चौक पर चाय-सिगरेट की रेढ़ी सुबह-सवेरे लग जाती है। सात बजे से पहले ही सिगरेट-पान लेनेवालों का भीड़-भड़क्‍का, क्‍योंकि यह सड़क वायुसेना-अड्डे की तरफ जाती है। वायुसैनिक अपनी चमचमाती साइकिलें सड़क किनारे खड़ी कर सिगरेट खरीदते हैं और अड्डे की तरफ साइकिलों पर ताबड़तोड़ भागते हैं। बूढ़ा सिगरेट-पान देता है।

इसी चौक पर रिक्‍शा-स्‍टैंड भी है। सवारी जल्‍दी झपटने के लिए रिक्‍शावाले बिना चाय घर से निकल पड़ते हैं। रिक्‍शा में बैठे चारों सड़कों पर लगातार गर्दन घुमा कर देखते। किलोमीटर दूर से आ रहे किसी भी आदमी की चाल से पहचान जाएँगे कि ‘सवारी’ है कि नहीं। जब पेट खाली हो, तो आँखें तेज हो जाती हैं। सवारी नहीं दिखती, तो रेढ़ी से चाय लेंगे। चाय बूढ़े का बेटा बनाता है। चाय पीते हुए भी चारों सड़कों पर लगातार मुड़-मोड़ कर देखती गरदनें।

अगर कोई वायुसैनिक या सैनिक सिगरेट-बीड़ी के लिए जल्‍दी मचाए तो बूढ़ा बिना सिर ऊपर उठाए हँस कर कहेगा, ‘अब साहब, भगवान ने हाथ तो दो ही दिए हैं न। अपने बड़े साहब से कह कर दो हाथ और लगवा दो, तो फिर जल्‍दी की जल्‍दी। किसी के पास टूटे पैसे न हों, तो बूढ़ा मीठी डपट मारेगा, ‘वापसी पर देना साहब। अब आपका नोट तोड़ा, तो बाकी साहबों का अफसर सिर तोड़ देंगे।’

आसपास की कोठियों से आए सिगरेटखोर पंद्रह मिनट तक रेढ़ी के पास नहीं आते, सैनिकों के झुंड के हटने की प्रतीक्षा बड़े सब्र से करते हुए। रेढ़ीवाला बूढ़ा हाथ लंबा कर पक्‍के ग्राहकों को एक सिगरेट पकड़ाएगा, ‘साहब, आप तब तक सूटा मारो, तलब तेज होगी। बाद में डिब्‍बी देता हूँ।’

लेकिन आज सवेरे जब वह चौक पर गया, तो हक्‍का-बक्‍का रह गया। न अपनी जगह पर सिगरेट-चाय की रेढ़ी और न रिक्‍शा-अड्डे पर कोई रिक्‍शा।

चौक से पहले ही फौजी अपनी साइकिलों की रफ्तार कम करते है। रेढ़ी नहीं दिखती, तो गद्दी पर अध-उठ कर पैडलों पर जोर मार कर आगे बढ़ जाते हैं। उनके पास समय नहीं कि रुक कर पूछें, रेढ़ी कहाँ है?’

वह गरदन उचका कर दूर-दूर निगाह घुमाता है, शायद बूढ़े को आज घर से निकलने में देर हो गई। साइकिल-पहिए लगी रेढ़ी को धकेलता देर से दिख जाएगा। फिर वह निराश हो गया, आज सिगरेट नहीं मिलने के। बूढ़े के देर से आने का सवाल ही नहीं उठता, दुकानदारी का असली वक्‍त तो यही है।

एक रिक्‍शावाला उसके पास रुका और खबर दी कि रेढ़ी आज यहाँ नहीं लगेगी। सड़क से दूर तीसरी काठी की चारदीवारी के अंदर है। क्‍योंकि सवेरेवाले सारे-के-सारे पक्‍के ग्राहक एक-दूसरे को पहचानते हैं, इसलिए बेझिझक एक-दूसरे को छोटी-छोटी सूचनाएँ देंगे, घटनाएँ बताएँगे।


वह तीसरी कोठी की तरफ चलने को हुआ कि तभी चौक पर एक टैंपो रुका। अगली सीट से एक सब-इंस्पेक्टर नीचे कूदा। उसने टेढ़ी गर्दन से चारों सड़कों पर निगाह घुमाई, आश्‍वस्‍त हुआ। फिर कड़क कर बोला, ‘जल्‍दी नीचे उतरो!’

पहले टैंपों से चार सिपाही नीचे कूदे, पीछे-पीछे आठ-दस मजदूर, हाथों में कुदालें और नोकीले लेकिन मोटे सरिए।

‘तोड़ दो! बिलकुल हमवार कर दो!’ कह कर सब-इंस्पेक्टर ने टोपी उतारी। उसे हिला कर चेहरे पर हवा करने लगा।

मजदूरों ने चारों सड़कों पर बने गतिरोधक तोड़ने शुरू कर दिए। इस चौक पर अक्‍सर सड़क-दुर्घटना होती रहती थी। शहर के लोगों ने कैटोनमेंट बोर्ड में प्रार्थनापत्र दे कर, ब्रिगेडियर साहब से मिल कर गतिरोधक बनवाए थे और आज उन्‍हें पुलिसवाले तुड़वा रहे हैं!

