शीला दरवाजे से बाहर निकलते हुए बोली ‘अच्‍छा जी, मैं तो अब चल रही हूं।’ लेकिन वह गयी नहीं, कुछ देर ठहरी रही और फिर झिझक‍ के साथ बोली, ‘अभी तो मुन्‍ना सो ही रहा है… जागे, तो उसे दूध पिला देना …भूखा होकर रोने लग पड़े, दूध तभी देना। बस वह नींद में ही पी लेगा।’

रवि न जाने किस सोच में डूबा हुआ था कि झटके के साथ सारे विचार बिखर गये। वह उठकर खड़ा हो गया और शीला को जाते देखता रहा। शीला का दिन-दिन सूखता जिस्‍म और निरीह चेहरा उसके मन में कसक पैदा कर गया – बेचारी मेरी वजह से मुसीबत में फंस गयी।

रवि को लगा कि उसने बरसों से बरकरार नौकरी छोड़कर सख्‍त गलती की है। शुभचिन्‍तकों और मित्रों ने उसे कितना समझाया था कि नौकरी को पायदान की तरह इस्‍तेमाल करते रहो। यह साहित्‍य-वाहित्‍य का चक्‍कर बहुत वाहियात होता है। इससे रोटी पैदा करना माखौल नहीं है। एक भुक्‍तभोगी ने कहा था कि खड़े होने में बरसों निकल जाते हैं और दस दौरान लेखक तंग हो जाता है। उन्‍होंने अपना उदाहरण सामने रखा था – मुझे ही देखो, साहित्‍य-सृजन और भौतिक-आवश्‍यकताओं के बीच की दलदल में फंसकर अवरूद्ध हो चुका हूं।

रवि ने सामने कैलेंडर पर आंखें जमाकर तारीख देखी। अभी महज इक्‍कीस ही हुई है – आगे पहाड़ जैसे लंबे दस दिन कैसे कटेंगे? कहीं से पैसे मिलने की कोई खास उम्‍मीद नहीं है। स्‍थानीय संपादकों से वह स्‍वयं जाकर पारिश्रमिक उगाह लाया था। बाहर का दरवाजा बंद करके रवि कमरे में लौटा और रैक से एक किताब निकालकर बाहर बरामदे में बैठ गया। हवा न चलने की वजह से वातावरण में उमस काफी बढ़ गयी थी। उसने पुस्‍तक का वह पृष्‍ठ खोजना आरंभ कर दिया, जहां उसने पिछले रात पढ़ते-पढ़ते अधूरा अंश छोड़ दिया था। वह पृष्‍ठ पलटता रहा, मगर उसकी स्‍मृति में शीला का उदास चेहरा ही घूमता रहा।

रवि उद्विग्‍न हो उठा। अपनी जगह से उठकर वह उस कमरे में गया – जहां उसका बेटा सो रहा था। उसने देखा, मक्खियां बच्‍चे को तंग कर रही हैं। वह बेचारा होंठ या आंखें फड़का कर कुनमुनाता था और करवट बदल लेता था। बच्‍चे को ओढ़ाने के लिए रवि इधर-उधर कोई कपड़ा खोजने लगा। एक खूंटी पर जनानी धोतियों के बीच मलमल की एक ओढ़नी टंगी थी। उसने वहां से ओढ़नी उतार कर बच्‍चे के ऊपर डाल दी।

इतना कुछ करके वह फिर अपनी जगह जाकर बैठ गया। उसने तय किया कि उसे पढ़ना-बढ़ना छोड़कर इस वक्‍त कुछ लिखने का काम करना चाहिए। लेकिन काफी देर तक सोचते रहने पर भी उसे लिखने के लिए कोई उपयुक्‍त विषय नहीं सूझा। उसके सिर में हल्‍का-सा चक्‍कर उठा और उसे महसूस हुआ कि उसके भीतर एक खालीपन घिरता चला आ रहा है। उसने बहुत-सी घटनाओं, हादसों और अखबारों में पढ़ी हुई खबरों को याद किया – शायद उनसे ही कोई कहानी बन जाये, मगर इस दिशा में भी उसे कोई सफलता नहीं मिली। जिस तरह दांतों के बीच अटकी कोई चीज अनायास मस्तिष्‍क कुरेदने लगती है, उसी तरह नौकरी छोड़कर मुसीबतों में फंस जाने का पश्‍चाताप उसके मन में कांटे की मानिंद गड़ने लगा। कितनी अच्‍छी नौकरी थी। हजार-बारह सौ आराम से मिल जाते थे हर महीने। शीला और उसकी तनखा से घर की गाड़ी आराम से खिंच रही थी। बैठे-बिठाये उसने यह लेखकी का झंझट मोल ले लिया। क्‍या यह भी एक तरह की नौकरी नहीं हो गयी कि बंधकर घर में बैठो और सब्‍जेक्‍ट ढूंढ़ने के लिए घंटों झख मारते रहो?

