( यह कहानी वरिष्ठ कवि-आलोचक श्री श्रीनिवास श्रीकान्त के लिए)

(भुंडा : पहाड़ी समाज का एक विचित्र, उत्कृष्ट और विशेष उत्सव माना जाता है जिसे पुराने समय में हर बारह वर्ष के बाद मनाए जाने की परंपरा थी। लेकिन पहाड़ों में आज इसके आयोजन का कई कारणों से कोई निश्चित समय तय नहीं है। इसमें ‘बेड़ा’ नामक दलित जाति के परिवार से एक व्यक्ति का चुनाव करके उसे यज्ञोपवीत धारण करवा कर ब्राह्मण बना दिया जाता है। उत्सव में बेड़ा की देवता और ईश्वर की तरह पूजा होती है। पहाड़ों में इस जाति के अब गिने-चुने परिवार ही बचे हैं।)

सहज राम उर्फ सहजू अब दलित नहीं रह गया था।

उसे ठंडे पानी से नहलाया गया। पूजा के उपरांत सारे संस्कार ब्राह्मणों की तरह करवाए गए। यज्ञोपवीत धारण करवा कर उसे द्विज बना दिया गया। अब वह नीच जाति का न रह कर ब्राह्मणों की तरह पवित्र हो गया था। लोग उसे देवता का रूप मानने लगे थे। एकाएक अछूत से ब्राह्मण बन गया था सहजू। अब उसे विशेष विधि-विधान का पालन भी करना था जिसमें एक समय खाना खाना, नख और केश न काटना तथा ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना इत्यादि शामिल था। भोजन और कपड़े उसे मंदिर की तरफ से मिलने शुरू हो गए थे। यहाँ तक कि आयोजन की अवधि तक उसके पूरे परिवार का खर्चा भी देवता कमेटी को ही उठाना था।

भुंडा उत्सव के लिए अब विशेष रस्से का निर्माण किया जाना था।

लोग देवता के तमाम वाद्यों के साथ एक पहाड़ी पर सहजू को ले कर मूँज का घास काटने चले गए थे। पहले सहजू ने ही दराटी से घास काटने की परंपरा का निर्वाह किया था। इसके बाद सभी गाँववालों ने घास काटना शुरू कर दिया। जब पर्याप्त मात्रा में घास काट लिया गया तो सभी ने घास की गड्डियों को मंदिर के प्रांगण में ला कर रख दिया। इसी घास से सहजू को भुंडा के लिए रस्सा बनाना था। उत्सव स्थल का मुआयना किया गया तो कुल लंबाई 500 मीटर की निकली। इतना ही लंबा रस्सा बनना था। मजबूती के लिए उसकी मोटाई लगभग 25-30 सेंटीमीटर रखनी जरूरी थी।

सहजू को ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर नहाना पड़ता था। पूजा-पाठ के पश्चात वह मूँज के घास से रस्सा बनाने में जुट जाता। यह कार्य अत्यंत ही पवित्र माना जाता। उस समय कोई दूसरा व्यक्ति न उसके सामने आता और न ही बात करता था। कोई भी रस्से को छू तक नहीं सकता था। यदि भूल से किसी ने ऐसा कर लिया तो वह अपवित्र माना जाता। तत्काल उस पर एक भेड़ की बलि चढ़ाई जाती और नया रस्सा बनाना आरंभ करना पड़ता। रस्सा बनाते हुए सहजू के मन में तरह-तरह के खयाल भी आते रहते। वह सोचता कि उसका जो बुजुर्ग बरसों पहले भुंडा निभाते रस्से से गिर कर मर गया था उसने भी इसी तरह तिनका-तिनका घास के रेशे से मौत को बुना होगा। वह इन्हीं ख्यालों में दिन भर खोया रहता। उसकी पत्नी दूर बैठी उसे चुपचाप निहारती रहती। कई बार निगाहें सहजू के चेहरे पर टिक जाया करती। उसके चेहरे पर आते-जाते भाव को पढ़ने की कोशिश करती। कभी वहाँ मौत की परछाई रेंगती दिखती तो कभी अपार संपन्नता की लकीरें बनती-बिगड़ती नजर आतीं। अपने खाविंद को एक दलित से बाह्मण होने के सुख को भी वह उसके चेहरे और आँखों पर तलाशने लगती। लेकिन कभी-कभी वह चेहरा अपने पति का न लग कर एक पाखंडी या करयालची के जैसा लगता जिस पर जबरन ब्राह्मण का मुखौटा चढ़ा दिया गया हो। लोगों ने अपने मनोरंजन के लिए उसे एक स्वाँगी बना दिया गया हो।

जब सहजू रस्से बनाने का काम बंद करता तो गाँव के लोग उनके पास आते जाते रहते। उनसे इज्जत से बतियाते। घास कम होता देख फिर काट कर ले आते।

भुंडा जैसे महा-उत्सव का आयोजन भगवान दत शर्मा के दिमाग की उपज थी। तहसीलदार के पद से शर्मा जी कुछ दिनों पूर्व ही सेवानिवृत हुए थे।

जिस दिन वे सेवानिवृत हुए, उन्होंने अपने गाँव में पूरे ताम-झाम के साथ एक बड़ी धाम दी थी। इसमें सगे-संबंधियों के अतिरिक्त गाँव-बेड़ और परगने तक से लोग बुलाए गए थे। दफ्तर से तो उनके नए-पुराने साथी आए ही थे। उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र के विधायक को भी विशेष रूप से आमंत्रित किया था। विधायक के साथ प्रशासन के भी सभी अधिकारीगण पधारे थे। गाँव के देवता को भी बुलाया गया था। शर्मा जी जब अपने दफ्तर से गाँव पहुँचे तो साथ दस-पंद्रह छोटी-बड़ी गाड़ियाँ थीं। अंग्रेजी बाजे के साथ ढोल-नगाड़ा बजानेवाली पार्टी को बुलाना भी नहीं भूले थे। इससे जहाँ उन्होंने तहसीलदारी की ठीस बरकरार रखने की कोशिश की थी वहाँ लोगों के बीच अपनी छवि को एक धार्मिक दृष्टि देने का भी प्रयास किया था।

धाम में कई प्रकार के पकवान बनाए गए थे। देसी और अंग्रेजी शराब उपलब्ध थी। पाँच बकरे भी काटे गए थे। लोगों ने इससे पहले कभी ऐसा जशन नहीं देखा था। इसीलिए इस कार्यक्रम की चर्चा काफी दिनों तक होती रही। शर्मा जी ने इतना बड़ा आयोजन करके कई निशाने साधे थे। लेकिन ये उनके मन की बातें थीं जिसकी वे किसी को भी भनक नहीं लगने देना चाहते थे। वे जानते थे कि जिस ठाठ से उन्होंने नौकरी की है, सेवानिवृति के बाद वह ठसक कहाँ रहनेवाली? सभी कुर्सी को प्रणाम करते हैं। बाद में तो कोई कुत्ता भी नहीं पूछता। बैंक-बेलैंस भले ही लाखों में हो पर जब तक कोई कुर्सी का जुगाड़ नहीं तो आदमी आदमी रहता ही कहाँ है। वैसे भी शर्मा जी तहसीलदार के पद से रिटायर हुए थे। पैसा भी खूब कमाया था। इज्जत-परतीत भी अच्छी-खासी बटोरी थी। काम भी लोगों के बहुत किए। ऐसा भी नहीं कि वे दूध के धुले हुए थे। पर पैसा इस ढंग से बनाया कि अपने ऊपर कोई आँच तक न आने दी।

अट्ठावन साल की उम्र में भी भगवान दत्त शर्मा चालीस के आसपास ही लगते थे। अभी भी गाल लाल थे। झुर्रियों का कहीं नामोंनिशान न था। हालाँकि बाल कई बरस पहले सफेद हो चुके थे लेकिन मेंहदी से उन्हें काले किए रखते थे। माथा काफी चौड़ा था। गोल चेहरा ठोड़ी तक आते-आते थोड़ा नुकीला था। हल्की मूँछें उन पर खूब जँचती थीं। माथे पर चंदन और कुमकुम मिश्रित टीका वे हमेशा लगाए रखते। नौकरी में उन्होंने कभी टाई और कोट पहनना नहीं छोड़ा। कोट की जेब में टाई के रंग से मिलता रूमाल वे हमेशा रखते। इसीलिए ठाठबाठ देख कर उनके वरिष्ठ अफसरों का भीतर ही भीतर फुँके रहना स्वभाविक था। लेकिन रिटायर होने के बाद उन्होंने अपना लिबास बदल लिया था। अब फेरीदार पाजामे-कुरते के साथ वे नेहरुकट सदरी पहनते और जेब में बाहर झाँकता लाल रूमाल सजा रहता। इस चमक-धमक से भी उनका व्यक्तित्व कुछ अलग हट कर ही लगता था।

शर्मा जी का परिवार गाँव में सबसे संपन्न था। वे तीन भाई थे। तीन ही गाँवों के मालिक। उन्हें बड़े जमींदार भी कहा जा सकता था। अपने परिवार में उनकी पत्नी, दो बेटे, दो बहुएँ और तीन पोते-पोतियाँ थे। दो लड़कियों की शादी हो चुकी थी। छोटा लड़का बी.डी.ओ. लग गया था। बड़ा कत्थे का ठेकेदार था। साथ जमींदारी भी सँभालता था। पानी लगती जमीन थी। फसलों के साथ खूब सब्जियाँ भी होती थीं जिनसे अच्छी-खासी आमदनी थी। दो क्वालिस गाडियों के साथ दो ट्रक भी थे। गोरखों की एक लेबर लगातार खेती-बाड़ी के काम में लगी रहती थी।

पहला काम शर्मा जी ने देवता कमेटी में घुसने का किया था। कई दिनों तक देवता के कार्यक्रमों में आते-जाते रहे। लेकिन जब कमेटी में सरपंच के चुनाव हुए तो लोगों के पास उनसे बढ़िया विकल्प कोई नहीं था। सर्वसम्मति से सरपंच चुन लिए गए। यह उनके धार्मिक जीवन की शुरुआत थी। यहीं से ही ग्राम पंचायत की प्रधानी तक जाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अभी से जुगाड़ भिड़ाने शुरू कर दिए थे। शर्मा जी अब कुछ ऐसा करना चाहते थे जिससे गाँव-परगने में ही नहीं बल्कि दूर-दराज के इलाकों में भी उनकी साख का डंका बजना शुरू हो जाए। उनकी खूब वाह-वाह भी हो जाए और विधायक तथा मुख्यमंत्री तक भी खूब पहुँच बन सके।

उनका पूरा गाँव ब्राह्मणों का था। पाँच गोत्रों के ब्राह्मण वहाँ रहते थे। इसे एक प्राचीन सांस्कृतिक गाँव भी माना जाता था। कालांतर से यहाँ बारह बरस के अंतराल के बाद निरंतर भुंडा महोत्सव हुआ करता था। गाँव में कई प्राचीन मंदिर अभी भी मौजूद थे। जिनका धार्मिक ही नहीं बल्कि पुरातात्विक महत्व भी था। गाँव में चार-पाँच परिवार दलितों के थे। उन्हीं में एक परिवार बेड़ा जाति का भी था जो भुंडा में मुख्य भूमिका निभाया करता था। लेकिन बरसों पहले उनके परिवार का एक सदस्य भुंडा का रस्सा टूटने से मर गया था। शर्मा जी ने अपने दादा-पड़दादाओं से इस कथा को सुन रखा था जो मन में आज भी तरोताजा थी। जब बेड़ा को जीन-काठी पर बिठा कर रस्से पर छोड़ा गया तो कुछ दूरी पर वह रुक गई। बेड़ा बेचारा न आगे खिसक पाया न ही पीछे हट सका। रस्से में बाट पड़ गए थे। लोगों ने दोनों ओर से बहुत प्रयत्न किए कि बेड़ा की जीन-काठी आगे खिसक जाए लेकिन सभी प्रयत्न असफल हो गए। उन्होंने जब रस्से को जोर-जोर से लकड़ी के डंडों से पीटना शुरू किया तो रस्सा टूट गया। बेड़ा कई सौ फुट नीचे चट्टानों पर गिर पड़ा और मृत्यु हो गई। उस गाँव और परगने के लिए वह दिन बड़े अनिष्ट का माना गया था। उसके बाद गाँव में भयंकर महामारी फैल गई। गाँव की आधी से ज्यादा जनसंख्या मौत के मुँह में चली गई। इसीलिए गाँवों के ब्राह्मणों ने बेड़ा के परिवार के साथ दूसरे दलितों को भी गाँव से भगा दिया और सारे अनिष्ट का ठीकरा उन्हीं के सिर फोड़ डाला।

अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए शर्मा जी को इससे बेहतर कोई दूसरा आयोजन नजर नहीं आ रहा था। वे जानते थे कि उस हादसे के बाद गाँव में कभी भुंडा नहीं हो पाया था। हालाकि दूसरे गाँवों में कभी-कभार बीस-चौबीस बरसों के अंतराल में यह आयोजन होता ही रहता था। अपनी तहसीलदारी के रहते उन्होंने भी कई आयोजन करवाए थे। परंपराएँ उसी तरह निभाई जाती थीं लेकिन ‘बेड़ा’ को जितने लंबे रस्से पर उतारा जाता उसके नीचे उतनी ही लंबी जाली भी बिछा दी जाती थी। बेड़ा किसी कारण गिरे भी तो उसे तत्काल बचाया जा सकता था। कई जगह ‘बेड़ा’ जाति का कोई व्यक्ति उपलब्ध न होने पर लोग बकरे को ही जीन-काठी पर बाँध कर छोड़ते थे।

शर्मा जी ने यह बात एक दिन देवता कमेटी के सदस्यों से की। सभी को उनकी बात खूब जँची थी। देवता के गूर का विचार था कि उनके गाँव पर अभी तक उस अनिष्ट का साया बरकरार है। वह तभी मिट सकता है जब गाँव में भुंडा का आयोजन किया जाए। इससे गाँव पहले जैसा संपन्न और खुशहाल भी हो जाएगा। लेकिन बात लाखों रुपए के व्यय की थी। आज की महँगाई में इतना बड़ा आयोजन करना नामुमकिन था। इसका समाधान भी शर्मा जी ने ही निकाल दिया था। उन्होंने तत्काल एक लाख रुपए देवता कमेटी को दान देने का वादा कर दिया। इससे सभी सदस्यों का मनोबल बढ़ गया। दूसरा विकल्प यह निकाला गया कि देवता के पास जो बरसों का सोना-चाँदी पड़ा है उसे अच्छी कीमत पर बेच दिया जाए। देवता का धन यदि देवता के ही काम आए तो इसमें बुरा भी क्या? इस बात पर सभी की सहमति बन गई थी।

अब समस्या बेड़ा को ढूँढ़ने की थी। गाँव में किसी को भी पता नहीं था कि बरसों पहले निकाले जाने के बाद वे लोग कहाँ जा कर बस गए थे। शर्मा जी ने ही इसका समाधान निकाल दिया था। उन्होंने बेड़ा को तलाश करने और गाँव में लाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। देवता कमेटी उनकी सक्रियता को देख कर बेहद प्रभावित थी। उन्हें खूब मान-प्रतिष्ठा भी मिलनी शुरू हो गई थी। देवता से ले कर गाँव-परगने के कई दूसरे छोटे-बड़े काम अब उन्हीं के सलाह-मशविरे से होने लगे थे। यह सुख शर्मा जी को तहसीलदार की कुर्सी से कहीं बढ़ कर लगने लगा था।

शर्मा जी मन ही मन बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने आयोजन की पूरी रूप-रेखा अपने मन में तैयार कर ली थी। यह भी तय कर लिया था कि प्रदेश के मुख्यमंत्री को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया जाएगा। गाँव-बेड़ में जब देवता कमेटी के निर्णय का पता चला तो लोग हैरान-परेशान हो गए। इतने बड़े आयोजन के लिए वे तैयार नहीं थे। लेकिन शर्मा जी और कमेटी के अन्य सदस्यों ने उन्हें समझा-बुझा कर मना लिया था।फिर इतने बड़े पुण्य से वंचित भी कौन रहना चाहता था?

शर्मा जी के लिए सबसे बड़ी मुश्किल ‘बेड़ा’ परिवार तलाशने की थी। बेड़ा जाति के लोग दूर-दूर तक भी अब नहीं रहे थे। भीतर की बात यह थी कि जिस परिवार को अनिष्टकारी मान कर गाँव से निकाला गया था उसी के सदस्य को लाना जरूरी था। गाँव के बुजुर्गों और कुल पुरोहितों का मानना था कि गाँव पर उन लोगों का अभिशाप अभी तक भी बैठा है। क्योकि जो ‘बेड़ा’ रस्से से गिर कर मरा था उसमें उसका तो कोई दोष नहीं था। इसलिए यदि उसी परिवार का कोई रस्से पर उतरे तो दो काम सफल हो जाएँगे। पहला कलंक और शाप से छुटकारा और दूसरा भुंडा के सफल आयोजन से पुण्य ही पुण्य।

शर्मा जी गाँव के एक-दो लोगों को ले कर पहले विधायक जी के पास पहुँचे और इस संदर्भ में बात की। देखो विधायक जी! हमारे गाँव में लगभग डेढ़ सौ सालों बाद भुंडा होगा। मुख्य अतिथि तो आपको मुख्यमंत्री जी ही लाने हैं। इससे आपका भी भला और हमारे साथ गाँव का भी फायदा। शर्मा जी ने विनम्रतापूर्वक विधायक के आगे प्रस्ताव रखा था।

विधायक जी को तत्काल कुछ नहीं सूझ रहा था। उन्होंने भी अपने बुजुर्गों से ‘बेड़ा’ के रस्से पर से गिरने से हुई मौत की बात सुन रखी थी। वे खुद भी दलित वर्ग से थे। उनका चुनाव-क्षेत्र आरक्षित था। सिगरेट के कश लगाते हुए काफी देर मन ही मन में बैठकें करते रहे। उनका विचार बरसों पहले घटी घटना की तरफ चला गया। उसकी आड़ में अपने फायदे-नुकसान का हिसाब-किताब लगाया। दलितों की वोटों की तरफ एक सरसरी नजर दौड़ाई जो उन्हें पिछले चुनाव में बहुत कम मिले थे। दूसरी सबसे बड़ी बात इलैक्ट्रॉनिक युग में अपनी पुरानी परंपराओं के साथ अपने को जोड़ने की लगी। तीसरी जो मुख्य बात समझ में आई वह गाँव से निष्कासित ‘बेड़ा’ और दलित परिवारों को पुनः इस बहाने सम्मान दिलाने की थी। यह अवसर उन्हें ‘ऑल इन वन’ जैसा लगा।

विधायक जी ने मन में खूब जोर का एक ठहाका लगाया लेकिन उसका भाव चेहरे पर नहीं आने दिया। एक बनावटी मुस्कान चेहरे पर उतारते हुए कहने लगे, शर्मा जी! धन्य है आप। नौकरी करते हुए भी अपनी परंपराएँ मन में बचा रखी हैं। वरना रिटायरमेंट के बाद तो लोग सठिया जाते हैं। कोई तो इस गम से परेशान हो कर दो साल भी नहीं निकाल पाते। आपने तो इतना बड़ा बीड़ा उठाया है। बड़ी समाज सेवा है भई। मैं तो आपके साथ हूँ। मेरे लिए आप जो सेवा दें, सिर माथे। शर्मा जी खुश हो गए। मन में कुल देवता को नमन किया। उसी के परताप से सब शुभ हो रहा है। पर दूसरे पल कुछ चिंताओं की रेखाएँ अनायास चेहरे पर उमड़ी तो विधायक जी ने टोक दिया, कुछ परेशान दिख रहे हैं शर्मा जी? नहीं नहीं विधायक जी ऐसी बात नहीं है। भई मैं आपके साथ हूँ। कुछ है तो निःसंकोच बताएँ।

साथ दूसरा व्यक्ति बैठा था। उसने पहले विधायक जी के चेहरे पर नजर दी। फिर शर्मा जी की तरफ देखा। चिंता का उसी ने समाधान किया था। परेशानी उस बेड़ा परिवार को तलाशने की है जिन्होंने गाँव छोड़ दिया था। विधायक जी ने सुना तो आँखें लाल हो गईं। मन अपमान से तिलमिला गया। जैसे बरसों पहले गाँव से उन्हें ही निकाला गया हो। लेकिन पल भर में सहज हो लिए। उनकी फिक्र आप क्यों करते हैं शर्मा जी। कागज लाइए पता मैं बता देता हूँ। है तो बहुत दूर। लेकिन जब आप सभी ने इतने बड़े आयोजन की ठानी है तो दूरियाँ कैसी। हाँ थोड़ी-बहुत मान-मनौती तो करनी पड़ेगी ही। बात भले ही बरसों पहले की है पर बेइज्जती के जख्म तो सदा हरे ही रहते हैं। शर्मा जी और उनके साथ बैठे दोनों आदमी थोड़ा झेंप गए। लेकिन शर्मा जी को सूत्र मिल गया था। झट से डायरी निकाली और विधायक जी के पास पकड़ा दी। उन्होंने सदरी की जेब से पेन निकाला और पता लिख दिया। शर्मा जी ने डायरी वापिस पकड़ी और पता पढ़ते हुए टेलीफोन शब्द पर नजर पड़ी तो चौंक गए, टेलीफोन भी है? विधायक जी अपना आपा खोते-खोते रह गए। क्यों शर्मा जी इन लोगों के पास टेलीफोन या दूसरी सुविधाएँ नहीं होनी चाहिए थी। बात हृदय में सुई की तरह चुभी। पर सँभल गए। कैसी बात करते हैं विधायक जी। मेरा इरादा कोई ऐसा-वैसा थोड़े ही था। बस देख कर खुशी से चौंक गया था कि काम और आसान हो गया। ऐसा न करियो शर्मा जी। फोन से बात मत करना। वरना बना-बनाया खेल बिगड़ेगा। मान-सम्मान से जाना उनके पास। कठिन काम है। अब आपकी तहसीलदारी देखनी है कि कितनी काम आती है। शर्मा जी को विधायक जी चुनौती देते दिखे थे। लेकिन काम अपना था, चुपचाप उठे और विधायक जी को प्रणाम करके निकल आए।

जब दलित परिवार उस गाँव से निकाले गए तो वे कई दिनों भूखे-नंगे भटकते रहे। उन्होंने माँग-माँग कर गुजारा किया था। कई सदस्य मर भी गए। बड़ी मशक्कत के बाद एक परिवार ने उनकी मदद की थी और उन्हें कुछ जमीन भी दे दी थी। मेहनत से उन्होंने अपना एक छोटा सा गाँव बसा लिया था। शर्मा जी ने तो कभी उस गाँव का नाम तक नहीं सुना था।

गाँव लौट कर देवता कमेटी से चर्चा हुई तो सभी खुश हो गए। शर्मा जी और कमेटी के दो अन्य कारदार तत्काल ‘बेड़ा’ को आमंत्रित करने चल दिए। जहाँ तक सड़क थी वहाँ तक वे लोग गाड़ी से गए थे। लेकिन वहाँ से लगभग सात मील का चढ़ाईवाला रास्ता बेड़ा परिवार के गाँव तक पहुँचता था। शर्मा जी को पैदल चलने की कतई आदत नहीं रही थी। तहसीलदारी में तो ऐसे रास्तों के लिए पहले से ही घोड़ा उपलब्ध रहता। लेकिन इस समय तो अपने पाँव से ही काम चलाना पड़ा। जैसे-कैसे शाम ढलने से पहले वे वहाँ पहुँच गए थे।

उसे गाँव का नाम देना शर्मा जी को बेमानी लगा था। एक घाटी की ढलान की ओट में चार-पाँच घर थे। अनघड़े पत्थरों से उनकी छतें छवाई गई थी। उनमें दो-तीन घर दो मंजिला थे। लेकिन थे साफ-सुथरे। नीचे और ऊपर की तरफ छोटे-छोटे खेत थे जिनमें गेहूँ और जौ की फसल लहला रही थी। उन घरों के आँगन से एक चौड़ा रास्ता घासणी के बीचोंबीच दूसरी तरफ कहीं गुम होता दिखाई दे रहा था। एक घर के पास पहुँचते ही दो-तीन कुत्तों ने उनका स्वागत किया। लेकिन तभी एक महिला आँगन में निकली और कुत्तों को चुप करवा दिया। उसने कुछ अपनी पहाड़ी बोली में कहा था लेकिन शर्मा जी उसे नहीं समझ सके। तभी भीतर से एक अधेड़ उम्र का आदमी निकला तो शर्मा जी ने उससे बात शुरू कर दी। वह टूटी फूटी हिंदी बोल लेता था। जब यहाँ रह रहे बेड़ा परिवार के बारे में पूछा तो उसने घासणी के मध्य से आगे निकलती पगडंडी की तरफ इशारा कर दिया। वे उधर निकल चल दिए थे।

दूसरी तरफ पहुँचे तो उनकी नजर एक पक्के दो मंजिला मकान पर पड़ी। वे पगडंडी से नीचे उतर कर उस घर के आँगन में पहुँच गए। एक बुजुर्ग आँगन में बैठा तंबाकू पी रहा था। उसने हल्की काली ऊन का कुरता-पाजामा पहन रखा था। सिर पर लाल रंग की गोलदार पहाड़ी टोपी थी। दाईं तरफ एक किल्टा रखा था जिसके भीतर दो बिल्ली के बच्चे खेल रहे थे। एक मेमना भीतर से भाग कर आता और किल्टे में सिर की डकेल मार कर फिर भीतर भाग जाता। किल्टा रेंग कर इधर आता तो वह बुजुर्ग हल्का सा धक्का दे कर उसे दूर कर लेता। सामने रखी टोकरी में कई सफेद-भूरी ऊन के फाहे रखे हुए थे। कश लेते हुए वह एक फाहा उठाता और तकली से कातने लग जाता। शर्मा जी की नजरें कुछ पल उस तकली के साथ घूमती रही। पास ही एक दराट भी पड़ा था। शर्मा जी की नजरें उसके कान पर पड़ी। बड़े-बड़े सोने के बाले देख कर वह चौंक गए।

शर्मा जी कुछ पूछते, तभी एक आदमी भीतर से बाहर निकला। उसकी उम्र पैंतालीस के आसपास लग रही थी। अचानक पखलों को आँगन में देख कर ठिठक गया। शर्मा जी ने एक साँस में अपना परिचय दे दिया। गाँव का नाम सुनते ही बुजुर्ग जोर से खाँसा और कई पल खाँसता रहा। खाँसी कम हुई तो फटाफट किल्टा सीधा करके बिल्ली के बच्चों को उस के अंदर कैद कर दिया। भीतर से खटर-पटर की आवाजें आती रहीं। तकली टोकरी में फेंक कर पास पड़े दराट पर दायाँ हाथ चला गया। उसने टेढ़ी गर्दन करके उन लोगों को सिर से पाँव तक देखा। आँखों में खून तैर रहा था। गुस्से से पूरा शरीर काँपने लगा था। शर्मा जी ने सरसरी नजर उसके चेहरे पर डाली पर आँख मिलाने की हिम्मत न हुई। एक बार लगा कि वह बूढ़ा अपना हुक्का चिलम समेत उन पर फेंक देगा। या दराट ले कर पीछे ही दौड़ पड़ेगा। उसने एक साथ कई कश हुक्के की नड़ी से खींचे। शर्मा जी इस अप्रत्याशित गुड़गुड़ाहट के बीच जैसे फँस से गए थे।

शर्मा जी ने डरते-डरते जैसे ही भुंडा की बात शुरू की वह बुजुर्ग हाँपता हुआ खड़ा हो गया। देख कर ऐसा लग रहा था मानो उस पर किसी देवता की छाया आ गई हो। उसने जैसे ही दराट का वार शर्मा जी पर करना चाहा भीतर से आए आदमी ने उसका हाथ पकड़ लिया। उसे मुश्किल से सँभाला और खींचते हुए भीतर ले गया। अभी भी वह टेढ़ी गर्दन से पीछे देख रहा था। शर्मा जी और उसके साथियों की पाँव तले जमीन खिसक गई। मारे भय के वे घर के पिछवाड़े हो लिए।

भीतर कुछ देर उन लोगों का आपस में बोल-चाल होता रहा जिसकी आवाजें शर्मा जी के कान में गर्म तेल की तरह पड़ती रही। उनसे न तो वहाँ रुकते बन पा रहा था न जाते। आज शर्मा जी ने अपने को इतने विवश पाया जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। भुंडा के आयोजन पर पानी फिरता नजर आने लगा था। एक मन किया कि वहाँ से तत्काल खिसक लिया जाए। लेकिन मन पर स्वार्थ की परतें इतनी गहरा गईं थीं कि पाँव पीछे मुड़ने के बजाय आँगन की तरफ सरकने लगे थे।

वह आदमी गुस्से में बाहर निकलते ही उन पर चिल्ला पड़ा, यहाँ से चले जाएँ आप लोग। क्या सोच रखा है। कैसे निकाला था हमारे बुजुर्गों को। सब जानते हैं। हम वहाँ दोबारा जलील होने जाएँ आप लोगों ने यह सोचा कैसे। हम बेवकूफ नहीं हैं। आज की बात होती तो बताते। हाँ।

शर्मा जी एक पल के लिए सकते में आ गए। पर उसके खाली हाथ देख हिम्मत बटोर कर उसके सामने चले आए। अपनी गरज थी, दोनों हाथ जोड़ दिए, देखो भाई! जो कुछ आपके साथ हुआ, उसमें हमारा क्या दोष? हम उसके लिए आप सभी से माफी ही माँग सकते हैं। इसी खातिर आए भी हैं। आज जो चाहें आप सजा दे सकते हैं। भला-बुरा बोल सकते हैं। सब कुछ सर-माथे। हम ही नहीं सारा गाँव उसके लिए शर्मिंदा भी है। हम चाहते हैं कि आप भुंडा निभाए। हमारे साथ-साथ पुण्य के भागीदार भी बनें।

तुम्हारे गाँव के बुजुर्गों ने अच्छा नहीं किया था। सब कुछ उजाड़ दिया हमारा। आज किस मुँह से आप यहाँ आए। सच, कैसे सब्र हो गया। बाबा कुछ बीमार है। ठीक होते तो पता नहीं क्या कर देते। हे भगवान! यह कहते-कहते उसने दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ लिया। जैसे कोई बड़ी अनहोनी टल गई हो। शर्मा जी आगे बढ़े और आत्मीयता से उसके दोनों हाथ अपने हाथों में भर लिए। अति विनम्र और स्नेह से कहने लगे, भाई! मत समझो कि हम यहाँ अपनी मर्जी से आए हैं। यह देव आज्ञा है। हम कौन होते हैं। हमारी औकात ही क्या? सभी उस देवता-ईश्वर की मर्जी है। हम तो आपके आगे हाथ ही जोड़ सकते हैं। आपके बुजुर्ग के पाँव ही पड़ सकते हैं।

शर्मा जी को अपने काम के लिए गधे को मामा बोलनेवाली कहावत इस वक्त बिल्कुल उचित जान पड़ रही थी। देवता का वास्ता सुन कर वह थोड़ा सा सहज हुआ। कहा कुछ नहीं। उल्टे पाँव भीतर लौट गया। दरवाजे पर पहुँचते ही एक लड़के ने उसे पानी का बड़ा सा डिब्बा पकड़ा दिया। उसने खड़े गले सारा पानी गटक लिया। शर्मा जी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उन्हें एक पल लगा कि किए-किराए पर पानी फिर गया है। भीतर वह बुजुर्ग जोर-जोर से अपनी बोली में गालियाँ बक रहा था। काफी देर बाद वह आदमी जब दोबारा बाहर आया तो हाथ में तीन प्लास्टिक की कुर्सियाँ थीं। शर्मा जी ने देखा तो जान में जान आई। कुर्सियाँ आँगन में पटक दीं।

अब तक इधर-उधर से कुछ मर्द और औरतें भी आँगन के उस तरफ इकट्ठे हो गए थे। पंडितों का उनके आगे इस तरह गिड़गि‍ड़ाना सभी को अकल्पनीय लग रहा था। वातावरण में भरी उमस जैसे हल्की हो गई। उसने तीनों को कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। वे चुपचाप बैठ गए। फिर किल्टा उठाया। बिल्ली के दोनों बच्चे भाग खड़े हुए। ऊन की टोकरी और हुक्का एक किनारे रखते हुए अपना नाम बताने लगा, मैं सहज राम। घर में सहजू ही बोलते हैं। वो मेरे पिता जी सौ पार कर गए है।

सौ पार?

शर्मा जी और दोनों कारदार स्तब्ध रह गए। बुजुर्ग इतनी उम्र का दिखता ही नहीं था।

सहज राम की बातचीत करने के ढंग से लग रहा था कि वह कुछ पढ़ा लिखा भी है। शर्मा जी लंबी भूमिका नहीं बाँधना चाहते थे। उन्होंने उससे सीधी बात की और पहले की घटना पर दोबारा अफसोस ही नहीं जताया बल्कि गाँव और देवता की तरफ से माफी भी माँग ली थी। सहजू ने कुछ देर मन में विचार-विमर्श किया। फिर भीतर चला गया। बाहर खड़े लोग भी भीतर हो लिए। उन सभी की काफी देर खुसर-फुसर होती रही। काफी देर बाद बाहर आया और भुंडा में आने के लिए अपनी स्वीकृति दे दी। शर्मा जी और उनके साथी हाथ जोड़ कर खड़े हो गए। उन सभी का आभार जताया और वहाँ से खिसक लिए। तीनों के चेहरे पर इसका सुख तो झलक रहा था लेकिन मन पर पड़ी चोटें इतनी गहरी थीं कि सड़क तक किसी ने कोई बात ही नहीं की।

देर रात वे गाँव पहुँचे थे। पर कोई भी रात भर सो न पाया था। सुबह जब देवता कमेटी के सदस्यों और लोगों को शर्मा जी ने बताया कि ‘बेड़ा’ मिल गया है तो सभी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। इसके बाद गाँव के हर घर में भुंडा उत्सव प्रवेश कर गया था। सभी तैयारियों में जुट गए थे। अपनी-अपनी तरह से सोचते-विचारते लोग जैसे-कैसे भी अपने खोए हुए पुण्य को फिर से कमाना चाहते थे। अपने घर-परिवार, पशु और खेती को विपत्तियों से सदा-सदा के लिए मुक्त कर देना चाहते थे।

भुंडा उत्सव की प्रक्रियाएँ प्रारंभ हो गईं थीं। सबसे पहले गाँववालों की एक सभा बुलाई गई। सभा का आयोजन मुख्य देवता के मंदिर के प्रांगण में हुआ था। मंदिर के मुख्य द्वार के सामने लगभग डेढ़ मीटर ऊँचाई पर स्थित चौंतड़ा था। गाँव के पंच और देवता के कारदार इसी पर बैठ कर ऐसे कार्यक्रमों के निर्णय लिया करते थे। इस पर पंचों के बैठने के आसन बने थे जिनके पीछे ऊँचे पत्थर लगे थे। शर्मा जी सरपंच थे इसीलिए उनका स्थान मध्य में था। चारों तरफ दूसरे कारदार और मुखिए बैठ गए। गाँव के लोग चौंतड़े के चारों तरफ नीचे बैठ गए थे। देवता के गूर के साथ बैठ कर पुरोहितों ने लंबी बातचीत के बाद मुहूर्त और तिथियों को अंतिम रूप दे दिया और सहजू को सर्वसम्मति से ‘बेड़ा’ नियुक्त कर लिया गया।

मुहूर्त के मुताबिक जब सहजू को शर्मा जी ने इस बारे में बताया तो उसने एक शर्त यह रख दी कि रस्सा उतना ही लंबा बनेगा जितना कि पिछले भुंडे में उनके बुजुर्ग ने बनाया था। दूसरी शर्त यह थी कि रस्से के नीचे बचाव के लिए कोई जाली इत्यादि नहीं लगाई जाएगी। शर्मा जी के लिए यह शर्त काठ की तरह सिर पर पड़ी थी। उन्होंने तत्काल कुछ कहना ठीक नहीं समझा लेकिन यह बात परेशानी की तो थी ही। रस्से के नीचे बिना जाली लगाए यदि दोबारा वही हादसा हो गया तो किए किराए पर पानी फिर जाएगा। बहुत सोचने-विचारने के बाद भी जब कोई समाधान न सूझा तो सारी बात देवता के हवाले कर दी गई। पर ‘बेड़ा’ की शर्तें मानने के अलावा उनके पास कोई चारा भी न था।

अब सारा गाँव भुंडा की तैयारियों में जुट गया था। देवता के पंचों ने गाँव के लोगों के लिए कई कार्य निर्धारित कर दिए थे। साथ ही उत्सव के आयोजन के व्यय को देखते हुए प्रत्येक परिवार को पाँच सौ रुपए और एक-एक मन चावल की जोड़ भी डाल दी गई थी। इसे लोगों ने स्वीकार कर लिया था। सभी अपने-अपने घरों की लिपाई-पुताई में लग गए थे। प्रत्येक घर में से एक सदस्य देवता कमेटी के साथ सार्वजनिक कार्यों के लिए नियुक्त कर लिया गया था। पूरे गाँव के रास्ते साफ होने लगे थे। कोई बर्तन इकट्ठे करता, तो कोई जंगलों से पत्तों को ला कर पतलियाँ बनाता तो कोई घर-घर जा कर निर्धारित जोड़ की गुहराई करता रहता। शहर से रोज ही अब एक आध ट्रक सामान का भी आ जाता जिसकी ढुलाई लोग मिलजुल कर मंदिर तक करते।

भुंडा के आयोजन की खबर जब इधर-उधर पहुँची तो प्रशासन के भी कान खड़े हो गए। हालाँकि अभी देवता कमेटी की तरफ से कोई विधिवत निमंत्रण नहीं निकला था लेकिन प्रशासन के अधिकारी और कर्मचारियों ने वहाँ आना-जाना शुरू कर दिया था। कभी कोई प्रशासन का आदमी, कभी कोई पुलिसवाला तो कभी विधायक के चमचे भी पहुँचने लगे थे। शर्मा जी इस आयोजन के दूल्हे बन गए थे। सारे काम उनकी सलाह-मशविरे से हो रहे थे। उनकी आँखों में उज्जवल भविष्य के सपने तैरने लगे थे। कुछ दिनों की सेवानिवृति ने जो ऊँघूपन उन्हें दिया था वह चेहरे पर बैठी रौनक ने भगा दिया था। उन्हें कुछ ऐसा ही महसूस होने लगा था मानो वह नए-नए तहसीलदार बन गए हैं।

कार्यक्रम के अनुसार नियुक्त किए गए लोग सहजू को लाने उसके गाँव चले गए थे। उसे बाजे-गाजे के साथ गाँव लाया गया था। साथ उसकी पत्नी और एक बच्चा भी था। जिस दिन सहजू बेड़ा को गाँव लाया गया उस दिन से भुंडा का आयोजन छः माह बाद होना था। सहजू और उसके परिवार को मुख्य देवता के मंदिर के एक कमरे में रखा गया था। यह सुखद आश्चर्य ही था कि जिन देवता के मंदिर प्रांगण में आज भी किसी दलित को नहीं जाने दिया जाता, सहजू ‘बेड़ा’ और उसके बच्चे देवता के मंदिर में वास करने लगे थे।

जैसे-जैसे उत्सव के दिन नजदीक आते गए रस्सा लंबा होता गया। जिस रोज रस्सा पूरा हुआ सहजू और उसकी पत्नी उसे एकटक देखते रहे मानो रस्सा पूरा न हो कर कोई जीवन ही संपूर्ण हो चला हो। अपने हाथों से मौत का सामान तैयार करने का दर्द उन दोनों के मन में बसा था। लेकिन भुंडा जैसे कालांतर से चले आ रहे महोत्सव में एक दलित से देवता बनने का सुख भी मौजूद था। यह सुख उस मौत के एहसास से कहीं बड़ा था। शायद उससे भी कहीं ज्यादा बरसों से निर्वासित जीवन जीने के बाद पुनः मिलता आदर। ब्राह्मणों की बैंठ और देव-पंक्ति में मिला उच्च स्थान का क्षणिक अपितु अविस्मरणीय आनंद।

रस्से को पूर्ण निर्मित देख कर देवता के कारदारों ने निर्धारित स्थान पर बने हवन कुंड को खोल दिया था। मुहूर्त के मुताबिक अब आग लाने की रस्म अदायगी थी। हवन जलाने के लिए आग केवल क्रौष्टु ब्राह्मण (कृष्ण गोत्र) के घर से ही लाई जानी थी। गाँव में एक शास्त्री जी इस गोत्र से थे। देवता के कारदार और अन्य लोग कुछ सुनारों के साथ आधी रात को बाजा-बजंतर लिए उसके घर पहुँच गए। उनके साथ एक ताँबे की अँगीठी और एक मेढ़ा (नर भेड़) भी थे। कई विधि-विधानों के तहत देवदार के वृक्ष की लकड़ी जला कर आग तैयार की गई और उसे ताँबे की अँगीठी में डाल दिया गया। अँगीठी को अब सुनारों ने मेढ़ा के सिर पर रख लिया और उसे ले कर वापिस लौट आए।

बेचारा मेढ़ा ढोल-नगाड़ों और दूसरे पारंपरिक वाद्य संगीत के बीच कई पल अग्नि-वाहक बना रहा। सभी उसकी सेवा में जुटे थे। वह उस दौरान सहजू की तरह अपने आप को भी ब्राह्मणों से ज्यादा सम्मानित समझ बैठा होगा। परंतु जैसे ही हवनकुंड के पास लोग पहुँचे तो आग की अँगीठी उसके सिर पर से उतार कर कुंड में रख दी गई और तत्काल उसकी बलि उस पर दे दी गई।

अग्नि प्रज्जवलित कर दी गई थी। हवन कुंड पर यज्ञेश्वरी देवी की प्रतिमा का निर्माण किया गया। उसकी प्राण-प्रतिष्ठा हुई। मेढ़े की जान ले कर? अब यहाँ भुंडे के अंतिम दिन तक हवन चलना था।

अब मुख्य देवता की मूर्ति को मंदिर से बाहर निकालना था। यह विशेष महत्व लिए था। देवता की मूर्ति एक गुफा मंदिर में प्रतिष्ठित रहती थी जिसे केवल भुंडा जैसे विशाल आयोजन में ही बाहर निकाला जाता था। इसके साथ कई अन्य छोटी मूर्तियाँ और सामान भी होता था। दैनिक पूजा और दूसरे अनुष्ठानों एवं जातराओं इत्यादि के लिए देवता की एक अन्य मूर्ति नीचे की मंजिल में रखी होती थी। लोग जानते थे कि पिछले भुंडा के दौरान मंदिर के किवाड़ बंद कर दिए गए थे। इसीलिए लोगों की उत्सुकता ज्यादा ही दिखाई दे रही थी। देव मूर्ति को निकालने का कार्य हर कोई नहीं कर सकता था। विधि-अनुसार यह काम उस गाँव के एक ब्राह्मण को तीन सुनारों के साथ करना था। इन तीनों के सिर भीतर जाने से पूर्व मूँड़ लिए गए थे। मुँह में पंचरत्न डाल दिए गए। वस्त्र के नाम पर उनके शरीर से एक कफन लिपटा दिया गया। वे अँधेरे में ही भीतर गए थे और जिस के हाथ जो मूर्ति और दूसरी वस्तुएँ लगीं उन्हें बाहर उठा कर ले आए थे।

देवता के गूर ने जैसे ही मूर्ति के दर्शन किए वह सकते में पड़ गया। वह नकली मूर्ति थी। किसी सस्ती धातु की इस मूर्ति को मूल रूप दे दिया गया था। गूर के सिवाय किसी को यह पता नहीं लग पाया कि वह मूर्ति असली नहीं थी। श्रद्धा और अपार आस्था में रत लोग देवता का जयकारा कर रहे थे। असली मूर्ति को कुछ सालों पूर्व ही मंदिर से चुरा लिया गया था। देवता की वह प्रतिमा बेशकीमती धातु की बनी थी जिसके माथे पर एक हीरा जड़ा था। जब वह बाहर धूप में रखी होती तो उससे खूब पसीना निकलता और नीचे रखी कटोरी भर जाती। वह चरणामृत के रूप में लोगों में बाँट दी जाती थी जिसे लोग अत्यंत श्रद्धा से ग्रहण करते थे। उसकी कीमत भी करोड़ों में आँकी जाती थी। लेकिन किसी को क्या पता था कि जो मूर्ति आज उनके समक्ष मौजूद है वह है नकली है?

गूर अभी तक स्तब्ध खड़ा था। उसने पुनः उन लोगों को भीतर भेजा लेकिन वे पुनः खाली हाथ लौट आए थे। गूर में तत्काल देवछाया ने प्रवेश कर लिया। उसकी हालत देखनेवाली थी। पूरा शरीर काँप उठा था। चेहरा काला और डरावना हो गया था। आँखों में खून तैरने लगा था। इस तरह का आक्रोश पंचों ने कभी नहीं देखा था। यह किसी अनहोनी का संकेत था। लेकिन यहाँ पंचों के मुँह में परमेश्‍वर की कहावत चरितार्थ होने लगी। सभी पंच, कारदार और देवता कमेटी के सदस्य हाथ जोड़ कर यही विनती कर रहे थे कि जैसे-कैसे इस आयोजन का निपटारा देव-कृपा से हो जाए। बाद में देवता की जो भी आज्ञा होगी वह सिर-माथे। मुश्किल से काफी देर बाद गूर से देव छाया चली गई। सब कुछ शांत हो गया तो गूर ने केवल सरपंच शर्मा जी से ही बात की। इस बात को सुन कर वे हैरान-परेशान हो गए। उन दोनों ने इस बात की भनक किसी को भी न लगने का तत्काल निर्णय ले लिया। यदि इस बात का खुलासा हो जाता तो इतना बड़ा आयोजन पानी में चला जाता।

उत्सव के पहले दिन लोग वाद्यों के साथ मुख्य देवता के मंदिर से निकले। सभी छोटे-बड़े मंदिरों में जा कर एक-एक दिया जलाते रहे और देवी-देवताओं को उत्सव के लिए बुलाते चले गए। बाहर से आमंत्रित देवतागण भी पधारने शुरू हो गए थे जिनका धूम-धाम से स्वागत किया गया।

दूसरे दिन सभी देवता एक स्थान पर एकत्रित किए गए। देव-कलशों को गोल दायरे में रख दिया गया था। बीच में गाँव की मुख्य देवी का कलश था। अब क्रौष्टू ब्राह्मण ने पुराण पढ़ना शुरू कर दिया था। उसके पास एक पुरानी हस्तलिखित पुस्तिका थी जिससे मंत्र पढ़ कर वह सभी देवताओं का स्वागत कर रहा था। देवता के मंदिर की दूसरी मंजिल पर स्थित कमरे के फर्श पर देवता के एक कारदार ने इसी बीच देवदार के वृक्ष का एक चित्र सिंदूर से बना दिया था और अब सारे कलश उस चित्र पर प्रतिष्ठित कर दिए गए थे।

तीसरा दिन जल यात्रा का था। इस दिन वरुण देवता की पूजा होनी थी। गाँवों की महिलाएँ पारंपरिक परिधानों में तड़के ही मंदिर के प्रांगण में पहुँच गई। वे वहीं से आ रही थी जहाँ सहजू और उसकी पत्नी को ठहराया गया था। सभी उन्हें सिर झुका कर प्रणाम कर रही थीं। सहजू की पत्नी के लिए यह भी एक सुखद आश्चर्य जैसा ही था। वह जानती थी कि उनकी जाति की अस्सी साल की बुढ़िया को भी ब्राह्मणों की दस साल की लड़की के पास मत्था टेकना पड़ता है। लेकिन आज उससे उल्टा था। वह कई बार मन ही मन हँस लेती थी। लेकिन रस्से पर जैसे ही उसकी नजर जाती वह काँपने लगती। जैसे मौत का एक भयानक राक्षस रस्से में लिपट गया है और वह कभी भी उसके पति को झपट कर खा लेगा। कभी तो उसे रस्से के बाटों में असंख्य भेड़िये रेंगते नजर आते जैसे वह रस्सा न हो कर जंगल के बीहड़ की कोई टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी हो और उस पर वे दौड़ते उनकी ओर चले आ रहे हों।

उन औरतों के सुंदर पहनावे ने उसके मन में कुछ क्षणों के लिए रंगीनियाँ भर दी थीं। उसी पल मंदिर से ढोल, नगारा, शहनाई, करनाल, रणसिंघा आदि वाद्य-यंत्रों के संगीत के साथ देवताओं के पुजारियों, ब्राह्मणों, गूरों और नर्तकों का जुलूस निकला। उसमें नौ ब्राह्मण कन्याएँ सजी-सँवरी थीं। उनके सिर पर लाल कलश थे। जुलूस पूर्व दिशा की ओर एक बावड़ी की तरफ चल दिया था। वहाँ पहुँच कर कलशों में ताजा जल से भर दिया गया। विधिवत पूजन हुआ और उन्हें यथावत कन्याओं के सिर पर रख कर वापिस मंदिर लाया गया।

भुंडा के आखरी दिन से पूर्व मूल मंदिर और गाँव को प्रेतात्माओं से सुरक्षित करना था ताकि उत्सव में कोई अपशकुन न हो। भूत-प्रेत बाधाएँ उत्पन्न न कर सकें। देवताओं के गूरों ने मिल कर इस विधि को पूरा किया था। वे अपने-अपने देवता के सामने हाथों में एक विशेष पात्र लिए खड़े हो गए थे। अर्ध-नग्न अवस्था में काफी देर मंत्रोच्चारण करते रहे। फिर उनमें देव छाया प्रवेश हो गई थी। देवताओं के वाद्य-यंत्र भी बजने शुरू हो गए। मुख्य देवता के गूर को लोगों ने अपने कंधे पर उठा लिया था। उसी के दिशा निर्देश में कार्य होने लगा था। शेष गूर और लोगों का जुलूस पीछे-पीछे चल रहा था। गाँव के बाहर का चक्कर काटा गया। जुलूस में कई बंदूकधारी बंदूकें चला रहे थे। जगह-जगह बकरों के सिर धड़ से अलग हो रहे थे। पगडंडियाँ उनके खून से सराबोर हो रही थीं। परिक्रमा पूरी हुई तो जुलूस वापिस मंदिर लौट आया और वहाँ हवन शुरू हो गया। यह तांत्रिक विधि थी। देवता का गूर मंदिर की छत पर चढ़ गया था। वह चारों दिशाओं में घूम रहा था। मंदिर के चारों कोनों पर एक-एक मशालची तैनात था। हर कोने पर एक-एक बकरे की बलि दी गई। गूर छत से नीचे उतरा तो मेहमान देवताओं के गूर मंत्रोच्चारण के साथ अपनी मूल अवस्था में लौट आए।

यह शिखफेर प्रक्रिया थी। सहजू ने अपनी पत्नी को बताया था। अब यहाँ से सारी प्रेतात्माएँ भाग गई हैं और भुंडा के कार्य में कोई भी विघ्न नहीं डाल सकता। लेकिन वह पति के मुख की ओर कई पल टकटकी लगाए देखती रही थी। पता नहीं कितने प्रश्न उसके मन में जागे थे जिन्हें वह सहजू से पूछना चाहती थी। पूछना चाहती थी कि भुंडा के बाद देवता क्यों न उन्हें ब्राह्मण ही बना रहने दें? फिर क्यों वे अछूत हो जाएँ? क्यों एक अछूत को कुछ दिनों के लिए देवता की तरह पूजा जाए और यदि दुर्भाग्य से उसके पति की रस्से से गिर कर मौत हो जाए तो कौन सा देवता, जिन्होंने अभी-अभी असंख्य मेढ़ों और बकरों की बलि प्रेतों और भूतों को भगाने के लिए दी है उसके पति को बचा देगा? ऐसे कितने प्रश्न थे जो उसके मस्तिष्क में कौंध रहे थे लेकिन वह चुपचाप बैठी रही। भय से काँपती हुई। जैसे सारे भूतों और प्रेतात्माओं ने उसके भीतर घुस कर आश्रय ले लिया हो।

सहजू ने अपनी पत्नी के मन में उग रहे प्रश्नों को पढ़ लिया था। पर उनके उत्तर उसके पास नहीं थे। मन पर एक भारीपन था। शायद ऐसे ही अनगिनत प्रश्नों का बोझ? वह उत्तर भी किस से पूछता? कोई कारदार, देवता का गूर या खुद देवता भी उनके उत्तर न दे पाते। उसे आज ये क्रियाएँ बिल्कुल ढोंग लगने लगी थीं।

रात को सहजू और उसकी पत्नी नहीं सो पाए। न ही एक दूसरे से किसी ने कुछ बात की। अपनी-अपनी उधेड़-बुन में दोनों लगे रहे। सहजू के मन में भय तो था ही पर खुशी भी कम नहीं थी। अपने दादा-पड़दादाओं को वह बार-बार याद कर रहा था जो न जाने पित्तर-देवता बन कर कहाँ-कहाँ प्रतिष्ठापित होंगे। उसका भुंडा में ‘बेड़ा’ बन कर उतरना बरसों पहले खोए हुए मान को दोबारा हासिल करना भी था।

सुबह हुई। आज भुंडा का अंतिम और मुख्य दिन था। सहजू के ब्राह्मणत्व का आखरी दिन।

दोनों तड़के-तड़के उठ गए थे। मुहूर्त के अनुसार निश्चित समय पर रस्से की विधिवत पूजा की गई। सहजू ने अपने हाथों से रस्सा खश जाति के राजपूतों को सौंप दिया। उन्होंने रस्से को कंधे पर अत्यंत सावधानी से उठाया ताकि उसका कोई भाग जमीन से स्पर्श न करे। फिर बावड़ी के पास ले जा कर उसे खूब भिगोते रहे। पूरी तरह से भीगने के पश्चात उसे पहले की तरह ही कंधे पर उठा लिया गया। उसका वजन दुगुना हो गया था। कड़ी मशक्कत के बाद खशों ने रस्से को भुंडा-आयोजन के मूल स्थान पर पहुँचाया था। वहाँ ढाँक के सिरे पर एक खंभा गाड़ा गया था जिसमें रस्से का एक सिरा मजबूती से बाँध दिया गया। ढाँक की ऊँचाई बहुत थी। नीचे देखने पर आँखें पथरा जाती थीं। दूसरे सिरे को पहाड़ से नीचे फेंक दिया गया। नीचे खड़े लोगों ने उसे तत्काल पकड़ लिया और वहाँ गड़ाए दूसरे खंभे में खींच कर बाँध दिया। सहजू की शर्त रस्से के नीचे जाली न लगाने की मान ली गई थी। फिर भी किसी दुर्घटना की आशंका से निपटने के लिए पहाड़ी के नीचे लंबी कतार में पुलिस और होमगार्ड के जवान तैनात कर दिए गए थे।

सहजू ‘बेड़ा’ का देवता की तरफ से विशेष स्नान हुआ और यज्ञोपवीत धारण करवा कर उसे शुद्ध ब्राह्मण बना दिया गया। उसे पगड़ी और एक सफेद लंबा चोगानुमा कुर्ता पहनाया गया था। उसकी विशेष पूजा होने लगी थी। देवता की तरह। जैसे वह कोई मनुष्य न हो कर एक घड़ी के लिए ईश्वर का अवतार बन गया हो। अब समय मुख्य उत्सव में शामिल होने का आ गया था। एक कारदार भीतर गया और अत्यंत आदर से उसे अपनी पीठ पर उठा कर मंदिर से बाहर ले आया।

सहजू की पत्नी को पति से अलग होना था। यह बिछोह का दर्दनाक समय था। उसे भी मंदिर की तरफ से नए कपड़े दिए गए थे। ये वस्त्र सफेद रंग के थे। विधवा का लिबास। उसे गाँव की कई औरतों ने घेर लिया था। न चाहते हुए भी उस बेचारी को होते पति से विधवा बनना पड़ा था। मन नहीं मान रहा था लेकिन भुंडा की रस्मों ने उसे असहाय बना दिया था। औरतों ने उसके बाल खोल दिए। कलाइयों की चूड़ियाँ उतार दीं। माँग से सिंदूर पोंछ लिया गया। माथे की बिंदिया भी छीन ली गई। सुहागिन से विधवा बनने तक के वे क्षण अति दुखदायी थे। जब सुहाग की प्रतीक ये चीजें उसके बदन से उतारी जा रही थीं तो उसे ऐसा लग रहा था जैसे कलेजे के टुकड़े किए जा रहे हो। वह बच्चे को ले कर उस स्थान के लिए लोगों के साथ चल पड़ी जहाँ रस्से का दूसरा सिरा बाँधा गया था। बच्चा यह सबकुछ विस्मित हो कर देख रहा था। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है? उसके बापू को इस तरह उठा कर कहाँ ले जा रहे हैं?

पुरोहितों ने अब संकल्प पढ़ने शुरू कर दिए थे। ये उसी तरह थे जैसे किसी बलि के अवसर पर पढ़े जाते थे। वाद्ययंत्रों पर वही संगीत बज रहा था जो शवयात्रा पर बजाया जाता था। वातावरण में इस संगीत ने एक अजीब सी मायूसी पैदा कर दी थी। चारों तरफ एक घड़ी के लिए उदासी छा गई थी। यह नजारा कुछ-कुछ वैसा ही था जैसे किसी घर से मृत्यु ने किसी अपने को छीन लिया हो। माहौल अत्यंत गमगीन होने लगा था। मूल स्थान तक पहुँचते-पहुँचते कई जगह सहजू पर कफन की तरह कपड़ा ओढ़ाया गया और मुँह में पंच रत्न डाल दिया गया।

मुख्यमंत्री भी पहुँच गए थे। विधायक भी उनके साथ थे। प्रशासन के कई अधिकारी भी थे। उनके लिए एक ढलान पर मंच बनाया गया था। शर्मा जी ने उनकी आव-भगत की खूब तैयारियाँ करवा रखी थीं। शर्मा जी की नजर इस मध्य एक पालकी पर पड़ी। उसके साथ कुछ लोग भी चल रहे थे। पहले उनकी समझ में कुछ नहीं आया। पालकी नजदीक पहुँच गईं। उसमें एक बुजुर्ग बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। शर्मा जी को पहचानते ज्यादा समय नहीं लगा। वह सहजू का पिता था जिससे उनका सामना सहजू के आँगन में हुआ था। साथ उसी गाँव के तमाम लोग भी थे। शर्मा जी स्तब्ध रह गए। अब पाँव पीटने के अतिरिक्त उनके पास कुछ नहीं बचा था। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि सहजू के गाँव के लोग इस शान से उत्सव में पधार जाएँगे। समक्ष एकाएक कई प्रश्न खड़े हो गए। पर उनके उत्तर कहाँ से आते? मुँह बाँध कर बैठना ही उचित जान पड़ा। शर्मा जी कुछ कारदारों को साथ ले कर उनके पास गए और बनावटी अपनापन दिखा कर उन्हें उसी मंच के साथ बिठा दिया जहाँ मुख्यमंत्री बैठे थे। पालकी में एक दलित का इस तरह पधारना न तो शर्मा जी पचा पा रहे थे और न ही गाँव के दूसरे लोग। क्योंकि पालकी में बैठने का अधिकार तो वे लोग अपना ही मानते रहे थे। शर्मा जी वहाँ से झटपट खिसक लिए और खंभे के पास जा कर खड़े हो गए जहाँ सहजू को भुंडा के रस्से पर से सरकते हुए पहुँचना था।

सहजू की घरवाली चुपचाप डरी-सहमी रस्से के अंतिम छोर के पास बैठी उन सभी देवताओं से अपने पति की जिंदगी माँग रही थी जिन्होंने पिछली रात उस गाँव को भूत-प्रेतों और दुष्ट आत्माओं से निवृत करवाया था। उसका मन विचलित होने लगा था। एक मन करता कि इस लिबास को उतार कर जला दे और पति के पास जा कर विनती करे कि हमें नहीं बनना है देवता। न बनना है भगवान। हम जैसे हैं वैसे ही रहना चाहते हैं। हम बिना मान-प्रतिष्ठा के भी अपने छोटे से परिवार में सुखी हैं। ईश्वर न करे कि रस्सा टूट जाए? इतना भर सोच कर वह जमीन पर गिर पड़ी थी। पास खड़ी औरतों ने उसे न सँभाला होता तो उसका सिर चट्टान पर लग जाता। शर्मा जी उसकी स्थिति देख कर घबरा गए थे। उन्होंने तुरंत पानी के छींटे उसके चेहरे पर मारने शुरू कर दिए। कुछ देर बाद उसे होश आया तो उनकी जान में जान आ गई। एक सुहागिन को इस पल अपने पति के जीते जी एक विधवा होने के तीखे दर्द और अथाह वेदना से गुजरना पड़ रहा था।

सहजू जब खंभे के पास पहुँचा तो निगाह तराइयों से उतरती अपनी पत्नी के पास चली गई। वे तमाम वेदनाएँ उसने अपने भीतर महसूस कीं जिसे उसकी पत्नी सुहागिन से विधवा बन कर सह रही थीं। आँखें छलछला गईं। मन में एक तीखी टीस उठी जो सुई की तरह नसों में चुभती रही। यह चुभन असहनीय थी। सहजू को एक पल लगा कि उसकी साँसें जीन-काठी पर बैठने से पूर्व ही निकल जाएँगी। जैसे-कैसे अपने को सँभाला और हजारों लोगों की उमड़ती भीड़ के बीच उसका ध्यान चला गया। हजारों आँखें उसी की ओर ताक रही थीं। उन आँखों में एक याचना थी। लालच था। उसकी जिंदगी के लिए दुआएँ भी थीं लेकिन उस जीवन के साथ सभी का अपना-अपना स्वार्थ निहित था। सारी प्रार्थनाएँ केवल अपने लिए थीं। वे आँखें उसे अपने लिए जिंदा रखना चाहती थीं ताकि उनका जीवन सुखमय हो। घर-परिवार में खुशहाली आए। जमीन-जायदाद और पशु धन सलामत रहे। उन पर किसी तरह की अनिष्ट की छाया तक न पड़े। सभी का ध्यान रस्से पर नीचे सरकते सहजू पर था। उसकी पत्नी के भीतर जो अथाह दर्द और भयानक भय पसरा था उसका न कोई चश्मदीद था न ही कोई उसके आँसुओं को पोंछनेवाला था। एक महा स्वार्थ-पूर्ति उत्सव था वह!

एक घड़ी के लिए तो सहजू को यह भी लगा कि वह आज दुनिया का सबसे बड़ा और धनवान आदमी है जिसके आगे ब्राह्मण और ठाकुर तो क्या देवता तक भी पुण्य की भीख माँग रहे हैं।

शर्मा जी तो आज अपने आप को सबसे प्रतिष्ठित और व्यस्त आदमी समझ रहे थे। हर जगह उन्हीं का बोल-बाला था। सहजू की पत्नी के बिल्कुल साथ खड़े थे शर्मा जी। वे भी लोगों के साथ उनकी दुआओं में शामिल थे लेकिन उनकी एक-दो दुआएँ कुछ अलग ही थीं। वह दुआएँ माँग रहे थे गाँव को कलंक से छुटकारा पाने की और साथ अपने यश और प्रतिष्ठा की जिसके सहारे उन्हें राजनीति में प्रवेश पाना था। मन में और भी कई विचार कौंध रहे थे। उनकी इच्छा थी कि जैसे ही ‘बेड़ा’ नीचे सही सलामत पहुँचेगा तो वे उसे सबसे पहले उठा कर अपने चूल्हे के पास ले जाएँगे ताकि अपने ऊपर लगे कलंक, अनिष्ट, भूत-प्रेत आदि की छाया से छुटकारा मिल जाए। साथ ही अपने परिवार के लिए पहला आशीर्वाद भी लेना चाहते थे। वह जानते थे कि ‘बेड़ा’ आज के दिन देवता और भगवान के समान होता है और उसका घर के भीतर प्रवेश अति शुभ होता है। वह सबसे पहले इस पुण्य के भागीदार बनना चाहते थे। गाँव के दूसरे सवर्णो की भी यही इच्छा थी।

सहजू ने ईश्वर को प्रणाम किया। अपने इष्ट देवता को याद किया और अपने पिता को नमन किया। उस पितर को स्मरण किया जो इसी आयोजन में वर्षों पहले रस्से से गिर कर मौत के मुँह में चला गया था। फिर रस्से को हिला दिया। अब जीन-काठी पकड़ी और टिका कर रस्से पर बाँध दी। इसे सहजू ने स्वयं बनाया था। उसके दोनों तरफ रेत की बोरियाँ टिका दी गर्इं थीं ताकि बराबर भार रहे। सहजू के लिए वह सचमुच की घोड़ी थी जिस पर सवार हो कर उसे मौत का एक लंबा और खतरनारक सफर तय करना था। गाँव का कलंक धोना था और लोगों के पुण्य का भागीदार बनना था। एक अछूत हो कर नहीं बल्कि ब्राह्मण, देवता और भगवान बन कर। उसके मन में कई तरह के खयाल आने लगे थे। वह सोच रहा था कि उसकी यह दुर्लभ ‘बेड़ा’ जाति एक जीन-काठी ही तो है जिसका इस्तेमाल अपनी स्वार्थपूर्ति और तमाम पुण्य के भागीदार बनने के लिए शर्मा या उस जैसे तमाम उच्च वर्ग के लोग सदियों से करते आ रहे हैं। इसके एवज में उस अछूत को क्या मिलेगा? सिर्फ कुछ क्षणों का ब्राह्मणत्व और देवत्व। वह जोर से हँसा और जीन-काठी पर बैठ कर रस्से से नीचे सरक गया हाथ में एक सफेद रूमाल को लहराता हुआ। उसे ऐसा लग रहा था मानो वह आसमान से धरती पर उतर रहा हो। मध्य में पहुँच कर वह थोड़ा घबरा भी गया। एक बार जरा सा संतुलन बिगड़ गया था, पर उसने अपने आप को सँभाल लिया। अन्यथा इतनी ऊँचाई से गिर कर वह कहाँ बच पाता? देवता के वाद्य पूरे जोश और ताल में बज रहे थे। वातावरण पूरी तरह देवमय हो गया था। लेकिन उन वाद्यों के बीच एक पल के लिए सहजू की पत्नी की साँसें रुक गई थीं।

सहजू जैसे ही दूसरे खंभे के नजदीक पहुँचा उसने चलती हुई जीन काठी रोक दी और रस्से पर मजबूती से बैठ गया। वह ऊँचाई से जितनी तेजी से नीचे आया था उस रफ्तार को रोकना कतई संभव नहीं था। परंतु उसने अपने आप को जिस तरह से संयत रह कर रस्से पर रोका था वह आश्चर्यजनक था। एक पल के लिए जैसे सब कुछ ठहर गया था। सभी उपस्थित जनों के दिलों की धड़कने ही रुक गईं। बाजा-बजंतर भी चुप हो गया। एक गहरा सन्नाटा चारों तरफ पसर गया था। शर्मा जी के साथ सभी कारदार और लोगों के मन में किसी अनहोनी ने जन्म ले लिया। दोबारा कोई बड़ा अनिष्ठ तो नहीं होनेवाला? सहजू बिल्कुल सुरक्षित था लेकिन उसकी काठी नहीं चल रही थी। देवता के कारदार और गूर शर्मा जी के साथ खंभे के पास एकत्रित हो गए थे। शर्मा जी एकाएक जोर से चिल्लाए, सहजू! तुम्हारी मंजिल आ गई है। नीचे उतर जाओ।

यही अन्य लोगों ने भी दोहराया था।

लेकिन सहजू अभी भी चुपचाप था। जैसे कुछ सुना ही न हो। भीतर बहुत कुछ फूट रहा था। टूट रहा था। उस टूटन की किरचों ने उसे भीतर ही भीतर आहत कर दिया था। शर्मा जी ने हाथ जोड़ दिए और गिड़गिड़ाते हुए सहजू को नीचे उतर जाने का निवेदन करते रहे। सभी कारदारों और गाँव के ब्राह्मणों ने भी हाथ जोड़ रखे थे। लेकिन सहजू नहीं उतरा। उसके मन में बहुत बड़ा तूफान उमड़ पड़ा था। उसे लगा कि वह सहजू बेड़ा नहीं बल्कि किसी सरकस का नर्तक भर है, उसे जैसा चाहो नचा दिया जाए। खेल खत्म तो उसका अस्तित्व भी शून्य। जो लोग आज उसकी जय जयकार कर रहे है कल वही उसकी परछाईं से भी दूर भागेंगे। फिर न कोई सम्मान और न ही कोई इज्जत-परतीत। उसे शर्मा जी, देवता के तमाम कारदारों के साथ सारे ब्राह्मण उस पल शैतान की तरह लग रहे थे जैसे वह उनके पल्ले पड़ गया हो और उनके हाथों की कठपुतली हो। जहाँ वह रस्से पर रुका था वहीं तक सब कुछ था। देवता भी और भगवान भी। सम्मान और प्रतिष्ठा भी। इज्जत और परतीत भी। नीचे उतरते वह फिर वही दलित… नीच… अछूत…। हाथ खाली के खाली। उसका मन आक्रोश से भरता जा रहा था। उसने भीड़ में एक नजर दौड़ाई। सामने से पालकी में उसके पिता आ रहे थे। दोनों हाथ ऊपर उठाए हुए जैसे उन्हें आज सब कुछ मिल गया हो। उसने पिता की आँखों में अपनी विजय की चकाचौंध तो देखी लेकिन उसके पीछे छिपे दर्द और अपमान को भी पढ़ लिया।

सहजू की नजर अब उस तरफ गईं जहाँ दलितों के परिवार खड़े थे। वहीं से सबसे ज्यादा जय जयकार की आवाजें गूँज रही थी। उनके मन साफ थे। मन की आवाजें थीं। जिनमें सहजू को कोई स्वार्थ नजर नहीं आया। हाँ, उनके कपड़े फटे हुए थे। कुछ औरतों की छातियाँ फटे कुरतों के बीच से बाहर झाँक रही थी। उनके बाल बेतरतीबी से उलझे हुए थे। फूलदार रिब्बनों की जगह उनमें घास और पत्तियाँ फँसी थीं। उनके साथ उनके बच्चे भी थे। नंगी टाँगें। बदन पर महज एक लंबा सा फटा कुरता। छालों से रिसते पाँव। आँखों में अथाह दर्द। सहजू को अपने देवत्व पर शर्म आ गई। उसके कानों में फिर आवाजें गूँजी शाबाश सहजू! शाबाश! नीचे आ जाओ। तुम आज भुंडा के सबसे बड़े देवता हो।

इस बार वह जोर से हँस दिया। कैसा देवता? कौन सा देवता। मैं तो एक अछूत हूँ। कठपुतली मात्र हूँ। सारे पुण्य तो तुम सभी के लिए हैं। अपने स्वार्थ के लिए तुम ऊँचे लोगों ने क्या-क्या परपंच रचे हैं? जानते हो शर्मा जी, मैं इस घड़ी तो सबसे बड़ा पंडित हूँ। देवता हूँ और सभी का ईश्वर। लेकिन नीचे उतरते ही मैं सहजू अछूत और तुम सभी उच्च कुल के पंडित और ठाकुर। तुम्हारे जो ये देवता आज मेरी विजय पर नाच रहे हैं। मुझे भगवान मान रहे हैं। कल इन्हें मेरी परछाईं से भी दोष लगने लगेगा। अपवित्र हो जाएँगे ये।

शर्मा की बोलती बंद हो गई थी। कभी नहीं सोचा था कि सहजू के दिमाग में कुछ और भी चल रहा है। उसकी बातें मन में सुई की तरह चुभ गईं। अब वह झटपट इस स्थिति से उबरना चाहते थे। अपने को सहज करते हुए गिड़गि‍ड़ाए, ऐसा मत सोचो सहजू! तुम्हारे बिना इतना बड़ा आयोजन कैसे संपन्न होता। तुम आज हमारे सब कुछ हो।

सहजू ठहाके लगाने लगा, केवल आज ही न शर्मा जी, कल?

शर्मा जी सकपका गए। स्थिति भाँपने में उन्हें देर नहीं लगी। सीधी बात पर आ पहुँचे। ऐसा मत करो सहजू। भगवान के लिए ऐसा मत करो। बोलो तुम्हें क्या चाहिए? आज तो वह समय है कि जिस चीज में भी तुम हाथ लगाओगे वह तुम्हारी हो जाएगी। सोच लो शर्मा जी!

सहजू! इसमें दो राय नहीं हो सकती। आज के दिन तो तुम हमारे भगवान हो। बोलो तो। हमारी जमीन लौटा दो शर्मा जी। हम यहीं बसना चाहते है। इसी गाँव में, जहाँ से आप लोगों ने हमारे पूर्वजों को भगाया था।

शर्मा जी को जैसे काठ मार गया। कलेजा मुँह को आने लगा। एक मन किया कि इस नीच की औलाद को इसकी असली औकात दिखा दूँ कि अपने से ऊँचे लोगों से किस तरह बात की जाती है? लेकिन समय की नजाकत को भाँपते हुए लहू का घूँट पी गए। रूमाल से माथे का पसीना कई बार पोंछ दिया। यह खयाल पूरे आयोजन के दौरान किसी के भी मन में नहीं आया था कि सहजू ऐसा भी कर सकता है। लेकिन आज तो कोई उसको कुछ नहीं कह सकता। वह जहाँ चाहे जा सकता है। जिस वस्तु को चाहे माँग सकता है। शर्मा जी के साथ कारदार और जो गूर खड़े थे। उन्होंने आँखों-आँखों में बातें की। सहजू को निराश करना उचित नहीं समझा था। मजबूरन शर्मा जी को हाँ कहनी पड़ी। सहजू जानता था कि इस अवसर पर दिया धन या जमीन कोई दूसरा नहीं ले सकता। उसने जीन काठी को हल्का सा खींचा और सरकता नीचे उतर आया। चारों तरफ अब लोगों ने उसकी जय जयकार करनी शुरू कर दी थी। सभी देवताओं के वाद्य बज रहे थे। वातावरण पूरी तरह संगीतमय हो गया था।

समारोह में उपस्थित लोगों ने आज तो सचमुच महापुण्य कमा लिया पर शर्मा जी और उनके साथी कारदार तथा उस गाँव के लोगों के लिए यह उत्सव मायूसी ले कर आया था। उन्होंने कभी नहीं चाहा था कि ब्राह्मणों के इस गाँव में फिर कोई दलित पसर जाए। लेकिन अब तो सहजू को भुंडा के अवसर पर सभी देवताओं को साक्षी मान कर जमीन देने की जुबान दे दी गई थी। उनका विश्वास था कि अपनी बात से मुकर जाना गाँव और लोगों पर फिर किसी आफत का आना होगा। लेकिन इसके बावजूद भी वे लोग इस बात को पचा नहीं पा रहे थे। सहजू बेड़ा को अपने-अपने घर ले जाने के सपने भी टूट गए थे। सभी को जैसे साँप सूँघ गया हो।

उत्सव अब पूरे यौवन पर था। चारों तरफ का माहौल उमंगों से भर गया। पर शर्मा जी के भीतर एक सन्नाटा पसर गया था। लोग उनके पास आ कर बधाई दे रहे थे। इस आयोजन की सफलता के लिए उनकी तारीफ कर रहे थे। लेकिन उनका मन विचलित था। जैसे यह भुंडा नहीं किसी विनाशोत्सव का आयोजन हुआ हो। उनकी स्थिति विचित्र हो गई थी। मानसिक संतुलन बिगड़ गया था। कोई जब पास आता तो वे हँस देते। चला जाता तो अजीब सी हरकतें करने लगते। कभी कुछ गाने लगते तो कभी नाचना शुरू कर देते। बिल्कुल पागलों जैसी हरकतें करने लगे थे। जैसे गाँव से देवताओं द्वारा भगाए गए भूत-प्रेत उनके भीतर नाचने लगे हों। शर्मा जी की इस हालत को देख कर देवता के कारदार, गुर और गाँव के दूसरे लोग परेशान हो गए थे। उन्होंने शर्मा जी को घेर लिया था।

तभी मुख्यमंत्री और विधायक उनके पास पहुँचे। शर्मा जी की पीठ थपथपा कर कहने लगे, भई शर्मा जी मान गए आपको। इतना बड़ा आयोजन तो आप ही करवा सकते थे। साँप भी मर गया और लाठी भी सलामत। आपने हमारी तो एक बड़ी दुविधा ही मिटा दी। क्या नाम था इस बेड़ा का…? हाँ, सहजू… सहज राम। क्यों विधायक जी यही था न… उसने तो कमाल कर दिया। भई हमें तो लोक सभा के लिए कोई दलित मिल ही नहीं रहा था… भई शर्मा जी कमाल कर दिया आपने।

यह कहते हुए मुख्यमंत्री और विधायक वहाँ से निकल लिए। पर शर्मा जी उनकी बात सुन कर बुत की तरह खड़े रह गए। काटो तो खून नहीं। जैसे कोई जोर का तमाचा मुँह पर जड़ कर निकल गया हो। जो कुछ रही सही कसर थी वह भी जाती रही।

सहजू को लोगों ने अपने कंधे पर उठा लिया था। वह, उसकी पत्नी और परिवार के दूसरे सदस्य खुशी-खुशी लोगों से इनाम के पैसे और जेवर इकट्ठे करने में मशगूल थे।

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