क्या अब भी हँस पाएगा जगुवा? | दिनेश कर्नाटक
क्या अब भी हँस पाएगा जगुवा? | दिनेश कर्नाटक

क्या अब भी हँस पाएगा जगुवा? | दिनेश कर्नाटक – Kya Ab Bhee Hans Paega Jaguva

क्या अब भी हँस पाएगा जगुवा? | दिनेश कर्नाटक

जगुवा धनुष से छूटे बाण की तरह बस अड्डे की ओर जा रहा था। उसे गाँव जाने वाली अंतिम बस को पकड़ना था। यह एक दिन की बात नहीं थी। रोज ज्यों-ज्यों शाम का रंग गाढ़ा होता जाता। उसकी हड़बड़ाहट बढ़ने लगती थी। उसका ध्यान काम से हटने लगता था और वह गलतियाँ करना शुरू कर देता था। उसकी बेचैनी और हड़बड़ाहट देखकर साथ में काम करने वाले उस पर हँसने लगते थे। उन्हें देखकर जगुवा भी हँसने लगता था। उसे हँसता हुआ देखकर वे और जोर से हँसने लगते थे। जगुवा ने एक बात गाँठ बाँध ली थी कि लोग हँसे तो खुद भी हँसने लगो। लोग उदास हो जाएँ तो खुद भी उदास हो जाओ। कुछ इस तरह कि लोगों को अपनी खुशी और दुख तुम्हारे चेहरे में नजर आने लगे। उसने यह भी सीख लिया था कि खुद पर हँसने वाले नौकर से मालिक लोग खुश रहते हैं। ऐसे व्यक्ति की नौकरी पर एकदम खतरा नहीं आता था। कभी-कभी बख्शीश भी मिल जाया करती थी। यूँ तो जगुवा में ऐसा कुछ नहीं था कि उसे देखकर हँसा जाता। वह शहर में गाँव और गाँव में शहर को जीने वाला नौजवान था। उसके सिर पर लहराने वाली चुटिया उसे दूसरों से अलग करती थी। अब जबकि किसी के सिर पर चुटिया नजर नहीं आती थी। जगुवा के सिर पर झंडे की तरह लहराते हुए वह लोगों की आधुनिकता को ललकारते रहती थी। जगुवा बाह्मण भी नहीं था कि चुटिया उसके लिए जरूरी होती। यह उसके परिवार की परंपरा थी जिसे वह छोड़ना नहीं चाहता था। तमाम तर्कों और कटाक्षों के बावजूद अब तक कोई उसकी चुटिया कटवा नहीं पाया था। जब लोग उसे एंटिना कहते तो वह भी ‘हो-हो’ करके हँस देता था।

कुछ देर पहले तक उसके दिमाग में ग्राहक थे। उनकी जरूरत की चीजों को पलक झपकते ही उनके सामने प्रस्तुत करने तथा उन्हें संतुष्ट करने की चुनौती थी। अब उसके दिमाग में सिर्फ बस थी। एक खचाड़ा सी पुरानी बस, जिसके कारण वह गाँव से शहर आकर नौकरी कर लेता था और शहर से नौकरी करके घर पहुँच जाता था। दिनभर की अफरातफरी के बाद अब वह सुकून से बस में बैठ जाना चाहता था। ताकी थकान को मिटाते हुए आराम से घर पहुँचा जा सके। मगर उसके चाहने से तो कुछ होना नहीं था। बस अब पहले की तरह नियमित नहीं रह गई थी। अब न उसके आने का समय निश्चित रह गया था, न जाने का। बस के जाने में अभी एक घंटे का समय था, लेकिन वह करीब डेढ़ घंटे पहले अड्डे पर आकर खड़ी हो जाती थी। बस होगी तो वह किसी भी तरह एक सीट पर कब्जा जमाकर बैठ जाएगा। सीट कब्जाने के पैंतरे वह खूब अच्छे से जान चुका था। फिर बस जिस समय चले उसकी बला से। बस के होने का अर्थ है कि वह उसे उसके गाँव तक छोड़कर ही आएगी। लेकिन अगर बस नहीं होगी तो यह उसके लिए एक जोरदार झटका होगा। फिर भी वह उसका इंतजार करेगा। बस कई बार देर से भी आती थी। इंतजार करना घर जाने के लिए दूसरे बस अड्डे पर जाकर अन्य बसों को पकड़ने और फिर पैदल जंगली रास्ते को नापने से सस्ता सौदा था।