अकस्‍मात रवि को उन वरिष्‍ठ और शुभेच्‍छु साहित्‍यकार की याद आयी, जिन्‍होंने उसे नौकरी पर लात मारने की सलाह दी थी। ठीक तौर पर उन्‍होंने सारी बात पर गौर भी नहीं किया था, बस यही बतलाया था कि लेखक को घटिया सहारे छोड़कर स्‍वतंत्र रूप से लिखना चाहिए। उन्‍होंने अपनी जीवनी सुनाते हुए प्रभावशाली ढंग से बतलाया था कि नौकरी में किस तरह लेखक का आत्‍मसम्‍मान हताहत होता है और वह आर्थिक सुरक्षा के मोह में लिखने के सही मुद्दों से दूर होता चला जाता है। उन्‍होंने विदेशी लेखकों के उदाहरण देकर उनके भूखों मरने की वकालत इतनी आकर्षक शैली में की थी कि रवि को लगा था कि भूखों मरना वास्‍तव में गौरव की बात है और इस गौरव को अर्जित किये बिना लिखने का कोई अर्थ नहीं है। उन सिद्ध साहित्‍यकार को ‘मीडियाकर’ बनने से जबरदस्‍त चिढ़ थी और वह यह कतई नहीं चाहते थे कि लेखन के क्षेत्र में पहुंचकर कोई ‘मीडियाकर’ रह जाये। उन्‍होंने अपना उदाहरण सामने रखते हुए रवि को बतलाया था कि उन्‍होंने कम से कम एक दर्जन नौकरियों पर लात मारी थी। जिस समय उन्‍हें लगने लगता था कि यह नौकरी उनकी प्रतिभा को खाने लगी है, बस उन्‍होंने उसी दम उसे छोड़ा और अलग हट गये। स्‍वतंत्र लेखन का महामंत्र रवि के कानों में फूंकते हुए उन्‍होंने उदघोष किया था कि वह नौ‍करियों के मोह से निकलकर ही लेखकीय प्रतिष्‍ठा की चोटी पर पहुंचे हैं।

रवि ने अपनी नौकरी छोड़ने से पहले शीला से भी बातें की थीं, पर उसने कोई भी प्रतिवाद न करके महज यही कहा था, ‘आप जो भी ठीक समझें, करें। मैं ज्‍यादा कुछ नहीं जानती?’

तब तक मुन्‍ना भी नहीं जन्‍मा था, सो खर्चे वगैरह की भी ज्‍यादा किल्‍लत नहीं थी। शीला को लगभग पांच सौ रुपये मिलते थे। वह रेडियो स्‍टेशन पर क्‍लर्क थी। किसी तरह काम चल ही जाता था। उसने शीला को बतलाया था कि स्‍वतंत्र रूप से लिख-पढ़कर वह चार-पांच सौ माहवार मजे में पीट सकता है। बात उसने ठीक ही सोची थी, मगर उसे यह ख्‍याल नहीं रहा था कि पारिश्रमिक कभी-कभी छः माह तक भी रुका पड़ा रहता है और लेखक की सांस बंद होने की नौबत आ जाती है।

घर की कुर्सियों की बेंते निकल गयी थीं, तो यह कंडम करके एक तरफ डाल दी गयी थीं। जब भी कोई मिलने आता था, तो उसे वह अपने पास चौकी पर ही बिठा लेता था। ज्‍यादा लोग आ जाते थे, तो फर्श पर एक उधड़े कालीन पर बैठक जमती थी। घर के हालात दिन-ब-दिन खराब होते जा रहे थे। इतनी सख्‍त गर्मी में एक छत के पंखे तक की व्‍यवस्‍था संभव नहीं हो पा रही थी।

