।

दो दिन बाद क्रिसमस है। ‘क्वीन्स-वे’ की दुकानों पर इन दिनों भीड़ लगी रहती है। कुछ लोग खरीदारी करने के बाद अक्सर यहाँ आते हैं, उनके हाथों में रंग-बिरंगी बास्केट, थैले और लिफाफे हैं। जब वे भीतर आते हैं, वह दरवाजे की ओर देखने लगती है। उसकी आँखें बहुत उदास हैं। मैं उसकी बाँहों को देख रहा हूँ। प्लास्टिक की चूड़ी और ज्यादा नीचे खिसक आई है। उसका निचला हिस्सा प्याले की कॉफी में भीग रहा है, भीग रहा है और चमक रहा है।

– निंदी – उसने धीरे-से कहा और रुक गई।

यह मेरे घर का नाम है। एक बार उसके पूछने पर मैंने बताया था। जब कभी हम दोनों अकेले होते हैं, जब कभी हम दोनों एक-दूसरे के संग होते हुए भी अपने-अपने में अकेले हो जाते हैं, और उसे लगता है कि उसकी बात से मुझे तकलीफ होगी, तो वह मुझे इसी नाम से बुलाती है। मेरा हाथ मेरे घुटनों के बीच दबा है। लगता है, अब वह क्षण आ गया है, जिसकी इतनी देर से प्रतीक्षा थी, वह आ गया है और हम दोनों के बीच आकर बैठ गया है।

– निंदी, यह गलत है – उसने धीरे-से कहा, इतने धीरे-से कि मैं हँसने लगा।

– तुम क्या इतनी देर से यही सोच रही थीं? – मैंने कहा।

– निंदी, सच! – वह भी हँसने लगी, किंतु उसकी आँखें पहले-जैसी ही उदास हैं – मैंने इस तरह कभी नहीं सोचा था।

– किस तरह? – मैंने पूछा।

– जैसे तुमने मुझे लिखा था। …मैंने उसे कई बार पढ़ा है, निंदी… यह गलत है सच, बहुत गलत है, निंदी! – उसने मेरी ओर देखा। उसके बाल बहुत रूखे हैं और होंठों पर हल्की, बहुत हल्की लिपस्टिक है, जैसे वह लिपस्टिक न हो, सिर्फ होंठों का रंग ही तनिक गहरा हो गया हो। वह मेरी ओर देख रही है – निंदी, तुम… – उसने आगे कुछ कहा, जो बहुत धीमा था। मैंने उसकी ओर देखा। उसने अपनी दो उँगलियों में रूमाल कसकर लपेट लिया था – निंदी, सच, तुम पागल हो! …मैंने कभी ऐसे नहीं सोचा। नॉट इन दैट वे!

नॉट इन दैट वे, ये चार शब्द बहुत ही छोटे हैं, आसान हैं, और मैं अचानक खाली-सा हो गया हूँ, और सोचता हूँ, जिंदगी कितनी हल्की है!

मैंने उसकी ओर देखा। उसकी आँखों में बड़े-बड़े आँसू थे, जैसे बच्चों की आँखों में होते हैं। किंतु उन आँसुओं का उसके चेहरे से कोई संबंध नहीं है, वे भूले से निकल आए हैं, और कुछ देर में, ढुलकने से पहले, खुद-ब-खुद सूख जाएँगे, और उसे पता भी नहीं चलेगा।

लेकिन शायद कुछ है, जो नहीं सूखेगा। मैं कल रात यही सोचता रहा था कि वह ‘न’ कह देगी, तो क्या होगा? अब उसने कह दिया है, और मैं वैसा ही हूँ। कुछ भी नहीं बदला। जो बचा रह गया है, वह पहले भी था… वह सिर्फ है, जो उम्र के संग बढ़ता जाएगा… बढ़ता जाएगा और खामोश रहेगा… बंद दरवाजे की तरह, उड़ते पत्तों और पुराने पत्थरों की तरह… और मैं जीता रहूँगा।

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उसके चेहरे पर शर्म और सहानुभूति का अजीब-सा घुला-मिला भाव है, सहानुभूति मेरे लिए, शर्म शायद अपने पर।

– निंदी, …क्या तुम नाराज हो?