उसने आगे बढ़ कर सब-इंस्पेक्टर से पूछा, ‘चौधरी साहब, स्‍पीडब्रेकर क्‍यों तुड़वा रहे हैं? सब स्‍कूलों के बच्‍चे इसी तरफ से गुजरते हैं।’

चौधरी साहब ने उसे नीचे-से-ऊपर तक देखा। कुरता-पाजामा, दाढ़ी बढ़ी हुई। अफसर नहीं, इसीलिए जवाब देना जरूरी नहीं समझा। तभी मजदूरों के पास खड़ा हवलदार वहाँ आया, ‘साहब, इन मजदूरों को गांधी मंडी से पकड़ कर लाया हूँ। सारे दिन का काम है, इन्‍हें दिहाड़ी कहाँ से देनी है?’

‘ऐसे कर, आधी तनख्‍वाह मैं डालता हूँ और आधी तू डाल और दे दे दिहाड़ी। तुझे हवलदार किसने बनाया है? चाय-वाय पिला देना और छोड़ आना गांधी मंडी। कोई दिहाड़ी माँगे, तो कहना थाने आ कर ले जाए।’ सब इंस्पेक्टर ने रूमाल से मुँह पोंछा। हवलदार मजदूरों के पास खिसक गया।

‘आप यहाँ खड़े क्‍या देख रहे हैं जाइए अपना काम कीजिए।’ यह घुड़क सुन कर वही तीसरी कोठी की तरफ चल पड़ा, जहाँ आज सिगरेट-चाय की रेढ़ी लगी है।

वह रेढ़ी के पास पहुँचा। बूढ़े के दो हाथ, जो इस वक्‍त हमेशा मशीन की तरह चलते हैं, घुटने पर धरे-के-धरे। लगातार सर्दी-गर्मी में खुले में बैठ कर काम करने के कारण शरीर का रंग ताँबे की तरह तपा हुआ। लेकिन आज आँखें लाल क्‍यों?

‘बाबा, क्‍या हो रहा है? आज बड़े चुप हो।’

‘होना क्‍या है साहब, नसीब को रो रहे हैं?’ बूढ़े की आवाज में गुस्‍सा है, हार की मार नहीं।

‘लेकिन आज रेढ़ी यहाँ क्‍यों लगा ली?’

‘पुलिसवालों ने वहाँ से उठवा दी। परसों प्रधानमंत्री जी आ रहे हैं। इसी सड़क से भाषणवाले मैदान में जाएँगे।’

‘अच्‍छा! प्रधानमंत्री आ रहे हैं? अखबारों में तो खबर आई नहीं।’

‘स्‍कोरटी, साहब, स्‍कोरटी। पहले थोड़ा बताएँगे, मुझ बूढ़े को भी इसी वजह से वहाँ से उठा दिया। मैंने कहा, ‘भाई, परसों आ रहे है, तो परसों सवेरे रेढ़ी हटा लूँगा।’ आप तो जानो, पुलिसवाले भी हमसे सिगरेट-बीड़ी लेवें। जानते हैं। बताया कि बाबा आज दिल्‍ली से स्‍कोरटीवाले चैकिंग करने आएँगे। उन्‍हें कौन समझाए। इसलिए तीन दिन के लिए छूमंतर हो जाओ।’

‘कहते तो ठीक हैं बाबा! आज के हालात देखते हुए सुरक्षा के कड़े बंदोबस्‍त जरूरी हैं।’

‘साहब, बुरा मत मानना, आपसे उम्र में बड़ा हूँ। बहुत सारे नेता और प्रधानमंत्री देखे हैं, लेकिन किसी ने आज तक पेट पर लात नहीं मारी। पंडित जवाहरलाल नेहरू तो खुली कार में सफर करते थे। बँटवारे के दिनों के बाद कई बार यहाँ आए। बहुत बड़ा रफूजी कैंप लगा था। जहाँ भीड़ देखते, कार से कूद पड़ते। खुद मुझे उन्‍होंने कंधे पर थपथपाया, हाथ मिलाया था।’ उसका सीना गर्व से कुछ इंच चौड़ा हो गया। मुझे एक सिगरेट पकड़ाई।

‘साहब, अपने कोठीवाले दोस्‍तों को बता देना। तीन दिन रेढ़ी यहाँ लगेगी। कुछ ग्राहक तो आएँ। बोर्डवालों को रोच पाँच रुपए चढ़ावा चढ़ाना है।’

‘चढ़ावा क्यों? रेढ़ी लगाने का लाइसेंस जो है।’

‘अरे साहब, लाइसेंस चाटना है क्‍या? रेढ़ी कहाँ लगानी है, इसकी जगह की मंजूरी तो वही देंगे न। अगले साल इस जगह का चढ़ावा दस रुपए रोज कर रहे हैं। देने हैं तो दो, नहीं तो रेढ़ी लगानेवाले और बहुत।’ उसने पान लगाना शुरू कर दिया।