अभी वह कुछ काम करने की सोच ही रहा था कि मुन्‍ने के रोने की आवाज उसके कानों में पड़ी शायद हवा बंद हो जाने की वजह से वह जग गया था। वह लपक कर कमरे में गया। उसने देखा कि बच्‍चे ने हाथ-पांव मार कर सब तकियों को इधर-उधर कर दिया था और ओढ़नी में अपने हाथ-पैर और सिर लपेट लिया था। उसने बच्‍चे को कपड़ें में लपेटने से मुक्‍त किया और तकिये हटा दिये। बच्‍चे को उसने दो-तीन मिनट तक थपथपाकर फिर से सुला दिया। लेकिन उसकी गहरी नींद उचट चुकी थी। बच्‍चे को छोड़कर वह चौके में गया और फीडिंग बोतल में दूध भर लाया। दूध की बोतल उसने एक तकिये से टिका कर निपिल बच्‍चे के मुंह में अटका दिया। बच्‍चा हबर-हबर करके दूध पीने लगा। आधी बोतल खत्‍म होते ही निपिल उसके मुंह से बाहर निकल गया। उसने धीरे से निपिल फिर बच्‍चे के मुंह में अटका दिया और वह खड़ा होकर दूध खत्‍म होने की प्रतीक्षा करने लगा। बोतल खाली हो गयी, तो वह उसे लेकर गुसलखाने में गया और बोतल में ब्रुश डालकर उसे साफ करने लगा।

बोतल रखकर वह बच्‍चे को देखने लौटा। बच्‍चा फिर से सो गया था, किंतु सू-सू करके उसने अपना सारा बिस्‍तर गीला कर लिया था। एक बार उसने सोचा कि लाओ, चादर बदल ही डालूं, किंतु तभी ख्‍याल आया कि बच्‍चा अगर इतनी जल्‍दी उठ गया, तो उसे कोई काम नहीं करने देगा। दबे पांव वह बच्‍चे के पास से हट गया और उसने चौकी पर रखी किताब बंद करके एक ओर रख दी। वह सोचने लगा कि तत्‍काल कौन-सा ऐसा काम करना चाहिए कि शीला की तनखा हाथ में आने तक कुछ पैसों का जुगाड़ हो जाये। उसे तभी याद आया कि एक मासिक के संपादक ने उससे गांधी जयंती के अवसर पर कुछ सामग्री देने को कहा था। अभी एक माह का समय था। क्‍यों न कुछ लिखकर थोड़े से पैसे खड़े कर लिए जायें। वह कमरे में गया और लिखने के लिए कागज कलम उठा लाया। जब वह कागज पर कुछ लिखने जा रहा था तो उसे अपने द्वारा किए हुए एक अनुवाद का भी ध्‍यान आ गया। उसने वह अनुवाद अभी तक कहीं नहीं छपवाया था। स्‍थानीय पत्र के किसी संपादक को देकर उसका पारिश्रमिक वसूला जा सकता था। वह तीव्र गति से उठकर भीतर गया और लेखों की फाइल उठा लाया। फाइल पलटकर उसने अनुवाद खोज लिया, मगर अफसोस कि उस रचना पर मूल लेखक का नाम कहीं नहीं था। यह अनुवाद लगभग एक वर्ष पहले किया गया था। और इस समय यह पता लगाना बहुत कठिन था कि इसका वा‍स्‍तविक लेखक कौन है। उसने कथ्‍य से अंदाज लगाने की कोशिश की कि यह किस लेखक की रचना हो सकती है। काफी देर तक मगजपच्‍ची करके उसे सही लेखक का ज्ञान नहीं हुआ तो उसे बहुत तकलीफ हुई। अपने हाथ से साठ-सत्तर रुपये जाते दिखाई पड़े। अपने ऊपर उसे बहुत झुंझलाहट हुई। भला अनुवाद करने का क्‍या मतलब अगर उस पर मूल लेखक का नाम ही न दिया जाये? उसने स्‍वयं को लताड़ा, ‘तुम कभी भी लेखक नहीं बन सकते, चाहे जितनी टीम-टाम करो, शोर मचाओ।’

उसने एक मजेदार लतीफे को कहानी में ढालने के बारे में भी सोचा, पर बात जमी नहीं। उसने स्‍वयं को समझाया, ‘स्‍वतंत्र लेखक होकर कम-से-कम इतनी ईमानदारी तो बरतनी ही चाहिए कि लिखने की अर्ज पर ही कुछ लिखना चाहिए।’ उसने अपना सिर झटका और गांधी बाबा पर ही कुछ लिखने लगा।

