लो फिर बादल | प्रेमशंकर मिश्र
लो फिर बादल | प्रेमशंकर मिश्र
लो
फिर बादल घिरे
यक्ष ने प्रिया पुकारा
लो
फिर टूटा
यादों वाला एक सितारा।
तपती धूल तड़पती हिरनी
हारे मन की भरी कुचालें
कितना सुगम विचारे कागा
पंडित कितनी पोथी बाँचे
लो
फिर जलते पाँव गिलहरी
कुतर गई सपनों की कारा… लो… ।
साँझ ढले ढल गई जवानी
सूखा आर्द्रा का पानी
कब तक प्यास बुझेगी तट की
कुछ तो टँहको ओ ऋतुरानी
लो
फिर जाल बुना मकड़ी ने
फिर से फँसा मुआ बंजारा, लो… ।
कंधों तक उग आए दिन को
घोंट गई फिर धुँधली छाया
टुकड़ों टुकड़ों बँटी जिंदगी
क्या जाने क्या खोया पाया
लो फिर लंगर उठा
नाव ने छोड़ दिया टूटता किनारा, लो… ।