ज्यों-ज्यों जगुवा आगे बढ़ता जा रहा था, मन ही मन भगवान से प्रार्थना करता जा रहा था कि ‘बस’ दिख जाए। हालाँकि वह अब समझ चुका था कि भगवान इसमें कुछ नहीं कर सकते। कई बार, कुछ बहुत ही मामूली बातों के लिए भगवान से प्रार्थना करने पर भी उन्होंने उसकी एक नहीं सुनी थी। इसलिए वह अब भगवान के बाजए खुद पर ज्यादा यकीन करने लगा था। भगवान उसके जीवन में अब वैसे ही थे जैसे सिर पर चोटी! बस का दिखना उसके लिए घोर खुशी की बात हो जाती थी। उसकी हालत उस बच्चे की तरह हो जाती जिसे माँगी हुई चीज मिल गई हो। सुबह भी जब वह धार के अंतिम सिरे पर पहुँचकर सड़क पर खड़ी बस को देख लेता था तो तसल्ली हो जाती थी। बस नहीं होती तो वह तेजी से पगडंडी की ओर लपकता और सात किमी का रास्ता नापने के बाद मुख्य मार्ग पर पहुँचता, जहाँ से कोई न कोई बस मिल जाया करती थी। बस नहीं होती तो उसे दुगनी मेहनत करनी पड़ती। पैदल चलना पड़ता। बस उसका सुख-दुख तय करने लगी थी। बस होती तो उसके जीवन में खुशी का रंग चढ़ जाया करता था। इस खुशी के सहारे पूरा दिन खुशनुमा हो जाता था। ग्राहकों से उत्साह से बात होती। बस नहीं होती थी तो गुस्सा पैदा होता था। गुस्सा जो पूरे दिन के क्रिया-कलापों पर सवार हो जाता था। मगर इस गुस्से की आग में खुद वही जलता था।

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बस के साथ यह रिश्ता अकेले जगुवा का नहीं था। उसकी तरफ के सभी लोगों की आशा और आकांक्षा बस से जुड़ी हुई थी। जैसे गाड़-गधेरों और नालों के सूख जाने पर लोगों के मुँह लटक जाते थे, वैसे ही बस के न आने पर पूरे इलाके में मायूसी फैल जाती। बस अपने साथ दूर-दूर की खबरें लेकर आती। कभी देश की सीमाओं की रक्षा कर रहे नौजवान उस पर सवार होकर आते। कभी इलाज के लिए शहर गए बीमार स्वस्थ होकर मुस्कराते हुए आते। बस बच्चों के लिए नई-नई चीजें लेकर आती। इस पर ही सवार होकर लड़कियाँ अपने मायके आती। बस गाँव के लोगों की खुशी थी। बस लोगों की उम्मीद थी। बस आती तो यही लटके चेहरे खिल उठते थे। बच्चे उम्मीद से भर जाते। नव धुएँ अकारण मुस्कराने लगती। पूरी घाटी में गीत गूँजने लगते।

और बस के ड्राइवर और कंडक्टर! उनका क्या कहना? पूरे इलाके में उनकी धाक थी। लड़के बड़े होकर उनकी तरह ड्राइवर और कंडक्टर बनने के सपने देखा करते थे। उनके आने पर लोग, ‘आओ, बैठो ड्राइवर साब!’ ‘आओ, बैठो कंडक्टर साब!’ कहकर कुर्सी छोड़ देते थे। ड्राइवर गाँव के लोगों की नजरों में हीरो था! वह हर रोज उन्हें सकुशल शहर और शहर से गाँव पहुँचा दिया करता था। उसका यह काम उन्हें किसी अजूबे की तरह लगता। पहाड़ पर चढ़ती बस को देखकर वे सोचा करते, वह कैसे टेड़े-मेड़े, और ऊँचे-नीचे खतरनाक रास्ते पर बस को चला लिया करता है? बूढ़े लोग बताते हैं कि जब सड़क का काम शुरू हुआ तो लोगों को यकीन ही नहीं होता था कि कभी उनके गाँव तक सड़क पहुँच सकेगी। सड़क पहुँच भी गई तो उस पर बस चलेगी। जब सड़क बनने लगी तो वे उसके विरोध में खड़े हो गए। उन्होंने सुना था आए दिन पहाड़ी रास्तों पर कहीं न कहीं बस गिर जाती है। वे अपने बच्चों के लिए भयभीत थे। वे प्रकृति से सामंजस्य बनाकर चलने वाले लोग थे। वे मानते थे, प्रकृति को जख्म देने से वह कु्रद्ध हो जाती है। बदला लेती है। वे पाताल छूती खाइयों के भयावह अतीत का जिक्र करते हुए चेतावनी के लहजे में कहते कि पर्वतराज अपने सीने पर किए गए घावों का एक दिन जरूर बदला लेंगे! मगर नए-नए ड्राइवर जिस सहजता से उस विशाल बस को पहाड़ पर चढ़ाए ले जाते थे, उससे उनका भय कम होता गया। उन्हें लगने लगा था कि या तो ये सभी ड्राइवर पिछले जन्म में देवदूत रहे होगे या उन्होंने अपने हौसले से पर्वतराज का दिल जीत लिया होगा।