‘बाबा, मैं तो पान खाता नहीं।’

‘आज खा लेना साहब! ससुरे गरीब के हाथ न चलें तो लकवा मार जाता है। अच्‍छा साहब, एक बात बताओ। जो कोई हमारे पेट पर लात मारे, क्‍या हम उसे वोट दें? नहीं देना चाहिए न। मेरे घर और मुहल्‍ले की सौ से ऊपर वोटें हैं। मजाल है, कांगरस्‍स पार्टी को एक भी डाल जाएँ। यह रिक्‍शेवाले, जिन्‍हें सड़को से तीन दिन के लिए भगा दिया है, डालेंगे वोट इनको? साहब, मेरी बात पत्‍थर पर लकीर समझो। इस बार चौधरी देवीलालवाली पारटी कांगरस्‍स को जड़ से न उखाड़ दे, तो मैं अपने पेशाब से अपनी मूँछें धो लूँ। साहब, प्रधानमंत्री अच्‍छे मेहमान हैं। पहली बार हमारे शहर आ रहे हैं, तो तीन दिन के लिए हम गरीबों का खाना-पीना बंद।’

एक पुलिसवाला रेढ़ी के पास आया, ‘चाचा एक बंडल बीड़ी दे। और सुन, ‘मैं तेरे पक्‍के ग्राहकों को बताता जा रहा हूँ कि रेढ़ी यहाँ लगी है। सारे आ जाएँगे।’

‘भगवान तेरा भला करे वीरा! अच्‍छा यह तो बता, सड़के क्‍यों तोड़ रहे हैं?’

‘चाचा, स्‍पीडब्रेकर की वजह से गाड़ी की स्‍पीड कम करनी पड़ती है। तोड़ इसलिए रहे हैं कि प्रधानमंत्री की कार धीमी न करनी पड़े, जन्‍नाटे से निकल जाए। खतरा है, खतरा।’ पुलिसवाले ने व्‍यंग्‍य से मुसकरा कर यह आखरी बात बताई।

वह काम पर जाने के लिए दस बजे स्‍कूटर पर घर से निकला। बड़े चौक पर, उसे पता है, गतिरोधक अभी तक तोड़े जा रहे होंगे, इसलिए कोठी के पीछेवाले रास्‍ते से निकल कर छोटे चौक की तरफ मुड़ा, जो बड़ी सड़क से लगता है। लेकिन स्‍कूटर रोकना पड़ा, क्‍योंकि सड़क पर तीन ट्रक आड़े खड़े करके इसे बंद कर लिया है। उसने पेड़ के नीचे स्‍कूटर खड़ा किया। कच्‍ची सड़क से पैदल निकल कर ट्रक पार किए। सड़क किनारे खड़े सिपाही से पूछा, ‘क्‍यों भाई ट्रकों से सड़क क्‍यों बंद कर दी?’

‘बाऊजी, प्रधानमंत्री आ रहे हैं।’

‘लेकिन वे तो आज नहीं आ रहे।’

‘तो क्‍या? रिहर्सल हो रही है। सड़क बारह बजे तक बंद रहेगी। अगली सड़क से निकल जाओ।’

‘अगली सड़क खुली होगी न? दफ्तर पहुँचना है।’

‘मैं क्‍या जानूँ। मेरी ड्यूटी तो इस सड़क को बंद रखने की है। मेरी मानो तो आज पैदल ही निकल जाओ।’ स्‍कूटर किसी-न-किसी बहाने धर लेंगे।’

‘लेकिन दफ्तर तो दो किलोमीटर दूर है।’

बाऊजी, पैदल चलने से आज तक कोई मरा है क्‍या? मुझे देखो, तीन घंटे से चल रहा हूँ, टाँगें लोहे की तरह मजबूत…’ उसने बात बीच में छोड़ दी। सड़क पर तेजी से आती पुलिस की जीप देख कर एकदम सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया। बंदूक कंधे पर। जीप जन्‍नाटे से पास से निकल गई। अंदर बैठे पी-कैप डाले, धूप का चश्‍मा लगाए अकसर ने सैल्‍यूट देते सिपाही की तरफ देखा तक नहीं।


सुबह की सैर के दोस्‍त, रिटायर्ड जज की बात उसे याद आ गई। जाने किस संदर्भ में बताया था – आइ.ए.एस. और आइ.पी.एस. तीन जादुई अक्षर… मैजिक लैटर्स होते हैं, नाम के साथ जब ये लग जाएँ, तो आदमी का कायाकल्‍प हो जाता है। आदमियों की कतार से निकल कर वह देवताओं, सुपरमैन की कतार में जा बैठता है। एक साल की ट्रेनिंग के बाद जिले का सबसे योग्‍य, जिसके आगे सब जवाबदेह हैं, लेकिन वह किसी के आगे नहीं। देश के यही असली शासक, अपनी सरकारी ताकत से लगातार मस्‍ताए हाथी की तरह झूमते।

वह वापस मुड़ा कि स्‍कूटर घर रखे और पैदल काम पर जाए। पीछे से सिपाही ने आवाज दे कर पूछा, ‘अरे कौण काम करो!’

