इस बार कितने ही वर्षों के बाद घर गया तो गली के मोड़ पर ही मुंशी गजाधर प्रसाद से भेंट हो गई। अपने स्‍कूली दिनों में मैंने मुंशी जी की अनोखी धज देखी थी। उन दिनों ढीले पाजामे, अचकन और काली टोपी की बहार थी। मगर अब अवकाश-प्राप्‍त मुंशी जी एक लीरा धोती और मार्कीन के मुंशिआइन या किसी बेटी के हाथ से सिले बनियान में मलबूस थे। छाती थी सिकुड़कर मुनमुन-सी बालिश्‍त-भर की रह गई थी। मुझे देखते ही दशकों पुराने निकिल के फ्रेम के चश्‍मे को माथे पर चढ़ाकर बोले, ‘अरे भई कौन? कहीं अपने गायत्री जी हैं क्‍या? अक्‍खह तो जनाबे मन अर्सा दरांज बाद इधर तशरीफ लाए हैं।

मैं उनके उत्‍साह से पूछे गये किसी प्रश्‍न का उत्तर दे पाता इस से पहले ही वह फिर शुरू हो गए, ‘अरे भई वह अपना टिलुवा है न! वह ससुरा भी दिल्‍ली में है। कौन-सा डिपार्ट है, कुछ अप्‍लाई-सप्‍लाई कहावे है।’ मुंशी जी का चश्‍मा माथे से उतरकर फिर नाक के बांसे पर आकर अटक गया। धंसे हुए कल्‍लों पर मुस्‍कान जैसा कुछ उभरा और कहने लगे, ‘वह पाजी तो आपसे क्‍या मिलता होगा। अव्‍वल नंबर का आलसी है, मगर एक बात और भी तो सुनते हैं – राजधानी में सबके ठिकाने बहुत-बहुत फासिले पर हैं।’

मुंशी गजाधर प्रसाद रिटायर्ड रजिस्‍ट्रार कानूनगो है। मुझसे बतियाते हुए मोड़ से मेरे साथ ही लौट पड़े और जैसे ही उनका मकान आया – मकान के चबूतरे पर अंगद की तरह पांव रोपकर खड़े हो गए और मुझे रूकने का संकेत करके व्‍यस्‍तता से अपने मंझले बेटे को पुकारने लगे। लड़का तो नहीं आया – हां पड़ोस के दो किशोर उनकी ओर उड़ती-सी नजर डालकर आगे बढ़ गए। उन लड़कों की बेअदबी पर वह क्षुब्‍ध होकर बोले, ‘देखा आपने, क्‍या जमाना आ गया है ससुरा? ये प्रोफेसर दबे और पंडित शुक्‍ला साहब के नौनिहाल है। सांड़ों की तरह जमीन खूंदते फिरते हैं। दुआ-सलाम करते हुए नालायकों को मौत आती है। पता नहीं स्‍कूल कालेजों में इन दिनों क्‍या पढ़ाया सिखाया जाता है।’

मुंशी जी बराबर बोलते चले जा रहे पर एकाएक मेरा ध्‍यान उनकी ओर से हट गया था कि क्‍योंकि मैं लाला कन्‍नोमल के चौमंजिले मकान की ऊंचाई में खो गया था। कस्‍बे में मकानों का नक्‍शा पहले की अपेक्षा काफी बदला-बदला दीख पड़ता था। अब मुश्किल से दो-चार मकान ही इकमंजिला और पुरानी तर्ज के बाकी रह गये थे।

मकानों से हटकर मुंशी जी की ओर ध्‍यान गया तो मैंने सुना, ‘…अपना तो असूल है अलस्‍सुबह उठो – घूमों और ताजा हवा में लंबे-लंबे सांस खींचो। वह कहा है न किसी ने…।’ मुंशीजी बेचारे उस अंग्रेजी-हिंदी या फिर उर्दू-फारसी की प्रसिद्ध कहावत में भटककर रह गये जिसे लिखने वाला किसी कब्र में मीठी नींद सो रहा होगा। मुझे भी वह खास कहावत उस वक्‍त याद नहीं आई इ‍सलिए मैंने अपनी गर्दन नीचे झुका ली। सोचने लगा शायद मुंशी जी उस उक्ति से उबरकर आगे बढ़ें मगर वह उसी में उलझकर रह गए। आप बखूबी जानते होंगे कि उस समय स्थिति कितनी दारुण और गंभीर होती है जब एक बहुत बूढ़े आदमी को जन्‍म-भर दुहराई कहावत याद नहीं आती और आप हर प्रकार से समर्थ और जवान-जहान दिखते हुए भी उसकी कुछ सहायता नहीं कर पाते।