उनके इस कारनामे की वजह से लोग उनसे बात करने में फख्र महसूस करते थे। जब वे बस को चलाते हुए गाँव की ओर आते तो सड़क पर खड़े लोग उन्हें सलाम ठोका करते थे। उनके जरिए ही लोग अपनी चिट्ठी-पत्री तथा दीगर सामान दूसरे गाँवों में अपने रिश्तेदारों तक भिजवाते थे। बस के कारण बच्चों के कालेज जाने की संख्या में काफी इजाफा हो गया था। उन्हें काम-धंधे और रोजगार की नई संभावनाओं के बारे में पता चलने लगा था। बस ने गाँव के लोगों का शहर से रिश्ता जोड़ दिया था। शहर जो कभी गाँव के लोगों के लिए किसी दूसरी दुनिया की तरह था। अब आए दिन आने-जाने की वजह से अपना सा लगने लगा था। उन्हें वहाँ के बाजार और तेजतर्रार लोग अब पराए नहीं लगते थे।

शहर अब गाँव के लोगों के सपनों को नई दिशा की ओर ले जाने लगा था। और सुख, जिसे अब तक गाँव के लोग खेती-बाड़ी, गाय-भैंस, तीज-त्यौहार और शादी-ब्याह में पा लिया करते थे। उसकी परिभाषा बदलने लगी थी। सब उसे पाना चाहते थे। शहर उन्हें समझाने लगा था कि अगर उन्हें सुख पाना है तो जो-जो वह कहता है, करते जाने में ही उनकी भलाई है।

वही हुआ जिसका जगुवा को भय था। बस का कोई अता-पता नहीं था। हमेशा की तरह उसके मन में कड़ुवाहट फैल गई। उसने सिर को झटका मानो भीतर फैलती हुई कड़ुवाहट को बाहर फेंक देना चाहता हो! मगर बहुत जल्दी वह उसके पूरे शरीर में फैल गई।

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मन-मारकर वह भी लोगों की भीड़ में शामिल हो गया। अड्डे पर सवारियों की अच्छी-खासी भीड़ थी। उन सबका गर्मी और उमस के मारे बुरा हाल था। कोई रूमाल को पंखा बनाकर झल रहा था। कोई अखबार के टुकड़े से गर्मी को भगाने की कोशिश कर रहा था तो कोई अपने गुस्से को सुर्ती के साथ घोटने में लगा हुआ था। स्कूटर, मोटरसाइकिल, कार, बस और ट्रक के हॉर्नों की आवाजें गूँज रही थी। सवारियों को पुकारते हुए रिक्शेवाले हाँफ रहे थे। हर तरफ अजीब तरह की चिल्ल-पो मची हुई थी। हर तरफ अपने गंतव्य की ओर भागते हुए लोग नजर आ रहे थे। शोर ही शोर। सब जल्दी में… सब दूसरे को पछाड़ने को आतुर!

तभी वहाँ दो भिखारिनें आई। जगुवा का ध्यान उनकी ओर गया। उनके कपड़े जगह-जगह से फटे हुए थे और उनके हाथों में एक-एक थाली थी, जिनमें कुछ सिक्के पड़े हुए थे। दोनों की गोद में एक-एक बच्चा था। दोनों बच्चे बीमार और दुबले-पतले नजर आ रहे थे। भिखारिनों की उम्र माँ बनने के लायक नहीं लग रही थी। ‘किराए के बच्चे होंगे!’ जगुवा ने सोचा।

अचानक उसकी नजर अड्डे की ओर आती हुई बस पर पड़ी। लोग बस की ओर दौड़ पड़े। वह भी बस की ओर दौड़ा और लोगों को भेदते हुए एक सीट पर कब्जा जमाने में कामयाब हो गया। कुछ देर सीट पा लेने को महसूस करने के बाद उसने गर्व और संतोष के साथ एक नजर पीछे की ओर डाली। सभी सीटें भर चुकी थी। कई लोग बीच की गैलरी पर खड़े थे। उसे एक बार फिर अपनी सफलता पर खुशी हुई। जगुवा ने खिड़की से सिर बाहर निकाला और आती-जाती गाड़ियों की ओर देखने लगा।

