खोयी हुई खुशबू | अफजल अहसन रंधावा
खोयी हुई खुशबू | अफजल अहसन रंधावा

खोयी हुई खुशबू | अफजल अहसन रंधावा – Khoye Huye Khushabu

खोयी हुई खुशबू | अफजल अहसन रंधावा

मैं कौन-सी कहानी लिखूं?

जब भी मैं कहानी लिखने की सोचता हूं कितनी ही कहानियाँ मुझे चारों ओर से घेर लेती हैं। किसी कहानी के हाथ कड़ी मेहनत से खुरदरे हो गये हैं, किसी कहानी के बाल मिट्टी में मिट्टी हो गये है…किसी कहानी के सिर पर चुनरी नहीं…किसी कहानी का मक्खन-सा बदन जहांज की सटैफिंग से छलनी हो गया है…किसी कहानी के सुन्दर चेहरे पर बारूद की सड़ांध और खून के धब्बे हैं…किसी कहानी की बाजू कट गयी है…किसी की टाँग नहीं…किसी की आँखें निकल गयी हैं…किसी का मांस नेपाम बम की आग से झुलस गया है।

चारों तरफ देखता हूं .मेरी कोई भी कहानी मुकम्मिल नहीं है। किसी का भी हुस्न कायम नहीं रहा है…किसी के वस्त्र भी पूरा शरीर ढकने में समर्थ नहीं…सभी बदसूरती के गहरे साये में ढकी हुई हैं…पर बदसूरती भी तो हुस्न है। और शायर, और अदीब, अंजल से हुस्न बाँटता और हुस्न की प्रशंसा करता आया है। तो मैं क्यों बदसूरती को हुस्न की झूठी चादर में लपेटकर लोगों को दिखाता रहूं . चादर उतारकर क्यों नहीं दिखाता? परन्तु इसकी भी क्या ंजरूरत हैं? मेरी सभी कहानियों का जन्म मिट्टी से हुआ है। और इनके पैर भी मिट्टी पर ही हैं। इनकी बदसूरती में भी मिट्टी की पीड़ा है और यही पीड़ा इन्हें बदसूरत बना देती है। पर अब मैं बदसूरत शब्द नहीं लिखूंगा। क्योंकि मिट्टी का जंख्म… मिट्टी का दु:ख…मिट्टी का स्पर्श कभी भी बदसूरत नहीं, बल्कि खूबसूरत है। मिट्टी इनसान के जन्म के पूर्व भी ऐसी ही थी, बल्कि इनसान ने मिट्टी को जंख्म…दु:ख…दर्द और बदसूरती दी है…इनसान की सूरत देखे बिना मिट्टी  ने उसे सदा आसरा दिया है…और देती रहेगी। इनसान, मिट्टी और आसरा।

पर इनसान से मिट्टी का आसरा छीननेवाला कौन है?

मुझसे मेरी पगड़ी और मेरे जूते किसने छीने जो मैं अपनी फसल बेचकर लाया था? फसल, जिसे मैंने अपना पसीना बहाकर, मिट्टी में मिलाकर, मिट्टी से पैदा की थी। किसी मशीन ने निचोड़ लिया मेरे अन्दर से सारा खून जिसके बल पर मैं अपना और अपने बाल-बच्चों का पेट भरने के मन्सूबे बांधे हुए था। मेरा पेट खाली क्यों है और अपना सारा खून मशीन को दे देने के बाद भी मेरे बच्चे भूखे क्यों हैं? मेरी मिट्टी पर लकीरें किसने खींच दीं और क्यों? जमीला के सौन्दर्य को अल्जीरिया के किन कारनामों ने विकृत कर दिया? वियतनाम के हरे-भरे जंगलों और छोटे-छोटे मकानों को किसने राख का ढेर बना दिया? सहारा रेगिस्तान में क्यों और किसने खून बहाकर रेत को बदरंग कर दिया? गोरों ने नंफरत से कालों को गुड़ का भाई समझ क्यों गुड़ में ही फेंक दिया? इनसान यदि जन्म से आजाद है तो फिर इसे गुलाम बनाने के लिए विज्ञान ने इतने आविष्कार क्यों किये हैं? मिट्टी यदि मुकद्दस है तो फिर उसके सीने को रोंज जंख्मी करके खून बहाकर, उसका शरीर क्यों छलनी किया जाता है? रब यदि आसरा है, तो फिर इनसान से उसका आसरा क्यों छीना जाता है? रब, मिट्टी, इनसान और आसरा यदि एक चौकोर है तो वह कौन-सा हाथ है जो इन लकीरों को पोंछकर इनको मिटाने की कोशिश करता है? नाजी आक्सफोर्ड के लहजे में अंग्रेजी बोलती है और मेरे मुंह से पंजाबी बोली सुनकर मेरी ओर मोटी शर्बती आंखों से सवालिया अन्दांज से देखती है :