मैं अपना सिर हिलाता हूँ – हाँ।

– तुम अब मुझे बुरा समझते होगे?

मैं हँस देता हूँ। मैं अब बिलकुल शांत हूँ। टाँगों के नीचे मेरा हाथ नहीं काँप रहा। जब हम यहाँ आए थे, तब सबकुछ धुँधला-धुँधला-सा दीख रहा था। लगा था, जैसे सपने में मैं सबकुछ देख रहा हूँ। सपना अब भी लगता है, उसकी शाल, उसकी सफेद मुलायम बाँहें… लेकिन अब वे ठोस हैं, वास्तविक हैं। मैं चाहूँ, तो उन्हें छू सकता हूँ और उन्हें छूते हुए मेरा हाथ नहीं काँपेगा।

निंदी, वी कैन बि फ्रैंड्स, कांट वी? – उसने अंग्रेजी में कहा। जब वह किसी बात से बहुत जल्दी घबरा जाती है, तो हमेशा अंग्रेजी में बोलती है और मुझे उसकी यह घबराहट अच्छी लगती है। मैं कुछ भी नहीं कहता, क्योंकि कुछ भी कहना कोई मानी नहीं रखता और यह मुझे मालूम है कि जो कुछ मैं कहूँगा, वह नहीं होगा; जो कहना चाहता हूँ, वह शब्दों से अलग है… इसलिए पंद्रह-बीस वर्ष बाद जब मैं दिसंबर की इस सुबह को याद करूँगा, तो शब्दों के सहारे नहीं। याद करने पर बहुत-सी बेकार, निरर्थक चीजें याद आएँगी, जैसे वह क्रिसमस के दो दिन पहले की सुबह थी… हम ‘एल्प्स’ में बैठे थे और बाहर दिसंबर के पीले पत्ते हवा में झरते रहे थे…

क्योंकि यह कहानी नहीं है, ये कुछ ऐसी बातें हैं, जिनकी कहानी कभी नहीं बनती। यही कारण है कि मैं बार-बार मन-ही-मन दुहरा रहा हूँ… ये वर्ष के अंतिम दिन हैं। बाहर दुकानों पर क्रिसमस और न्यू ईयर कार्ड बिक रहे हैं। यह दिल्ली है… हमारा शहर। बरसों से हम दोनों अलग-अलग घरों में रहे हैं… किंतु आज की सुबह हम दोनों अपने-अपने रास्तों से हटकर इस छोटे-से काफे में आ बैठे हैं, कुछ देर के लिए। कुछ देर बाद वह अपने घर जाएगी और मैं जार्ज के कमरे में चला जाऊँगा। सारी शाम पीता रहूँगा।

– सच, निंदी, कांट वी बि फ्रेंड्स?

उसके स्वर में भीगा-सा आग्रह है। मैं मुस्कराता हूँ। मुझे एक लंबी-सी जम्हाई आती है। मैं उसे दबाता नहीं। अब मैं बिना शर्म महसूस किए उससे कह सकता हूँ कि कल सारी रात मैं जागता रहा था।

– क्या सोच रहे हो? – उसने पूछा।

– बर्फ के बारे में – मैंने कहा – तुमने कहा था कि शिमले में कल बर्फ गिरी थी।

– हाँ, मैंने अखबार में पढ़ा था और मैं देर तक तुम्हारे बारे में सोचती रही थी। रात-भर बर्फ गिरती रही थी और मुझे पता भी नहीं चला था। इसीलिए कल रात इतनी सर्दी थी। मैं अपने कमरे की सारी खिड़कियाँ बंद करके सोई थी। – उसने कहा – जब कभी शिमले में बर्फ गिरती है, तो दिल्ली में हमेशा सर्दी बढ़ जाती है।

कुछ देर पहले मैं ‘एल्प्स’ के आगे खड़ा था। मैं पहले आ गया था और ट्रैफिक-लाइट को देखता रहा था। मैंने दस तक गिनती गिनी थी। सोचा था, यदि दस तक पहुँचते-पहुँचते बत्ती का रंग हरा हो जाएगा, तो वह हाँ कहेगी, नहीं तो नहीं… किंतु अब मैं शांत हूँ।

और, निंदी – उसने कहा – तुमने यदि पत्र में न लिखा होता, तो अच्छा रहता। अब हम वैसे नहीं रह सकेंगे, जैसे पहले थे…,