अब वह काफी सुकून महसूस कर रहा था। सारी कड़ुवाहट मिट चुकी थी। उसने करुणा और प्रेम से बस की ओर देखा। जैसे अपने गुस्से के लिए मन ही मन उससे माफी माँग रहा हो! जैसे एक बार फिर से अपने बैठे होने और बस के होने को लेकर आश्वस्त हो रहा हो।

पिछले कुछ दिनों से लोग बस सेवा के बंद होने की बातें कर रहे थे। जब किसी ने यह बात कही थी तो कई लोगों ने एक साथ मिलकर ऐसी किसी संभावना को खारिज कर दिया था। उनका कहना था, ‘यह कोई प्राइवेट बस तो है नहीं कि मालिक का मन हुआ बंद कर दी। सरकार सुविधाएँ बढ़ाती है, घटाती नहीं।’ सभी लोगों ने उसकी हाँ में हाँ मिलाई थी। जगुवा को भी लगा था, सरकार भला ऐसा क्यों करेगी? सरकार ने ही तो सड़क बनवाई। सरकार ने ही बस चलवाई। अब उसी बस को भला सरकार बंद क्यों करवाएगी? ऐसा नहीं हो सकता!

मगर धीरे-धीरे बस के बंद होने की बातें कई लोग करने लगे थे। उनका कहना था, बस को चलाने में सरकार को घाटा हो रहा था। सरकार अब घाटे में चलने वाली चीजों को चलाना बंद कर रही है। घाटा इसी तरह बढ़ता रहा तो देश की हालत बिगड़ जाएगी। यह सुनकर जगुवा ने खुद से सवाल किया था कि बस को घाटा कैसे हो सकता है? सभी लोग तो टिकट कटवाते हैं। बस कभी खाली नहीं जाती। बल्कि लोग खड़े-खड़े और कई बार तो ड्राइवर के मना करने के बावजूद छत पर बैठकर जाते हैं। भीड़-भाड़ की वजह से लोग और बस चलाने की माँग कर रहे हैं ताकि उन्हें और अधिक सुविधा मिल सके।

बस के बंद होने की बात सोचकर जगुवा उदास हो जाता था। उसे हर बार लगता, ऐसा कभी नहीं हो सकता। वह डर के मारे किसी से इस बात का जिक्र भी नहीं करना चाहता था। ऐसा करके वह अपने भरोसे को कमजोर नहीं चाहता था। फिर यह भी खतरा था कि कहीं लोग उसकी बात सुनकर हँसते हुए लोटपोट न होने लगें। यह सब सोचते हुए उसकी आँखों के आगे बस से जुड़ी अनेकों बातें घूमने लगती थी। बस के न होने की वह सपने में भी कल्पना नहीं कर सकता था। जब वह बगैर बस के अपने जीवन के बारे में सोचता तो भयभीत हो जाता था।

तभी जगुवा को लगा उसके बगल में कोई खड़ा है। भिखारिन ने अपनी थाली उसकी ओर बढ़ा रखी थी। बच्चा उसकी गोद पर था और उसकी नजर थाली पर पड़े हुए पैसों पर थी। उसकी उँगलियों उनको पकड़ने की जुगत में लगी हुई थी।

यह रोज की बात थी। भिखारियों से निबटना अब जगुवा को अच्छी तरह से आ चुका था। वही नहीं उसके जैसे रोज आने-जाने वाले अन्य लोग भी अब भिखारियों को घास नहीं डालते थे। वे उनके सामने आने पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते थे। कटे हुए अंग, फटे कपड़े, मार्मिक गुहार और नवजात बच्चों को आगे करने का उन पर कोई असर नहीं पड़ता था। वे ऐसा प्रकट करते थे, जैसे उन्होंने न कुछ सुना और न कुछ देखा। जैसे उनके कान और आँखें न हों। उनके इस ढीठपने से मजबूर होकर उन्हें दूसरों की शरण में जाना पड़ता था। लेकिन कभी-कभार शहर आने वाले लोग उन भिखारियों के चोंचलों में फँसकर उन्हें कुछ न कुछ दे दिया करते थे। भीख देने के बाद उन्हें लगता था, उन्होंने इन निर्दयी लोगों के बीच में भी मनुष्यता को बचाने का काम किया है।

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‘बाबू तेरा भला होगा… तेरे बच्चे लंबी उम्र जिएगे…!’ भिखारिन अभी भी जगुवा के बगल में खड़े होकर कहे जा रही थी।

जगुवा कोई प्रतिक्रिया नहीं कर रहा था और वह भी अड़ी हुई थी। ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा था, भिखारिन का बगल में खड़ा होना जगुवा को असहज करने लगा था। उसे लग रहा था, सब उस पर हँस रहे होंगे। जब स्थिति उसके लिए असहनीय हो गई तो वह गुस्से में बोल पड़ा – ‘चल… चल! आगे बढ़… डेली वाले हैं!’

