कला | जितेंद्र श्रीवास्तव | हिंदी कविता
कला | जितेंद्र श्रीवास्तव | हिंदी कविता

आज दिन भर भटका

घूमता रहा बाजारों में

ढूँढ़ता रहा एक अदद दीया ऐसा

जिस पर कर सके कारीगरी मेरी बेटी

मैं दिन भर ढूँढ़ता रहा

एक दीया ऐसा

जिसमें कम हो कारीगरी कुम्हार की

शायद हो किसी दुकान पर ऐसा

जिसे रचने में कम मन लगा हो कुम्हार का

पर मैं लौट आया असफल हताश

मुझे नहीं मिला अभीष्ट दीया

और अब जो कहने जा रहा हूँ मैं

उस पर शायद यकीन न आए आपको

पर मैं कहूँगा यकीन मानिए

कि ज्यों ही उठता था मैं किसी दीये को

थोडा कम कलात्मक मानकर

त्यों ही बदल जाता था वह दीया

स्वप्न भरी दो आँखों में

और मैं हतप्रभ-सा बढ़ जाता था आगे।

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