और मैं जागता रहा था, मैंने सोचा। – तुमने नहीं सुना? कल रात देर तक दिल्ली की सूनी सड़कों पर पत्ते भागते रहे थे – मैंने कहा।

मैं खिड़कियाँ बंद करके सो गई थी – उसने कहा – और मुझे सपने में हुमायूँ का मकबरा दिखाई दिया था। तुम जोर से हँसे थे और बेचारा नीलकंठ डर से उड़ गया था।

हम दोनों चुप बैठे रहे।

कुछ देर बाद उसकी पलकें ऊपर उठीं। – क्या सोच रहे हो? – उसने पूछा।

मैं चुपचाप उसकी ओर देखता रहा। बर्फ के बारे में – मैंने धीरे-से कहा।

हम उठ खड़े होते हैं। आरकेस्ट्रा शुरू होनेवाला है और हम उसके शुरू होने से पहले ही बाहर चले जाना चाहते हैं। दरवाजे के पास आकर मैं ठहर जाता हूँ और आखिरी बार पीछे मुड़कर देखता हूँ। मेजपोश पर वे लकीरें अब भी अंकित हैं, जो अनजाने में उसने चम्मच से खींच दी थीं। उन लकीरों के दोनों ओर दो प्याले हैं, जिनसे हमने अभी कॉफी पी थी। वे दोनों बिलकुल पास-पास पड़े हैं… और कुछ देर तक वैसे ही पड़े रहेंगे, जब तक बैरा उन्हें उठाकर नहीं ले जाएगा। वे दो कुर्सियाँ भी हैं, जिन पर हम इतनी देर से बैठे रहे थे और जो अब खाली हैं। कुछ देर तक वे वैसी ही खाली, प्रतीक्षारत पड़ी रहेंगी।

जार्ज की फियान्स ने मुझे देखा है। वह मुझे देखती हुई शरारत-भरी दृष्टि से मुस्करा रही है। वह समझती है, हम दोनों लवर हैं। जार्ज ने शायद उसे बताया होगा। जार्ज स्टेज पर ड्रम के आगे बैठा है। कुछ ही देर में आरकेस्ट्रा शुरू हो जाएगा। जार्ज ने भी मुझे देख लिया है। वह धीरे-से ड्रम-स्टिक हवा में घुमाता है। गुड-लक! – उसने कहा और धीरे-से आँख दबा दी।

मैं बाहर चला गया।

बाहर बादल छँट गए हैं। कारीडोर में धूप सिमट आई है! ‘एल्प्स’ के बाहर अंग्रेजी पत्रिकाओं की दुकान पर कुछ लोग जमा हो गए हैं। सामने क्वीन्स-वे की दुकानों के आगे भीड़ लगी है। क्रिसमस-रिडक्शन-सेल की तख्तियों पर टँगे रंग-बिरंगे रिबन हवा चलने से फरफराने लगते हैं। उनके पीछे दिसंबर का नीला आकाश फैला है।

मुझे एक लंबी-सी जम्हाई आती है और आँखों में पानी भर जाता है।

– क्या बात है? – उसने पूछा।

– कुछ नहीं – मैंने कहा।

– मुझे कुछ क्रिसमस कार्ड खरीदने हैं, मेरे संग आओगे? – उसने कहा।

– चलो – मैंने कहा – मैं बिलकुल खाली हूँ।

हम दोनों क्वीन्स-वे की ओर चलने लगते हैं।

– जरा ठहरो, मैं अभी आता हूँ। – मैं पीछे मुड़ गया और तेजी से कदम बढ़ाता हुआ अमरीकी पत्रिकाओं की दुकान के सामने आ खड़ा हुआ। पुरानी पत्रिकाओं का ढेर मेरे सामने बेंच पर रखा था। मैं उन्हें उलट-फेरकर नीचे से एक मैगजीन उठा लेता हूँ। वही कवर है, जो अभी कुछ देर पहले देखा था। वही बीच का दृश्य है, जिस पर अर्द्धनग्न युवती धूप में लेटी है।

– क्या दाम है? – मैंने पूछा।

लड़के ने मुझे देखा, दाम बताया और मुस्कराते हुए सीटी बजाने लगा।

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