यह कहते हुए उसे खुद पर शर्म आई थी।

‘भूल जाओ, अब डेली का चक्कर… आज आखिरी बस है ये!’ टिकट काट रहे कंडक्टर ने पीछे से कहा था।

‘क्या मतलब… क्या कहा?’ जगुवा मन ही मन बुदबुदाया।

लेकिन तब तक दूसरे लोगों की माँग पर कंडक्टर ने एक बार फिर से दोहरा दिया था, ‘आज आखिरी बस है ये… कल से अपना-अपना इंतजाम कर लेना!’

‘ऐसा कैसे हो सकता है? ये ऐसा कैसा कह सकता है?’ लोग गुस्से में कंडक्टर की ओर लपके।

कुछ लोग बीच में आ गए, ‘इसमें ये क्या कर सकता है? इसका क्या दोष?’

‘ऐसा नहीं हो सकता? हम ऐसा नहीं होने देंगे?’ लोग जोर-जोर से कहने लगे थे।

यह सुनकर जगुवा सन्न रह गया था।

अब उसका क्या होगा? कहाँ बस का बीस रुपये का किराया और कहाँ जीप वाले के पचास रुपये! उसने महीने भर का हिसाब लगाया तो उसे लगा जैसे उसके नीचे से जमीन खिसकने लगी है। क्या अब रोज पैदल चलना होगा? लेकिन रोज इतना पैदल भी तो नहीं चला जा सकता! अब तक उसने कभी मालिक से पैसे बढ़ाने की बात नहीं की थी। उसका काम देखकर जिसने जो दिया, रख लिया करता था। मगर अब तो ऐसे नहीं चल पाएगा? मालिक से बात करनी होगी? उसे बताना होगा कि अब वह इतने रुपये में काम नहीं कर पाएगा! क्या मालिक उसकी मजबूरी समझकर पैसे बढ़ाएगा?

अगले दिन जब जगुवा सुबह-सुबह धार से उतरकर सड़क पर पहुँचा तो बस का कहीं कोई पता नहीं था। लोग जीप की ओर लपक रहे थे। उसे लग रहा था कि लोग नाहक ही जीप की ओर जा रहे हैं। थोड़ा देर में बस आ जाएगी। बस ऐसे ही थोड़ा बंद हो जाएगी। बंद होती तो अखबार में खबर आती। कंडक्टर मजाक कर रहा होगा। सरकार का काम लोगों की भलाई करना है। उसे नफे-नुकसान से क्या मतलब? ऐसे तो कल को वो स्कूल और अस्पतालों को चलाना बंद कर देगी? लोगों तक सड़क और पानी पहुँचाना बंद कर देगी? चावल, गेहूँ, चीनी और मिट्टी का तेल देना बंद कर देगी?

देर तक इंतजार करने के बाद भी जब बस नहीं आई तो जगुवा तेजी से पगडंडी की ओर को मुड़ गया। शाम को भी वह तय समय तक बस अड्डे में बस का इंतजार करता रहा। लेकिन जब शाम को भी बस नहीं आई तो उसकी समझ में आ गया कि कंडक्टर ने सच कहा था। उसने जल्दी से मुख्य मार्ग वाली बस पकड़ी। पैदल चलने की शुरूआत करते समय ही अँधेरा हो चुका था। घर पहुँचने पर उसे लग रहा था, जैसे आधी रात हो चुकी है। बूढ़े माँ-बाप, पत्नी और बच्चे सब उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उसने आज से पहले कभी उन्हें इस तरह प्रतीक्षा करते हुए नहीं देखा था।

वे उदास थे। सोच में पड़े हुए थे। जगुवा भी उदास था और खाना खाकर बिस्तर पर जाने के बाद उसे देर तक नींद नहीं आई। वह सोच रहा था कि अगर वह अपने साथ काम करने वालों और मालिक को अपनी समस्या बताएगा तो वे किस तरह हँसेगे और क्या इस बार वह भी हँस पाएगा?

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