मुझे लगा आजकल के लोकप्रिय नारों की तर्ज पर ‘अर्ली टू राइज’ वाली पोयम दुहराये हुए उन्‍हें अर्सा बीत गया है। हो सकता है सेहत की भलाई से जुड़ी बात सुनने वाला कोई कद्रदां उन्‍हें आसानी से अब पकड़ाई नहीं देता।

हर अच्‍छी या बुरी स्थिति का अंततः अंत होता ही है। उन्‍हें सेहत के मुहावरे से मुक्ति देने के लिए उनका छोटा बेटा हुक्‍का लेकर आ पहुंचा। मुंशी जी ने मानसिक रूप से व्‍यस्‍तता के दौरान ही हुक्‍का हाथ में पकड़ा और नगाली मुंह में देकर गड़गड़ शुरू कर दी। किंतु शायद दुर्भाग्‍य का कहीं कोई अंत नहीं – हुक्‍के का पानी उनके मुंह में आ गया। मुंह टेढ़ा करके उन्‍होंने दीवार पर पानी का पुचारा छोड़ा। उनका मुंह विकृत हो उठा। क्षुब्‍ध होकर बोले, ‘देख रहे हैं आप? सांड़ जैसे लड़के भी हुक्‍का ताजी करना नहीं जानते। साला इस मुलुक का सारा ‘आर्ट’ ही खत्‍म हो गया।’

सहसा उन्‍हें वही बात याद आ गई जिसे वह पचासों सालों से धुनिये की तरह धुनते चले आ रहे थे, ‘उस साल डिप्‍टी सा‍हेब का कैंप मौजा फरीदपुर के नाले के उस पार लगा। तकाबी के सिलसिले में तहसील के सभी छोटे-बड़े हुक्‍काम जमा थे। डिप्‍टी साहेब का बाकी सामान तो पहुंच गया था मगर ना मालूम किस तरह हुक्‍का आने से रह गया था। अब आप समझिए – हुक्‍का पान-तंबाकू में कौन बड़ा, कौन छोटा। जनाब आशिक हुसैन तहसीलदार साहब ने मुझे इशारा किया। मैंने खुद अपने हाथों से नहचा वगैरह साफ करके शिकारपुर के असली तंबाकू की एक चिलम चढ़ाई और हुक्‍का डिप्‍टी साहेब के हुजूर में ले गया। जनाब डिप्‍टी सा‍हेब ने मेरी जानिब देखा और मुस्‍करा दिए।’

यहां तक पहुंचते-पहुंचते मुंशी जी उच्‍छवसित हो उठे और जनेऊ को ऊपर-नीचे करते हुए बोले, ‘…हां तो मैं कह रहा था कि उस दिन डिप्‍टी साहेब को शाम तक दम मारने की फुर्सत नहीं मिली।’ इसी समय मुंशी जी की लाइन का कांटा बदल गया और वह एक-दूसरे ही क्षेपक पर जा पहुंचे, ‘तो भैया गात्री जी उस दौर के अफसरान आजकल के लौंडों-लपाड़ों की तरह तो होते नहीं थे। अजी उस दिन राम‍लीला मैदान में तालीम के मनीस्‍टर आये थे। बखत का मारा मैं भी जा पहुंचा। जहां मनीस्‍टर साहेब की पार्टी होने वाली थी – जनाब कलैक्‍टर साहेब वहां खुद हाजिर थे। पास में ही चौराहा वाकअ है। किसी की मोटर से एक्‍सीडैण्‍ट हो गया। जब एक्‍सीडैण्‍ट मारने वाले को थानेदार उस मुकाम पर बुलाकर लाया जहां जनाब कलैक्‍टर साहेब तशरीफ रखते थे तो भाईजान वहां का नजारा मैं आपको क्‍या सुनाऊं। अब यही समझ में ना आवै कि जनाब कलैक्‍टर साहब कौन से हैं। वह शख्‍श जो एक्‍सीडैण्‍ट मार करके आया था। …वह भी कोई खुशपोश पोजीशन वाला आदमी था। उसकी शानो-शौकत देखकर बाकी हुक्‍काम कुछ न बोल सके तो शहर के एक रईस साहेबान ने डी.एम. साहेब की ओर मुखातिब होकर फरमाया, ‘आप कलैक्‍टर साहब हैं।’

