कम खाना और गम खाना | अंजना वर्मा
कम खाना और गम खाना | अंजना वर्मा

कम खाना और गम खाना | अंजना वर्मा

कम खाना और गम खाना | अंजना वर्मा

अक्सर एक औरत जेहन में आकर खड़ी हो जाती है
और तब प्रश्नों का जंगल उग आता है
आज तक किसी के हाथों में इतना दम नहीं हुआ
कि इस जंगल को काट सके
कोई काट सकेगा भी नहीं
साधु-संत, विद्वान-चिंतक, वैज्ञानिक, कवि
मोर्चा पर लड़नेवाला सिपाही
कोई भी तो नहीं काट पाया
आम आदमी की कौन कहे?
उर्मिला उसी तरह खड़ी रह जाती है
आँधी में सड़क पर गिरे एक पेड़ की तरह
कुछ देर तक यातायात रुकता है
जल्दी ही उस पेड़ को काटकर हटा दिया जाता है
रोपा नहीं जाता
न रोपने से वह लग ही जाएगा
हरे गिरे हुए पेड़ चाहे फल के ही क्यों न हो
काटकर हटा दिए जाते हैं
जंगल हँसने लगता है
उर्मिला उसमें खड़ी है
सूक्तियों की अनगिनत आरियाँ टूटकर पड़ी हुई हैं
जंगल हँस रहा है
हँसता हुआ चेहरा आधा घूँघट से ढका हुआ
बड़ी-बड़ी डोलती हुई गोल आँखें
ओठों को पता नहीं क्यों हँसना पड़ता है
और पता नहीं क्यों इन आँखों को भी
ओठों का साथ देना पड़ता है
जो आँखें रोती हैं
वे कभी दिखाई नहीं पड़तीं
उर्मिला ने मैके से विदा होते समय
माँ का उपदेश आँचल में बाँध लिया था|
”बेटी कम खाना और गम खाना”
वह कम खाती रही
साथ-साथ गम भी
एक दिन दोनों उसे खा गए।

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