शीला के लौटने से पहले ही उसने लेख लिखने का काम समाप्‍त कर लिया और फाइल उठाकर अलमारी में रख आया। जब शीला आयी, तो वह शांत चित्त होकर चौकी पर लेटा बच्‍चे को पेट पर कुदा रहा था। उसने मुख्‍य द्वार के किवाड़ खोलकर यों ही उढ़का दिये थे। शीला के हलका-सा झटका देने पर द्वार खुल गया। शीला ने देखा, बाप-बेटे एक-दूसरे में मगन थे। जब वह मुन्‍ना को ऊपर उछालता था, तो वह खिलखिला करके हंसने लगता था।

गरमी में दफ्तर से पैदल लौटने की वजह से शीला का चेहरा लाल भभूका हो रहा था। शीला ने पर्स एक ओर फेंका और जबरदस्‍ती मुसकराने की कोशिश करते हुए उसके पास आकर बोली, ‘इस पाजी ने तो आज भी आपको कुछ नहीं करने दिया होगा।’ उसका मन पूरा लेख लिख डालने की वजह से हलका था। वह शीला को दिन भर की कारगुजारी सुनाना चाहता था, किंतु न जाने क्‍या सोचकर उसने शीला को लेख के बारे में कुछ नहीं बतलाया। बस, यह कहकर बात खत्‍म कर दी, ‘इस बदमाश के साथ रहकर किया भी क्‍या जा सकता था?’

शीला ने गौर से उसका चेहरा देखा, तो उसे अपनी भूल का एहसास हुआ। शीला ने तो उसे नौकरी छोड़ने के लिए नहीं कहा था। कहीं उसकी बात से शीला को चोट न पहुंची हो। वह हंसने लगा और मुन्‍ने को हो-हो-ही-ही करके जोर से उछालने लगा, किंतु शीला को देखकर बच्‍चा उसी की तरफ लपकने लगा।

अभी तक बिजली नहीं आयी थी। वह उठकर बैठ गया और डंडी टूटे हाथ पंखे से शीला को हवा करने लगा। शीला ने मुसकराकर पंखा उसके हाथ से ले लिया। शीला की मुसकराहट बेबाक थी, मगर उसके चेहरे पर आभा नाम को भी नहीं थी। कमजोर चेहरे पर होंठों से झांकते सफेद दांत उसे एकदम निरीह सिद्ध करते थे।

‘तुमने तो अभी चाय भी नहीं पी होगी। क्‍या थोड़ा-बहुत दूध पड़ा है?’ कहती हुई शीला रसोई की तरफ चली गयी। उसे रसोई में कहीं माचिस नजर नहीं आयी, तो वह माचिस पूछने के लिए उसके पास आयी। यद्यपि शीला उसे सिगरेट जलाने के लिए माचिस हमेश अलग से दे देती थी, पर वह जब भी रसोई में जाता था, सिगरेट जलाने के लिए दियासलाई उठा लाता था। शीला को चौकी पर माचिस तलाश करते देखकर उसने अपनी जेब से माचिस निकाल कर शीला के हाथ में थमा दी। वह उसे झुनझुने की तरह बजाती वापस लौट आयी।

स्‍टोव की भर्र-भर्र के बीच वह बाहर जाने के बारे में सोचता रहां स्‍थानीय पत्र-पत्रिकाओं कें दफ्तर बहुत देर तक खुले रहते थे। अभी सिर्फ साढ़े पांच बजे थे। वह एक ऐसे संपादक से परिचित था, जो उसके लेख, कहानी और अनुवाद छापता रहता था। उसने तय किया कि पहले वह उस संपादक के पास जायेगा, जिसने गांधी जी पर लेख मांगा था। अगर उसने तत्‍काल पैसे न दिये तो फिर दूसरी जगह लेख दे देगा।

उसने उठकर से कुरता पायजामा बदला और जब तक शीला चाय लेकर आयी, वह बाहर निकलने को तैयार हो चुका था। शीला ने इस बात पर कोई विशेष ध्‍यान नहीं दिया। ऐसा प्रायः रोज ही होता था कि जब वह दफ्तर से वापस लौटती थी, तो उसे बाहर जाने की उतावली में पाती थी। शीला ने उसे चाय का प्‍याला दिया, तो उसने चाया सॉसर में डालकर एक मिनट में ही पी डाली। शीला इत्‍मीनान से चौकी पर बैठकर धीरे-धीरे चाय पीती रही। मुन्‍ना हाथ-पैर फेंक कर उसकी धोती का सिरा चबाने लगा। शीला ने उसके गाल पर हाथ फेर कर कहा, ‘चल, बछड़ा कहीं का? धोती ही खाने लग पड़ा।’