‘कॉलेज में पढ़ाता हूँ।’

‘अरे गुरुजी! तो पहले क्‍यों न बताया। आप कच्‍चे से पैदल स्‍कूटर निकाल लो, फिर इसी सड़क से कॉलेज निकल जाओ। ससुरी जीपों से सड़क न घिसी, स्कूटर से क्‍या घिस जाएगी।’

वह स्‍कूटर आड़े खड़े ट्रकों के पीछे से आगे पक्‍की सड़क पर लाया। ऊपर बैठ कर किकें मारी, स्‍टार्ट नहीं हुआ। स्‍टैंड पर खड़ा किया। किक मारी। मरियल-सी फट-फट और स्‍कूटर बंद।

‘गुरुजी, ओवर हो गया।’ सिपाही ने स्‍कूटर एक ओर झुकाया, तड़ातड़ मारो, तो ही चले।

‘कहाँ से आए हो भाई? खाने-ठहरने का क्‍या इंतजाम है?’

‘खूब पूछी गुरुजी! अरे यहाँ सड़क के किनारे सोएँगे, यहीं हगे-मूतेंगे, सुबह नल के पानी से मुँह धो कर फिर गश्‍त शुरू। ससुरे जनावर जा ठहरे। आप यहाँ के एम.एल.ए से कह कर जो नया तीन स्‍टार सरकारी होटल खुला है वहाँ ठहरा दो न।’ उसने छेड़खानी की।

वह कॉलेज पहुँचा। आजकल गरमी की छुट्टियाँ है, लेकिन वार्षिक परीक्षाएँ चल रही हैं। प्रिसिंपल ने बताया कि कल और परसों दोपहर दो से पाँच परीक्षाएँ नहीं होंगी। उसने कहा, ‘लेकिन प्रधानमंत्री तो परसों आ रहे हैं। कल परीक्षा केंद्र बंद करने का क्‍या तुक?’

‘शर्मा जी, प्रधानमंत्री का क्‍या? हो सकता है, कल ही आ जाएँ! वह किसी के नौकर तो नहीं कि जब कहें, तभी आएँ। परीक्षा केंद्र बंद करने की वजह पूछनी है, तो आप डिप्‍टी-कमिश्‍नर से फोन कर बात कर लो। उन्‍होंने ही फोन पर आर्डर दिया है। आप समझते क्‍यों नहीं, हालात नाजुक हैं। प्रधानमंत्री दोपहर बाद आ रहे हैं। कालेज के सामने की सड़क से गुजरेंगे। एग्जाम देनेवाले लड़कों की भीड़ लगी होगी न सड़क पर। उनकी सिक्‍योरिटी इंपॉर्टेंट है कि लड़कों की परीक्षा।’ बात करते हुए प्रिसिंपल के चेहरे पर तेज आ गया, कंधे चौड़े हो गए, जैसे प्रधानमंत्री की सुरक्षा का एक बहुत बड़ा भार उन पर भी आ पड़ा हो।

वह स्‍टाफ-रूम में आया। घर जा कर भी क्‍या करना है। संस्‍कृत के प्राध्‍यापक से कहा, ‘पंडित जी, प्रधानमंत्री आ रहे हैं। हाथवाले झंडे उग आए हैं शहर-भर में।’

‘शर्मा जी, उन कीलों का क्या होगा, जो पाँच साल पहले लोगों की आत्‍माओं में कांग्रेस ने गाड़ दी थीं। एम.एल.ए. कम होने पर भी राज झपट लिया। उस सामूहिक अपमान का बदला तो लोग लेंगे ही। अंग्रेजी में कहते हैं न किसी माँ-बाप के पापों, कुकर्मो का फल संतान को भोगना पड़ता है।’

‘एक पार्टी गई, उसकी जगह वैसी ही दूसरी आ गई, तो क्‍या फर्क पड़ता है! यह कोई क्रांति हुई क्‍या!’ अंग्रेजी के प्राध्‍यापक, जो शौकिया साम्‍यवादी हैं, नाक चढ़ा कर बोले।

‘क्‍यों साहब दुश्‍मन घर के आगे बैठा हो, उसे मारना जरूरी है कि पहले रूस से सलाह लेना कि बताइए, क्रांति लाने का वैज्ञानिक तरीका क्‍या है? लोगों के मनोविज्ञान की ऐसी-तैसी! उन्‍हें हमारा विज्ञान जिधर चाहे हाँक लेगा, धकेल देगा।’ पंजाबी के प्राध्‍यापक ने जल कर अंग्रेजीवाले की बोलती बंद करनी चाही।

‘लेकिन साहब, पिछले सालों में तो हरियाणा में कोई जुल्‍म नहीं हुआ। मेरी बात लिख लें। कांग्रेस और विरोधी दल की बराबर-बराबर सीटें आएँगी।’ अंग्रेजीवाले ने बात बदली, जैसे कि शौकिया साम्‍यवादी अकसर करते हैं।