रब वरगा आसरा तेरा,

वसदा रहु मितरा

तो उसे क्या जवाब दूं? कहता हूं रब के पास तो और बहुत-से काम हैं, दुनिया बहुत बड़ी हो गयी है। समस्याएं बढ़ गयी हैं। वह खाली नहीं, और आसरा? आसरा किसका और कैसा, जब आसरों की तादाद से उन लोगों की गिनती हंजार गुना ज्यादा है जो आसरा छीन लेते हैं।

चाचा टहलसिंह ठीक कहा करता था”बेटा! हम सभी ही कहानियां हैं। पर हमें लिखने वाला कोई नहीं।”

हां चाचा, टहलसिंह! तुम ठीक कहते थे। अभी कल की बात है, जब तुम यहाँ, इस मिट्टी के पुत्र के रूप में, इस मिट्टी से पैदा हुए सोने से मौज करते थे। यह मिट्टी तुम्हें लाड़ले बेटों की तरह प्यार करती थी। हवा से भी तेज दौड़नेवाली तेरी घोड़ियों की धूम पूरे इलांके में थी। तुम्हारे खूबसूरत ढोर लोग दूर-दूर से देखने आते थे। तुम्हारी भैंसों के साथ की भैंसें सारे पंजाब में किसी के पास नहीं थीं। तुम्हारे दालान, रंगीन चारपाइयाँ और पेटियाँ, रंग-बिरंगी फुलकारियों और रजाइयों-खेसों से भरी हुई थीं। तुम्हारे द्वार से कोई भी जरूरतमन्द खाली नहीं जाता था। एक बडे सरदार होकर भी तुम अपने नौकरों को बेटों के समान रखते थे। गाँव की बहन-बेटियों को अपनी बहन-बेटियाँ समझते थे। हरेक की पीड़ा में तुम साझीदार थे।

भैणी साहब वाले गुरुद्वारे वाले वट वृक्ष के नीचे संगत के साथ बैठे थे। तुम्हारी हवेली में सैकड़ों मेहमानों के लिए भोजन बन रहा था। बेसमझ लड़के छुप-छुपकर बोलियां बोल रहे थे :

कनकाँ खान दे मारे

आ गये नामधारिये।

सारे गाँव में मेला लगा हुआ था। हम छोटे-छोटे बच्चे गुरु के दर्शनों के लिए गये थे। और भी बहुत-से लोग दूर-दूर से गुरु के दर्शनों के लिए आये हुए थे। तुमने मुझे और पालसिंह को पकड़कर गुरुजी के आगे खड़ा कर दिया था।

”ये मेरे बेटे हैं,” तुमने कहा था। पाल का सिर नंगा था और उसने छोटा-सा जूड़ा कसकर बाँधा हुआ था। गुरुजी ने पहले उसके सिर पर हाथ फेरा और तुम्हारी तरफ सवालिया नंजरों से देखा था जैसे पूछ रहे होंयह दूसरा मुसलमान लड़का कौन है? और तुमने कहा था”मेरे भाई का बेटा है।”

