लिखना | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता
लिखना | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

अक्षरों को शब्दों में लाते
शब्दों को वाक्यों में उतारते
सिर झुकाकर लिखते हुए
मैं लिखने पर ही सोचने लगा –
कि भावनाओं में इतनी ऊँचाई है
कि बिना सिर झुकाए
वे स्याही में उतरती ही नहीं
ठहरती भी नहीं
जब तक उन्हें हम
सजगता से समादृत नहीं करते
सोचता हूँ –
रचना या लिखना
छितराना है अपने को ही
और विरुद्ध होना है
अपनी ही जड़ता के।

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