‘आपने शायद सुना नहीं, बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ ते होय।’ संस्‍कृतवाले ने हँस कर कहा।

‘लेकिन पार्लियामेंट के चुनाव तो इन्‍हीं की लीडरशिप में जीते गए थे। रिजाउंडिेंग विक्‍टरी!’ अंग्रेजीवाले ने तीर चलाया।

‘तब तो माँ मरी थी, अब किसको मरवाएँगे? रह गया कोई मर कर सिर पर ताज रखने वाला!’ पंजाबीवाले ने सबको घूर कर देखा और स्‍टाफ-रूप से निकल गया।

पंडित जी वह बबूल और आमवाले दोहे का अर्थ तो समझा दें।

अंग्रेजी वाला कमीनगी पर उतर आया।

‘अर्थ तो आप जैसे मानसिक गुलामों को तब समझ आएगा जब अनर्थ होगा। चिंता मत करें। लोगों ने थैली के बैंगनों को फेंकना शुरू कर दिया है।’ वह भी बाहर निकल गए।

‘आज सब बड़ी गरमी में हैं।’ अंग्रेजीवाले ने लटके मुँह से कहा।

‘सारे देश को बुखार चढ़ चुका है और आपको आज गरमी लगी? घर जा कर कूलर के सामने बैठिए न।’ और वह भी स्‍टाफ-रूप से उठ गया।

सुबह की सैर से वह रिटायर्ड जज साहब लौटे, तो ठिठक कर चौक पर खड़े हो गए। किनारे पर लगे लगभग सौ साल बूढ़े पेड़ पर कुछ मजदूर चढ़े, इसकी शाखाएँ, तने काट रहे थे। इसके साए में रेढ़ीवाला बाबा चाय-सिगरेट की रेढ़ी लगाता है, रिक्‍शावाले धूप-बारिश से बचने के लिए ओट लेते हें, लोकल-बस पकड़ने के लिए लोग, स्‍कूली बच्‍चे-बच्चियाँ खड़े होते हैं। आज इसी पेड़ को काटा जा रहा है।

जज साहब ने एक सिपाही से पूछा कि पेड़ क्‍यों कटवाया जा रहा है? सिपाही आवाज से, सवाल पूछने के ढंग से ही समझ गया कि कोई अफसर होगा। नौकर की नाक हमेशा तेज होती है, सूँघ कर ही मालिक को पहचानने में निपुण। उसने बताया कि दिल्‍ली से स्‍कोरटीवाले आए थे। पेड़ इतना बड़ा और घना है कि इस पर छिप कर कोई भी बैठ सकता है, इसलिए आर्डर दिया कि इसे काट दो। काट रहे हैं।

वे दोनों वहाँ से आगे निकले। जज साहब ने कहा, ‘आपको पता है, इस पेड़ की क्‍या उम्र होगी!’ उसने न में सिर हिलाया।

‘जितनी उम्र इस छावनी की है, सौ साल से ऊपर। अंग्रेज बाहर से आए थे, फिर वे भी देश की गरमी से वाकिफ हो गए। सड़क के किनारे सायेदार पेड़ लगवाए – शीशम, नीम, पीपल। अब हाल देखिए… यहाँ से दिल्‍ली तक कोई सायेदार पेड़ नहीं मिलेगा। बस, लगाइए युक्लिप्‍टस, बेचिए, पैसे कमाइए। सरकार एक दुकानदार हो गई है, सिर्फ मुनाफे के लिए खोली गई दुकान…’ वह अपनी कोठी के गेट के पास रुके। उसे पता है, अपनी बात का निचोड़-वाक्‍य कहेंगे, आदतन। जज साहब उदास आवाज में बोले, आशाहीन आवाज में, ‘देश एक सायेदार पेड़ होता है। कश्‍मीर से यह पेड़ कटना शुरू हुआ, पंजाब में कट रहा है, कन्‍याकुमारी तक शायद जल्‍दी ही कट जाए। तब लोग जिंदा तो रहेंगे, क्‍योंकि उन्‍हें जिंदा रहना है, लेकिन यह जिंदगी बिना सायेदार पेड़ की जिंदगी होगी, हमेशा तपती, झुलसती हुई जिंदगी।’ और वह अपने घर की ओर मुड़ गए बिना हाथ मिलाए, या अलविदा कहे।


आज कहीं नहीं जाना, सुबह से अखबार चाटता रहा, जिसमें मरने वालों के ब्‍योरे थे, कहाँ कितने मरे! फिर वह आँखें मूँद कर लेट गया, सोया नहीं। मन में पेड़ उगते रहे, कटते रहे। बारह बजे के आसपास बाहर रिक्‍शा रुका। पत्‍नी स्‍कूल से इतनी जल्‍दी कैसे लौट आई? स्‍कूल तो दो बजे होता है, खैर तो है? वह कमरे से निकला, बरामदे में आया, ‘आज जल्‍दी छुटटी हो गई!’

