पास से निकलते रिक्‍शेवाले को उसने हाथ के इशारे से रोका और किराया तय करने के लिए भाव-ताव करने लगा। किस्‍सा पांच पैसे पर पांच-सात मिनट तक अटका रहा। रिक्‍शाचालक का तर्क था, ”बाबू जी, आपको पांच पैसे में क्‍या फरक पड़ता है,” और उसका अर्थशास्‍त्र कहता था, ”पैसे की कीमत हमारे और तुम्‍हारे लिए अलग-अलग थोड़े ही है।” कीमत की समानता वाली ऊंची बात रिक्‍शाचालक की बुद्धि में नहीं घुसी तो उसने हार मान ली, ”चलो बाबू जी, आपकी ही रही, जो जी में आये, दे देना।”

शाम जब हरिशंकर के यहां गया था तो उसका इरादा वहां खाना खाने का नहीं था। वह तय करके चला था कि किसी मामूली-से ढाबे में रुपये-सवा रुपये में खाना खाकर, पान मुंह में दबाए लौट आयेगा-ज्‍यादा हुआ तो एक सिगरेट भी ले लेगा। और इस तरह डेढ़ेक रुपये में शाम मजे में निकल जायेगी। सुबह से रात सोने के समय तक चार-पांच रुपये का खर्चा उसे वाजिब लगता था, लेकिन जिस दिन छह या सात रुपये निकल जाते थे, वह भीतर ही भीतर खिन्‍न हो उठता था।

आज दोपहर तक उसके करीब चार रुपये खर्च हो गये थे, एक परिचित उससे मिलने आये थे तो उनकी आवभगत में कम से कम दो रुपये टूट गये थे, हालांकि उन दो में से एक रुपया तो खुद उसके ही हिस्‍से में आ गया था। उसका दिमाग जाने-अनजाने में सोते-जागते बस एक खास परिधि में घूमता रहता था। एक तरफ कुछ निश्चित-से रुपये हैं और दूसरी तरफ तीस-इकत्तीस दिन हैं और दोनों एक-दूसरे को सफलता से काट ले जाने की फिराक में हैं, दोनों एक खास ढंग से जूझते-जूझते धराशायी होते चले जाते हैं। बचता कोई भी नहीं। न मरणशील रुपये, न मरणधर्मा दिन, और उन दोनों के बीच में इधर से उधर होता वह स्‍वयं।

दो मील चलने के बाद उसने थोड़ी थकान महसूस की। एक खोखे के करीब पहुंचकर उसने एक सिगरेट खरीदी और ज्‍यों ही आगे बढ़ा, उसे हरिशंकर सामने से आता दिखाई पड़ गया। चूंकि अभी वह बहुत आगे नहीं बढ़ पाया था, इसलिए बतौर फर्ज उसने हरिशंकर के लिए भी सिगरेट खरीदी। दोनों ने सिगरेट जला ली और बातें करते हुए आगे बढ़ने लगे। अपनी गली के सामने पहुंचकर हरिशंकर ठहर गया और चली हुई बातों को एक खास बिंदु पर ले जाकर खत्‍म करने की गरज से बोला, ”चलो, घर चलो, एक प्‍याला चाय पीकर चले जाना, अकेले आदमी को क्‍या जल्‍दी।” वह हरिशंकर की टिप्‍पणी पर मुस्‍कराकर बोला, ”अब तो यार, लगता है, इस दुनिया में अकेले रहकर भी नहीं जिया जा सकता, महंगाई ने पीसकर रख दिया।” हरिशंकर बोला, ”हमारे कहने के‍ लिए तो अब रह भी क्‍या गया है; जब तुम्‍हारे जैसे छड़े-छांट ही महंगाई से पिस रहे हैं तो हम पहाड़ जैसी गृहस्‍थी वाले तो कब के धूल बनकर उड़ चुके हैं।” दोनों फिर चलने लगे और हरिशंकर का मकान आ गया।

