कवच | मुंशी प्रेमचंद | हिंदी कहानी
कवच | मुंशी प्रेमचंद | हिंदी कहानी

बहुत दिनों की बात है, मैं एक बड़ी रियासत का एक विश्वस्त अधिकारी था। जैसी मेरी आदत है, मैं रियासत की घड़ेबन्दियों से पृथक रहता न इधर, अपने काम से काम रखता। काजी की तरह शहर के अंदेशे से दुबला न होता था। महल में आये दिन नये-नये शिगूफे खिलते रहते थे, नये-नये तमाशे होते रहते थे, नये-नये षड़यंत्रों की रचना होती रहती थी, पर मुझे किसी पक्ष से सरोकार न था। किसी की बात में दखल न देता था, न किसी की शिकायत करता, न किसी की तारीफ। शायद इसीलिए राजा साहब की मुझ पर कृपा-दृष्टि रहती थी। राजा साहब शीलवान्, दयालु, निर्भीक, उदार ओर कुछ स्वेच्छाचारी थे। रेजीडेण्ट की खुशामद करना उन्हं पसन्द न था। जिन समाचार पत्रों से दूसरी रियासतें भयभीत रहती थीं और और अपने इलाके में उन्हें आने न देती थीं, वे सब हमारी रियासत में बेरोक-टोक आते थे। एक-दो बार रेजीडेण्ट ने इस बारे में कुछ इशारा भी किया था, लेकिन राजा साहब ने इसकी बिल्कुल परवाह न की। अपने आंतरिक शासन में वह किसी प्रकार का हस्ताक्षेप न चाहते थे, इसीलिए रेजीडेण्ट भी उनसे मन ही मन द्वेष करता था।


लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि राजा साहब प्रजावत्सल, दूरदर्शी, नीतिकुशल या मितव्ययी शासक थे। यह बात न थी। वे बड़े ही विलासप्रिय, रसिक और दुर्व्यसनी थे। उनका अधिकांश समय विषय-वासना की ही भेंट होता था। रनवास में दर्जनों रानियां थी, फिर भी आये दिन नई-नई चिड़ियां आती रहती थी। इस मद में लेशमात्र भी किफायत या कंजूसी न की जाती थी। सौन्दर्य की उपासना उनका गौण स्वभाव-सा हो गया था। इसके लिए वह दीन और ईमान तक की हत्या करने को तैयार रहते थे। वे स्वच्छन्द करना चाहते थे।, और चूंकि सरकार उन्हें बंधनों में डालना चाहती थी, वे उन्हें चिढ़ाने के लिए ऐसे मामलें में असाधारण अनुराग और उत्साह दिखाते थे, जिनमें उन्हें प्रजा की सहायता और सहानुभूति का पूरा विश्वास होता था, इसलिए प्रजा उनके दुर्गुणों को भी सदगुण समझती थी, और अखबार वाले भी सदैव उनकी निर्भीकता और प्रजा-प्रम के राग अलापते रहते थे।