‘हाँ, प्रधानमंत्री आ रहे हैं। स्‍कूल के बच्‍चों की सड़क पर भीड़ न लगे, इसलिए पहले छुट्टी कर दी।’

‘लेकिन उन्‍होंने तो कल आना है।’

‘नहीं, आज ही तीन बजे आ रहे हैं, सिक्‍योरिटी की वजह से उनके कल आने की बात उड़ाई गई थी।’

खाना खाते हुए छोटा लड़का, जो तीसरी क्‍लास में पड़ता है, रुक गया।

‘क्‍या हुआ? अभी तो एक रोटी भी नहीं खाई!’

‘मैं प्राइम मिनिस्‍टर को देखूँगा।’ उसे अंग्रेजी शब्‍द बोलने की आदत अभी से पड़ रही है।

‘चुपचाप खाना खाओ। प्रधानमंत्री को कोई नहीं देख सकता।’ वह खीझी हुई आवाज में बोला।

‘पापा, झूठ नहीं बोलते है। वहाँ क्रासिंग पर लोग खड़े हैं। मै भी देखूँगा।’

‘नहीं गरमी है।’

‘अरे दिखा दो, बच्‍चा है। घर के बाहर ही तो चौक है, जहाँ से उनकी कार गुजरेगी।’

‘ठीक है। अभी सो जाओ। पाँच बजे ले चलूँगा।’

‘लेकिन प्रधानमंत्री तो तीन बजे आ रहे हैं।’ पत्‍नी ने टोका।

उसे थोड़ा-सा गुस्‍सा आ गया, शब्‍द चबा-चबा कर कहा, तुम उनकी पी.ए. लगती हो क्‍या? कल लाउडस्‍पीकर पर आने का समय पाँच बजे बताया था कि नहीं?

‘महाराज, घर से बाहर भी निकल लिया करो। सुबह से मुनादी हो रही है कि तीन बजे आएँगे।’ पत्‍नी जब उसकी गलती पकड़ती है, तो महाराज बुला कर छेड़ेगी।

‘लेकिन कल…! गलत टाइम बताने की तुक?’

‘सिक्‍योरिटी।’ पत्‍नी ने एकदम गंभीर हो कर कहा।

उसने चुप रहना ही मुनासिब समझा। सुरक्षा शब्‍द का वजन आजकल बढ़ रहा है, कद भी? लगता है, भाईचारा, मेलजोल, जनसंपर्क, गरमजोशी, स्‍नेह आदि सब शब्‍दों को यह शब्‍द खा गया है। वह दिन दूर नहीं, जब शब्‍दकोष में सिर्फ एक शब्‍द रह जाएगा – सुरक्षा… सिक्‍योरिटी।

वह लड़के के साथ चौक पर पहुँचा। मुश्किल से चालीस-पचास लोग वहाँ होंगे, वे भी शायद कांग्रेस के कार्यकर्ता, क्‍योंकि उनके चेहरों पर निश्चित पराजय की मोहरें लगी हुई थीं। आज चौक पर सूरज की गर्मी और धूप धरना दे कर बैठी हुई थी, क्‍योंकि सूरज का दुश्‍मन, नीम का पेड़ कट चुका था। सूरज किसी विजेता की तरह काले मोटे तने पर कुल्‍हाड़ियों से उग आए सफेद घावों पर अपनी किरचें चुभाता हुआ। लड़का हैरान! आज यहाँ धूप कैसे? ऊपर देखा, पेड़ कटा हुआ, बिलकुल निबाँहा।

‘पेड़ किसने काटा?’

‘प्रधानमंत्री आ रहे हैं।’ वहीं पास खड़े रेढ़ीवाले बाबा ने बताया।

‘बाबा, पान खिलाओ।’ लड़के ने आदतन कहा। आज बाबा ने शरारत से पूछा नहीं कि कौन-से नंबर का तंबाकू वाला पान! सिर्फ ‘नहीं’ कहा।

‘नहीं क्‍यों? सात नंबरवाला पान लगाओ।’

‘नहीं, आज प्रधानमंत्री आ रहे हैं। दुकान बंद!’

सड़क पर एक नई-निकोरी जीप लगातार घूम रही है। छोटी-सी भीड़ के पास रुकी। धूपचश्‍मा डाले युवा पुलिस अफसर नीचे उतरा। उसने लोगों को घूर कर देखा – तुम्‍हारी ऐसी की तैसी वाले अंदाज में। एकदम कड़कती आवाज में आज्ञा दी, ‘सड़क से बीस फुट दूर हो जाओ!’

लोग पीछे हटे। किसी की आवाज आई कि इतनी दूर से बंद कार में बैठे प्रधानमंत्री के दर्शन कैसे होंगे?