और गुरुजी ने हंसकर दोनों हाथों से मेरे सिर पर प्यार दिया था और आशीष दी थी।

फिर चाचा, तेरी सुन्दर घोड़ी ने, जो तुमने उस जमाने में महाराजा कपूर थला से दस हंजार में ली थी, उसने बड़ी उम्मीदों और सधरों के बाद एक बच्छी को जन्म दिया था। उस बच्छी में तुम्हारी जान थी। मुझे, बहुत समय बाद पता चला कि वह बच्छी बहुमूल्य थी। उस समय बच्छी लगभग छ: महीने की थी जब मैं खेलता-खेलता तुम्हारे घर गया था। सोने के दिलवाली चाची ने मुझे दोनों बांहों में कसकर प्यार किया था और मेरे सिर पर हाथ फेरा था। माथा चूमा था और गोदी में बैठा लिया था। एक रोटी की चूरी बनाकर, शक्कर डाल कर मुझे खिलाने लगी थी। इतने समय में पाल आ गया था और हम दोनों खेलते-खेलते हवेली में आ गये थे। भाई रतन सिंह उस समय हवेली में था। उसकी बन्दरी आदमियों की तरह बेलने में गन्ने डाल रही थी। भाई सोड डालकर उबल रहे रस से मैल उतार रहा था। (मुझे अभी तक याद है भाई का गुड़ सारे गाँव में सबसे संफेद और सांफ होता था।) निक्कू ईसाई धौंकनी से हवा दे रहा था। धौंकनी के धुएँ और गुड़ से निकलने वाली भाप में भाई छिपा-सा प्रतीत होता था। परन्तु उसने पाल को और मुझे देख लिया।

     ”रस पी।

     ”गुड़ खा।

     ”गन्ने चूस ले।

     ”बैठ जा…ओ लड़के! वीर की चारपाई जरा धूप में बिछा दे।”

भाई रतनसिंह ने एक साथ कितने ही हुक्म दे दिये मुझे। पर मेरा ध्यान उस बच्छी की तरफ चला गया। मैं और पाल बच्छी के पास जाकर उसे देखने लगे। बच्छी बहुत ही सुन्दर तस्वीर-सी लग रही थी। पता नहीं कहाँ से टहलसिंह आ गया और पता नहीं किस मूर्खपने में मैं उसकी गोद में चढ़ गया। मैंने बच्छी पर बैठने की जिद की। सात वर्षों के बच्चे में समझ ही कितनी होती है! पर चाचा, तुमने मुझे एक बार भी मना नहीं किया, न ही समझाया और उस मासूम और बहुमूल्य बच्छी को पकड़कर, लगाम को गांठें देकर, छोटी कर उसे लगाम दे दी। जो आदमी जहाँ था, हैरानगी से बुत बना रह गया। भाई पके हुए गुड़ को छोड़ खड़ा हो गया। हर आदमी, चाचा तुम्हारी तरफ देख रहा था। एक बच्चे के मूर्खपने के साथ तुम भी बच्चे बन गये थे पर तुम्हारे कामों में दंखल देने की हिम्मत और साहस किसी में नहीं था। फिर तुमने कन्धे की चादर उतार, उछल रही, नाच रही, घबरायी हुई तथा परेशान और साथ ही निढाल हुई बच्छी को डाल दी और फिर उस मासूम, नमे और सुन्दर पीठ पर काठी डाल दी और काठी को कस दिया। आज सोचता हूं कि छ: महीने की दूध पीती कोमल बच्छी की जान के लिए इतना ही दुख और सदमा काफी था। पर चाचा, फिर तुमने मुझे उसपर बैठाकर उसे आगे से पकड़कर हवेली के दो चक्कर लगवाये और बच्छी दुख और सदमे से निढाल होकर गिरकर मर गयी। महाराजा कपूरथला की लाडली घोड़ी की सुन्दर बच्छी, जिसे तुमने कितनी सधरों और उम्मीदों से पाया था! पर तुम्हारे माथे पर एक भी शिकन नहीं पड़ी थी, किसी ने भी उंफ तक नहीं की थी, सिवाय मेरे अब्बा के जब उन्होंने सुना तो वे मुझे और तुम्हें दोनों को गुस्सा हुए थे। पर तुम सिर्फ हंस दिये थे।