चाय का प्‍याला चौकी के नीचे रखकर वह बोला, ‘अच्‍छा शील, तू खाना खा लेता। मेरा खाना रख देना। हो सकता है, मैं आज थोड़ी देर से लौटूं।’

संपादक के कार्यालय से निकल कर वह कॉफी हाउस की दिशा में चल पड़ा। उसके पांवों में अजीब-सी स्थिरता और दिमाग में सुकून था। उसका लेख लेकर संपादक ने अपनी जेब से 75 रुपये दिये थे और मजाक में कहा था, ‘भाई जान कैशियर तो चला गया, पर आपकी तकदीर अच्‍छी है। आज ही एक विज्ञापन कंपनी से कुछ रुपये आये थे, उनमें से दे रहा हूं। आप वाउचर पर साइन करते जाइएगा।’

सड़क पर चलते-चलते उसका हाथ नामालूम ढंग से कई बार कुरते की जेब पर गया और रुपयों को छूकर वह परम आश्‍वस्‍त अनुभव करने लगा। उसने सोचा कि वह चाहे तो आज कई लोगों को कॉफी पिला सकता है, लेकिन फिर उसने थोड़ा व्‍यावहारिक बनने के विषय में सोचा। उसे अब सीधे घर जाना चाहिए और सारे रुपये शीला के हाथ में दे देने चाहिए। वह रुपये देखेगी, तो एकदम प्रसन्‍न हो जायेगी। दस दिन आराम से न सही खींच-तान करके तो कट ही जायेंगे। कुछ ऐसा गदगद भाव उसके मन में उमड़ा कि वह मौज में आकर सोचने लगा – इस महीने एक-दो मौलिक कहानियां भी लिख डालूंगा… और हां, कहीं से एकाध पारिश्रमिक भी तो आ सकता है। जरा-सा आर्थिक ठहराव मिल जाये, तो एक उपन्‍यास भी हो सकता है। शीला से कह दूंगा, दो-चार दिन की छुट्टी ले लो।

अपने में पूरी तरह मस्‍त और मग्‍न वह दीन-दुनिया से बेखबर होकर बढ़ा जा रहा था कि सड़क के मोड़ से लगी पनवाड़ी की दुकान पर उसे कई साहित्यिक मित्र गप्‍पें लगाते दिखाई दिये। अनायास ही उसका हाथ कुर्ते की जेब पर चला गया, गोया वे उसके रुपये झपटने को तैयार खड़े हों, वह उन लोगों की तरफ बढ़ गया। उनमें से कोई बोला, ‘एक हफ्ते तक कहां रहे। क्‍या कोई उपन्‍यास लिख रहे हो इन दिनों?’ अभी वह कुछ कहता कि एक चिकनी काली दाढ़ीवाला नवयुवक कवि बोला, ‘परसो, आपकी साप्‍ताहिक में कहानी पढ़ी। कलम का जवाब नहीं। मान गये भाई साहब। पर एक बात है, आप कहें चाहे कुछ भी, हैं मूलतः कवि ही आप।’ एक डॉक्‍टर कवि आलोचक, जो जरा अलग-थलग खड़े पान कचर रहे थे, अपने कत्‍थे रंगे दांतों की नुमाइश करते हुए बोले, ‘प्रयोगात्‍मकता के बावजूद आपके शिल्‍प में निखार आ रहा है, उलझापन छट रहा है।’ एक मासिक में काम करने वाले एक सह-संपादक ने गंभीर होकर कोई बात कही। बात शायद बहुत ही नाजुक और गहरी थी, इसलिए किसी की भी समझ में नहीं आयी।

उसे लगा कि वह हवा में तैर रहा है। उसने स्वयं को चांद के इर्द-गिर्द बादलों के साथ उड़ते हुए महसूस किया। अपनी सद्य प्रकाशित कहानी पर अभी वह और बहुत-सी बातें सुनने को इच्‍छुक था, किंतु उस स्‍थान पर यह मधुर बातें ज्‍यादा देर तक नहीं खिंच सकती थीं। इस चर्चा से स्‍वयं को निरपेक्ष दिखाने की चेष्‍टा करते हुए वह बोला, ‘कहानी में यों कोई खास बात नहीं थी। बस, बन ही गयी। और हां, यारों, ये भी कोई कहानी डिस्‍कस करने की जगह है? बातें ही करनी हैं, तो चलकर कहीं ढंग की जगह बैठो।’

सब लोगों ने उसके प्रस्‍ताव का अनुमोदन किया और वे रेंगते हुए-से आगे बढ़ लिये। पांच आदमी एक साथ बातें कर रहे थे, किंतु कोई भी किसी की नहीं सुन रहा था। सब कोई चलते-चलते अगले मोड़ पर पहुंचकर ठहर गये। सामने एक बार ऐंड रेस्टोरेंट था। वहीं खड़े होकर वे कुछ देर तक नयी किताबों की चर्चा करते रहे और फिर अचानक ‘बार’ में चल दिये।

पांच कुर्सियां एक मेज के इर्द-गिर्द आ जुटीं और साहित्‍य-चर्चा का बाजार एक बार फिर नये सिरे से गरम हो उठा। उसने बहुत चालाकी से अपनी कहानी की चर्चा चलायी, जिसे लोगों ने महीन ढंग से कातना शुरू कर दिया। जब एक आदमी ‘कीर्केगार्द’ से उसकी तुलना कर रहा था, तो उसने पास से गुजरते बेयरा को बुलाकर पांच ठंडी बियर लाने का आर्डर दे दिया।

बेयरा पांच बोतलें और बियर के मग मेज पर सजा गया। एक आदमी ने ‘ओपनर’ उठाकर मुस्‍तैदी से बोतलों के ढक्‍कन उड़ाने शुरू कर दिये। बेयरा एक प्‍लेट में बर्फ के टुकड़े भी रख गया। बियर के उफनते झाग सबके मन की तरंगों पर तैरने लगे। बियर सिप करते हुए वार्तालाप में एक अनोखी ताजगी आने लगी। दुनिया जहान के साहित्‍यकारों का जिक्र, उनके संघर्ष और व्‍यक्तिगत जीवन के चर्चे हर जबान पर तैर रहे थे। उसने स्‍वयं को उन महानों के बीच में प्रतिष्ठित होते हुए पाया।

कोई घंटे, सवा घंटे बाद जब वह ‘बार’ से निकला, तो उसके पैर लरज रहे थे और सिर भारी हो गया था। गोकि बियर से उसे कभी नशा नहीं होता था, पर आज सड़क की बत्तियां उसे बहुत मटमैली और मद्धिम नजर आ रही थीं। जो लोग बार से उसके साथ बाहर निकले थे, वे थोड़ी देर में ही इधर-उधर बिखर गये थे। बंद बाजार और वीरान सड़कों के खालीपन ने उसके भीतर सेंध लगानी शुरू कर दी। कहानी की चर्चा बहुत दूर गुम होती लग रही थी, मानो वह असलियत में कभी कहीं हुई ही नहीं थी।

उसके सामने से घंटी टुनटुनाता एक खाली रिक्‍शा ठहर गया, तो उसका हाथ फौरन कुरते की जेब पर चला गया। उसने जेब में हाथ डालकर सारे रुपये निकाले और एक लैपपोस्‍ट के नीचे खड़ा होकर उन्‍हें सतर्कता से गिनने लगा। उसके पास महज 14 रुपये और कुछ चिल्‍लर बची थी। उसने कदम आगे बढ़ा दिये और रिक्‍शे वाले को हाथ के संकेत से मना कर दिया। अब वह रिक्‍शे में बैठकर और पैसे नहीं गंवाना चाहता था।

हांलाकि शीला को उन पैसों का कोई गुमान नहीं था, जो उसे आज के काम के एवज में मिले थे, किंतु उसे लगा, जैसे वह किसी भयानक षड्यंत्र का शिकार हो गया हो। उसके मन में 60 रुपये गंवा देने का अफसोस जोर पकड़ने लगा और उसे शीला का उतरा हुआ चेहरा दुःखी करने लगा। उसने स्‍वयं को इतना अशक्‍त अनुभव किया कि वह घिसटने के अंदाज में घर की दिशा में बढ़ने लगा।

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