इस समय मुंशी जी के चेहरे पर लानत देने का भाव उभर आया था और वह नाक सिकोड़कर बोले, ‘अब जनाबेआली आप खुद ही अंदाज लगाइये। क्‍या इसी को आफीसरी कहते हैं? ये लोग क्‍या खाकर हुकूमत करेंगे – जब कलैक्‍टर भी अपने रुतबे से कलैक्‍टर दिखाई न दे, बल्कि लोगों का बताना पड़े।’

अपने किस्‍से की रौ में मेरा नाम भी भूल गए थे। फिर कुछ याद करके बोले, ‘हां तो सास्‍तरी जी। अब यह कैफियत है इन हुक्‍कामों की – कि बड़े से बड़ा अफसर भी ऐसा मालूम पड़े हैं जैसे सिकैन्ड वर्ल्‍ड-वार में जापान की कैद से छुटा हुआ कोई नामुराद कैदी हो। पिचके हुए कल्‍ले, उठी हुई हड्डियां, सूखे-सूखे हाथ-पांव। हाथों के पंजों पर उभरी हुई मोटी-मोटी नसें और जनाब गले के टेंटुए का यह हाल गोया कठफोड़वे की चोंच निकली हुई हो। जब इनका रूआब ही कुछ नहीं है तो यह क्‍या खाक हुकूमत करेंगे। अरे माना तुम्‍हारा जेहन तेज है मगर तुम्‍हारे जिस्‍म पर तो चर्बी का नाम भी नहीं है।’

सहसा मुंशी जी ने फिर लाइन बदल दी और वह फरीदपुर लौट गए, ‘तो भाई आतरी जी, डिप्‍टी साहेब को शाम तक कुर्सी से हिलने की फुर्सत नहीं मिली। उस दिन छोटी हाजिरी के बाद उन्‍होंने कुछ नहीं लिया। तकाबी तकसीम करने के दौरान बस बेखुदी में कभी-कभी हुक्‍का गुड़गुड़ा लिया करते थे। भाई मेरे, आपको ताज्‍जुब तो होगा। मगर यह सौ फीसदी सच है कि सुबह से शाम तक चिलम नहीं बदली गई। वही की वही एक बार भरी हुई चिलम, वही आग और वह एक बार का चढ़ाया हुआ तंबाकू।’

बातें करते-करते शायद मुंशी जी थक गए थे। उन्‍होंने बात रोककर नगाली मुंह को लगाई और एक कश खींचा किंतु लगता था जैसे चिलम का तंबाकू जल गया था। उन्‍होंने चिलम नेहचे से उतारकर बेतहाशा फूंकें मारीं और कोयलों को दहकाने की कोशिश की मगर बुझे कोयलों पर पड़ी राख की पर्त ने उड़कर उनके चेहरे को गर्द से ढंक दिया। मुंशी जी का आगे अपनी बात कहने का उत्‍साह एक-बारगी बुझ गया और उन्‍होंने अपनी कहानी का शेष भाग नहीं सुनाया हालांकि मैं भली प्रकार जानता था कि चिलम भरने के ‘आर्ट’ पर खुश होकर डिप्‍टी साहेब ने मुंशी जी को अपने पास बुलाकर शाबासी देते हुए उनकी पीठ ठोंकी थी और तरक्‍की का आश्‍वासन दिया था।

मैं मुंशी गजाधर प्रसाद की मनःस्थिति बदलने की प्रतीक्षा में ही था कि उन्‍होंने हुक्‍का उठाया और अपने मकान के फाटक में दाखिल हो गए। शायद चिलम बुझ जाने से उत्‍पन्‍न आक्रोश का कोई ओर-छोर नहीं था। मैंने उचित अवसर जानकर आगे की ओर कदम बढ़ा दिए और कानूनगो साहब के छोटे पुत्र बिल्‍लू को मन-ही-मन धन्‍यवाद दिया कि यदि उसने भी चिलम भरने के ‘आर्ट’ में अपने पिता मुंशी गजाधर प्रसाद का अनुसरण किया होता तो मुझे उस पूरे दिन मुंशी जी से ही चिपके रहना पड़ता।

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