खबरें | अशोक मिश्र
खबरें | अशोक मिश्र

खबरें | अशोक मिश्र – Khabaren

खबरें | अशोक मिश्र

वह एक खबर थी, जिसे दलित टोला का मंगल सौर ऊर्जा संयंत्र की दूधिया रोशनी में अपनों को पढ़कर सुना रहा था… लोगों के सारे हवास कानों में सिमट आए थे। क्‍या धनई और क्‍या नोखई, सबके सब उस खबर के एक-एक शब्‍द को उसकी पूरी मिठास के साथ गटक रहे थे, हालाँकि पूरी बात किसी की समझ में नहीं आ नहीं थी।

तभी तो जब मंगल अखबार समेटकर सीमेंट की बेंच पर आराम से बैठने लगा तो सुझई ने तपाक से पूछा – ‘कौन-सी योजना बताए अभी! ससुर हमें तो तुरंतै भूलाय जाता है।’

‘आई.आर.डी. काका!’ – मंगलवा आलथी-पालथी मार के बेंच पर बैठ गया था – ‘मुख्‍यमंत्री की योजना है कोई मजाक नहीं!’

‘आधा लोनवा माफ भी हो जाएगा।’

सारे लोग अजीब-सी उमंग से भर उठे। उनके धूल-मिट्टी से सने, आधे-अधूरे फटे-पुराने कपड़ों से ढके शरीर में जो आत्‍मा थी, वह एक टुकड़ा खुशी की खुराक पाकर झूम उठी थी। मन में ख्‍वाबों में महल अस्‍पष्‍ट-सी शक्‍ल अख्तियार कर रहे थे। धनई ने भगेड़ा मींजकर चिलम तैयार कर लिया था। सब बारी-बारी से दम लगाने लगे थे। चिलम के हर दम के साथ उनकी दुनिया कुछ और हसीन हो जाती। तीसरी चिलम करीब-करीब ‘चाँदी’ होने वाली थी कि नोखई ने अपने बगल वाले से पूछा – ‘का रे नोहरा! लोनवा बँटेगा कब से रे।’

अचकचाकर सवाल मंगलवा के मत्‍थे पर दे मारा – ‘हाँ भइया, र्इ तौ बताए ही नाही।’ ‘काका, ई रही योजना की खबर! आडर भी जल्‍दीए आ जाएगा, तबै मालूम होगा कि इसके लिए का-का करना पड़ेगा।’ – इतना कहकर वह अपने टोले की तरफ चला गया। एक-एक कर सब उठने लगे। कुछ लोग दिशा-मैदान करते सागर की तरफ अँधेरे में निकल गए और बाकी बोलते-बतियाते पसियान टोले की तरफ…!

अगले दिन से टोला के लोगों में एक बदलाव आ गया था। अपने काम-धंधे में उन्‍हें रस मिल रहा था। बीवी-बच्‍चे, गाय, बकरी, सुअर सब पर उनके मन में दबा-छिपा प्‍यार उमड़ पड़ रहा था। पिछले करीब साल भर से टोला वाले सरकार से खफा थे। वह इसलिए कि साल भर पहले एक खबर आई थी कि पसियाने के पूरब जो सागर के पास जमीन पड़ी हैं, वहीं बच्‍चों का पार्क बनेगा। झूला, चरखी, सी-सा और पता नहीं क्‍या-क्‍या लगेगा? सबसे बड़ी बात कि यह सब उनके टोले के बच्‍चों के लिए होगा। टोले के बूढ़े-जवान सब अपने टोले के बच्‍चों के भाग्‍य पर नाच उठे थे।

पार्क का काम भी जल्‍दी ही शुरू हो गया था। सबसे पहले चार सोलर संयंत्र खड़े हुए। चहारदीवारी बनी। दर्जन भर सीमेंट और कंक्रीट की बेंच पड़ गई। ठेकेदार थे रूपनारायण चौबे के दामाद! ‘टोलेवालों ने गाँव का दामाद जान, कुछ श्रमदान के नाम पर बेगार भी कर दिया था। इतना काम करके ठेकेदार चला गया था। फिर तीन-चार महीने बाद एक रोज मंगलवा ने ही बताया था – ‘पार्क का जो बनना था, बन गया। अब क्‍या बाकी रहा? ठेकेदार का पेमेंट भी हो गया।’

लोग कुड़मुड़ाए। राह बाट में मंगलवा उकसाया जाने लगा – भइया चार अक्षर पढ़े-लिखे हो। कुछ तो करो। उसने डी.एम. के यहाँ अर्जी दी। बिरादरी के नेताओं तक दौड़ा धूपा पर कोई सुनवाई नहीं हुई। चौबे का मुख्‍यमंत्री से कुछ नतलगा था। फिर उनके दामाद के खिलाफ कार्यवाही होती भी कैसे? पासी टोले के लोग समझ ही नहीं पा रहे थे कि सरकार ससुरी अंधी है कि पागल! अगर आँख और दिमाग होता ही तो बिना पूरा बने ही पार्क का पैसा कैसे चला जाता ठेकेदार की जेब में? ठीक है, चला लें अंधेरगर्दी जब तक हैं। इस बार आएँ तो सरकार वाले वोट माँगने। ऐसी की तैसी कर देनी है ससुरी की! मगर इस नई खबर से उनका गुस्‍सा काफूर हो गया था। उनमे एक भरोसा पनप आया था – ‘सरकार हम फटेहालों की तरफ नजर रखती है। हमें खुशहाल बनाना चाहती है। वरना सरकार को क्‍या पड़ी थी कि बिना गिरावट के इत्‍ती बड़ी रकम… गड़बड़ तो ससुरे बीच वाले करते हैं।

उस शाम मंगलवा के अखबार में दो खबरें थीं। पहली यह कि आई.आर.डी. यानी एकीकृत ग्राम विकास योजना के शीघ्र कार्यान्‍वयन का आदेश हो चुका है। मंगलवा के बताए अनुसार टोले के इस छोर से उस किनारे तक गूँज गई थी कि इस योजना से लाभ लेने के लिए पहले ग्राम सेवक को साधना होगा। दूसरी खबर चुनाव से संबंधित थी। ग्राम सभा के लंबित चुनाव की अधिसूचना जारी हो गई थी। पहले तो दलित टोले वाले चुनाव वाली खबर पर कोई ध्‍यान ही नहीं दिए। धनई, सुनई, नोखई, रामसुख, बूधन, सुमरे, नोहर, जस्‍सू सब धोवाया कुर्ता डाटे और सिर पर अँगौछा रखे ग्राम सेवक के घर का चक्‍कर लगाने लगे।

ग्राम सेवक राम सेवक सिंह बहुत कम बोजते थे – संभवतः मुँह में रहने वाले दोहरे पान की वजह से। उन्‍होनें साफ-साफ कह दिया – ‘हरेक फाइल बैंक तक पहुँचा दूँगा, बस!’ ‘कमवा तो हो जाएगा ना साहेब!’ – एक दो लोगों ने पूछा।

रामसेवक सिंह ने पान चाबते हुए बताया – ‘मैं अपने काम का जिम्‍मेदार हूँ। आगे बैंक वाले जानें।’ मंगलवा ने ग्रामीण बैंक के मैनेजर से बात किया। वहाँ से अजीब जवाब मिला – ‘हमारे हेड आफिस से अभी आदेश नहीं मिला है। बिना गारंटर यानी गवाह के बिना कुछ नहीं हो सकता।’ लेकिन साहेब! मुख्‍यमंत्री का…’ मैनेजर ने उसकी बात बीच में ही काट दी – ‘मुख्‍यमंत्री का क्‍या, आज हैं कल गए। हमें नौकरी करनी हैं वसूली का लक्ष्‍य पूरा करना है समझे।’ इस सारी पेचीदगी के बीच टोले वाले अपनी ग्रामसभा के मानिंद लोगों के मोहताज हो गए। इन दरम्‍यान गाँव में चुनाव का माहौल गरमाने लगा था। मैदान में तीन महारथी थे – एक था चौधरी रामप्रसाद वर्मा, गाँव का संपन्‍न किसान जिसकी नेकनीयती में ख्‍याति थी। मगर तिकड़म और मक्‍कारी से उसका कभी का नाता न था। लिहाजा लोग उसे नेता मानने को भी नहीं तैयार थे। इसलिए वह अपने कुर्मियान के वोट भी नहीं सँभाल पा रहा था। इधर के चार-पाँच घर तो जगमोहन सिंह फोड़ चुके थे। सात-आठ परिवार के वोटरों के लिए चौबेजी दाँव लगा रहे थे।

वास्‍तव में मुख्‍य लड़ाई चौबे जी और जगमोहन की चाल-चलन, शील-संस्‍कार और व्‍यवहार से नाइत्तफाकी रखते थे। यह सब रूपनारायण चौबे के खेमे में जा चुके थे। उधर बाभनों में भी विभीषणों की कमी न थी। पूरे पाँच घर पाठक और एक थोक सुकलान जगमोहन सिंह की चौपाल गुलजार कर रहे थे। रहा दलित टोला तो इस इसके साढ़े चार सौ वोटों पर सबकी नजर थी। ऐसे माहौल में ग्राम सेवक और बैंक मैनेजर के सताए ऋणार्थी जब चौबे और जगमोहन सिंह के पास फरियादी बनकर पहुँचने लगे तो सिर आँखों पर बैठाए गए। यहाँ भी जगमोहन सिंह कुछ भारी पड़ रहे थे। दरअसल बैंक का फील्‍ड अफसर शराब और शबाब का शौकीन था, इस मामले में जगमोहन की पहुँच बेजोड़ थी। ग्राम सेवक उनका दूर का रिश्‍तेदार लगता था। जगमोहन पसियाने के वोटों का ध्रुवीकरण अपने पक्ष में करने के लिए इन दोनों का अच्छा इस्‍तेमाल कर रहे थे।

आम तौर से जगमोहन सिंह की तस्‍दीक की गई फाइलें जल्‍दी स्‍वीकार हो जातीं, जबकि चौबे की पैरोकारी वाले केस पर ढेरों नुक्‍ताचीनी होती थी। इस बात को लेकर जगमोहन सिंह के चमचे अच्‍छी-खासी कान फुँकाई भी शुरू कर रखे थे। इन दिनों बलई सिंह और धनेसर सुकुल अपनी शाम टोले वाले पार्क में ही बिताते। काम-धंधे से लौट, चिलम के शौकीन दस-पंद्रह गरीब गुरबा यहाँ मिल ही जाते। बलई और धनेसर भी गँजेड़ी थे। सब कोई घुल-मिलकर बतियाते! चिलमे फुँकती जातीं। लोगों को लगता-सच है, द्वारिका सुकुल के मरने के बाद परधानी का चारज चौबे के पास। मुख्‍यमंत्री के भी खास कहे जाते हैं, मगर काम में फिसड्डी! जगमोहन के पास न ऊपर तक पहुँच न कोई ओहदा, पर देखो तो कैसा धाकड़ है? साठ में पैं‍तालीस फाइल उसी की पैरवी से बैंक में लग पाई है। ऐसा आदमी कुछ बन जाए तो क्‍या से क्‍या कर दे…

टोले वालों की इस सोच का प्रबल विरोधी कोई था तो वह मंगलवा था। यहाँ तक कि सोमू लटूरी और धनई के ग्रुप वाले, जिनके केस चौबे के माध्‍यम से विचाराधीन थे, वे भी बलर्इ और धनेसर की लंतरानी से प्रभावित थे। मंगलवा को लग रहा था कि यह लोग सब के सब न सही, तो आधे ठाकुर की तरफ ऐन वक्‍त पर चुपचाप खिसक जाएँगे जबकि वह चौबे और जगमोहन दोनों को साँपनाथ और नागनाथ की जोड़ी समझता था। वह अपने लोगों से मिलता और भरसक समझाने की कोशिश करता कि हम जरा-सी चालाकी दिखाएँ तो हम ठाकुरशाही और ब्राह्मणशाही से छुटकारा पा सकते हैं।

‘कैसे?’

‘चौधरी को परधान बनाकर।’

‘वह क्‍या कर पाएगा?’

‘सब कुछ! जो एक प्रधान करता है।’

‘अरे नहीं भइया। वह कुछ नहीं करेंगा।’

लोग बड़ी बेरुखी से फैसला सुना देते। मंगलवा समझ रहा था, सब स्‍वार्थ में अंधे हो गए हैं। तात्‍कालिक‍ फायदे के लिए एक दूरगामी हितवाला अवसर गँवाने में लगे हैं। यह उसे बड़ा नागवार लगा रहा था। उसने टोले के लोगों पर प्रभाव डालने के लिए अपनी बिरादरी के कुछ छुटभैये नेताओं को साधा। धीरे-धीरे उसकी सरगर्मी का असर होने लगा। टोलेवालों को अपने जीवन संघर्षो और चौधरी के क्रिया-कलापों में समानता दिखने लगी। अगर जमीन-जायदाद का फर्क छोड़ दिया जाए, तो चौधरी रामप्रसाद क्‍या है – उन्‍हीं की तरह खेतों में पसीना बहाने वाला मेहनतकश इनसान! ठाकुरों-बाभनों-सा इतराकर चलने वाला ऐंड़बाज नहीं! फिर उसे ही क्‍यों नहीं…?

गाँव की हवा रामप्रसाद के पक्ष में झुरकने लगी थी और कुर्मियाने के लोग सँभलना शुरू हो गए थे। वोट पड़ने के दिन तक रामप्रसाद के चार-पाँच कट्टर विरोधियों को छोड़, बाकी कुर्मी एकजुट हो चुके थे। हालाँकि यह संपूर्ण ध्रुवीकरण अत्‍यंत गुपचुप ढंग से हुआ था – इतने गुपचुप कि कहीं पता भी न खड़के! मगर गाँव की इस स्‍तब्‍धता से रूपनारायण चौबे खासे बेचैन हो गए थे। उन्‍हें लग रहा था – कुछ अनहोनी घटने वाली है। इससे निपटने के लिए वे कुछ भी करने के लिए तैयार थे। इस सिलसिले में फौरी तौर पर उन्‍होंने अपने लड़के को समझा-बुझाकर जगमोहन सिंह के पास भेज दिया।

‘चाचा, बाबूजी आपके दर्शन को उतावले हैं।’ चौबे-पुत्र से यह सूचना पाकर चौंक गए जगमोहन! अभी रात शुरू हुई थी। उनके चमचे जनसंपर्क के लिए निकल चुके थे। वे और केशरी सिंह आज तीसरे दिन गला तर करने बैठे थे। अभी तिहाई बोतल ही लगी थी। पूरे होश-हवास में थे, फिर भी एक क्षण के लिए डगमगा से गए। मुँह से एकबारगी नि‍कल गया, ‘क्‍यों…?’

‘चाचा, मैं तो आपका बच्‍चा हूँ। बाबूजी का संदेश आपको दिया। अब आप जो हुकुम करेंगे उधर कह दूँगा’ – लड़के ने जवाब दिया – ‘बाकी आप जानें और वह जानें।’

कुछ क्षणों तक जगमोहन उस किशोर वय के लड़के को देखते रह गए। फिर उसी की तर्ज में बोले – ‘बेटा, जाकर बड़े भैया से कहो कि उनके हुकुम की तामील करने तुरंत आ रहा हूँ।’

लड़का नमस्‍कार करके बैठक से निकल गया। जगमोहन ने केशरी सिंह की तरफ देखा – ‘क्‍या किया जाए…’

‘जबान देकर भी पूछते हैं…?’ अब न पहुँचने से तौहीन होगी कि ठाकुर होकर डर गए।’

जगमोहन ने दोनों गिलासों में थोड़ी-थोड़ी शराब उँड़ेली। केशरी ने पानी मिलाया। कुछ पल में गिलास खाली हो गए। दोनों ने विरोधी खेमे में जाने से पहले की तैयारी पूरी की। कुछ खास करना भी नही था। बस, केशरी सिंह ने अपना बिना लाइसेंसी पिस्‍तौल लोड करके पेट में लटका लिया। जगमोहन ने अपनी आबनूसी छड़ी की मूठ घुमाकर करौली की चमक देखी और दोनों आबादी से बाहर-बाहर चौबे के घर की तरफ बढ़ने लगे।

जगमोहन और केशरी को देखते ही रूपनारायण चौबे के थुलथुल बदन में खुशी की लहर दौड़ गई। वे चारपाई से उठ गए और दाहिना हाथ आशीर्वादी मुद्रा में लाकर दोनों का स्‍वागत किया – ‘खुश रहो राजन! पधारो, मैं आपकी ही राह देख रहा था।’

जगमोहन ने चौबे का चरण स्‍पर्श किया, केशरी ने भी! बैठक के दरवाजे के पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गया, यह स्‍थान था भी मोर्चे लायक बढ़िया! ज‍बकि जगमोहन चौबे के आग्रह के बावजूद पलंग के सिरहाने न बैठ, पायताने की तरफ आसन लिए हालाँकि सुरक्षा की नजर से यह स्थिति गड़बड़ थी। मगर सामाजिक आचार संहिता का तकाजा इसी की इजाजत दे रहा था।

बातचीत का सूत्र जगमोहन ने सँभाला। प्रेम से बोले – ‘क्‍या हुकुम है बड़े भइया?’

‘मुझे हुकुम देना नहीं है राजन! आप से लेना है।’ – चौबे ने बैठक से बाहर अँधेरे में निगाह जमाकर पूछा – ‘गाँव की हवा तो समझ में आ ही गई होगी।’

‘सब देख रहा हूँ?’

‘फिर क्‍या इरादा है?’

चौबे की बुझौवलिया ठाकुर की समझ में न आई। उन्‍होंने चौबे को ऐसी नजर से देखा जैसे सवाल का थोड़ा और खुलासा चाहते हों। चौबे समझाने लगे – ‘ठाकुर साहब! अभी हम दोनों के मैदान में रहने से परधानी न मेरे हाथ आ रही है न आपके जबकि मुझे यह बर्दाश्‍त नहीं हो रहा है कि यह किसी तीसरे के हाथ लग जाए।’ बैठक में मौन पसरने लगा। जगमोहन की जान साँसत में फँसती जा रही थी। वह हो-हल्‍ला वाली राजनीति का खिलाड़ी था। केशरी सिंह को यह मौन अखरने लगा तो उसने बीड़ी सुलगा ली। जगमोहन सिंह ने जेबी पनडिब्‍बा निकाल चौबे की तरफ बढ़ाया और उनके पान लेने के बाद एक पान मुँह में डालकर सोच-विचार की मुद्र में चबाने लगे… चौबे ने बात आगे बढ़ाई’ …यह तब संभव है, जब हममें से एक मैदान से बाहर हो जाए…’

केशरी ने कुर्सी पर पहलू बदला। जगमोहन ने बेचैनी के साथ पान की पीक गटकी।

चौबे निर्विकार भाव में अपनी बात कहते रहे – ‘वैसे तो मैं उम्र में बड़ा हूँ। पहला हक मेरा बनता है। इसलिए स्थिति देखते हुए आपको रास्‍ता साफ करना चाहिए। पर नहीं, आपका हुकुम मिले तो मैं ही हट जाऊँ।’

जगमोहन सिंह पशोपेश में पड़ गए, न वे मैदान छोड़ना चाहत थे न ही उनको चौबे का अहसान ही मंजूर था। अचानक ही उनके बौड़म दिमाग में यह बात बिजली की तरह कौंध गई कि अगर दोनों में से एक हट भी गया तो कोई फायदा होने वाला नहीं क्‍योंकि उनके बीच वोटरों का मौजूद ध्रुवीकरण जिस आधार पर था, उसके टूटते ही ढेरों वोट चौधरी की तरफ खिसक सकते थे। इस विषय में जब उन्‍होंने चौबे को चेताया तो रूपनारायण उनका मुँह देखते रह गए। निश्‍चय ही भावुकता में वे इतनी दूर तक नहीं सोच पाए थे।

देर तक दोनों विरोधी वोटों का गुणा-भाग करते रहे। केशरी भी इस बातचीत में शामिल हो गया था। चौबाइन चाय और नमकीन रख गई थी। दोनों ठाकुरों ने चाय नहीं ली, नमकीन खूब चबाए। बातचीत से यही निष्‍कर्ष निकल रहा था कि बेशक एक के हटने से जीतने की हल्‍की-सी आशा बढ़ती है, लेकिन हारने पर तो ठाकुरों-बाभनों की नाक ही कट जाएगी। ऐसे में दोनों के लड़ने और हार जाने के बाद भी लीपापोती के बीस बहाने रहेंगे। आखिर जगमोहन सिंह ने चलते-चलते कहा – ‘बड़े भइया! हालात काफी बिगड़ चुके हैं। जो हो रहा है, वही समय को मंजूर है। हाँ, यह लड़ाई की शुरुआत है, अभी लंबी खिंचेगी। इसमें मैं हमेशा आपके साथ हूँ। जहाँ भी आपका इशारा पाऊँगा, सिर तक कटाने से नहीं हिचकँगा…’

चौधरी रामप्रसाद को प्रधानी मिलने की खबर भी मंगलवा ही सबसे पहले टोले में ले आया था। उस रात टोलेवालों ने अपनी ढिबरियों की बत्तियाँ बढ़ा ली थीं। जैसे ठकुरौटी और बभनौटी की मायूसी को मुँह चिढ़ा रहे हों। धीर-धीरे यह खबर भी गर्म होने लगी कि बैंक‍ में पढ़ी आई.आर.डी. की फाइलों पर कार्यवाही चल रही है… रामप्रसाद को सब मिलकर घेरने लगे। आखिर वह इन्‍हीं की बदौलत प्रधान बना था, पैरवी में पीछे रहना ठीक न था मगर खेती-बारी के लाख झंझट उसे इस दिशा में पूरी तरह सक्रिय न होने देते। ऐसी स्थिति में कुछ फाइलें रिजेक्‍ट हो गई, तो लोगों का मुँह फूल गया। यह किसी की समझ में न आया कि दिल्‍ली से हाथी चले और गाँव पहुँचे तो कुत्‍ता – यही हाल होता है सरकारी कार्यक्रमों और योजनाओं का मगर इन बेपढ़ों को कौन समझाए।

फिर सरकारी कानून-कायदे का पेंच। बैंक की पूर्व निधारित दुकान थी, व्‍यापारी थे। मंगलवा दर्जीगीरी जानता था, उसे पता नहीं कैसे नकद मिल गया। बाकी किराना का सामान, साइकिल रिक्‍शा, जर्सी गाय, भैंस वगैरह की खरीद में खूब लूट हुई…

खबरें ऐसी भी मिल रही थीं कि दस हजार के लोन पर आठ हजार की खरीदारी करा रहे हैं। ठठरी गाय, मरियल भैंस, किराने की दुकान का महँगा सामान, महीने भर में खचाड़ा होते रिक्‍शा – यह सब टोलेवालों को अपने करम पर कोसने को मजबूर कर रहे थे। इस बीच रूपनारायण चौबे और जगमोहन सिंह के आदमी पसियाने वालों की खोज-खबर कुछ अधिक ही लेने लगे थे। राह-बाट, सिवान जहाँ भी कोई पीड़ित पासी मिल जाता तो ये बड़ी आत्‍मीयता से सवाल दाग देते – ‘लोन मिल गया ना।

घूम फिरकर एक राम कहानी शुरू हो जाती। इसी के बीच कमजोर प्रधान और चालाक मंगलवा की कमीशनखोरी की कनफुसकी लगा दी जाती। जल्‍दी ही मंगलवा की दर्जी की दुकान की चमक-दमक और चहल-पहल एकीकृत ग्रामीण विकास योजना से सताए लोगों की नजर में खटकने लगी। इस खुशहाली में उनको मंगलवा की मेहनत नहीं, सिर्फ चंटई दिखने लगी थी। इस खबर ने तो आग में घी काम कर दिया कि माफ आधा नहीं, महज चौथाई ही होगा। टोलेवालों का गुस्‍सा मंगलवा पर उबलने लगा, गोया सब उसी के इशारे पर हो रहा हो। जिस टोले में मंगलवा की नेतागीरी चलती थी, वहाँ अब उसे देखकर लोग मुँह फेरने लगे थे।

इधर चोरी-छिपे एक खबर मिली है कि रूपनारायण और जगमोहन के आदमी चौराहों और दलित टोले के बीच वाले सरकारी जंगल में बैठने लगे हैं, ताकि रात-बिरात मंगलवा दुकान बंद करके घर लौटता मिले तो ठिकाने लगाया जा सके। इसलिए नहीं कि उसकी दुकान अच्‍छी चल रही थी। दलित होकर भी वह अच्‍छा कमा खा रहा था- बल्कि इसलिए कि वह पढ़ा-लिखा था और उल्‍टी गंगा बहाने में समर्थ था

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