रतन लाल अब रोज खाता था और लगभग रोज बाहर। उस दिन भी खाकर आया था। रात बहुत हो चुकी थी और तेज बरसात अलग। उसी होटल की बड़ी, शानदार गाड़ी थी जिसमें थोड़ी देर पहले जगमगाते फानूस की रोशनी में उसने पता नहीं क्या क्या खाया था। उसे उन खानों के स्वाद नहीं केवल रंग याद थे – लाल, हरा, हल्का नीला, गुलाबी, पीला और सफेद। एक खाना एकदम काला था, इतना काला जितना अतल अंधकार। सारी रोशनियाँ अचानक बुझ जाने पर ऐन उस क्षण जो अँधेरा होता है, उतना काला। वह कोलतार या गाढ़ी काली स्याही जैसा अजीब सा खाना उसने परे रख दिया था। और एक मोर के पंखों जैसी रंगबिरंगी डिश भी थी, जो खाने के बाद परोसी गई थी। यह याद था कि डोंगों और तश्तरियों के आने का सिलसिला एक पल के लिए भी नहीं टूटा था और उस बड़ी, गोल मेज का हर कोना, चप्पा चप्पा भर गया था। इस वक्त सफेद वर्दी और कैप में, जिस पर उसी होटल का ‘लोगो’ बना था, आगे की सीट पर बैठा ड्राइवर गाड़ी चला रहा था। शीशे पर चुपचाप गिरती बरसात का पर्दा था जिस पर सब कुछ किसी बहुत पुरानी फिल्म की तरह धुँधला और विवर्ण दिखता था। बरसात के बीच जलमग्न सड़कों पर गाड़ी हिचकोले खाती नाव की तरह आगे बढ़ रही थी, लगता था अभी किसी चट्टान या टापू से टकरा कर टुकड़े टुकड़े हो जाएगी।

– क्या तुमने खाना खाया? उसने बस एक बार ड्राइवर से इतना पूछा था। ड्राइवर ने कहा था – जी, खा लिया।

गाड़ी जब उसकी गली के किनारे पहुँची थी, उसने एक गहरी सांस ली थी। कार के बाहर पाँव रखने पर छपाक की आवाज हुई थी। हल्की बूँदाबाँदी उस समय भी हो रही थी, जिससे बचने के लिए उसने सिर पर अखबार तान लिया था और गाड़ी को वापस जाने के लिए कह कर अपने घर तक की दूरी तेज कदमों से पार की थी। बरसात के कारण बिजली गायब थी, दरवाजे बहुत देर तक थपथपाने के बाद खुले थे। पत्नी थी, हाथों में एक मोमबत्ती लिए।

तीन कमरों का मकान था। बाहर का कमरा बैठक था, और भीतर के कमरे में वे सोते थे। उससे जुड़े तीसरे, छोटे से कमरे पर उनकी बेटी का कब्जा था, पूरे कमरे में उसकी किताबें और खिलौने बिखरे रहते थे। दो कमरों के बीच की थोड़ी सी जगह में एक डाइनिंग टेबल पड़ी थी जिसे वह रात को, जब उसे लिखना होता था, राइटिंग टेबल की तरह इस्तेमाल करता था। वहाँ थोड़ी देर पहले पत्नी ने रात का खाना खाया था। एक प्लेट में अधखाई रोटी का एक टुकड़ा अभी तक पड़ा था। पत्नी ने मोमबत्ती को डाइनिंग टेबल के बीच रखे ऊँचे कैंडिल स्टैंड में टिका कर पूछा था – खाना खा लिया?

वह खामोश रहा था, फिर पूछा था, अच्छा उसने भी खा लिया होगा न। सवाल उनकी पाँच बरस की बेटी संगीता के बारे में था जो कुछ दिनों के लिए फरीदाबाद गई थी। वहाँ उसके छोटे भाई का परिवार रहता था।

पत्नी ने रसोई से एक गिलास पानी लाकर दिया था और बैठक में पड़े टीकवुड के नए सोफे पर पीठ टिका कर आँखें मूँद ली थीं। देर तक टिकी रही एक अशांत, असामान्य खामोशी के बीच पत्नी ने अचानक कहा था – होम्योपैथी करके देखो। कहते हैं, उसमें…

– देखो, एक अधीर आवाज में उसने कहा था। अब होम्योपैथी की किताबें खरीद कर उसकी दवाइयाँ मत आजमाने लगना। तुम्हारा वानस्पतिक चिकित्सा का बुखार अभी उतरा है। हर दूसरे दिन कोई नया मुरब्बा, चूरन, काढ़ा। मेरी इस अजीब बीमारी ने ही मुझे उनसे बचाया जिसमें जहर भी खा लो, तो पता न चले। कोई और बीमारी होती तो तुम्हारी दवाइयों से ही मर गया होता। इस सबसे कुछ नहीं होगा। जाओ, तुम जाकर सो जाओ, रात काफी हो चुकी है। मुझे तो अभी काम करना है। लाइट नहीं है इसलिए कंप्यूटर तो… ठीक है, मुझे एक कापी दे दो और कोई पेन या पेन्सिल और एक अलग मोमबत्ती भी…

– और एक कप कॉफी?

– कॉफी या अरंडी का तेल, मेरे लिए सब बराबर है। लेकिन ठीक है, बना दो, शायद रात में देर तक जागना होगा। पत्नी अपनी जगह से उठी और बेटी के कमरे से एक रजिस्टर और पेन लाकर डाइनिंग टेबल पर रख दिए। फिर रसोई में जाकर कॉफी बनाई और प्याला उसे पकड़ाते हुए उनींदी आवाज में कहा – मैं अब सोने जाऊँ?

उसके जाने के बाद खामोशी घनी होती गई। बाहर बरसात भी रुक चुकी थी। खिड़कियों को धक्का लगाती गीली और ठंडी हवाएँ अभी तक थीं, लेकिन धीरे धीरे बेदम पड़ती हुईं। उसने कुर्सी को मेज के पास खिसका लिया और मोमबत्ती को एक सुविधाजनक बिंदु पर इस तरह जमाया कि उसकी रोशनी पन्ने पर सीधी और साफ गिरे। उस धीरे-धीरे रीतती रात की तन्हाई में वह कुछ देर यूँ ही कुछ सोचता हुआ खामोश बैठा रहा, फिर रजिस्टर खोल कर उसने एक खाली, नए पन्ने पर लिखना शुरू किया। यह उसके एक पुराने दोस्त माधव मुरमू के नाम एक चिट्ठी थी जिसे उसने पंद्रह बरसों से नहीं देखा था। उसे यह भी नहीं मालूम था कि इस वक्त वह कहाँ है, है भी या नहीं। चिट्ठी में नाम, प्रिय वगैरह लिखने के बाद उसने लिखा – इतने समय के बाद यह चिट्ठी पाकर, अगर तुम तक पहुँच सकी, तुम्हें ताज्जुब होगा। उससे भी ज्यादा ताज्जुब यह जान कर होगा, शायद, कि अब रोज खाता हूँ।

जरा सा खाना नहीं और गप्प से खा जाना नहीं, खूब सारा और बड़ी देर। अब मेरा खाना कोर्स बाई कोर्स होता है, हर खाने में सूप और डैजर्ट मिला कर कम से कम चार कोर्स होते हैं और जब खाता हूँ तो खाता ही चला जाता हूँ। धीरे धीरे, देर तक। बेहतरीन क्राकरी में सुंदर कढ़े या छपे हुए नैपकिन्स के संग सीधे स्टोव, ओवेन, तंदूर, तवे या बार्बीक्यू से भर भर कर डोंगे या प्लेटें आती रहती हैं और उनके पीछे वर्दीधारी वेटर्स, शैफ और रसोइए और होटल या रेस्तराँ के कर्मचारियों की फौज। जहाँ खाता हूँ वहाँ आम तौर पर नीम अँधेरा या नाममात्र की रोशनी होती है, कभी मोमबत्तियों, कभी फानूस और कभी सितारों की, और एक बार तो कमाल ही हो गया था। बहुत बड़ी मेज के बीचोंबीच शराब से भरे एक विशाल मर्तबान को तीली दिखाई गई थी और जलती शराब की जुगनुओं जैसी दिप दिप रोशनी में हमने खाया था। मेरे इर्द-गिर्द मुस्कराते, विनीत चेहरों की भीड़ रहती है मगर खाता अक्सर अकेले ही हूँ – वे सब डोंगों से उठती भाप के परे मुझे खाते हुए देखते रहते हैं, मेरे चेहरे और आँखों में कुछ पढ़ने की कोशिश करते हुए, कोई संकेत, कोई इशारा। मगर इससे यह न समझना कि मैं पेटू हो गया हूँ या खाने का कोई खास शौकीन। नहीं, यार, जरा भी नहीं, यह तो अपुन का काम है, नौकरी। खाने की खातिर खाता हूँ, न खाऊँ तो भूखा मरूँ और मेरा परिवार भी।