इधर कुछ दिनों से एक पंजाबी औरत रनवास में दाखिल हुई थी। उसके विषय में तरह-तरह की अफवाहें फैली हुई थीं। कोई कहता था, मामूली, बेश्या है, कोई ऐक्ट्रेस बतलाता था, कोई भले घर की लड़की। न वह बहुत रूपवती थी, न बहुत तरदार, फिर भी राजा साहब उस पर दिलोजान से फिदा थे। राजकाज में उन्हें यों ही बहुंत प्रेम न था, मगर अब तो वे उसी के हाथों बिक गये थे, वही उनके रोम-रोम में व्याप्त हो गई थी। उसके लिए एक नया राज-प्रसाद बन रहा था। नित नये-नये उपहार आते रहते थे। भवन की सजावट के लिए योरोप से नई-नई सामग्रियां मंगवाई थी। उसे गाना और नाचना सिखाने के लिए इटली, फांस, और जर्मनी के उस्ताद बुलाये गये थे। सारी रियासत में उसी का डंका बजता था। लोगों को आश्चर्य होता था कि इस रमणी में ऐसा कौन-सा गुण हैं, जिसने राजा साहब को इतना आसक्त और आकर्षित कर रखा है।
एक दिन रात को मैं भोजन करके लेटा ही था कि राजा साहब हने याद फर्माया। मन में एक प्रकार का संशय हुआ कि इस समय खिलाफ मामूल क्यों मेरी तलबी हुई! मैं राजा साहब के अंन्तरंग मंत्रियों में से न था, इसलिए भय हुआ कि कहीं कोई विपत्ती तो नहीं आने वाली है। रियासतों में ऐसी दुर्घटनाएं अक्सर होती रहती है। जिसे प्रात: काल राजा साहब की बगल में बैठे हुए देखिए, उसे संध्या समय अपनी जान लेकर रियासत के बारह भागते हुए भी देखने में आया है। मुझे सन्देह हुआ, किसी ने मेरी शिकायत तो नहीं कर दी! रियासतो में निष्पक्ष रहना भी खतरनाक है। ऐसे आदमी का अगर कोई शत्रु नहीं होता तो कोई मित्र भी नहीं होता। मैंने तुरन्त कपड़े पहने और मन में तरह-तरह की दुष्कल्पनाएं करता हुआ राजा साहब की सेवा में उपस्थित हुआ। लेकिन पहली ही निगाह में मेरे सारें संशय मिट गयें। राजा साहब के चेहरे पर क्रोध की जगह विषाद और नैराश्य का गहरा रंग झलक रहा था। आंखों में एक विचित्र याचना झलक रही थी। मुझे देखते ही उन्होंने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया, और बोले—‘क्यों जी सरदार साहब, साहब, तुमने कभी प्रेम किया है? किसी से प्रेम में अपने आपको खो बैठे हो?’

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मैं समझ गया कि इस वक्त अदब और लिहाज की जरूरत नहीं। राजा साहब किसी व्यक्तिगत विषय में मुझसे सलाह करना चाहते है। नि:संकोच होकर बोला—‘दीनबंधु, मैं तो कभी इस जाल में नहीं फंसा।’
राजा साहब ने मेरी तरफ खासदान बढ़ाकर कहा—तुम बड़े भाग्यवान् हो, अच्छा हुआ कि तुम इस जाल में नहीं फंसे। यह आंखों को लुभाने वाला सुनहरा जाल है यह मीठा किन्तु घातक विष है, यह वह मधुर संगीत है जो कानों को तो भला मालूम होता है, पर ह़दय को चूर-चूर कर देता है, यह वह मायामृग है, जिसके पीछे आदमी अपने प्राण ही नहीं, अपनी इल्लत तक खो बैठता है।


उन्होंने गिलास में शराब उंडेली और एक चुस्की लेकर बोले—जानते हो मैंने इस सरफराज के लिए कैसी-कैसी परिशानियां उठाई? मैं उसके भौंहों के एक इशारे पर अपना यह सिर उसके पैरों पर रख सकता था, यह सारी रियाशत उसके चरणों पर अर्पित कर सकता था। इन्हीं हाथों से मैंने उसका पलंग बिछाया है, उसे हुक्का भर-भरकर पिलाया है, उसके कमरे में झाडूं लगाई है। वह पंलग से उतरती थी, तो मैं उसकी जूती सीधी करता था। इस खिदमतगुजारी में मुझे कितना आनन्द प्राप्त होता था, तुमसे बयान नहीं कर सकता। मैं उसके सामने जाकर उसके इशारों का गुलाम हो जाता था। प्रभुता और रियासत का गरूर मेरे दिल से लुप्त हो जाता था। उसकी सेवा-सुश्रूषा में मुझे तीनों लोक का राज मिल जाता था, पर इस जालिम ने हमेशा मेरी उपेक्षा की। शायद वह मुझे अपने योग्य ही नहीं समझती थी। मुझे यह अभिलाषा ही रह गई है कि वह एक बार अपनी उन मस्तानी रसीली आंखों से, एक बार उन इऋगुर भरे हुए होठों से मेरी तरफ मुस्कराती। मैंने समझा था शायद वह उपासना की ही वस्तु हैं, शायद उसे इन रहस्यों का ज्ञान नहीं। हां, मैंने समझा था, शायद अभी अल्हड़पन उसके प्रेमोदगारों पर मुहर लगाये हुए है। मैं इस आशा से अपने व्यथित हृदय को तसकीन देता था कि कभी तो मेरी अभिलाषाएं पूरी होंगी, कभी तो उसकी सोई हुई कल्पना जागेगी।
राजा साहब एकाएक चुप हो गये। फिर कदे आदम शीशे की तरफ देखकर शान्त भाव से बोले—मै इतना कुरूप तो नहीं हूं कि कोई रमणी मुझसे इतनी घ़ृषा करे।


राजा साहब बहुत ही रूपवान आदमी थे। ऊंचा कद था, भरा हुआ बदन, सेव का-सा रंग, चेरे से तेज झलकता था।
मैंने निर्भीक होकर कहा—इस विषय में तो प्रकृति ने हुजूर के साथ बड़ी उदारता के साथ काम लिया है।
राजा साहब के चेहरे पर एक क्षीण उदास मुस्कराहट दौड़ गई, मगर फिर वहीं नैराश्य छा गया। बोले, सरदार साहब, मैंने इस बाजार की खूब सैर की है। सम्मोहन और वशीकरण के जितने लटके हैं, उन सबों से परिचित हूं, मगर जिन मंत्रों से मैंने अब तक हमेशा विजय पाई है, वे सब इस अवसर पर निरर्थक सिद्ध हुए। अन्त को मैंने यही निश्चय किया कि कुंआ ही अंधा है, इसमें प्यास को शांत करने की सामर्थ्य नहीं। मगर शोक, कल मुझ पर इस निष्ठुरता और उपेक्षा का रहस्य खुला गया। आह! काश, यह रहस्य कुछ दिन और मुझसे छिपा रहता, कुछ दिन और मै इसी भ्रम, इसी अज्ञान अवस्था में पड़ा रहता।

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राजा साहब का उदास चेहरा एकाएक कठोर हो गया, उन शीतर नेत्रों में जवाला-सी चमक उठी, बोले—“देखिए, ये वह पत्र है, जो कल गुप्त रूप से मेरे हाथ लगे है। मैं इस वक्त इस बात हकी जांच-पंडताल करना व्यथ्र समझता हूं कि ये पत्र मेरे पास किसने भेजे? उसे ये कहा मिले? अवश्य ही ये की अहित कामना के इरादे से भेजे गए होंगे। मुझे तो केवल यह निश्चय करना है कि ये पत्र असली है या नकली, मुझे तो उनके असली होने में अणुमात्र भी सन्देह नहीं है। मैंने सरफराज की लिखावट देखी है, उसकी बातचीत के अन्दाज से अनभिज्ञ नहीं हूं। उसकी जवान पर जो वाक्य चढे हुए हैं, उन्हें खूब जानता हूं। इन पत्रों में वही लिखावट हैं, कितनी भीषण परिस्थिति है। इधर मैं तो एक मधुर मुस्कान, एक मीठी अदा के लिए तरसता हूं, उधर प्रेमियों के नाम प्रेमपत्र लिखे जाते हैं, वियोग-वेदना का वर्णन किया जाता है। मैंने इन पत्रों को पढ़ा है, पत्थर-सा दिल करके पढ़ा है, खून का घूंट पी-पीकर पढ़ा है, और अपनी  बोटियों को नोच-नोचकर पढ़ा है! आंखों से रक्त की बूंदें निकल-निकल आई है। यह दगा! यह त्रिया-चरित्र!! मेरे महल में रहकर, मेरी कामनाओं को पैरों से कुचलकर, मेरी आशाओं को ठुकराकर ये क्रीडांए होती है! मेरे लिए खारे पानी की एक बूंद भी नहीं, दूसरे पर सुधा-जल की वर्षा हो रही है! मेरे लिए एक चुटकी-भर आटा नहीं, दूसरे के लिए षटरस पदार्थ परसे जा रहे है। तुम अनुमान नहीं कर सकते कि इन पत्रों की पढ़कर मेरी क्या दशा हुई।”


