लोगों और चीजों में | अलेक्सांद्र कुश्नेर
लोगों और चीजों में | अलेक्सांद्र कुश्नेर

लोगों और चीजों में | अलेक्सांद्र कुश्नेर

लोगों और चीजों में | अलेक्सांद्र कुश्नेर

लोगों और चीजों में
जो पुरुष को दिखता था वही स्‍त्री को,
कविता की जो पंक्ति पसंद आती थी पुरुष को
वही स्‍त्री को भी,
जो बात पुरुष को याद आती थी
वही स्‍त्री को भी,
आधे शब्‍द से ही वे समझ जाते थे
क्‍या कहना चाह रहा है एक दूसरे से
पर, नींद में दोनों को
सपने आते थे अलग-अलग
पुरुष काँप उठता था जब
स्‍त्री जोर से गले लगा लेती थी उसे,
जब स्‍त्री चिल्‍लाने लगती थी नींद में
खामोशी के बीच पुरुष जवाब देता था
ले जाता था उसे अँधेरे से रोशनी की तरफ।
संगीत, शोर या बारिश में
जो सुनाई देता था पुरुष को
वही स्‍त्री को भी,
बगीचे में जो अरण्‍यजपा पसंद थी पुरुष को
वही स्‍त्री को भी,
स्‍त्री की सुकुमार बुद्धि सजग थी और संवेदनशील,
जो कहानी उद्वेलित करती थी उसे
वही पुरुष को भी।
पर, अतीत में दोनों के अलग-अलग रहे कष्‍ट
जो झेला उन्‍होंने उसकी प्रेतात्‍माएँ भी अलग-अलग
पर उसी अतीत से
वे देखते हैं झेंपते हुए एक दूसरे की तरु
देखते हों जैसे पृथ्‍वी के दूसरे छोर से।

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