यहाँ तक लिखने के बाद नए पैराग्राफ में उसने पहले लिखा : ‘तुम्हें पंद्रह बरस पहले के वे दिन…’ फिर इसे काट कर : मैं अभी तक वहीं, उसी अखबार में हूँ जहाँ पंद्रह बरस पहले हम दोनों…। मेरी कुर्सी मेज अभी तक उसी फ्लोर पर हैं, लेकिन अब उस कोने में नहीं। अब सामने के पारदर्शी दीवारों वाले बड़े से केबिन में बैठता हूँ, अकेले, और मेरे पीछे की दीवार पर किसी आर्ट गैलरी की तरह, तारीखों और ब्यौरों के साथ, मेरी बड़ी बड़ी तस्वीरें प्रदर्शित हैं – फलाने होटल में बैरों और बावर्चियों के संग, चीफ शैफ से हाथ मिलाते हुए, टेबल पर खूब सारे खानों के बीच, खाने के पहले और दौरान और बाद की तमाम तस्वीरें। एक तस्वीर में मेरा मुँह खुला है और एक बूढ़ा बावर्ची मुस्कराते हुए मुझे सीधे कड़छी से कोई खास चीज, याद नहीं कि कोई पुराना, एंटीक व्यंजन या कोई नवीन आविष्कार, खिलाने की कोशिश कर रहा है। उस कोने में अब वह हीटर भी नहीं, जिस पर हम दोपहर में खाना गर्म करके खाते थे। उसकी जगह वहाँ एक हॉटकेस है, लेकिन अब दफ्तर में शायद ही कोई खाता है। लंच के समय लोग इधर उधर बिखर जाते हैं। तुम्हारा खाना मुझे अभी तक याद है, (अपने ही) अखबार में लिपटी तीन या चार मोटी, भोंडी रोटियाँ जिन्हें तुम काम करते हुए तेजी और जल्दी से खा लेते थे फिर भी हमेशा भूखे और अतृप्त रहते थे। हम ट्रेनी पत्रकार थे, मैं अपेक्षाकृत करीब, यू.पी. के लखीमपुर जिले से और तुम झारखंड की बहुत दूर न जाने कौन सी जगह से, जहाँ तुमने बताया था कि ट्रेन नहीं जाती। हम पूरी तरह बर्बाद होकर दिल्ली आए थे।

नहीं, हमारे घरों में आटा था जब हम अपने अपने इलाकों से दिल्ली के लिए चले थे। हम अकाल, बाढ़ या सूखे में उजड़ कर नहीं आए थे, हमें तो र.स. ने बर्बाद किया था जिसके लिए अल्लाह से दुआ कि उन्हें करवट करवट जन्नत बख्शे। शुक्रिया, सर। वह मूल्यवान बर्बादी आने वाले बरसों में कैसे बर्बाद हुई। कैसा था वह वक्त, विस्फोट या उबाल, र.स. जिसकी महज एक छोटी सी अभिव्यक्ति थे – उस वक्त की शबीह बनाई जाए तो शायद एक नामालूम बिंदु या धुँधली लकीर से ज्यादा नहीं, फिर भी उन अंदरूनी इलाकों तक के लोग उन्हें जानते थे जहाँ ट्रेनें नहीं जाती थीं। हम दोनों बहुत देर से दिल्ली आए थे जब वो नहीं थे (उन्हें उनकी जगह से बेइज्जत करके निकाला बहुत पहले जा चुका था), फिर भी वो अपना काम कर गए थे। ट्रेनी पत्रकार के टेस्ट में पास होकर हम अपनी अपनी जगहों से धड़कते दिल और दुनिया बदलने में शिरकत करने के इरादे के साथ आए थे। तब लगता था कि दुनिया बदलने ही वाली है। तुम खबरों की तलाश में दूरदूराज के अज्ञात इलाकों में भटकते थे और अक्सर कई दिनों तक दफ्तर नहीं आ पाते थे। इसकी तुलना में मेरा काम बहुत आसान था – नई किताबों, खासकर कविता संकलनों की समीक्षाएँ लिखना। अब अखबार में काफी सीनियर हूँ, लेकिन काम अभी तक वही है, समीक्षाओं का।

सीनियर समीक्षक, लेकिन किताबों, नाटकों, पेंटिंग्स, फिल्मों या संगीत के कार्यक्रमों की नहीं, अब खानों की समीक्षाएँ लिखता हूँ। हाँ, खाने। चपर चपर। समझ में आया? अच्छा, गप गप। अब तो समझे? हर हफ्ते मेरी और खानों की रंगीन तस्वीरों के साथ मेरी भोजन समीक्षाएँ छपती हैं। हर हफ्ते अगर रोज नहीं तो तीन या चार दिन किसी न किसी आलीशान होटल या रेस्तराँ में खाता हूँ। वे रोज रोज नए नए खुलते जाते हैं। बरसों से इतना पोषणयुक्त और इतना सारा खाना खाने का नतीजा यह है कि एक बड़ी फुटबाल जैसा दिखता हूँ, जमीन पर लुढ़कता सा चलता हूँ, लोग हँसते हैं। मगर मेरे पास कोई विकल्प नहीं, मेरी नियति यही है कि खाता जाऊँ, पीता जाऊँ, चूसता, काटता, चबाता, ठूँसता, सुड़कता और निगलता जाऊँ, किस्मत को कोसता हुआ कि अभी कितना और जीना, कितना और खाना है, और हाँ, यह भी ध्यान रखते हुए कि यह सब बेआवाज हो। हर जगह मेरे लिए सबसे बड़ी टेबल, सबसे महँगी क्राकरी, सबसे स्वादिष्ट खाने और सबसे नशीले तरल, और कम नशीले भी, रिजर्व होते हैं, इसी तरह गोश्त में सीने, रान, कलेजी और गुर्दों की सबसे मुलायम, मूल्यवान बोटियाँ जिन्हें जैतून के तेल में तला जाता है और दाल, सब्जियाँ (आर्गेनिक, केवल) देगची की गहराइयों से परोसे जाते हैं जिन्हें छोटे छोटे निवालों में सिर झुकाए खामोशी से खाता हूँ, अपने ख्यालों में गुम और वे उत्सुकता से मुझे देखते हुए अंदाजा लगाने की कोशिश करते रहते हैं कि मेरे दिमाग में क्या चल रहा है।

एक खाना समीक्षक के दिमाग में खानों के अलावा और क्या होगा, वहाँ ग्रहों नक्षत्रों, विलुप्त सभ्यताओं, अनजान द्वीपों के निवासियों या किताबों की या इतिहास भूगोल या नागरिक शास्त्रा की जानकारी तो होने से रही। इन चीजों के बारे में जो कुछ जानता था, वह दिमाग से कब का मिट चुका। उन दिनों खाने के सस्ते ठिकानों की तलाश में भटकते हुए तुम जो कहते और बताते थे – किताबों के नाम, दुनिया भर के मूवमेंट्स और नई दुनिया का नक्शा – उन बातों की धुँधली सी याद बाकी है। अलबत्ता खानों के बारे में सब कुछ जानता हूँ – उनके स्वाद, पाक विधियाँ, पोषक तत्व, यखनी, बिरयानी, शोरबों, सूपों, केकों और आइस्क्रीमों की किस्में, अलग अलग इलाकों और मुल्कों के खाने; और प्रवासी और देसी परिंदों के मांस का, अलग अलग नदियों की मछलियों के स्वाद का बारीक फर्क – और खसखस सूखा डालना बेहतर होता है या गीला, जावित्री साबुत या पिसी, और धनिया की श्रेणियाँ, कालीमिर्च की किस्में। पिछले दस बरसों में न जाने कितनी तरह का और कितना कुछ खा गया हूँ, और खानों के बारे में जानकारियाँ जमा की हैं, जिनकी मदद से हर हफ्ते भोजन समीक्षाएँ लिखता हूँ, जिनके अनगिनत पाठक हैं और लोकप्रियता असीम। उन समीक्षाओं का एक संकलन, कवर पर मेरी तस्वीर के साथ, छप चुका है और दूसरा छपने वाला है। पहले संग्रह की समीक्षाओं में कहा गया था अलीक, अनन्य, अद्वितीय पता नहीं क्या क्या। उस संग्रह की अब तक…

कुछ सोच कर उसने ऊपरी पैराग्राफ का आखिरी वाक्य काट दिया और नया पैरा शुरू किया – कभी कभी ऐसा होता है कि खाने के दौरान मेरे सामने बैठा कोई युवा कुक या शैफ एक चौड़ी, अति विनीत मुस्कराहट के साथ एक एक डिश पेश करता है और संक्षेप में उसकी रेसिपि और कैलोरीज बताता है। मेरी राय पर, अगले हफ्ते छपने वाली समीक्षा पर उसकी नौकरी और कैरियर, या कम से कम अगला प्रमोशन, निर्भर करते हैं, इसलिए आदर और आग्रह से खूब खिलाते हुए वह लगातार मुझे एक टकटकी में देखता रहता है – उसकी निगाहों में इतनी उत्सुकता, इतनी उम्मीद होती है कि मेरा दिल जोर जोर से धड़कने लगता है, गसा निगला नहीं जाता, लगता है बस आया… आया वह क्षण जब मेरे लिए उन कातर निगाहों का दबाव असहनीय हो जाएगा, चीख कर कहूँगा आई डैम केयर, अब जो होना है हो, सच्चाई तो…। मैं उसे वह सच बता दूँगा जिसे पूरे जमाने से छुपाता हूँ, मेरे अलावा बस दो लोग जानते हैं, मेरी बीवी और डॉक्टर सहाय… और तीसरे तुम होगे, थोड़ी देर के बाद। वह सच सामने आया कि गई मेरी नौकरी, और शायद मेरा अखबार मुझ पर धोखाधड़ी का मुकदमा भी चलाए। मैं शैफ की नौकरी की चिंता करूँ या अपनी – इसलिए गहरी साँसें लेकर अपने पर काबू पाता हूँ, उसकी आँखों में देखने से बचता हुआ खामोशी से खाता रहता हूँ, उस खतरनाक क्षण को गुजर जाने देता हूँ। चलते वक्त सबको धन्यवाद देता हूँ और खाने की तारीफ में कुछ शब्द भी…।

अब तक तुम्हारा धीरज खत्म हो चुका होगा। इतने बरसों के बाद अचानक यह चिट्ठी और उसमें यह सब…। दरअसल, तुम्हारा पता हासिल कर काफी समय से लिखना चाहता था, लेकिन किसी न किसी कारण से टलता रहा। अब इसे और अधिक नहीं टाल सकता। वक्त आ चुका है, अभी या कभी नहीं। यह पार्टी खत्म होने वाली है। तुम जानते हो(गे) कि दुनिया में खाना कम पड़ गया है। हाइती, इंडोनेशिया, फिलिपींस, कैमरून, मिस्र और पेरू में खाने के लिए मारकाट और दंगे हो चुके हैं जिनमें मरने वालों का हिसाब नहीं। एक कंपन फैल रहा है, बदहवास आवाजें आ रही हैं कि यह बरबादी की शुरुआत है, एक खामोश सूनामी जो कम से कम दस करोड़ लोगों को लेकर जाएगी। यही फुसफुसाहट अंतर्जाल पर। तुम्हें यह पहले से पता था, तुमने बता दिया था, बेशक इन्हीं शब्दों में नहीं। इन लोगों का रोगनजोश गायब होने वाला है। बिरयानियाँ गायब होने वाली हैं। टिक्के और कबाब (सींख, शामी दोनों तरह के) गायब होने वाले हैं। पनीर और पनीर से बनने वाले सारे आइटम गायब होने वाले हैं। कढ़ी, केक, कांजी, काजू, कोफ्ते, कीमा कलेजी, कुल्फियाँ और केकड़े और कुकुरमुत्ते और उनके अलावा और भी, सारे के सारे खाने, सब कुछ गायब हो जाने वाला है। इसलिए जो कहना चाहता हूँ वह कहने का वक्त यही है। कुछ समय के बाद इसकी कोई जरूरत नहीं रहेगी, इसलिए इच्छा भी नहीं। फिर मुझे तुमसे उन दिनों की कुछ बातें भी…

यह आखिरी वाक्य काट कर उसने नया पैराग्राफ शुरू किया : तुम्हें साउथ दिल्ली के वसंत कुंज से आने वाली, विशेष संवाददाता मिसेज मोंगिया की याद होगी (उस उम्र में भी थी आकर्षक, नहीं?) जो बर्लिन, कांस और कहाँ कहाँ के फिल्म समारोहों की रपटें ‘लाइफ’ और ‘टाइम’ से टीप कर वहीं बैठे बैठे लिख दिया करती थी। वह तुम्हारी राख के रंग की, स्याह धब्बों वाली अनाकर्षक रोटियाँ देख कर हँसती थी और अपना डिब्बा खोल कर सैंडविच पेश करती थी मगर तुम अपनी मेज पर सिर झुकाए, काम में डूबे वही रोटियाँ खाते रहते थे। तुम, और तुम्हारे संग मैं भी, सस्ते से सस्ते खाने की तलाश में भटकते थे, फुटपाथों और ठेलों पर खाते थे और हर चीज को पता नहीं किस तलाश में आँखें दुखने तक देखते थे। जो भी तनखा थी, लगभग पूरी की पूरी घर चली जाती थी।

या तो खुद खा लो या घर में वह जो महारानी बैठी थी, गरीबी, उसे खिला लो। अपने खाने के लिए हम अतिरिक्त काम करते थे, दूसरे अखबारों में लेख, टिप्पणियाँ और रेडियो वार्ताएँ वगैरह। महीना बीतते न बीतते खाना दिखना बंद हो जाता था, तब एक एक दिन छोड़ कर खाते थे और उन दिनों में चाय बिस्कुटों, ज्यादा से ज्यादा डबलरोटी से काम चलाते थे। कड़ी धूप में हम अपने मलाल और कचोटों का मिलान करते मीलों चलते जाते थे या ठसाठस भरी बसों में सफर करते थे। तुम्हें कितनी भूख लगती थी। अपने खाने के लिए तुमने पूरी दिल्ली को छान मारा था और जमीन में दबी एक बस्ती को खोद कर निकाला था। हाँ, मुझे ऐसा ही लगा था जब तुम मुझे अपने संग पहली बार वहाँ ले गए थे। उस सारे जमाने से छुपी हुई बस्ती में तुम कैसे पहुँचे थे, यह तुम्हीं जानते हो – दिल्ली की तली में, हाथियों के पड़ोस में, नदी के किनारे। अब उस जगह वह बस्ती नहीं है और वहाँ रहने वाले भी न जाने कहाँ गए। यमुना ब्रिज के बीचोंबीच लगे एक बोर्ड ‘यहाँ हाथी रहते हैं’ के करीब सीढ़ियाँ थीं जो बहुत नीचे नदी तक जाती थीं। उन सीढ़ियों और रास्ते का ऊपर से पता ही नहीं चलता था, उनसे अनजान ट्रैफिक अपने शोर और रफ्तार में गुजरता रहता था। हम उतरते गए, उतरते गए, जैसे पाताल तक। नीचे जाकर देखा, वहाँ एक विशाल बस्ती थी। यमुना के किनारे से पुश्ते तक झोंपड़ियाँ थी, धुएँ और एक अनंत धुंधलेपन से ढकीं और उनके बीच में कुछ पक्के मकान भी थे। उन्हीं में दुकानें, पीसीओ, होटल थे और एक नाई की दुकान भी।

– यहाँ खाता हूँ। यहीं से अगले दिन की रोटी बंधवा लेता हूँ। यह जगह बिल्कुल मेरे गाँव जैसी है। तुमने कहा था।

मैं आश्चर्यचकित, आँखें गड़ा कर चारों ओर देख रहा था – ऐसा ही मेरा भी…। मैंने कहा था।

– क्या तुम्हारा गाँव नदी के किनारे है? तुमने पूछा था।

– हाँ।

– पानी ज्यादा आ जाए तो झोंपड़ियाँ बह जाती हैं, बच्चों बर्तनों समेत?

– हाँ।

– वहाँ हाथी है?

– हाँ। नदी के पार। जंगल में।

– नदी में मछलियाँ हैं? यमुना के किनारे किनारे चलते हुए तुमने कहा, मटमैले पानी पर निगाहें टिकाए।

– हाँ, मछलियाँ भी…। मैंने कहा।

– क्या गाँव में गिद्ध और चीलें भी हैं?

– नहीं, लेकिन वे अक्सर आते हैं।

– रातें बहुत अँधेरी होती हैं? सूरज इतना तीखा कि काँटे की तरह चुभता है? हवाएँ गर्म होती हैं? अक्सर आग लगती है? उम्रें सरपट भागती हैं? जरा सी हमदर्दी मिले तो लोग रो पड़ते हैं, उम्रदराज बूढ़े भी, अपने मोटे, बहुत पुराने चश्मों के पीछे, जिनकी कमानियाँ धागों से बाँध कर किसी तरह…? और लोग गरीब…?

– हाँ, सब कुछ ऐसा ही है। मैंने कहा।

उस घड़ी हम दोनों ने एक दूसरे को जैसे पहली बार देखा था, एक दूसरे के चेहरे में अपनी शक्ल पहचानते हुए।

– अच्छा, वहाँ कत्ल होते हैं?

– हाँ, कभी कभी कत्ल भी… मैंने कहा।

– और सोडोमी? तुमने पूछा। वैसे तुमने यह नहीं, कुछ और कहा था। इस बीच हम झोपड़ियों के बीच के कच्चे रास्ते से पीछे की गली में आ पहुँचे थे जो धुएँ और भाप से भरी थी। वहाँ लुहारों और वैल्डिंग करने वालों की कच्ची, अस्थायी दुकानें थीं। हम गली के बीच वहाँ तक चलते गए, जहाँ धधकते कोयलों पर लोहा गरम होकर लाल हो चुका था। तेजी से उसे निकाल कर निहाई पर रखा गया और दो आदमी जल्दी जल्दी और बारी बारी घन मारने लगे। लोहा चिनगारियाँ फेंक रहा था। भाप का गुबार बीच बीच में उठता था। भट्टी में दूसरा लोहा डाल दिया गया था जो तपता जा रहा था और देखते ही देखते किनारों से लाल होने लगा। घन मारने और फूली साँसों की आवाजें एक दूसरे में घुली मिली थीं, जिसे एक तीसरी आवाज ने दबा दिया जब उसे पानी के हौज में डाला गया, लोहा ठंडा होने और भाप उठने की आवाज। आग की नदी और धुएँ के बादलों को पार कर तुम उस झोंपड़ी में चले गए जहाँ वह राख या मिट्टी के रंग की बहुत बूढ़ी औरत दरवाजे के बीच खड़ी थी, हमारी ओर देखती हुई। उसका बदन गुदनों से ढका था और वह रंगबिरंगे पत्थरों और मनकों की मालाऐं पहने थी। वे तुम्हारे इलाके के लोग थे। यह महानगर में ठोकरें खाते तुम्हारे आदिम खून की घरवापसी थी – पता नहीं किन अज्ञात आनुवंशिक या नृवंशीय रास्तों से। उस घड़ी मैं समझ पाया था तुम्हारी आँखों की वह अबूझ तलाश, जो और कुछ नहीं, सिर्फ घर वापस जाने की एक मासूम इच्छा थी – और यह भी कि तुम इस शहर में अधिक समय नहीं टिकोगे। मैं दूर से देख रहा था कि उस औरत ने तुम्हें चिपका लिया था और शायद पूछ रही थी – रोट्टी खाएगा? भूख लगी है? – नहीं, अभी नहीं, तुमने कहा था और फिर मेरी ओर देखते हुए – यह भी आज से यहीं खाएगा। रात हो चुकी थी। मैं बाहर खड़ा यमुना के पार दिल्ली की रोशनियाँ देख रहा था जो वहाँ से बहुत मैली, धब्बों जैसी जान पड़ीं।

एक मजे की बात बताऊँ, ये लोग प्लीज प्लीज करके, यह लिखने के बाद इस वाक्य में ‘प्लीज प्लीज करके’ को काट कर उसने लिखा, मिन्नत करते हुए, विनती करते हुए खिलाते हैं। प्लीज खाइए न, प्लीज यह खाइए, प्लीज खा लीजिए न, ऐसा कहते हैं। आज दिन भर बारिश होती रही थी। कल रात देर तक दमयंती, वह बच्चों के एक स्कूल में पढ़ाती है, कापियाँ जाँचती रही थी, इसलिए सुबह देर तक सोती रही। मुझे जगाना ठीक नहीं लगा और बिस्कुटों के साथ चाय पीकर और रोटी लिए बिना दफ्तर के लिए चल दिया। जिस दिन कहीं बाहर नहीं खाना होता, घर से लंच लेकर जाता हूँ।

यह एक थकाने वाला दिन था, पिछले हफ्ते जिन तीन रेस्तराओं में खाया था, उनकी समीक्षाएँ लिखनी थीं, यह ध्यान रखते हुए कि इधर के खाने उधर न हो जाएँ। सामिष निरामिष का और उत्तर दक्षिण का ध्यान न रखूँ तो अखबार मुकदमा झेले और नौकरी से अलग जाऊँ। लंच के वक्त चपरासी को बुला कर पैसे देते हुए कहा कि दफ्तर से कुछ दूरी पर जो एक ठेले वाला खड़ा रहता है, वहाँ से मेरे लिए छोले और दो कुल्चे पैक करा कर लाए। उसका इंतजार करते हुए मैं बालकनी में आकर बारिश देखने लगा, तभी मोबाइल पर वह फोन आया। बारिश की आवाज में साफ सुनना मुश्किल था, इसलिए मैंने उससे कहा कि वह जोर से बोले और खुद भी इस तरह चिल्ला कर बात कर रहा था कि मेरी आवाज बाहर हॉल में हर मेज तक साफ जा रही थी, सब लोग मुड़ कर शीशों के पार मेरी ओर देखने लगे थे। – क्या कहा, नया रेस्तराँ? एक और? अच्छा फ्रांसीसी खाने का? क्रेपे सुजेटे, चाकलेट माउस्से, रिसोटो और मेडिटेरेनियन सलाद? अच्छा यूनानी खाना भी… फासोलादा, कोलोमो और एव्गोलेमोनो सूप और अराकास मी ऐगिनेयर्स और स्पानाकोरिजो… आस्ट्रेलियन भी? आस्ट्रेलियन में स्टीक, रोस्टेड लैंब, पाव्लोवा, लैमिंग्टन, किडनी पाईज और… और क्या… कंगारू करी? मेरे घर में और दफ्तर के केबिन में भी देश विदेश के खानों की रंगीन किताबों की एक काफी बड़ी लाइब्रेरी है, वहीं से मैंने ये सारे नाम रट रखे थे और अब फोन पर दोहराए जा रहा था, ज्ञान बघारने के अलावा उसे जताने कि अपुन ने दुनिया जहान का खाना खा रखा है, भुख्खड़ हिंदी वाला न समझे, भूल से भी। वह एक बहुत बड़ी और ऊँची इमारत की सबसे ऊँची मंजिल पर खुले एक नए रेस्तराँ का जन संपर्क अधिकारी था। आज उस रेस्तराँ का उद्घाटन था।

वह उड़नतश्तरी जैसा एक रिवाल्विंग रेस्तराँ था, लगातार घूमता हुआ, और उसका नाम भी उन्होंने यही रखा था, ‘द फ्लाइंग सॉसर’। उसकी खिड़कियों से नीचे जमीन पर सब कुछ बहुत छोटा, खिलौनों जैसा नजर आना था और व्यू लगातार बदलता जाना था, और हाँ इस बात का खास ध्यान रखा गया था कि भूले से भी कोई इनसान नजर न आए। कुछ दिन पहले आया उसका इन्विटेशन कार्ड मेरी दराज में पड़ा था लेकिन मुझे याद नहीं रहा था।

– नहीं, आज मुमकिन नहीं है। मैंने कहा। – मुझे कहीं जाना है।

– प्लीज सर, ऐसा न कहें, मैंने गाड़ी भिजवा दी है। पहुँचने वाली होगी। उसने कहा।

– देखिए, मैं फिर कभी आ जाऊँगा। आज मैंने एक डॉक्टर से अप्वाइंटमेंट ले रखा है। मुझे थोड़ी देर में वहाँ के लिए…

– सर, ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। बस मुश्किल से आधा घंटा। प्लीज आ जाइए, खा जाइए। ज्यादा नहीं तो थोड़ा सा कुछ। आप नहीं खाएँगे तो कौन जानेगा हमारे रेस्तराँ को। हमें अपना खाना खुद खाना पड़ेगा, भूखे मरेंगे। आपके पहुँचने से पहले ही हम तैयार रहेंगे। आपके आते ही सर्व करा देंगे।

मैंने बालकनी के गीले शीशे पर एक धुंधले, काले धब्बे को धीरे धीरे आगे आते, बड़ा होते देखा। रूमाल से शीशा पोंछने पर अहाते में खड़ी, चमकती कार नजर आई। सीढ़ियाँ उतर कर मैं उसके पास पहुँचा, ड्राइवर ने सिर झुका कर मेरे लिए दरवाजा खोल दिया। जब कार वापस मुड़ कर जाने लगी तब उसके बैक व्यू मिरर में मैंने चपरासी को धीरे धीरे आते देखा, सिर पर छाता ताने, एक पालीथीन के बैग में छोलों कुल्चों समेत, उसे झूले की तरह झुलाते हुए।

रेस्तराँ दफ्तर से ज्यादा दूर नहीं था। थोड़ी ही देर में हम वहाँ पहुँच गए। ड्राइवर ने गाड़ी को पार्क किया और मुझे उस इमारत की लिफ्ट तक ले गया। मैंने भीतर जाकर चौदह नंबर के खाने को दबाया।

वह एक नया रेस्तराँ था जहाँ हवा में वार्निश और पालिश की गंध अभी तक बसी थी। वहाँ सब कुछ नया नकोर था – फानूस, कार्पेट, फर्नीचर, क्राकरी, वर्दियाँ, मीनू और नैपकिन्स और बाथरूम में नैप्थलीन की गोलियाँ। और अँधेरा, खुशबुएँ और संगीतकारों के साज। हाँ, वहाँ संगीत का, ‘लाइव संगीत’ का भी इंतजाम था। उस इलाके में तमाम विदेशी कंपनियों के दफ्तर थे जिनके चेयरमैनों, डायरेक्टरों और अफसरों के लिए उनके अपने देशों के खानों का वह एक खास, आलीशान रेस्तराँ था, करोड़ों की लागत से। हल्के अँधेरे में जिस मद्धिम संगीत के साथ उन्हें पहले वाइन के घूँटों के साथ ‘कावियार’ के कौरों को गप्प से निगलना था और फिर चर्चा करनी थी कि हे प्रभु दुनिया किधर जा रही है या मनुष्यता कितनी कुत्सित है – समझा जा सकता था कि वह हिंदुस्तानी संगीत नहीं होगा, न गजलें, न कव्वालियाँ।

साजों को देख कर मैंने अंदाजा लगाया कि विदेशी कंसल्टेंट की महँगी सलाह पर वहाँ जिस संगीत की व्यवस्था की गई थी, वह था संभवतः पश्चिमी शास्त्रीय संगीत – बीथोवेन, मोजार्ट, बाख, शूबर्ट, शोपां और अन्य तमाम। उससे अलग कुछ भी वहाँ बेमेल होगा, मैंने सोचा – जैज, जिप्सी संगीत या नीग्रो ‘ब्लूज’ तो हरगिज नहीं, जिन्हें सुनते हुए याद आने लगते हैं अपमान, पिटाइयाँ और फूट फूट कर रोने के क्षण। खास तौर पर मैनेजरों और महामहिमों के लिए वह संगीत खतरनाक है – खाया पिया बाहर आने लगता है। वहाँ एक ऊँचे स्टेज पर नई सफेद वर्दियों में चार संगीतकार थे, जिनमें से एक क्लेरिनेट लिए था, एक सेक्सोफोन, एक वायलिन और एक छोटे बड़े तीन ड्रमों का एक सेट। मैं जैसे ही हाल के भीतर दाखिल हुआ, सूट और टाई पहने जन संपर्क अधिकारी ने उन्हें इशारा किया, संगीत बजने लगा, ऊँची आवाज में एक धुन, जानते हो किस गाने की :

खाना मिलेगा
पीना मिलेगा
भैया की शादी है
सब कुछ मिलेगा

एक बहुत लंबे गलियारे में दो कतारों में लाइन से सैकड़ों खाने सजे थे, नेम प्लेटों के साथ। फ्रेंच खानों में थे : आलमंड ट्राउट, एपल पाई, चेरी सूप, लैंब स्टू, रोस्टेड डक, रिसोटो, स्टीक टार्टर और अंडे की सफेदी और कस्टर्ड सॉस से बना फ्लोटिंग आइलैंड, और न जाने क्या क्या। यूनानी खानों में : भुना हुआ आक्टोपस, कोटोपाउलो पिलाफी, फासोलेकिया फ्रेस्का, अराकास मी ऐगिनेयर्स और कितनी तरह के केक, पनीर, बेकरियाँ। आस्ट्रेलिया के खानों में : चीज केक, कार्नब्रेड विद स्वीट पोटेटो, कंगारू फिलेट्स, स्टीक और पाव्लोवा और पेस्टीज। ये केवल कुछ नाम हैं जो मुझे याद रह गए हैं। जन संपर्क अधिकारी मुझे सारे खाने दिखाते, उनके बारे में बताते हुए आगे चल रहा था और मैं उसके पीछे पीछे खानों का निरीक्षण करते हुए, जैसे राष्ट्राध्यक्ष सलामी गारद का करते हैं। अनगिनत खानों की लंबी कतारों को पार करने के बाद जब मैं जन संपर्क अधिकारी के पीछे एक विशाल डाइनिंग हॉल में दाखिल हुआ तो पाया कि मैं अकेला नहीं था। वहाँ तमाम अंग्रेजी अखबारों के भोजन समीक्षक थे, एक बड़ी गोल मेज के इर्दगिर्द, खानों के इंतजार में। मैं उनमें से कुछ को जानता था और कुछ अजनबी चेहरे थे।

हिंदी का अकेला नुमाइंदा मैं ही था। जन संपर्क अधिकारी ने यह निश्चित करने के बाद कि सब लोग आ चुके हैं, गला खँखार कर ‘प्लीज साइलेंस’ कहा। मक्खियों की अविराम भनभनाहट जैसा शोर थम गया और कुछ ने अपनी पेन्सिलें और नोटबुकें निकाल लीं। जन संपर्क अधिकारी ने एक छोटी सी स्पीच दी : जेंटिलमैन, शुक्रिया। यह एक महान, असाधारण दिन है। बरसों की मेहनत और करोड़ों के खर्चे के बाद एक सपना साकार हो रहा है, और यह तो सिर्फ शुरुआत है। अभी तो दसियों देश बाकी हैं, जापान, जर्मनी, ये, वो… हम सारी दुनिया का खाना लाएँगे, साथ साथ खाएँगे। इस मौके पर आप सब हमारे साथ हैं, हम आभारी हैं। वह कहे जा रहा था और वे सब – पेशेवर, तत्पर टुकड़खोर, खाने से पहले ही बजाने को तैयार – अपनी नोटबुकों में न जाने क्या गोदे जा रहे थे। मैं केवल उनका चेहरा देख रहा था। वे नहीं जानते थे कि खाना तो निबटने वाला था और रेस्तराँ का मालिक, पता नहीं कौन, जल्दी ही बर्बाद हो जाने वाला था, करोड़ों स्वाहा करके उसे बीवी बच्चों समेत सड़क पर आ जाना था। मुझे उस पर तरस आया कि इस खेल में तब शामिल हुआ जब खेल सिमटने वाला है। मुझे यह भी लगा कि वह दुनिया की आखिरी दावत थी, अगर आखिरी खाना नहीं तो – ‘द लास्ट सपर’ जिसे एक दूसरे से अनजान हम बाईस खाना समीक्षकों को पैगंबर की अनुपस्थिति में खाना था, बिना उनका आशीर्वाद पाए। इसी दौरान साथ के दरवाजे से लंबी, खड़ी टोपियों में तीन रौबीले, शानदार शैफ भीतर आए। वे मुस्करा रहे थे। परिचय कराया गया – ये फ्रांसुआ हैं, पेरिस से आए हैं, ये अब्रामियो, रोम से, ये अलेक्जेंडर, आस्ट्रेलिया से। उन्होंने तालियों के बीच सिर झुका कर अभिवादन किया और उसी दरवाजे से वापस चले गए। मुझे अब भूख लगने लगी थी। अब लाओ भी खाना, मैंने मन ही मन कहा।

और फिर खाने आने लगे, एक एक कर, ट्रालियों में और वेटर्स के दस्ताने मढ़े हाथों में। वे एक के बाद एक चले आ रहे थे। जब लगता था कि यह आखिरी होगा, उसके पीछे तीन या चार और चले आते थे। वे लगातार आते रहे, अंदाजा लगाओ। उन्हीं के संग जन संपर्क अधिकारी एक काफी बड़ी ट्राली के पीछे पीछे आता नजर आया, जिस पर बहुत सारी हरी बोतलें लदी थीं। उसने एक शैंपेन खोल कर, दो तीन बार हिला कर इतना ऊँचा फुव्वारा उछाला कि छत पर एक बड़ा सा गीला धब्बा नजर आने लगा। बची हुई उसने थोड़ी थोड़ी कुछ के गिलासों में डाल दी। इसी तरह उसने दूसरी बोतल के साथ किया, फिर तीसरी के। मैं आठ या दस तक धब्बे गिनता रहा था, फिर थक गया। थोड़ी देर के लिए खामोशी छा गई थी लेकिन जल्दी ही संगीतकारों ने दूसरी धुन शुरू कर दी, रात को खाओ पियो, दिन को आराम करो – और ड्रमर ने पूरी तकत से ड्रम पीटना शुरू कर दिया। पूरा रेस्तराँ एक अद्भुत ताकतवर ड्रम ध्वनि से भर गया, जिसमें चमकदार तश्तरियाँ – और उनमें हम खाना समीक्षकों की धुँधली छायाएँ – काँपने लगीं। हर एक ने हर प्लेट से लिया और भर भर के। खाना मुँह में रखा और लगभग चीख जैसी आवाज में कहा – वाह। अद्भुत, एक ने कहा। उसके करीब जो बैठा था, कह रहा था, यह तो… यह तो…। उसे शब्द नहीं सूझ रहे थे। मुझे अपने करीब सिसकियों की आवाज सुनायी दी और सिर घुमा कर देखा, मेरे साथ की सीट पर जो बैठा था, प्लेट में एक ‘तैरता हुआ द्वीप’ लिए, आनंदातिरेक से रो रहा था।

वह सच बताने का वक्त आ गया जिसे सबसे छुपाता हूँ। वह जिसे मेरे अलावा बस दो लोग जानते हैं, मेरी बीवी और डाक्टर सहाय, और अब तीसरे तुम होगे। मैंने सोचा कि यार, खाना खाना और मजे ले लेकर खाना, यह कोई गुनाह है क्या… और पार्टी खत्म होने के पहले एक बार, कम से कम एक बार जानना चाहता था, पूरी शिद्दत से, कि वे किस चीज के लिए ‘वाह’ कह रहे थे। वह क्या चीज थी, क्या था वह आखिर। मैं भी उसे अनुभव करना चाहता था। वह मौका दुबारा मिलने वाला नहीं था। वह आखिरी दावत थी और खाना खत्म होने वाला था। वह सच, जिसे सबसे छुपाता हूँ, यह है कि, लो जान लो तुम भी – मैं ‘स्वाद’ नहीं जानता, उसके सुख से वंचित हूँ। मेरे मुँह और जीभ की स्वाद का एहसास कराने वाली कोशिकाऐं मुद्दत पहले मर चुकी हैं। दुनिया के किसी भी खाद्य या पेय में मेरे लिए कोई स्वाद, कोई रस नहीं। मीठा, नमकीन, कड़वा, तीखा, खट्टा कोई भी स्वाद नहीं। मेरे सामने कुछ भी परोस दो, सब बराबर है, एक सा बेस्वाद जिसे बमुश्किल चबाता, किसी तरह निगलता हूँ। तो फिर हफ्तावार तमाम अखबारों में छपने वाली मेरी भोजन समीक्षाएँ, होटलों और रेस्तराँओं के जिक्र और दुनिया भर के खानों के रस, गंध और स्वाद का सूक्ष्म, मर्मज्ञ विश्लेषण, वे परिष्कृत और सारगर्भी लेख, जिनके हजारों पाठक हैं और लोकप्रियता बेहिसाब? यही जानना चाहता था डा. सहाय भी जब मैंने उसे अपनी ‘बीमारी’ के बारे में बताया। आज ही, उस इंटरनेशनल दावत के बाद। वह भी मेरा पाठक और प्रशंसक निकला और जैसे ही मैं उसके कमरे में घुसा, उसने मुझे पहचान लिया।

रेस्तराँ की ओर से सब लोगों को घर पहुँचाने के लिए गाड़ियों की व्यवस्था थी। मैंने ड्राइवर को तेज चलने के लिए कहा, फिर भी डा. सहाय के क्लीनिक पहुँचने में देर हो गई। खुदा के शुक्र की तरह दिन भर होती रही बरसात के कारण मरीज कम थे, मुझे ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। – मि. रतन लाल? रिसेप्शन पर बैठी लड़की ने लिस्ट पर निगाह दौड़ाई और मेरे नाम के आगे टिक कर दिया। – बस थोड़ा इंतजार। अगला नंबर आपका ही है। उसने कहा।

– क्या आप वही मि. रतनलाल हैं जो…? डा. सहाय ने कुर्सी से खड़ा होकर कहा और मेरे ‘जी हाँ’ कहने पर गर्मजोशी से हाथ मिलाया। डॉक्टर की करीने से सजी कुर्सी और मेज छोड़ कर हम उस काफी बड़े कमरे के कोने में रखे सोफे पर बैठे। उसने घंटी बजा कर अटैंडेंट को बुलाया और हिदायत दी चाय और कुछ स्नैक्स लाने की, चाय सैट में, अलग अलग, उसने खास तौर पर कहा। फिर उसने अपनी बड़ी बड़ी उत्सुक आँखों से मुझे एकटक देखते हुए कहा – आपके रिव्यूज और तस्वीर हर हफ्ते देखता हूँ, उन्हीं को पढ़ कर हम फैसला करते हैं कि अगली बार कहाँ और क्या खाना है। वाह जनाब आपकी भाषा, पसंद और जानकारियाँ। आप खानों का विश्वकोश हैं, आपके तमाम मुरीदों में एक मैं भी हूँ। जैसे यीशु मसीह मानव जाति के लिए मरे थे, आप खाते हैं। वह मजाक कर रहा था या तंज, यह उसके चेहरे से जानना मुश्किल था, लेकिन जो भी था मुझे काफी घटिया जान पड़ा। – इतनी इतनी जगहों पर इतना सारा खाना, फिर उसके बारे में बताना, यह कोई मजाक नहीं। आपकी तस्वीर देखता हूँ, इसलिए आपको फौरन पहचान लिया। यह मेरी खुशकिस्मती है कि आपके किसी काम आ रहा हूँ। बताइए, क्या बीमारी है?

मैं यकायक कुछ न बोल सका।

– बताइए न, कहाँ क्या तकलीफ है? यकृत? गुर्दा? खाद्यनली? आपका काम इतना मुश्किल है कि… मैं समझता हूँ खाने की यातना। लेकिन हम किस मर्ज की दवा हैं? आप निस्संकोच…

मैंने एक धीमी आवाज में, झुकी हुई निगाहों के साथ, उसे अपनी बीमारी के बारे में बताया। उसकी चाय छलक गई।

– मैं समझा नहीं। कृपया एक बार दुबारा बताइए, पूरी तफसील से। उसने कहा।

– इसमें तफसील क्या, डॉक्टर… मेरी आवाज में निराशा थी और एक अथक अंसतोष। – मुझे स्वाद नहीं आता। पिछले तकरीबन पंद्रह सालों से… किसी भी खाने, किसी भी चीज में।

डाक्टर अपनी कुर्सी से उठा और किसी कोने में एक स्विच दबा दिया। कमरे का वह कोना तेज, पीले प्रकाश से नहा गया।

– क्या आप वही रतन लाल नहीं जो फेमस फूड रिव्यूअर हैं। जिनके लेख छपा करते हैं। और आपका कहना है कि आपको किसी भी खाने में…

– जी हाँ, मैंने इतना ही कहा। मेरी निगाहें फर्श पर टिकी रहीं।

– तो फिर वे सारे लेख? खानों की समीक्षाएँ, उनका वर्गीकरण, रेटिंग?

कमरे में बहुत देर के लिए खामोशी छा गई। उस खामोशी में बरसात की आवाज को साफ सुना जा सकता था और दीवार घड़ी की टिक टिक को भी। वह इतनी देर टिकी रही कि मुझे डॉक्टर की दबी, अनियमित साँसों की आवाज भी सुनाई देने लगी। वह अधीर था, बेचैन।

– वे लेख और समीक्षाएँ? मैंने कहा – वह तो नौकरी है, डाक्टर, परिवार चलाने के लिए खाता हूँ। और उनके बारे में लिखना, वह अंदाज और अभ्यास का मामला है। एक बार लहजा और तलफ्फुज सध जाए तो…

– बस इतना ही? उसने एक धीमी आवाज में कहा, माथे पर सलवटें लिए।

– यह बीमारी जन्मजात नहीं है। पंद्रह साल पहले तक मुझे भी स्वाद आता था, मजे लेकर खाता था। उन स्वादों की एक धुँधली, मिटती हुई मेमोरी मेरे मन में है। मैं स्वाद का अंदाज लगा सकता हूँ। इसके अलावा जो खाना एक बड़ी-सी भूमिका और शोरशराबे के साथ परोसा जाए, जाहिर है उसमें रसोइये ने अपनी सारी काबिलियत झोंक दी होगी। इस तरह कुछ स्मृति, कुछ इशारे और अंदाजे, रसोइयों की बातें, बाकी अभ्यास… बेहतरीन, स्वर्गिक, दिव्य और अद्वितीय जैसे पंद्रह बीस शब्द। मेरा काम चल जाता है।

– लेकिन यह… पाठकों के साथ… धोखा… उसने मायूस, डूबती हुई आवाज में कहा। वह उस समय टार्च से मेरे मुँह का मुआयना कर रहा था। मैंने उसे परे धकेल दिया और उठ कर खड़ा हो गया।

– धोखा? मैंने तेज और तीखी आवाज में कहा – क्या आप यह कहना चाहते हैं कि मैं एक…। लेकिन ऐसा कहाँ लिखा है कि खाने की समीक्षा करने के लिए उसका स्वाद लेना जरूरी है। मैं जल्दी से कुछ उदाहरण सोचने के लिए एक क्षण ठहरा रहा फिर जो मन में आया बोलता गया – लोग एक दूसरे से तपाक से मिलते हैं, लिपट जाते हैं, बिना कोई खुशी महसूस किए। मिसेज मोंगिया हमारे यहाँ सीनियर रिपोर्टर थीं, अब रिटायर हो गईं, वे यहीं बैठे बैठे दुनिया भर के फिल्म समारोहों की रपटें लिख देती थीं। कवियों और लेखकों का लीजिए। किसी समय वे अपने रक्त और प्राणों से लिखते थे। लेकिन अब कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास और नाटक, वे भी जिनमें सिर्फ तकलीफों का जिक्र होता है, बिना कोई तकलीफ महसूस किए लिखे जा सकते हैं। अब यह तकलीफ का नहीं, तकनीक का मामला है। किताबों के समीक्षक भी कमाल हैं, वे ब्लर्ब पढ़ कर या किताबों को आगे पीछे से पलट कर समीक्षाएँ लिख देते हैं। मैं अगर मीनू पढ़ कर खानों की समीक्षाएँ लिखता हूँ तो…। जैसा यह वक्त है वैसा ही मैं हूँ। यह performance का वक्त है और मैं इस वक्त का एक छोटा, अदना सा performer हूँ।

डाक्टर खामोश रहा, कुछ सोचता हुआ। उसकी आँखों की चमक बुझ चुकी थी और आवाज भी, जैसे उसने अभी अपने जीवन का सबसे बड़ा धोखा खाया हो। फिर उसने एक टूटी थकी और रूखी आवाज में, जैसे सारी इच्छा शक्ति बटोर कर, किसी तरह रुक रुक कर कहा – देखिए यह कोई बीमारी नहीं। मेडिकल की किताबों में ऐसी किसी बीमारी का जिक्र नहीं आता। आप शायद न जानते हों, उम्र बढ़ने के साथ बाकी सारे अंग बीमार और खराब होते जाते हैं, लेकिन जीभ… वह अंत तक साथ देती है। अस्सी नब्बे या सौ साल के बूढ़े, मरने के पाँच मिनट पहले सारी बची खुची ताकत बटोर कर अपने बेआवाज होंठों से आखिरी लालसा बताते हैं, रसगुल्ला खाना है या संतरा, और जब तक वह नहीं आता, दरवाजे को ताकते रहते हैं। इसलिए इस बीमारी का मेरे पास कोई इलाज नहीं। संभव है कि इसका संबंध मनोविज्ञान से है। किसी मनोवैज्ञानिक की मदद लेने पर शायद…। वे मरीज को उस खास क्षण में वापस ले जाते हैं, जब बीमारी पैदा हुई थी, और इस तरह…।

घर वापस लौट आया हूँ। यह देर रात का एक सुनसान लम्हा है। हमारे छोटे से परिवार में सबने – मैं, दमयंती और मेरी बेटी संगीता जो कुछ दिनों के लिए अपने चाचा के घर फरीदाबाद गई है – आज का खाना खा लिया है, कल का कल देखा जाएगा। बरसात रुक चुकी है और थोड़ी देर पहले तक खिड़कियों को धक्का लगाती हवाएँ भी। आँधियों से भरे एक गुर्राते हुए दिन के बाद पेड़ों पर एक एक पत्ता स्तब्ध है और चिड़ियों, चींटियों, चमगादड़ों, मक्खियों और मकड़ियों समेत सब नींद की गोद में जा चुके हैं। बिजली अभी तक नहीं है मगर उसकी जरूरत नहीं – और एक रहस्यमय तरीके से मोमबत्तियाँ भी बुझ गईं। डा. सहाय के दिए इशारे के मुताबिक यह याद करने की कोशिश में कि आखिरी खाना, जिसमें स्वाद आया था, कब और कहाँ खाया था – सामने की दीवार पर एक सिनेमा चलने लगा है।

वही तो होता है असली सिनेमा जिसमें विस्मरण का दुबारा प्रदर्शन होता है, भूली चीजें, खो गई आवाजें और दिवंगतों और गुमशुदाओं के चेहरे दुबारा दीख और सुन पड़ते हैं। वह नहीं जिसे तुम टिकट लेकर देखते हो। मैं तो प्रोजेक्टर की घर्र घर्र भी सुन सकता हूँ। उस सिनेमा के बारे में तुम्हें बताना है क्योंकि तुम्हारे ही संग खाया था वह दुनिया का बिना शक सबसे स्वादिष्ट खाना। दीवार पर जो दृश्य है वह कोई तहखाना, बंकर या भूमिगत दीर्घा, बमबारी में घायल लोगों का वार्ड… लगता है कोई युद्ध चल रहा है, यह कोई वार मूवी… नहीं, यह दिल्ली के एक उपनगरीय रेलवे स्टेशन का रोजमर्रा का आम दृश्य है। यहाँ मैले कुचैले कपड़ों में असबाब सहित लोगों की भीड़ है। हवा में उनकी साँसें, आहें और चीखें हैं। उनमें आदमी, औरतें, बच्चे, बुढ़ियाएँ, शराबी, घायल और अपाहिज हैं। तुमने अचानक फैसला कर लिया है, इसलिए रिजर्वेशन कराने का वक्त नहीं मिला। तुम नौकरी छोड़ कर हमेशा के लिए अपने घर वापस जा रहे हो। पंद्रह बरस पहले की जाड़ों की उस सर्द रात में मैं दिल्ली से बाहर और काफी दूर तुम्हें छोड़ने आया हूँ। मैं तुम्हें रास्ते भर समझाता रहा हूँ कि अपने फैसले पर दुबारा सोचो, और यही बहस प्लेटफार्म पर भी चलती रही है।

– तो तुम्हारा यह आखिरी फैसला है? मैं कहता हूँ।

– हाँ, मैंने तय कर लिया है।

– उन जगहों से लोग यहाँ आते हैं काम और भविष्य तलाशने। तुम वहाँ वापस जाना चाहते हो बिना जाने कि वहाँ क्या करना है। रोजगार या रोटी के ठिकाने के बिना…

– इसीलिए तो जाना चाहता हूँ। वहाँ एक अखबार, वहीं की बोली में, निकालने की कोशिश करूँगा। सब ठीक हो जाएगा यार, चिंता मत करना।

ट्रेन लेट होती जा रही है। प्लेटफार्म ठसाठस भरा है, हर तरफ गहमागहमी और शोरगुल है। बुकिंग विंडो के सामने लंबी लाइन है जिसे नियंत्रिात करने के लिए सिपाहियों ने दो चार को तमाचे रसीद कर दिए है। यह महीने का आखिरी हफ्ता है, लेकिन हमारा खाने का दिन है और भूख जोरों से लगने लगी है। हम दुनिया का सबसे स्वादिष्ट खाना खा रहे हैं जो केवल गरीबों और कवियों आदि को नसीब है – स्टेशन के ठेले पर मिलने वाली पूड़ी और आलू की तरीदार सब्जी। उसमें आँसुओं का खारा स्वाद आता है – प्लेटफार्म पर, अनगिनत बिछुड़नों और अनायास मुलाकातों के दौरान, गाड़ियों के छूटने के पहले और बाद जो बेशुमार बहाए जाते हैं। मिर्चें झोंक कर डाली हैं, फिर भी खाते ही जाओ, यही इच्छा होती है। गले से पेट तक अंगारा लुढ़कता जाता है तब मजा और आँसू एक साथ आते हैं। कोई कहे कि इससे ज्यादा स्वाद कोई खाना संभव है तो मैं उसे हिकारत से देखूँगा और सर्वदा के लिए संबंध तोड़ते हुए मुँह मोड़ लूँगा, बिना परवाह किए कि इसके लिए मुझे कोई अलोकतांत्रिक कहेगा या…।

– यहाँ दिल्ली में इतना इतना खाना छोड़ कर तुम वापस वहाँ… मैं खाते खाते एक बेउम्मीद आवाज में कहता हूँ। मुझे मालूम है कि अब तुम्हें किसी भी तरह रोक पाना मुमकिन नहीं।

– हाँ, लेकिन वहाँ अपने घर में हम लोग इकट्ठे, मिलजुल कर खाते हैं। यहाँ रहूँगा तो मैं भी अकेले खाने का आदी हो जाऊँगा।

आधी रात के बाद धुंध और धुंधलके को चीरती हुई ट्रेन अचानक आती है। फर्श पर गठरी की तरह सोए लोग हड़बड़ी में उठते हैं और अपने बक्सों, पीपों, थैलों और गठरियों समेत ट्रेन के संग भागने लगते हैं। औरतों, बच्चों, बुढ़ियाओं, घायलों, शराबियों, और अपाहिजों के आधी रात को चीखते चिल्लाते एक साथ भागने का वह दृश्य… मैं देखता हूँ एक झक सफेद बालों वाली बुढ़िया जबड़ों को भींच कर अपने गिलट के कंगनों को खन खन बजाती हुई भाग रही है, एक अपाहिज की बैसाखी फर्श पर खट खट बज रही है – और वह बैसाखी समेत गिर पड़ा। किसी कोने में छुप कर शर्म से हथेलियों में मुँह छिपा लेने की इच्छा को दबा कर हमें भी सामान समेत उनके संग भागना है। ट्रेन पकड़नी है। ठसाठस भरी ट्रेन का हत्था पकड़ कर, भीड़ को धकेलते हुए तुम किसी तरह भीतर घुसते हो और मैं तुम्हें सामान पकड़ाता हूँ। हम कुछ देर, बिना कुछ कहे, हाँफते खड़े रहते हैं। डिब्बे में रोटी, प्याज, हरी मिर्च, आलू की सब्जी, गुड़, सत्तू, लैया, अचार, मठरियों और शक्करपारों की साँसें घुली मिली हैं। अपनी साँसें उनमें मिलाते हुए तुम डिब्बे में गुम हो जाते हो, बिना मुड़ कर पीछे देखे। कुछ ही पलों के बाद प्लेटफार्म खाली है। आधी रात के सन्नाटे में मैं प्लेटफार्म की कहीं दूर से आती तांबई रंग की रोशनी में आँतों की मरोड़ और घोंपते दर्द के साथ अकेला खड़ा हूँ। फिल्म यहाँ खत्म। यह दृश्य फ्रीज होगा और पर्दे के नीचे से ऊपर एक धीमी रफ्तार में उठते क्रेडिट्स आएँगे।

मगर फिल्म चलती जाती है। यह कुछ मिनटों का एक बेआवाज, अनावश्यक टुकड़ा है जिसे एडिटर काटना भूल गया। इस हिस्से में एक अशुभ मौन है, एक बियावान जैसी भयानक खामोशी। बस प्रोजेक्टर की कराह जैसी आवाज है जिसके पहिए एक पगलाई रफ्तार में घूम रहे हैं। मैं प्लेटफार्म के पुल से होता हुआ धीरे धीरे बाहर की ओर बढ़ रहा हूँ, यह चिंता करता हुआ कि इतनी रात को सीलमपुर अपने कमरे तक कैसे जाऊँगा। अँधेरे में कोई धुँधली आकृति है जिसने एक गठरी सी थाम रखी थी, उसे एक बेंच पर रख दिया है। मैं सीढ़ियाँ उतरने के बाद एक टूटी हुई रेलिंग को पार कर यार्ड में पटरियों के बीच चल रहा हूँ। फटे कपड़ों और उलझे बालों में वह बाजारू, बदचलन या परित्यक्ता, पता नहीं कौन, रफ्तार बढ़ा कर बहुत करीब आ गई है। वह मुझसे चिपकी जाती है, मेरा हाथ पकड़ कर अपने चेहरे और बदन पर फिराती है। उसके अचानक आने से चौंक कर और कुछ डर कर धक्का देता हूँ तो वह ऊँची आवाज में रो पड़ती है और पैरों में गिर कर कहती है – कछू कर लौ हमरे साथ, जो चाहो कर लौ, बच्चा भूका है, वाको खाना दै दो।

आगे के हिस्से में काटापीटी कुछ ज्यादा ही थी। रतनलाल ने पहले दो तीन लाइनों में कुछ लिखा और उसे काट दिया, फिर एक पूरा पैराग्राफ लिख कर काट दिया, हर लाइन पर पेन को गहरे और बार बार चलाते हुए कि कुछ भी न पढ़ा जा सके। यहाँ तक कि पन्ना फट गया था। अंत में उसने लिखा, अच्छा ठीक हो न, और अच्छी तरह खाते हो न।

रतनलाल ने अगला पूरा दिन अपने गुमशुदा दोस्त माधव मुरमू का पता खोजने में लगाया। इसके लिए उसने अपने अखबार के मानव संसाधन और लेखा प्रभाग में दोस्तों की मदद ली और उनके साथ खुद भी वहाँ के कंप्यूटर्स और पुराने रिकार्ड खंगालने में जुटा रहा। बीच में एक फोन आया था, न्यौता एक नए होटल में खाने का, जिसे उसने झिड़क कर फोन काट दिया था और बड़बड़ाता रहा था, खाना खाना खाना, चले आते हैं। एक चपरासी को बख्शीश देकर उसने तहखाने के गोदाम से वहाँ कबाड़ में बंडल बाँध कर यूँ ही डाल दी गई पंद्रह साल पुरानी फाइलें निकलवाईं जिन पर धूल और जाले थे। उन्हीं में से एक में उसे उसका अधूरा, संदिग्ध सा पता मिल गया। चिट्ठी भेजने के बाद वह उसे और अपने दोस्त दोनों को भूल कर फिर से फीके बेस्वाद खानों और उनकी समीक्षाओं में रम गया। उसने वह चिट्ठी बस यूँ ही भेज दी थी, बिना जवाब की उम्मीद के। यह वैसे ही था जैसे कोई खाईं में एक फूल फेंकता है, बिना प्रतिध्वनि सुन पाने की आशा के। लेकिन जो कहे कि खाईं में से फूल की प्रतिध्वनि नहीं आती, उसकी जानकारी इस संसार की रचना – उसके तत्वों, सतहों, अंदरूनी और बाहरी परतों, विभाजनों और संघटन – के बारे में नितांत अधूरी है। वह हमेशा आती है, हर बार, अगर सुन सको। कुछ महीनों के बाद उस चिट्ठी का जो जवाब आया (पूरा नहीं, केवल कुछ खास और जरूरी हिस्से) वह इस तरह था।

कमीज की ऊपरी जेब में तुम्हारी मुड़ी तुड़ी चिट्ठी कई महीनों से मेरे संग संग चलती रही है। जब मौका मिलता है कुछ लाइनें पढ़ लेता हूँ। इसे अब तक कई बार पढ़ चुका हूँ लेकिन एक साथ, एक बैठक में नहीं। इतनी फुर्सत मिल पाना नामुमकिन है। सुबह जल्दी घर से निकलना होता है और थकान से चूर होकर देर रात वापस आता हूँ। हम लोगों का ‘निगरानी’ नाम का एक स्वैच्छिक संगठन है जो यहाँ की बोली में एक अखबार निकालता है और एक स्कूल चलाता है। इसके अलावा हम इलाके के संसाधनों और यहाँ के लोगों की जीवन स्थितियों के बारे में शोधपरक रपटें प्रकाशित करते हैं। निगरानी रखनी होती है कि हर घर में कितना आटा, कितना अनाज है। हमारे कनस्तर खाली होने वाले हैं। कँटीली तारें बढ़ती जा रही हैं जिनके पीछे वे बड़ी बड़ी धुआँ उगलती फैक्टरियाँ लगाएँगे, कहते हैं कि यहाँ की मिट्टी और चट्टानों में खजाने दबे पड़े हैं। वे चाहते हैं कि हम यहाँ से गायब हो जाएँ, दिल्ली के यमुना पुश्ते की उस बस्ती की तरह, लेकिन इस बार हम नहीं जाने वाले। लड़ाई तेज होती जा रही है। हमारे संगठन का एक काम यह देखना है कि जुलूसों और प्रदर्शनों में जो घायल और गिरफ्तार होते हैं, उनके घरों में बाकी लोगों के लिए जीने लायक आटा बचा रहे। इसलिए कि जहाँ आटा खत्म होता है, वहीं आशा। मेरे लिए तुम्हारी यह चिट्ठी पढ़ना आसान नहीं था और उसके सारे मतलबों को समझ पाना और भी मुश्किल। मैं अब इस जुबान का आदी नहीं रहा। उन दिनों जब दिल्ली में अखबार में काम करता था, इसी भाषा में रपटें लिखता था, लेकिन अब जिन लोगों के बीच रहता हूँ, उनके संपर्क में मेरी भाषा बिल्कुल बदल चुकी है – अल्फाज, मात्राएँ, वाक्य रचना, विराम चिह्न, सब कुछ। तुम भी लोगों के संग और बीच रहते आते तो यह पत्र इस तरह न लिखा होता। तब सब कुछ जुदा होता – तरीका, लहजा और बातें। फिर भी तुम्हारे पत्र के मायने, जिस तरह और जैसे भी हो सका, समझ कर जवाब तुम्हारी ही भाषा में देने की कोशिश कर रहा हूँ।

पत्र नहीं, यह एक कहानी है जिसे पत्र की तरह लिखा गया है। मगर पारंपरिक तरीके की सीधी सादी कहानी नहीं, हिंदी की आधुनिक कहानियों जैसी जटिल और दुर्बोध जो कुछ ज्यादा धीरज और एकाग्रता चाहती हैं। वह कथा और निबंध – या ‘विमर्श’, जैसा इन दिनों कहने का चलन है – एक साथ होने की कोशिश करती है और इस कोशिश में उसमें कथा तत्व झीना हो जाता है। मगर वह उन्हें संबोधित नहीं जिन्हें कहानी में महज किस्से या मजे की कामना होती है। वह चाहती है कि उसे मजे के लिए नहीं, बल्कि पूरी गंभीरता से पढ़ा जाए, उसका एक एक लफ्ज। इस वक्त की कहानी पर यह एक अज्ञानी और फिजूल इल्जाम होगा कि वह पूर्वज और अग्रज लेखकों की कहानियों की तरह नहीं है। इसका जवाब देने की जरूरत नहीं, इसलिए कि उन पूर्वजों ने अपने पूर्वजों की तरह नहीं लिखा था और अपने वक्त में ऐसे इल्जामों को अनसुना किया था। ध्यान आता है कि उन्हीं पूर्वजों में से एक, हिंदी के एक जनकवि ने यह विदग्ध वाक्य लिखा था कि बुजुर्गों को छाती पर नहीं, आरामकुर्सी पर बिठाना चाहिए। इसलिए मेरी शिकायत यह नहीं कि तुम्हारी यह चिट्ठी हिंदी की आधुनिक कहानियों जैसी क्यों है। मेरी आपत्तियाँ दूसरी हैं।

इसमें अनावश्यक रूप से कवित्वपूर्ण वाक्य हैं – ‘रीतती रात की तन्हाई’, ‘एक एक पत्ता स्तब्ध है’ और न जाने क्या क्या। एक जगह तुम विलुप्त होने वाले खानों का जिक्र करते हो, सब ‘क’ से शुरू होने वाले नाम। इतने सारे ककार खाने जिनमें बस कद्दू की कसर रह गई। उसे लिख कर तुम्हें लगा होगा कि वह एक आकर्षक वाक्य है, मगर वह नकली और दिखावटी है, कम से कम साहित्य के संजीदा पाठकों के लिए। भला ऐसे भी कोई बोलता है। फिर मुझे यह भी एतराज है कि मेरे वाक्यों में तुमने अपने शब्द रख दिए हैं। यमुना पुश्ते पर, पुल के नीचे, नदी के किनारे चलते हुए मेरी और तुम्हारी बातें… जैसे किसी नाटक के संवाद। मैंने उनमें से एक भी बात नहीं कही थी। मैं उस तरह बोलना जानता ही नहीं। वे अल्फाज तुम्हारे हैं, मेरे नहीं। तुम तो सोडोमी की हिंदी भी नहीं लिख सके।

मगर मुझे सबसे अधिक एतराज है उस घटना पर, जिसका जिक्र पत्र के अंत में है। मेरी गाड़ी के रवाना होने के बाद… प्लेटफार्म, सीढ़ियाँ, यार्ड, आधी रात का अँधेरा, वह औरत। यह साफ है कि वह घटना झूठ है। जिस देश में रहते हो, वहाँ ऐसी घटनाएँ क्या आधी रात का इंतजार करती हैं? वे दिन की तेज रोशनी में होती हैं, सरेआम। उस रात ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। जैसे बिना स्वाद पाए खानों की समीक्षाएँ लिखते हो, वैसे ही तुमने वह घटना लिखी है, जो दरअसल कभी नहीं हुई। इस तरह के प्रसंग पुराने जमाने की भावुक और द्रावक कहानियों में आते थे जिनकी कलई कब की खुल चुकी है। वह द्रवणशीलता दफनाई जा चुकी है। अब कोई संपादक ऐसी किसी कहानी को शायद ही स्वीकार करे। इस वक्त की सच्चाइयाँ जटिल और कड़वी हैं, जिन्हें जी कड़ा करके सुनाना होता है।

हमारे इस वक्त में अफसाने के दौरान कहीं रचनाकार बिलखा कि अफसाना बिखरा। उस प्रसंग को गढ़ने और लिखने के पीछे तुम्हारे क्या इरादे थे, यह समझ पाना आसान न था, लेकिन उसे पकड़ने के सूत्र और इशारे तुम्हारी चिट्ठी में ही मौजूद हैं। अदने से नहीं, तुम एक बहुत बड़े performer हो, कोई भी चकमा खा जाए। दरअसल, वह तुम्हारा एक और performance है, एक शातिर चाल। उसमें यह अहंकार और आत्मप्रदर्शन है कि तुम कितने सेंसिटिव और न्यायशील हो। बर्बाद हो चुके लोगों और वंचितों और उनके लिए, जिनके पास खाना नहीं, तुम्हारा दिल अभी भी कलपता है। आधी रात को उस मदर इंडिया से मिलने के बाद तुम्हारे लिए खानों के स्वाद गुम हो गए, तुमने यही कहना चाहा है न। लेकिन बात तो कुछ और ही है। ऐसा वर्गांतरण के दौरान होता है। बीच के वक्फे में पुराने वर्ग की याद पूरी तरह उस वर्ग का नहीं होने देती जिसे अपनाने जा रहे हो। तुम्हारे मामले में यह वक्फा कुछ ज्यादा लंबा हो गया है, बस इतनी सी बात है। अपनी गरीबी की याद और हम जैसों का ख्याल तुम्हारे जेहन (या हलक) में अभी तक अटका है और वही खानों का स्वाद नहीं लेने देता।

लाइनों के बीच में और काटापीटियों के नीचे पढ़ने पर पता चलता है कि यह चिट्ठी नहीं, एक अर्जी है। तुमने जैसे हमसे इजाजत माँगी है उन खानों को चखने और खाने की, पूरा स्वाद लेते हुए। तो ले लो न, किसने रोका है। हर निवाला राजनीतिक होता है और वह जूठन भी जो तुम थाली में छोड़ देते हो। यह हर व्यक्ति को खुद तय करना होता है कि वह क्या खाएगा और कितना। फिर भी तुम्हें हमसे इजाजत चाहिए तो दी इजाजत, जाओ, खाओ। यह ख्याल ख्वाब में भी न लाना कि हम तुम्हारे खानों से जलते हैं। हरगिज नहीं। तुम्हें वे सारे खाने मुबारक। यह स्वाभाविक है कि जिस तरह हमारा बाकी सब कुछ जुदा है, वैसे ही हमारे खाने भी…। हमारी जुबानों और हमारे भगवानों की तरह। तुम्हारे ज्योतिर्मय, परम प्रतापी, सर्वशक्तिमान ईश्वर के सामने हमारे घरों के कोनों में रहने वाले बेनाम या बेढंगे नामों वाले देवता कितने निरीह नजर आते हैं – हमारी ही तरह परेशान, अपनी सूनी और एनीमियाग्रस्त आँखों से दुनिया को तकते हुए। हमारे भुख्खड़ भगवान, हमेशा के भूखे। लेकिन तुमने उन्हें कहाँ देखा होगा। तो फिर कोई और उदाहरण… जैसे हमारे मार्क्सवाद। उनमें भी कितना फर्क है जितना सिद्धांत और व्यवहार में होता है… या याद रखने, भुला देने में।

दुनिया में खाना खत्म हो रहा है इसकी चिंता तुम्हें होनी चाहिए, अपने खानों के लिए। हमारी चिंता मत करना। हमारे पास खाने की कोई कमी नहीं। हम तो छिलकों, छालों, डंठलों यहाँ तक कि काँटों और कैक्टसों में से भी कुछ न कुछ पा लेते हैं जो तुम्हारे बस का नहीं। क्या खाने की लड़ाई बिना खाए लड़ी जा सकती है? इतना खाना है हमारे पास कि एक लंबी लड़ाई लड़ सकें। मैं भी यार अब बिना नागा खाता हूँ, पूरी खुराक – और मेरे बदन पर पुराने कपड़े कसने लगे हैं।

माधव मुरमू की यह चिट्ठी रतनलाल को दोपहर के समय दफ्तर में जिस दिन मिली, उस दिन शाम को उसका पेट गड़बड़ था इसलिए घर पहुँच कर उसने दमयंती से वह खाना बनाने की फरमाईश की जो स्टेशन पर मिलने वाली पूड़ी और आलू की तरीदार सब्जी के बाद दूसरा दिव्य खाना है यानी खिचड़ी जिसमें ज्यादा नहीं, जरा सा शुद्ध घी डाला गया हो, पापड़, अचार और हरी मिर्च के साथ। डाइनिंग टेबल पर जग से गिलासों में पानी भरते हुए उसकी बेटी ने ऊँची आवाज में कहा – पापा, खाना लग गया। टेबल का कोना कोना भरा था। उस रात फरीदाबाद से उसके छोटे भाई का परिवार खाने पर आमंत्रित था, इसलिए वहाँ तमाम चीजें थीं – दाल सब्जी रायता रोटियाँ पुलाव पापड़ अचार और चटनी और मीठी सेवंइयाँ, लेकिन उसके लिए सिर्फ अजवायन डाल कर बनाई गई खिचड़ी थी और थोड़ी सी दही। भाप उड़ाती थाली को कुछ देर ठंडा होने देने के बाद उसने मचलते हाथों से एक चम्मच भरपूर भर कर एक असंयमित तरीके से मुँह में डाला – स्वाद का एक सोता फूट पड़ने की उम्मीद के साथ। लेकिन नहीं हुआ। यह भी वैसा ही फीका और बेस्वाद था जैसे बाकी सारे खाने। उसे नजदीक या सुदूर भविष्य के उस न्यायाधिकरण का ख्याल आ गया था जिसमें सीने की ओर उँगली उठा कर यह पूछा जाने पर ‘और इसकी खता?’, कहा जाएगा – यह खाता था। उस वक्त जब बेशुमार भूखे थे। चुपके और अकेले।

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