उसने गैंडे की तरह गरदन घुमाई, आवाज के साथ चेहरा जोड़ने की कोशिश में। उसे पता नहीं लग सकता कि किसने उसकी आज्ञा पर एतराज किया, इसलिए सामूहिक भभका मारा, ‘कराऊँ दर्शन तुम लोगों को।’

वह जीप में बैठा, जीप आगे निकल गई। एक सिपाही ने दूसरे को बताया कि नए ए.एस.पी.है। दूसरे को शायद इस रैंक का मतलब समझ नहीं आया। पहले ने समझाया, ‘अतिरिक्‍त पुलिस अधीक्षक। ट्रेनिंग के बाद इन्‍हें एस.पी साहब के साथ लगाया जाता है, जिले का काम सीखने के लिए। ताकत का नया-नया नशा पचता नहीं। सुबह से काट खाने को हुआ पड़ा है। चौक से हवाई-अडडे तक की सड़क पर सुरक्षा की जिम्‍मेदारी इसकी है।’

बड़ी सड़क तो खाली है, लेकिन दो पहुँच-सड़कों पर सौ गज दूर ही सारा ट्रैफिक रोक दिया गया है। अपनी कारों, स्‍कूटरों और साइकिलों से उतर कर लोग चौक की तरफ आ गए हैं।

तभी एक साइकिल पर सवार आदमी तेज-तेज पेडल मारता चौक की तरफ आया। शायद मोटरों-कारों को सौ गज पीछे रोकते सिपाही ने उसे देखा नहीं। उसने साइकिल दाएँ ओर की सड़क पर मोड़ी। चौक पर खड़े दो सिपाहियों ने हैंडल पकड़ कर साइकिल रोकी। एकदम गति-भंग होने के कारण साइकिल लड़खड़ाई। एक ओर हुलाद हो गई। आदमी सड़क पर आधा गिरा।

‘दिखता नहीं, ट्रैफिक बंद है। किधर जा रहा था?’

‘स्‍कूल। अपने बच्‍चों को लेने। आज देर हो गई।’ उस आदमी ने हाँफती आवाज में बताया। हैंडल पर लटका थैला उसने उतार लिया।

‘स्‍कूल में तो आज आधी छुट्टी हो गई। तुझे पता नहीं, प्रधानमंत्री आ रहे हैं। ट्रैफिक बंद।’ सिपाही उसकी साइकिल को घसीट कर पीछे लाया। दूसरा सिपाही उसे छोटे-छोटे धक्‍के दे कर सड़क से नीचे कर रहा है।

‘कितने बजे छुटटी हो गई?’ उसकी घबराई आवाज।

‘बारह बजे।’ लोगों ने बताया।

‘तीन बजनेवाले हैं। बेचारे के बच्‍चे तब से स्‍कूल के गेट के बाहर धूप में जल रहे होंगे।’ इस सहानुभूति भरे वाक्‍य ने उस आदमी में थोड़ी-सी जान डाली। उसने सिपाही से इल्‍तजा की, ‘चौधरी साहब! स्‍कूल तक जाने दो। एक मिनट में पहुँच जाऊँगा। बच्‍चे मारे डर से बिलख रहे होंगे।’

‘पिछले चौक से मुड़ जा। यह सड़क बंद है।’

‘साहब, पिछला चौक तो दो किलोमीटर दूर है। यहाँ से मुड़ने दो। वापस उधर से हो जाऊँगा। मेरे बच्‍चे।’

सिपाही ने हवलदार की ओर देखा, सलाह माँगती आँखों से। हवलदार ने सड़क पर निगाहें दौड़ाई – बिलकुल खाली। थोड़ा आश्‍वस्‍त दिखा, फिर उस आदमी से कहा, ‘कच्‍चे से साइकिल पर गुजर जा। जल्‍दी कर। और बच्‍चों के साथ इधर से मत मरना। पीछेवाले चौक से दफा हो जा।’

उस आदमी ने सड़क के कच्‍चे हिस्‍से पैदल पथ से दूर साइकिल सीधी खड़ी की। पैडल पर पैर रखा, गति बढ़ाने के लिए, कुछ कदम एक पैर पर उचका और छोटी-सी छलाँग लगा कर गद्दी पर बैठ गया।

उसी क्षण हवाई अड्डे की तरफ से उस नए अफसर की जीप आई। साइकिल पर सवार आदमी को अफसर ने देखा। जीप के ब्रेक लगने की आवाज छोटे धमाके की तरह फूटी। उस युवा अफसर ने बाघ की तरह छलाँग लगाई। साइकिल को धक्‍का दिया। साइकिल सवार समेत खड़खड़ा कर नीचे गिर गई।

इससे पहले कि साइकिलवाला जमीन से उठे, अफसर ने उसकी गरदन में पंजा गड़ाकर ऊपर उठाया – बिल्‍कुल वैसे, जैसे बाघ अपना शिकार उठाता है। अफसर ने उससे कोई भी सवाल नहीं पूछा, अपना घुटना उस आदमी के पेट में मारा। आदमी के मुँह से फटते गुब्‍बारे जैसी आवाज निकली, वह दोहरा हो गया। अफसर ने अपनी पेटी से रिवाल्‍वर निकाल लिया। उसने नीचे झुके सिर पर हत्‍था मारा। आदमी चीखा।

पहले चौक पर खड़े सिपाही भाग कर वहाँ पहुँचे। उस आदमी को बाँहों में जकड़ कर खड़ा किया। अफसर अब उसके मुँह पर थप्‍पड़ मार रहा है। छोटी-सी भीड़ चौक से सरक कर वहाँ आ गई।