चाचा! आज मैं बालिग हूं। स्याना हूं . पत्थर की तरह ठोकरें खाकर गोल हो गया हूं। दुनिया का सर्द-गर्म भी देखा है और आधी दुनिया के शहर भी देखे हैं और उनके वासियों को भी देखा है। उन्हें परखने और समझने की कोशिश भी की है। आज वे बातें, सपनों की बातें लगती हैं, खोये हुए सपने। कितना बद-किस्मत होता है वह आदमी, जिसके सपने खो जाते हैं। आज सोचता हूं चाचा तुम तो मेरे पिता के मुंहबोले भाई थे। तुमने उसके साथ पगड़ी बदली थी। तुम, उसके सगे भाई तो नहीं थे। पर जितना प्यार तुमने मुझे दिया, उतना प्यार तो मेरे किसी सगे चाचा ने भी नहीं दिया। कहते हैं खून का रिश्ता बहुत पुराना है, पर फिर भी तुम मुझे सगों से भी ज्यादा प्यारे थे। मैं तुम्हें, तुम्हारे पाल से भी अधिक प्यारा, अधिक लाडला और अधिक करीब क्यों था?

फिर ऐसी आंधी चली जो इनसान को बेधकर और जमीन को सुनसान बना कर चली गयी। रावी और वसन्तर बढ़कर भयानक हो गयीं और लहरें गुस्से में मुंह से झाग उगलती बाहर आ गयीं। चारों तरफ उमड़ता हुआ पानी था। तुमने भरी-पूरी हवेली और भरे हुए घर से, बस दो-चार वस्तुएं लीं, फिर मेरे चाचे, ताये और अब्बा उस गाड़ी को बर्छियों, छवियों और बन्दूकों के पहरे में लेकर चल दिये थे। गाड़ी पर चाची, पाल, बहन, तुम और रत्तो थे और आपके आस-पास आपकी हिंफांजत के लिए हम विस्मित से पुल तक गये थे। आप भी निढाल हो गये थे और आपको छोड़ने जाने वाले भी। रास्ते में लूटमार, कत्ल, हमले आदि का डर। और पुल पर पहुँचकर जब मेरे पिता और आपने एक-दूसरे को बांहों में भरा तो दोनों बिलख-बिलखकर रोने लगे। आपको डेरे से, पुल से गुंजरते और बार-बार मुड़कर पीछे देखते देखकर मेरे पिता कैसे बच्चों की तरह तड़प-तड़पकर रोये थे! आप आगे बढ़कर भीड़ में खो गये थे पर हम शाम तक क्यों पुल पर खड़े रोते रहे थे? और आंखिर आपको खोकर, अपने और आपके उजड़े घरों में वापस लौट आये थे। उस समय मैं आठ साल का था और अब अड़तीस साल का हूं। मैंने कठिन-से-कठिन समय में भी अपने पिता को रोते नहीं देखा था, सिवाय उस दिन के। अब तो बस तुम्हारे नाम पर उनकी आंखें बुझ जाती हैं।

और आज मुकेरियां के किसी गाँव में शरणार्थी टहलसिंह पता नहीं कितना खुश है? और अब पता नहीं पालसिंह मेरी तरह आधे धौले बाल वाले सिर में अपनी रौशन बादामी आँखों में कोई ख्वाब रखता है या नहीं?

चाचा टहलसिंह कहा करता था”हम सभी कहानियाँ हैं पर हमें लिखने वाला कोई नहीं।”

चाचा देख लो, मुझे तुम्हारी कहानी याद है और मैं किसी दिन इसे लिखूंगा भी। आज तो मेरे चारों तरफ कहानियाँ घेरा डालकर खड़ी हैं, चारों तरफ कयामत वाला शोर है।

मेरी कहानियाँ लहूलुहान हैं। उनके सिर नंगे हैं, बाल बिखरे हुए और बदन जंख्मी हैं। मेरे हाथों में टूटा हुआ कलम है और टूटा हुआ पात्र है, जिसमें मैं अपनी कहानियों के लिए खुशियां लेने घर से निकला था। मेरी आँखों में आँसू हैं। मैं अपना रास्ता भी नहीं देख सकता। मेरा हाल भी मेरी कहानियों जैसा ही है। और मैं सोचता हूं मैं कैसे कहानी लिखूं?

Download PDF (खोयी हुई खुशबू )

खोयी हुई खुशबू – Khoye Huye Khushabu

Download PDF: Khoye Huye Khushabu in Hindi PDF

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *