खो न जाएँ दिन | राधेश्याम शुक्ल
खो न जाएँ दिन | राधेश्याम शुक्ल

खो न जाएँ दिन | राधेश्याम शुक्ल

खो न जाएँ दिन | राधेश्याम शुक्ल

कुछ करें
‘बाजार’ से
‘घर’ लौट आएँ दिन,
‘बही-खातों’ में उलझ कर
सो न जाएँ दिन।

दिन
तराजू पर तुले
हारे-थके, ऊबे
रोज,
बनकर हादसे
अखबार में डूबे।
‘आदमीयत’ की तरह ही
खो न जाएँ दिन।

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‘भाव’ के हाथों
कभी गिरते
कभी चढ़ते
‘हवस’ के चश्मे
हमेशा
लाभ ही पढ़ते।
कल सरेबाजार,
नंगे हो न जाएँ दिन।

कल,
खिलेंगे फूल
तो किस रंग के होंगे
जिंदगी के ‘ढब’
कौन से ढंग के होंगे

‘आग’,
इनसानी रगों में
बो न जाएँ दिन।

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