‘पहला उद्वेग जो मेरे हॄदय में उठा, वह यह था कि इसी वक्त तलवार लेकर जाऊं और उस बेदर्द के सामने यह कटार अपनी छाती में भोंक लूं। उसी के आंखों के सामने एडियां रगड़-रगड़ मर जाऊं। शायद मेरे बाद मेरे प्रेम की कद्र करे, शायद मेरे खून के गर्म छीटें उसके वज्र-कठोर हृदय को द्रवित कर दें, लेकिन अन्तस्तल के न मालूम किस प्रदेश से आवाज आई—यह सरासर नादानी हैं तुम मर जाओंगे और यह छलनी तुम्हारे प्रेमोपहारों से दामन भरे, दिल में तुम्हारी मुर्खता पर हंसती हुई, दूसरे ही दिन अपने प्रियतम के पस चली जाएगी।’ दोनों तुम्हारी दौलत के मजे उड़ाएंगे और तुम्हारी बंचित-दलित आत्मा को तड़पाएंगे।
‘सरदार साहब, पिश्वास मानिए, यह आवाज मुझे अपने ही हृदय के किसी स्थल से सुनाई दी। मैंने उसी वक्त तलवार निकालकर कमर से रख दी। आत्महत्या का विचार जाता रहा, और एक ही क्षण में बदले का प्रबल उद्वेग हृदय में चमक उठा। देह का एक-एक परमाणु एक आन्तरिक ज्वाला से उत्तप्त हो उठा। एक-एक रोए से आग-सी निकलने लगी। इसी वक्त जाकर उसकी कपट-लीला का अन्त कर दूं। जिन आंखों की निगाह के लिए अपने प्राण तक निछावर करता था, उन्हें सदैव के लिए ज्योतिहीन कर दूं। उन विषाक्त अधरों को सदैव के लिए स्वरहीन कर दूं। जिस ह़ृदय में इतनी निष्ठुरता, इतनी कठोरता ओर इतना कपट भरा हुआ हो, उसे चीरकर पैरों से कुचल डालूं। खून-सा सिर पर सवार हो गया। सरफराज की सारी महत्ता, सारा माधुर्य, सारा भाव-विलास दूषित मालूम होने लगा। उस वक्त अगर मुझ मालूम हो जाता कि सरफराज की किसी ने हत्या कर डाली है, तो शायद मैं उस हत्यारें के पैरों का चुम्बन करता। अगर सुनता कि वह मरणासन्न है तो उसके दम तोड़ने का तमाशा करता, खून का दृढ़ संकल्प करके मैंने दुहरी तलवारें कमर में लगाई और उसके शयनागार में दाखिल हुआ। जिस द्वार पर जाते ही आशा और भय का संग्राम होने लगता था, वहां पहुंचकर इस वक्त मुझे वह आनन्द हुआ जो शिकारी को शिकार करने में होता है। सरदार साहब, उन भावनाओं और उदगारों का जिक्र न करूंगा, जो उस समय मेरे हृदय को आन्दोलित करने लगे। अगर वाणी में इतनी सामर्थ्य हो ीाी, तो मन को इस चर्चा से उद्विग्न नहीं करना चाहतां मैंने दबे पावं कमरे में कदम रखा।

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सरफराज विलासमय निद्रा में मग्न थी। मगर उसे देखकर मेरे हृदय में एक विचित्र करूणा उत्पन्न हुई। जी हाँ, वह क्रोध और उत्ताप न जाने कहां गायब हो गया। उसका क्या अपराध है? यह प्रश्न आकस्मिक रूप से मेरे हृदय में पैदा हुआ। उसका क्या अपराध है? अगर उसका वही अपराध है जो इस समय मैं कर रहा हूं, तो मुझे उससे बदला लेने का क्या अधिकार है? अगर वह अपने प्रियतम के लिए उतनी ही विकल, उतनी ही अधीर, उतनी ही आतुर है जितना मैं हूं, तो उसका क्या दोष है? जिस तरह मैं अपने दिल से मजबूर हूं, क्या वह भी अपने दिल से मजबूर रत्नों से मेरे प्रेम को बिसाहना चाहे, तो क्या मैं उसके प्रेम में अनुरक्त हो जाऊँगा? शायद नहीं। मैं मौका पाते ही भाग निकलूंगा। यह मेरा अन्याय है। अगर मुझमें वह गुण होते, तो उसके अज्ञात प्रियतम में है, तो उसकी तबीयत क्यों मेरी ओर आकर्षित न होती? मुझमें वे बातें नहीं है कि मैं उसका जीवन-सर्वस्व बन सकूं। अगर मुझे कोई कड़वी चीज अच्छी नहीं लगती, तो मैं स्वभावत: हलवाई की दुकान की तरफ जाऊंगा, जो मिठाइयां बेचता है। सम्भव है धीरे-धीरे मेरी रूचि बदल जाय और मैं कड़वी चीजें पसन्द करने लगू। लेकिन बलात् तलवार की नोक पर कोई कड़वी चीज मेरे मुंह में नहीं डाल सकता।


इन विचारों ने मुझे पराजित कर दिया। वह सूरत, जो एक क्षण पहले मुझे काटे खाती थी उसमें पहले से शतगुणा आकर्षण था। अब तक मैंने उसको निद्रा-मग्न न देखा था, निद्रावस्था में उसका रूप और भी निष्कलंक और अनिन्द्य मालूम हुआ। जागृति में निगाह कभी आंखों के दर्शन करती, कभी अधरों के, कभी कपोलों के। इस नींद मे उसका रूप अपनी सम्पूर्ण कलाओं से चमक रहा था। रूप-छटा था कि दीपक जल रहा था।


राजा साहब ने फिर प्याला मुंह से लगाया, और बोले—‘सरदार साहब, मेरा जोश ठंडा हो गया। जिससे प्रेम हो गया, उससे द्वेष नहीं हो सकता, चाहे वह हमारे साथ कितना ही अन्याय क्यों न करे। जहां प्रमिका प्रेमी के हाथों कत्ल हो, वहां समझ लीजिए कि प्रेम न था, केवल विषय-लालसा थी, में वहां से चला आया, लेकिन चित्त किसी तरह शान्त नहीं होतां तबउसे अब तक मैंने क्रोध को जीतने की भरसक कोशिश की, मगर असफल रहा। जब तक वह शैतान जिन्दा है, मेरे पहलू में एक कांटा खटकता रहेगा, मेरी छाती पर सांप लौटता रहेगा। वहीं काला नाम फन उठाये हुए उस रत्न-राशि पर बैठा हुआ है, वहीं मेरे और सरफराज के बीच में लोहे की दीवार बना हुआ है, वहीं इस दूध की मक्खी है। उस सांप का सिर कुचलना होगा, जब तक मैं अपनी आंखों से उसकी धज्जियां बिखरते न देखूंगा। मेरी आत्मा को संतोष न होगा। परिणाम की कोई चिन्ता नहीं कुछ भी हो, मगर उस नर-पिशाच को जहन्नुम दाखिल करके दम लूंगी।’
यह कहकर राजा साहब ने मेरी ओर पूर्ण पूर्ण नेत्रों से देखकर कहा—बतलाइए आप मेरी क्या मदद कर सकते है?
मैने विस्मय से कहा—मैं?

राजा साहब ने मेरा उत्साह बढाते हुए कहा—‘हां, आप। आप जानते हैं, मैंने इतने आदमियों को छोड़कर आपकों क्यों अपना विश्वासपात्र बनया

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