यदि दरवाजे की घंटी ठीक काम कर रही होगी, तो भी कोई जरूरी नहीं कि उसकी आवाज को भीतर कोई सुन ही लेगा। आप पाँच-पाँच मिनिट के अंतराल में तीन-चार बार घंटी बजाएँगे और भीतर से कोई प्रत्युत्तर न पा कर दरवाजे को धकेल कर देखेंगे कि कहीं ताला ही तो बंद नहीं है। इस पर आप पाएँगे कि दरवाजा तो खुला हुआ ही था। लेकिन भीतर घुसते ही आप जरूर किसी न किसी चीज से ठोकर खाएँगे। वह चाहे छोटे बच्चों की बाइसिकल हो या गेहूँ का कनस्तर या जूते या और कुछ। भीतर घुसते ही आपको समझ में आ जाएगा कि क्यों घंटी की आवाज किसी को सुनाई नहीं दी ड्राइंगरूम में टीवी चल रहा होगा – हालाँकि उसे देखने वाला कोई न होगा, लड़के के कमरे में फुल वॉल्यूम पर म्यूजिक सिस्टम – जबकि वह पढ़ रहा होगा, दूसरे कमरे की बालकनी से लड़की सड़कपार सहेली से ऊँची आवाज में गपशप कर रही होगी और पूजाघर में मेरी माताजी घंटी बजा कर पूजा-आरती कर रही होंगी।

यदि आप चाहेंगे कि पहले हाथ-मुँह धो लिए जाएँ तो आप ड्राइंगरूम से सटे डायनिंग स्पेस के वाशबेसिन पर जाएँगे। वाशबेसिन में यदि आपके सौभाग्य से किसी का थूका-उगला बलगम इत्यादि न भी हुआ तो दो-चार चिपकने वाली बिंदियाँ, एक-दो टूटे रबड़ बैंड और एकाध बालों का गुच्छा जरूर पड़ा होगा। नल ठीक से बंद नहीं होगा और टपक रहा होगा। सारे घर के नल ठीक से बंद नहीं होते और टपकते रहते हैं। यह उनका सामान्य चरित्र बन गया है। वहाँ एक साबुनदानी भी रखी होगी जिसमें पानी भरा होगा। उसमें साबुन की टिकिया भी होगी, किंतु वह जलकमलवत नहीं होगी, कढ़ी में पकोड़ीवत होगीं कोई चाहे तो सिर्फ साबुनदानी के रसे से हाथ धो-धो कर पंद्रह दिन काम चला ले, जैसे मैं चला लेता हूँ। यदि आपने इस वाशबेसिन पर हाथ धो लिए तो वह चोक हो जाएगा, उसमें ऊपर तक पानी भी जाएगा और आप केवल प्रार्थना के शिल्प में सोचते रह जाएँगे, कि पंद्रह-बीस मिनिट – आधे घंटे में यह पानी किसी तरह निकल जाए। वहाँ एक तौलिया भी टँगा होगा लेकिन वह इस कदर स्वच्छ होगा कि उससे जूते भी पोंछ लिए जाएँ तो जूतों पर फिर पॉलिश करनी पड़े। खैर इतनी अपेक्षा तो आपसे की ही जाती है कि आपकी जेब में आपकी निजी रूमाल भी होगा। काँच में कुछ नजर नहीं आएगा सिवा कोहरे के जिसका ताल्लुक मौसम से कतई नहीं है। यदि हाथ-मुँह धोने के बाद आप उसमें देख कर अपने बाल जमाने का दुस्साहस करेंगे तो बहुत संभव है आप अपनी माँग बाईं तरफ की बजाय दाहिनी तरफ निकाल लें और फलस्वरूप पहचान में न आएँ। डायनिंग स्पेस में एक डायनिंग टेबल भी होगी ध्यान से देखने पर नजर आ जाएगी उस पर अचार-मुरब्बे के मर्तबान, ऊन के गोलों में घोंपी गई सलाइयाँ, ताजी तोड़ी गईं मंगोड़ियाँ और इनसे ले कर बच्चों की किताबों तक कुछ भी हो सकता है। चाय के जूठे कप, सब्जियों के डंठल-छिलके और इधर-उधर बिखरे-लुढ़के पानी के गिलास तो होंगे ही दरअसल डायनिंग टेबल का उपयोग हमारे घर में रामलीला मैदान या चौपाटी की तरह किया जाता है। वह खाना खाने के अलावा हर काम में आती है। उसकी सनमाइका टॉप का मूल रंग और डिजायन कैसा था, यह शोध का विषय बन चुका है, जबकि अभी उसने अपने जीवन के पाँच वसंत भी नहीं देखे हैं।

