कोयला खान | नरेंद्र जैन
कोयला खान | नरेंद्र जैन

कोयला खान | नरेंद्र जैन

कोयला खान | नरेंद्र जैन

एक

पहले जमीन, जमीन थी 
ऊपर घास, नीचे, बहुत नीचे कोयला 
ऊपर हवा, नीचे बहुत गहरे एक आग 
आदमी जो वहाँ आया 
तलुओं के नीचे आग महसूस करता रहा 
देखता रहा जमीन का जादू 
कोयले का काला सपना 
कुछ और लोग आए 
गैंती, फावड़े और बेलचे लिए 
रोटी की तलाश उन्हें जमीन के नीचे ले गई 
एक सड़क जमीन से शुरू होकर 
नीचे पाताल में उतरती चली गई 
मजदूरों ने जमीन पहाड़ एक किए 
जिस्म काले और खून काला किया 
जमीन कोयला उगलती रही 
जमाना आगे बढ़ता गया 
नीचे पाताल में एक अंतरिक्ष था 
जहाँ गर्म रोटियाँ 
कलाबाजिया कर रही थीं 
अपनी गैंती लिए मजदूर 
उनके पीछे भाग रहे थे निरंतर 

दो

जमीन ऐसी 
जैसे मेरे कस्बे की जमीन 
घास भी थी 
जैसी होती है हर कहीं 
सूखी और यहाँ वहाँ जली हुई 
बेडौल रास्तों पर 
भारी पहियों के ताजा निशान 
उसने मुझसे कहा 
यहाँ कोई तीन हजार मजदूर 
खान में काम कर रहे हैं 
वहाँ जमीन पर कहीं 
कोई भी नहीं था 
कहीं दूर शहर की बत्तियाँ 
खिलखिला रही थीं 
उन्हें आमने सामने देखने के लिए 
मेरा मजदूर होना जरूरी था 
वे सब 
वहाँ थे नीचे 
खून पसीने की कार्यवाही में जुटे 
सुनते हुए ट्रालियों और 
विस्फोटों का शोर 
सिर्फ देखकर उन्हें नहीं देख सकता था मैं 
वहाँ 
कोयले की काली दुनिया में उतरना 
एक जरूरी शर्त थी 

तीन

आबिद 
जवानी में वहाँ 
प्रविष्ट हुआ था 
कोयले की मुश्किल दुनिया में 
उतरने का साहस लेकर 
आबिद को 
उसके गाँव में फिर कभी 
किसी ने नहीं देखा 
उसके दोस्त सोचने लगे थे 
आबिद कहीं चला गया है 
आबिद कहीं चला गया था 
बरसों बाद 
एक काला आदमी 
ऊपर दिखलाई दिया 
वह नहीं जो नीचे उतरा था कभी 
पर नाम वही आबिद 
नंबर भी वही 2720 
फेफड़ों में गर्द और कालिख लग चुकी थी 
किसी ने बतलाया 
आबिद का नंबर भी 
2720 था 

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चार

वहाँ 
उस दैत्याकार मशीन का 
अपना विषाद था 
उसकी समूची लौह आकृति 
उदास थी 
उस पर बन चुके थे 
धूल और खरोचों के निशान 
जैसा उससे कहा जाता रहा 
वह करती रही 
जमीन में अपने विशालकाय 
पंजों को उतारकर 
बारूद लगाती रही 
उसका आविष्कार हुआ था 
गुलामी को मिटाने के लिए 
वह बतलाती रही कोयले का पता 
ताकि मजदूर खुली हवा में जी सके 
वहाँ 
मशीन के दैत्याकार चेहरे पर 
विषाद ही 
विषाद था 

पाँच

एक बहुत बड़ा 
हमाम था वहाँ 
पहली खेप से छूटे मजदूर 
वहाँ घुस रहे थे 
काली हाफ पैंट 
डबल सोल के जूते 
और सिर पर रखा भारी टोप 
उस हमाम में 
देखा 
सैकड़ों मजदूरों को नहाते हुए 
दामोदर का मटमैला पानी 
एक सी रफ्तार से 
नालियों में बह रहा था 
सामने 
टीले पर बने 
एक बंगले में 
खदान का बड़ा अफसर 
पानी के टब में डूबा 
सिगार पी रहा था 

छह

वह उन्नीसवीं सदी की बात है 
सदियाँ कभी कभी बीतती नहीं 
रुकी हुई हैं अब भी 
शताब्दियाँ कहीं 
पावेल कोर्चागिन 
ऐसी ही किसी जगह काम किया करता था 
माँ इसी तरह पावेल का टिफिन लिए 
फैक्टरी के दरवाजे पर जाती रही होगी 
जिस तरह यह बच्ची 
अपने पिता के लिए 
अल्युमिनियम के डिब्बे में रोटी ले जा रही है 
ठीक इसी तरह 
तनख्वाह के दिन 
पावेल पंक्ति में खड़ा 
अपनी बारी का इंतजार किया करता होगा 
जिस तरह 
यह मजदूर 
पावेल जरूर 
दुनिया के हर मुल्क में 
जन्म लेता रहा है 
कोयला खान से लौटते इस हुजूम में 
मैं आज पावेल को ढूँढ़ रहा हूँ 
आज किसी किसी की आँखों में 
वही चमक है 
जो कभी 
पावेल की आँखों में थी

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