हरिशंकर के पास मामूली-सी दो छोटी-छोटी कोठरियां थीं। दोनों में बराबर मनहूसियत फैली रहती थी। पूरे मकान को दो-दो कोठरियों में विभाजित करके मकान-मालिक ने पांच-छः किरायेदार रख छोड़े थे। एक हिस्‍से में नीचे की मंजिल में मकान-मालिक स्‍वयं रहता था। खुद उसे संयोग से सरकारी क्‍वार्टर अलाट हो गया था, इसलिए वह पैंतीस रुपये माहवार देकर मजे से खुले और हवादार क्‍वार्टर में रह रहा था। उसे शायद इसी वजह से हरिशंकर की कोठरियां अधिकर रुग्‍ण लगती थीं।

वह महीने में कई बार हरिशंकर के यहां आता रहता था, लेकिन वहां जाने के पीछे घनिष्‍ठता की भावना नहीं थी। दबे-घुटे लोगों में एक लापरवाही और बीहड़ता भी होती है। शायद यही चीज उसको हरिशंकर के घर ले जाती थी। शाम को जब वह हरिशंकर की गली में पहुंचता तो प्रायः आठ-दस परिवारों की लड़कियां और बहुएं गली, सहन, जीने और गलियारे में कोयले की अंगीठियां सुलगाती हुई नजर आती थीं। वह अंगीठियों को एक तरफ हटाने की प्रतीक्षा करने लगता था। उसे खड़ा देखकर कोई औरत या लड़की किसी अन्‍य औरत का नाम लेकर पुकार उठती थी, ”रेवतिया, अपनी अंगीठी सरका, गली में जगह भी है कहीं आने-जाने की?” कोई रेवतिया, बरफी या अंगूरी कभी-कभी लपककर आ जाती थी और कभी उसकी अंगीठी गाली-गुफ्तार करती कोई दूसरी अधेड़ औरत या लड़की-बहू हटाती थी।

ऐसा नहीं था कि वह अकेला ही औरतों-लड़कियों के दीदार का भूखा और अतृप्‍त था। वह यह भी पहचान गया था कि कुछ भूखी और आतुर निगाहें उसे भी घूरती हैं और उसका पीछा करती हैं।

एक अन्‍य आकर्षण भी उसे हरिशंकर के घर ले जाता था। वह बौद्धिक बहसें भी काफी सफलता से चला ले जाता था। उस मकान की सीलन, सस्‍तापन और लस्‍टम-पस्‍टम स्थितियां उसे रोमांटिक बना जाती थीं। अपने सलीके को एक उपलब्धि खयाल करने के लिए उसे हरिशंकर की दयनीय परिस्थितियों पर रहम खाना पड़ता था। वह बहुत नामालूम तरीके से हरिशंकर को जतलाना चाहता था कि देखो चाहे तुम जीनियस ही सही, लेकिन हमेशा सड़ोगे इसी कबाड़खाने में। मेरी महानता देखो, मैं तुम्‍हें इस दड़बे में भी देखने आता हूं।

हरिशंकर के घर वह ज्‍यादा से ज्‍यादा चाय ही पीना चाहता था। उसे हरिशंकर के घर खाना खाकर खुशी नहीं होती थी क्‍योंकि उसकी पत्‍नी निहायत घरेलू टाइप की बहू थी। हरिशंकर के दोस्‍तों को बिना चूं-चपड़ के बरदाश्‍त तो कर जाती थी- उनका खाना-पीना करते वक्‍त तकलीफ भी नहीं जतलाती थी, मगर वह हरिशंकर के पास आने-जाने वालों को इस निगाह से देखा करती थी, जैसे वे लकड़ी, पत्‍थर अथवा कुत्‍ता, बिल्‍ली हों। लगता था जैसे वह सिर्फ हरिशंकर को ही जीवित प्राणी समझती थी, बाकी दुनिया जैसे मिट्टी हो। हरिशंकर की पत्‍नी के इतने भीषण शील और सतीत्‍व से वह प्रायः त्रस्‍त हो उठता था। लेकिन उसका आना-जाना कभी देर तक नहीं रुक पाता था क्‍योंकि मकान में ऐसी लड़कियों, औरतों का अभाव नहीं था, जिनकी आंखों में किसी भी जवान पुरुष के लिए आकर्षण-आमंत्रण होता है।

जीना उतरते हुए किसी लड़की या औरत से एक हल्‍की-सी टकराहट या छू जाने का आभास-भर ही उसे काफी रोमांचक लगता था। हरिशंकर के घर खाना खाने की प्रक्रिया को उसने एक अजीब-से आविष्‍कार से सहन करना सीख लिया था। खाते वक्‍त वह सोचता रहता था कि यहां खाना खा लेने से महीने में पंद्रह रुपये भी बचते हैं और शरीर में गुदगुदाहट पैदा करने वाले कुछ नजारे भी मिल जाते हैं। हरिशंकर की बीवी के नोटिस न लेने से नुकसान भी क्‍या होता है? फिर हरिशंकर को अपनी बौद्धिक खारिश मिटाने के लिए उसकी जरूरत भी रहती है और इस तरह लेन-देन के क्रम में दोनों को हिसाब साफ हो जाता है। लेकिन अपना यह चौकन्‍नापन कभी-कभी उसे स्‍वयं ही खल जाता था। वह खुद को संबोधित कर बैठता था-किसी का नमक खाते हुए आदमी को इतना हरामी और गर्हित नहीं होना चाहिए। जिंदगी की ‘वैल्‍यूज’ को कम से कम इतनी कमजोर जमीन पर दम नहीं तोड़ना चाहिए महज दस-पंद्रह रुपये की खातिर।

हरिशंकर की पढ़ने-लिखने और दोस्तों के साथ बैठने की कोठरी अलग थी, जहां एक किरोसिन आयल का लैंप तथा स्‍टोव भी रखा रहता था। कभी-कभी वह वहीं चाय बनाकर दोस्‍तों को पिला देता था और अपनी पत्‍नी से मुक्ति पा लेता था। लेकिन उसे वह पूरी गृहस्‍थी वाले कमरे में ही ले जाता था। इसका कारण शायद यह था कि हरिशंकर उसे यह आभास देना चाहता था मैं तुम्‍हें गैर नहीं समझता। जब हरिशंकर उसे सोफे पर बिठाकर पत्‍नी से खाना लाने के लिए कहता अथवा चाय बनाने की फरमाइश करता तो वह बेचैनी महसूस करने लगता था। उसकी पत्‍नी बड़े ठस तरीके से अपनी प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करती थी और उसके नमस्‍कार का उत्‍तर भी ऐसे देती थी, गोया उसे बोलने में कोई रुचि नहीं है। वह कई बार देख चुका था कि हरिशंकर की पत्‍नी पांच-सात मिनट से ज्‍यादा वहां उपस्थित नहीं रहती थी। किसी न किसी बहाने से रसोई या दूसरी कोठरी में खिसक जाती थी। उसे अपने अवांछित होने का अहसास हरिशंकर की कोठरी में घुसते ही होने लगता था।

हरिशंकर आज उसे लेकर कोठरी में दाखिल हुआ तो हरिशंकर की पत्‍नी अपेक्षाकृत प्रसन्‍न दिख पड़ी। ऐसी सहजता उसके चेहरे पर शायद ही कभी देखी हो। औरत अगर तनाव में हो तो उसका सौन्‍दर्य नकचढ़ेपन में ही गारत हो जाता है, यह एहसास भी उसे पहली बार ही हुआ। वह हरिशंकर की पत्‍नी के चेहरे पर हमेशा चिड़चिड़ापन और बदसूरती ही खयाल करने का अभ्‍यस्‍त हो गया था। पर आज उसे अचंभा हुआ कि वह औरत उतनी बदसूरत और गलीज नहीं है; उसमें भी स्‍त्रीत्‍व है। हरिशंकर की कोठरी में भी उसे उतना घुटापन नहीं लगा और वह हल्‍केपन की अनुभूति से भर उठा। उसकी पत्‍नी ने आज उसकी नमस्‍कार का उत्तर भी उसकी ओर अपनी आंखें उठाकर दिया था।

हरिशंकर ने अपनी पत्‍नी को वरदानी देवी की हालत में पाया तो उत्‍साह में भरकर कहने लगा, ”जनाब होटल में खाना खाने जा रहे थे। कोई इनसे पूछे कि दिमाग खराब हो गया है क्‍या? अरे भाई यहां रूखा-सूखा खाते हुए तुमपर क्‍या आफत आती है।” हरिशंकर अपने अतिविश्‍वास में यह भूल गया कि उसका यह मित्र अभी तक अविवाहित है और होटल तथा ढाबों में खाना खाकर ही जीवित है। अपनी बात खत्‍म करके हरिशंकर ने मुस्‍कुराते हुए उसे देखा। वह हैरत से हरिशंकर को चेहरा देखने लगा। यह हरिशंकर भी अजीब आदमी है, रास्‍ते से चाय पिलाने को आग्रह करके लाया था और बीवी का मूड ठीक पाया तो एकदम से खाना खाने की बात करने लगा। उसे लगा कि वह और हरिशंकर उस गरीब पत्‍नी की सहजता का शोषण कर रहे हैं। यही औरत नाराजगी का नकाब ओढ़े हुए होती तो शायद हरिशंकर उसे चाय भी अपने कमरे में ही बनाकर पिला देता। हरिशंकर के इस अप्रत्‍याशित आग्रह पर वह एकाएक कुछ नहीं सोच सका तो आगा-पीछा करते हुए बोला, ”नहीं, नहीं, खाने की कोई ऐसी बात नहीं है। खाना तो मैं खाता ही रहता हूं; फिर कभी देखा जायेगा। फिर मुझे आज भूख भी नहीं है।” ”हां, हां, खाने की तो आपको जरूरत ही नहीं है; भूख भी नहीं है, आप तो जनाब हवा ही खाते हैं। बनना तो देखे कोई इस मरदूद का।” हरिशंकर ने अपनी बात खत्‍म करके मुंह बिचकाया और पत्‍नी की तरफ देखा। पत्‍नी पसीजते हुए बोली, ”हां-हां, खा लीजिये। हर्ज की क्‍या बात है? सब्‍जी बनी हुई है; चटपट परांठे सेंके देती हूं। चार-छह तो सिंके रखे ही हैं, बस गरम-गरम दोनों जने खा लो।”

उसने एक-दो दफा और ना-नुच की, मगर ज्‍यादा टालमटोल नहीं कर सका क्‍योंकि अब तक उसके दिमागी मीटर में खर्च का तखमीना आ गया था और वह आगे के खर्च को नियंत्रित करके आज का दिन ठीक-ठाक और किफायती बना लेना चाहता था, जैसे कोई अपने अगले जन्‍म को सुरक्षित करने की गरज से सात्त्‍विक होने जा रहा हो। अगर बोलने की जरूरत न पड़े तो वह बराबर अभिनय करके अपनी शालीनता की धाक बैठा सकता था। इस समय भी उसके चेहरे पर संकोच का तेवर बखूबी उभर आया था।

हरिशंकर की पत्‍नी दोनों का खाना एक ही थाली में ले आयी। सब्‍जी उसने दोनों की अलग-अलग रख दी और गरम खाना खिलाने के विचार से जलता हुआ स्‍टोव भी उसी कोठरी में ले आयी। उसने खाना खाते हुए अनुभव किया किया कि आज खाना खाते हुए एक भिन्‍न मनःस्‍थिति में है। पहले खाना खाते समय वह सोचा करता था कि वह हरिशंकर की पत्‍नी को उसके ठंडेपन की सजा दे रहा है और उसे तंग करने की गरज से ही खाना खा रहा है, लेकिन आज उसके मन में कृतज्ञ होने का भाव भी उमड़ आया। यद्यपि उसे किसी महिला के बनाये हुए खाने की प्रशंसा करने का अभ्‍यास नहीं था और न उसका उस विशिष्‍ट शब्‍दावली से परिचय था, पर आज अनायास उसके मुंह से निकला, ”आपने बहुत बढिया खाना खिलाया। मैं तो बहुत ज्‍यादा खा गया। अच्‍छे खाने पर पेटू की तरह टूट पड़ते हैं हम लोग।”

हरिशंकर की पत्‍नी सहजता से मुस्‍कराई और बुदबुदाते हुए कहने लगी, ‘कहां ज्‍यादा खा लिया; कोई अपने पेट से ज्‍यादा थोड़े ही खा सकता है?”

खाना खत्‍म करके दोनों पान खाने की गरज से बाहर निकलने को तैयार हो गये। वैसे वह हरिशंकर के घर जाता तो पहले ही दरवाजे पर निकलकर खड़ा हो जाता था। ऐसा वह इसलिए किया करता था कि जब तक हरिशंकर कपड़े बदल कर बाहर निकले, वह आस-पड़ोस का नजारा ले ले। ऐसे क्षणों में उसे किसी बहुत अप्रत्‍याशित आकर्षण की तलाश रहती थी; पता नहीं व‍ह किस कोने से सहसा निकलकर सामने आ जाये। किसीके आमंत्रण की कामना उसके विधुर मन में हर क्षण पंख फड़फड़ाती रही थी। लेकिन कहीं कुछ नहीं होता था, सिवाय इसके कि कहीं कोई लड़की किसी दरवाजे से गुजरकर उस धुएं से बोझिल मरियल मटमैली फिजा में ओझल हो जाती थी।

चौड़ी सड़क पर पहुंचकर दोनों ने चौराहे की तरफ चलना शुरू कर दिया। बातें करते हुए निरुद्देश्‍य आगे बढ़ना दोनों को अत्‍यंत प्रिय था। चौराहे से थोड़ा आगे निकलकर निम्‍न मध्‍यवर्गीय लोगों के लिए एक रेस्‍त्रां था और उसमें सबसे अच्‍छी बात यह थी कि छोटे-छोटे आठ-दस केबिन लकड़ी के तख्‍तों का पार्टीशन देकर बने हुए थे। दोनों अंदर एक खाली केबिन में जाकर इत्‍मीनान से बैठ गये और किसी दार्शनिक विषय पर गंभीर चर्चा में लीन हो गये। चाय के दो गरमा-गरम प्‍यालों और सिगरेट के कशों की सू-सू के बीच उन्‍हें उद्दीपन की उत्तेजना मिलती रही।

घंटे-डेढ़ घंटे के बाद रेस्‍तरां से बाहर निकले तो बाहर मालिक कुर्सी डाले बैठा किसी से बतियाता नजर आया। उसे चाय के पैसे देने के लिए दोनों ने अपनी-अपनी जेबों में हाथ डाले। हरिशंकर ने अपनी जेब से दो रुपये का नोट निकालकर रेस्‍तरां के प्रोप्राइटर को पकड़ा दिया। जब तक चाय का हिसाब चुकता हुआ वह बराबर यही सोचता रहा कि उसके आज के बजट में अभी रुपया-डेढ़ रुपया खर्च करने की गुंजाइश है; देखो शायद कोई मौका आगे हाथ आ जाये। बिल जैसी किसी चीज का भुगतान करना होता, तब भी कोई बात थी, महज सत्तर पैसे की चाय का भी पैमेंट न करने की निष्क्रियता पर उसे ग्‍लानि हुई। हर क्षण अपने-आप से लड़ना कितनी गलत चीज है-अब सत्तर पैसे को बचाने का दंड भोगो। वह भीतरी द्वंद्व से बचने की कोशिश में जोर-जोर से बोलने लगा। वह कई बार के अनुभव से यह भी जान गया था कि अंदर खोखलापन हो तो हंसी और ठहाकों की आवाज अपेक्षाकृत ऊंची होती है।

न जाने कितने विषयों का अवगाहन करते हुए दोनों आखिर में एक पनवाड़ी की दुकान पर जाकर खड़े हो गये। दोनों ने पान खाये और सिगरेट ली। बातों की व्‍यस्‍तता के बीच ही हरिशंकर ने जेब में हाथ डालकर पांच रुपये का नोट निकाला। जब हरिशंकर पनवाड़ी की ओर नोट बढ़ा रहा था तो वह चौंका और उसे खयाल आया कि इस दफा पैसे उसे ही चुकाने चाहिए……शायद आज के कार्यक्रम का यह आखिरी आइटम था, लेकिन साथ ही वह यह भी सोचे बगैर नहीं रह सका कि हरिशंकर की जेब में पांच के नोट के अलावा टूटे पैसे भी हैं……चायवाले ने एक रुपया तीस पैसे लौटाए थे……अगर हरिशंकर को पान-सिगरेट के पैसे चुकाने की वास्‍तविक ललक होती तो वह पांच का नोट न निकालता…..छुट्टे पैसे ही देकर काम चला सकता था। उसने कर्तव्‍यवश फुर्ती से अपनी जेब में हाथ डाला और एक रुपये का नोट निकालकर दरियादिली दिखाने लगा, ”यार तुम रहने दो, पांच का नोट क्‍यों तुड़ाते हो….पैसे मैं दिये देता हूं, मुझे रात के लिए कुछ सिगरेटें भी लेनी हैं।” हरिशंकर ने उसके आग्रह पर अपना हाथ पीछे कर लिया और नोट अपनी जेब में डाल लिया।

दोनों पान खाकर चले तो चौराहे तक पहुंचते-पहुंचते उसे लगा कि उसका घर अभी काफी दूर है। साढ़े दस बज चुके थे और इतने विलंब से सुनसान रास्‍ते से पैदल जाना मुनासिब नहीं था। उसने हरिशंकर से कहा, ”अब तुम चलो, भाभी को नींद आने लगी होगी। मैं रिक्‍शा ले लूंगा।”

मुंह पर लापरवाही का भाव धारण करके उसने कई रिक्‍शे रोके, मगर खुद को बहुत गरजमंद नहीं दिखलाया क्‍योंकि उसे डर था कि जरूरतमंद दिखने पर रिक्‍शा वाला निश्‍चय ही ज्‍यादा किराया वसूल करेगा। लेकिन थोड़ी देर बाद उसने पाया कि कोई भी रिक्‍शाचालक उस दिशा में जाने को इच्‍छुक नहीं है। कोई आधा मील घिसटने के बाद बस्‍ती के छोर पर जो रिक्‍शे वाला मिला, उससे उसने इस ढर्रे पर बातें कीं कि वह बेचारा ठीक से कुछ समझ ही नहीं पाया और अंत में उसने आत्‍मसमर्पण-सा करते हुए कहा, ”चलो बाबू जी आपकी ही रही….. जो जी में आये दे देना।” उसने रिक्‍शे की ठंडी सीट पर अकड़कर बैठते हुए सर्दी भगाने की कोशिश की और आज दिन भर के खर्चे का हिसाब जोड़ने लगा। काफी वक्‍त से वह देख रहा था कि अकेले होते ही हिसाब जोड़ने की क्रिया स्‍वचालित ढंग से होने लगती थी। शाम से जो खर्च हुआ था उसमें रिक्‍शाचालक का किराया जोड़ देने के बाद लगभग दो रूपया बैठता था। सहसा उसे ठगे जाने का एहसास हुआ। डेढ़ रुपये में तो मजे से खाना खाया जा सकता था और पैदल ही आराम से खरामा-खरामा घर लौटा जा सकता था। उसने बेकार ही हरिशंकर का खाने का एहसान लिया। उसे स्‍वयं पर गुस्‍सा आने लगा, ‘तुम हमेशा इसी तरह बेवकूफ बनते हो, सेंटीमेंटल फूल यू आर, तुम्‍हारी ‘फेट’ में हमेशा एक्‍सप्‍लाइट होना है।’

रिक्‍शे वाला अंधेरी सड़क पर तेजी से पैडिल मारते हुए रिक्‍शा दौड़ा रहा था। उसने रिक्‍शेवाले को अपने मानसिक मंथन में लपेटने की कोशिश की, ”आज शाम को मैं भी चार मील पैदल चला हूं। इतनी लंबी सैर के बाद रिक्‍शे में लदने का मन नहीं होता। वह तो अपने दोस्‍त की वजह से बैठ गया। मैं रिक्‍शे में न बैठता वह भला आदमी इतनी रात को मुझे घर तक छोड़ने आता।….. मैंने सोचा, लाओ रिक्शे में ही चला जाये।” रिक्‍शे वाले ने उसके स्‍वगत आलाप का कोई उत्तर नहीं दिया तो वह फिर बोलने लगा, ”अब यह मेरा दोस्‍त हरिशंकर ऐसा है कि मुझे रात को बारह-बारह बजे तक घर छोड़कर जाता है। हालांकि यह कोई खास बात नहीं है, लेकिन इससे मन की भावना का पता तो चल ही जाता है।”

हरिशंकर के प्रति अंतरंगता का जिक्र शायद अभी वह और भी आगे बढ़ाता, लेकिन रिक्‍शे वाले को अपनी ओर तटस्‍थ देखकर उसका उत्‍साह खंडित हो गया और वह इस बार सीधे रिक्‍शाचालक को संबोधित करते हुए बोला, ”क्यों भाई रिक्‍शे वाले, यहां तुम्‍हारा भी कोई यार है?” रिक्‍शाचालक तेजी से रिक्‍शा खींचते हुए हांफ रहा था, लेकिन जरा-सा पीछे की तरफ मुंह घुमाकर बोला, ”हां बाबू जी, मैं जिस आदमी का रिक्‍सा खेंच रियो हूं, उनने मेरी हालत पर तरस खाकर रिक्‍सा दियो है। इसे वह भी खेंचता है, मैं भी खेंचता हूं। चार दिन से मैं या रक्‍सा चला रियो हूं-उनने मुझे मजदूरी में सामिल कर लिया है-खाना भी साथ बने है।”

उसे रिक्‍शाचालक के उदगार में कचोट का आभास मिला। उसने रिक्‍शे वाले से मालूम किया, ”क्‍या तुम यहां के रहने वाले नहीं हो?”

”नाहीं बाबू साहब, मैं तो जिला बीलनसहर को रहवैया हूं। बड़ी बिपत में हूं। बस चार दिना ते रक्‍सा चलात हूं, पहले मैं एक सीरंज फैटरी में हो।”

”तुमने ऐसी बढिया फैक्‍ट्री की नौकरी क्‍यों छोड़ दी?”

रिक्‍शे वाला रिक्‍शे की गति अपेक्षाकृत धीमी करते हुए बोला, ”बाबू जी, अब आपते कहा बताऊं। मालिक साहब मोसे ते खुश हे-पर उनने बाकी कई कामदारन (मजदूरों) को न तनखा दई-नौकरी ते भी बाहर कर दयो, उनके बाल-बच्‍चे भूखे मरन लगे तो मोकू बड़ो रंज भयो। मैंने भी लगी लगायी नोकरी पै लात माद दयी। फैटरी-कानून के हिसाब ते जो मेरो रूप्‍पया कटो हतो वाये उनने मोय नाहीं दयो।”

रिक्‍शे वाले की सीधी-सादी बेलाग बात सुनकर वह हिल उठा। रिक्‍शाचालक मुश्किल से पच्‍चीस साल का होगा, लेकिन अपने लोगों का साथ देने के लिए उसने कितना भारी रिस्‍क ले डाला। उसने अपनी मनोवृत्ति पर लानत भेजी और साथ ही उसे उन मक्‍कार नेताओं का भी ध्‍यान आया जो दुतरफा चाल चलकर साधारण जनता को शोषण करते हैं और लाभ का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते। रिक्‍शाचालक कह रहा था, ”सो बाबू जी, आपकी दया ते बिपता के दिन भी कट ही जांगे। मैं घर पहुंचूंगों सोई ऊ मेरो जोटीदार रिक्‍शा लेके चल परैगो।”

रिक्‍शा उसके क्‍वार्टर के सामने पहुंच गया। उसने रिक्‍शाचालक को रोका और जेब से एक रुपये का नोट निकालकर उसके हाथ पर रख दिया। रिक्‍शे वाले की कहानी से वह इस कदर प्रभावित हो गया था कि उसने रुपये से बचे पैसे भी नहीं मांगे। उसे आगे बढ़ते देखकर रिक्‍शाचालक बोला, ”बाबू जी, अपने चार आना पैसा तो लेत जावो।” रिक्‍शे वाले के कथन में कोई ठसक नहीं थी। वह पीछे की ओर घूमकर बड़प्‍पन से बोला, ”नहीं, नहीं, इन पैसों को तुम अपने पास ही रखो, इनका कुछ खा-पी लेना।”

रिक्‍शाचालक कुछ नहीं बोला-वह रिक्‍शे को रोके कुछ क्षण सोचता रहा और फिर रिक्‍शा मोड़ने लगा। उसने अपने दरवाजे पर खड़े होकर परम तृप्ति से रिक्‍शे वाले पर एक नजर डाली और अपनी उदारता पर गदगद होते हुए ताला खोलने लगा। उसे अपने बदले हुए स्‍वरूप पर रह-रहकर हैरत होने लगी-हरिशंकर से अलग होकर उसको हिसाब-किताब ने किस कदर जकड़ लिया था? यही नहीं, उसने रिक्‍शाचालक को पांच पैसे बचाने के लिए दार्शनिकता-भरा हुआ अर्थतंत्र समझाया था।

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