‘कौन है? कहाँ जा रहा था?’ अफसर के हाथ मार-मार कर थक गए, तो यह सवाल पूछा।

‘बच्‍चे… स्‍क्‍ूल…’ उस आदमी के मुँह से खून सने शब्‍द निकले।

‘स्‍कूल के बच्‍चे मारने जा रहा था! अफसर दहाड़ा। उसको जन्‍नाटेदार थप्‍पड़ मारा। अब उस आदमी के फटे होंटों से खून की बूँदे एक छोटी-सी लकीर में बह रही हैं।

तभी सड़क पर गिरे थैले पर अफसर की निगाह पड़ी। थैले के कपड़े से छोटी-छोटी गोलाइयाँ साफ दिख रही हैं। अफसर का मुँह पीला पड़ गया। उछल कर थैले से दूर हुआ और एक सिपाही को आज्ञा दी, ‘देख, थैले में क्‍या है?’

सिपाही ने थैला खोला नहीं, कपड़ा छू कर कहा, ‘साहब, अंदर गोल-गोल चीजें हैं।’

‘हैंड ग्रेनेड। पीछे हटो!’ पास आ गए लोगो से डरी हुई चीख में अफसर ने कहा। फिर उसे खयाल आया कि प्रधानमंत्री का काफिला आया कि आया। सड़क के किनारे बनी कोठी की तरफ उस आदमी को घसीटना शुरू किया। सिपाही को आज्ञा दी, तुझे साँप सूँघ गया है। थैला उठा कर कोठी की चारदीवारी के अंदर फेंक।

सिपाही नीचे झुका, थैला उठाया और पूरे जोर से कोठी की चारदीवारी के ऊपर से अंदर के खाली हिस्‍से में फेंका।

लोग छोटे कद की चारदीवारी के साथ लग कर खड़े हो गए। कोठी के अंदर देख रहे हैं। आदमी जमीन पर गिरा हुआ है और अफसर उसकी तरफ रिवाल्‍वर ताने थोड़ी दूर खड़ा है।

गिरते हुए थैले का मुँह खुल गया। छोटी-छोटी, गोल-गोल चीजें मैदान में बिखर गईं।

‘हथगोले हैं!’ एक डरी हुई आवाज।

‘बाबू अंधे तो नहीं हो! हथगोले नहीं, आलू हैं। बेचारा गाँव के स्‍कूल का मास्‍टर है। वहाँ से आते हुए सस्‍ते में सब्जियाँ ले आता है। मेरी दुकान से रोज बीड़ी खरीदता है।’ बाबा ने तेज आवाज में बताया।

चारदीवारी के पास खड़े अफसर के पैरों के पास लुढ़क कर एक आलू पहुँचा। उसने अपने बेटन की नोक से इसे छुआ, फिर पूरे जोर से दबाया। आलू फिस्‍स हो गया। अफसर ने अपने आप से कहा, ‘ओ! शिट!’ उसे दिन में पुलिस मेडल और राष्‍ट्रपति पदक प्राप्‍त करने के जो सपने उग आए थे, वह उस आलू की तरह कुचल गए। वह चारदीवारी से सड़क की ओर बढ़ा। साथ खड़े सिपाही को आज्ञा दी, ‘जब प्रधानमंत्री की कार गुजर जाए, तो इस आदमी को छोड़ देना।’

वह जख्‍मी आदमी अध-उठ बैठा। उसकी एक आँख सूज कर बंद है, बूट की ठोकर लगी होगी। वह जमीन पर इधर-उधर दोनों हाथ फेर रहा है, कुछ तलाशते हुए हाथ। उसका एक हाथ पत्‍थर पर पड़ा। उँगलिया पत्‍थर पर कस गई। दूसरे हाथ से घुटनों पर जोर दिया, पूरा खड़ा होने के लिए। उसका जिस्‍म झूल रहा है। अफसर की पीठ उसकी तरफ है। उसका पत्‍थर पकड़ा हाथ हवा में उठना शुरू हुआ। सिपाही लपका, उसके उठते हाथ को पकड़ा, पत्‍थर छीन कर नीचे फेंका और दबी और लगभग रो रही आवाज में घुड़का, ‘पागल हो गए हो।’ अफसर की तरफ इशारा करके बात पूरी की, ‘वह कुत्ते का बीज तुम्‍हें गोली मार देगा।’

वह आदमी फिर जमीन पर बैठ गया, लेकिन वह न कराह रहा है, न रो रहा है। उसने अपने खाली हाथ को देखा, फिर बाँह सीधी कर साँस रोकी, क्‍योंकि उसकी कल्‍पना में एक बंदूक उग आई है, जो अब उसके हाथ में है।

रात को दूरदर्शन पर मुख्‍य समाचार जवान दिखने की कोशिश में अधेड़ उम्रवाली औरत ने पढ़ा। लिपा-पुता चेहरा, बालों में सफेद फूलों का गजरा, ग्राहक को अपनी तरफ खींचने की कोशिश करती मंडी की औरतवाली मशीनी मुसकान – ‘आज देश में किसी अप्रिय घटना का समाचार नहीं।’

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