यहीं एक तरफ एक ड्रेसिंग टेबल पड़ी होगी। उस पर धूल, सिंदूर और पाउडर की ऐसी महीन मिली-जुली परत बिछी होगी मानो उस पर डीडीटी का छिड़काव किया गया हो। पाउडर का डिब्बा खड़ा नहीं, लेटा होगा, सिंदूर की डिब्बी खुली होगी, तेल की शीशी का ढक्कन गायब होगा, नेलपॉलिश की अधखुली शीशियाँ नींद में गाफिल बच्चों की तरह एक-दूसरे पर लुढ़क रही होंगी, टूटी चूड़ियों के टुकड़े यूँ पड़े होंगे जैसे उन्हें बाहर फेंक देने से पाप लगता हो। टूटे दाँत वाले कंघो में बालों के गुच्छे फँसे होंगे और आईना चुटीलों, रिबिनों, हेयर बंडों को कंधा दे रहा होगा। अलावा इसके आईने पर कुछ बच्चों की लाल-काली चित्रकारी भी नजर आगी, जो दरअसल बच्चों की चित्रकारी नहीं, मस्करा, आईलाइनर और लिपस्टिक के शेड्स और चालूपने का टेस्ट ट्रेक यानी चला कर देखने का स्थान है। यदि आपने अफ्रीका के आदिवासी के रूप में अपनी कल्पना करना चाही हो, तो उस रूप में अपनी छवि निहारने के लिए इस ड्रेसिंग टेबल के आगे एक बार खड़े हो जाना पर्याप्त होगा।

आपका मन करेगा क्यों न पहले दो घूँट पानी ही पी लिया जाए। पानी लेने के लिए फ्रिज खोलेंगे तो आप पर एक भयंकर किस्म की मिलीजुली गंध हमला करेगी। यह गंध उन दवाइयों की है जो माताजी फ्रीज में रखती हैं, और उस सड़े खट्टे दही की भी जिससे लड़की सिर धोती है और जिसे रखने का सर्वोत्तम स्थान यही है। क्योंकि अजब नहीं यदि प्लेन पानी में भी आपको मुफ्त में इन गंधों, और इनके स्वादों का भी कुछ मजा मिल जाए।

विद्वानों का कहना है महाभारत का युद्ध सैकड़ों साल पहले हुआ था। उन्होंने मेरा रसोईघर नहीं देखा।

लेकिन जरा रुकिए। आप सोच रहे हैं कि मैं अपने घर का इतना दारुण चित्र क्यों खींच रहा हूँ। है न? क्या बताऊँ। मैं खुद नहीं जानता। मेरे घरवाले भी नहीं जानते कि आखिर मेरी परेशानी क्या है? सच पूछिए तो शायद कोई मनोवैज्ञानिक ही इसका ठीक विश्लेषण कर सकता है। शायद में पुराने जमाने का-सा आदमी हूँ। हर चीज में सलीका, नफासत, सफाई और सिस्टम पसंद करता हूँ, भले ही उससे हासिल कुछ न होता हो। इससे उलट, मेरा पूरा परिवार घोर अव्यवस्थाप्रिय है। वहाँ कोई चीज सही जगह पर रखना, किसी भी चीज का जरूरत के वक्त फौरन मिल जाना, चीज को किफायतशारी के साथ इस्तेमाल करना, चीजों की सार-सँभाल करना और उन्हें समझदारी से बरतना गुजरे जमाने की छोड़ दी जाने लायक कद्रें हैं। हो सकता है जैसा बाहर देखते हों वैसा ही घर में करते हों। यह हो सकता है बाहर ऐसा करने की गुंजाइशें जैसे-जैसे कम होती जा रही हों, ये घर में उसकी गुंजाइश बढ़ाते जा रहे हों। कभी-कभी मूड आता है तो मैं घर की बहुत सारी चीजें झाड़-पोंछ कर सही जगह रख देता हूँ। इससे सारा घर परेशानी में पड़ जाता है। हमारे यहाँ मोजों की जगह सिलाई मशीन से मसालदान तक कुछ भी हो सकती है, बुकशेल्फ पर नहीं। अब यहीं मैं मोजों को जूतों के रैक में और चश्मे के केस को बुकशेल्फ पर रख दूँगा तो ढूँढ़ने में परेशानी हो तोगी ही सब चाहते हैं कि उनकी अव्यवस्था और जंगलतंत्र को कतई डिस्टर्ब न किया जाए। लड़के ने तो अपने कमरे के दरवाजे पर बाकायदा एक पोस्टर लगा रखा है जिस पर लिखा है – ‘भीतर घुसें तो अपनी जोखिम पर।’ ठीक है। यह भी ठीक है। शायद विक्टोरिया युग के अदब-लिहाज और औपचारिकता का इसी तरह सत्यानाश किया जा सकता है। पर मैं कहता हूँ उसकी जगह भारतीय सादगी और संयम को बिठाने की बजाय अमरीकी अय्याशी और उजड्डपन को बिठाने में क्या तुक है? लेकिन मेरी बात किसी को समझ में नहीं आतीं।

जब परिवार कहीं बाहर चला जाता है तो पहले तो मैं सारे घर को अपने हिसाब से झाड़ता-पोंछता-सजाता-जमाता हूँ। फिर कम से कम एक दिन इसी बात पर खुश होता हूँ कि इस सुव्यवस्था को किसी ने बरबाद नहीं किया। फिर एक-दो दिन इस तरफ से निरपेक्ष और उदासीन जैसा रहता हूँ। और फिर यह सुव्यवस्था मुझे काटने को दौड़ने लगती है। चाहता हूँ कोई आए और सब कुछ को पहले की तरह बिखरा जाए।

मेरा कोई इलाज है?

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *