झूठी-सच्ची हथेलियाँ | नवनीत मिश्र
झूठी-सच्ची हथेलियाँ | नवनीत मिश्र

झूठी-सच्ची हथेलियाँ | नवनीत मिश्र – Jhoothee-Sachchee Hatheliyaan

झूठी-सच्ची हथेलियाँ | नवनीत मिश्र

ऐसी उम्मीद तो मैं रखता भी नहीं कि यहाँ आनेवाले झाँसी की रानी या महाराणा प्रताप होंगे लेकिन एक सामान्य सी उम्मीद तो किसी से भी की जा सकती है। और फिर जब बिलाल बार-बार समझा रहे थे तब तो समझ में आना ही चाहिए था। अब अगर मेरे दायें-बायें झूलते रकाबों में पैरों को फँसाने और मेरी पीठ पर लदी काठी के अगले हिस्से को मजबूती से पकड़े रहने जैसी छोटी-छोटी बातें भी भेजे में न घुसें तो ऐसे आदमी को कोई क्या कहे? बलतल से अभी यात्रा शुरू भी नहीं हुई थी कि मेरे ऊपर सवार इस आदमी ने हिलना-डुलना शुरू कर दिया था। जिसे आदत न हो उसके लिए मेरे ऊपर सवारी गाँठना कोई हँसी-खेल नहीं है। बड़े-बड़े हवा में टँगे रह जाते हैं और मैं सर्र से नीचे से निकल जाता हूँ। मुझको भी काबू में रखने के लिए जाँघों में बड़ी ताकत चाहिए होती है। ‘मुझको भी’ का क्या मतलब है मैं नहीं जानता। यह तो एक दिन बिलाल किसी से कह रहे थे और मुझे सुनने में मजा आया तो मैंने भी कह दिया। माफ कीजिएगा, मैं तो कुछ ऐसे बोल रहा हूँ जैसे सीधे अरब से ला कर यहाँ खड़ा कर दिया गया हूँ। दरअसल मेरे भीतर गधेपन का जो अंश है वही मुझे बड़बोला बना देता है। सचमुच मुझे ऐसे बड़े बोल नहीं बोलने चाहिए।

तो बिलाल ने ऊपर अँगुली से इशारा करके बताया कि आपको वहाँ तक जाना है तो सवार काँखने लगा। दरअसल, बिलाल की अँगुली जिस तरफ इशारा कर रही थी उधर आसमान ही आसमान था, अमरनाथ की गुफा कहीं दूर-दूर तक दीख नहीं पड़ती थी। आँखों के सामने दोनों तरफ सीना ताने पहाड़ खड़े थे जिनके किनारे बने संकरे रास्ते कहाँ जा कर खत्म होंगे कुछ अनुमान नहीं लगता था। मैंने सोचा कि सवार की यह यात्रा अगर पहलगाम से शुरू होती तब अड़तालीस किलोमीटर में इसका क्या हाल होता। इसे तो बलतल से करीब अट्ठारह किलोमीटर की यात्रा करनी है तब यह इस कदर घबरा रहा है।

यह आदमी मेरे ऊपर सवार हुआ था तभी मैं जान गया था कि यह बातूनी बंदा है। अरे, तुम तो मेरी पीठ पर अस्सी मन का बोझ डाले लदे हो, बेचारे बिलाल तो मेरी रास पकड़े साथ-साथ चलते हैं। तुम्हारे फेफड़ों में तो भरपूर साँसें भरी हैं लेकिन बिलाल इतना दम कहाँ से लाएँ कि चलें भी और तुम्हारी बातों का जवाब भी दें।

‘ऐ,क्या नाम है तुम्हारा?’ सवार ने सफर शुरू होते ही पूछा।

‘जी,मुझे बिलाल कहते हैं जनाब।’

आदमी चुप रहता है तो बहुत सारे भरम बने रहते हैं जो मुँह खोलते ही टूट जाते हैं जैसा कि सवार और बिलाल के साथ हुआ। ‘आपका’ नाम भी पूछा जा सकता था जिससे सवार की हैसियत पर कोई असर नहीं पड़ जाता। लेकिन ‘आप’ तो वही हो सकता है जो पीठ पर लद सकता हो, जमीन पर चलनेवाले के लिए तो ‘तुम’ ही ठीक रहता है।

‘बिलाल माने?’

दो महीने के यात्रा सीजन की कमाई पर सारे साल गुजारा करनेवाले बिलाल से पूछा जा रहा है कि बिलाल का क्या मतलब होता है।

‘बिलाल एक हब्शी थे जनाब जो मुहम्मद साहब सल्लाहु अलैहवसल्लम के जमाने में मक्का में अजान देने का काम करते थे। कहते हैं उनकी आवाज बहुत सुकून देनेवाली थी और उनकी आवाज सुन कर ऐसा महसूस होता था जैसे कोई सीने से दिल निकाले लेता हो। कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि मक्का में पहली अजान हजरत बिलाल ने ही दी थी। ऐसा भी कहा जाता है कि हुजूर ने जब पर्दा कर लिया तो बिलाल ने उनके गम में अजान देने का काम ही बंद कर दिया।’

बिलाल इतना अच्छा बोल लेते हैं, मैं नहीं जानता था। ‘मर गए’, ‘मौत हो गई’ या ‘इंतकाल फरमा गए’ की जगह कितने अच्छे शब्दों का इस्तेमाल किया उन्होंने – ‘परदा कर लिया।’ मैं तो दंग रह गया। चलना भूल, ठिठक कर सुनता ही रह गया। मैं चलने को ही था कि बिलाल को कहते सुना, ‘वो किसी ने कहा है न…’ तो मैं समझ गया कि बिलाल को अभी और भी कुछ कहना है जिसको सुनने के लिए मैंने अपना उठा हुआ पैर फिर जमीन पर टिका दिया। चलते हुए मुझे अपने पैरों की धमक इतनी तेज लगती है कि लगता है आँखों के आगे अँधेरा-सा छा रहा है। दम फूलने पर तेजी से साँस लेनी पड़ती है जिसमें कुछ भी सुनाई देना बंद हो जाता है।

वो किसी ने कहा है न –

‘अजान दे गई बिलाल की हस्ती

नमाज पढ़ गए दुनिया में कर्बला वाले’

‘वाह’ – कोई शेर सुन कर सभी ‘वाह’ बोल देते हैं, सवार ने भी कहा।

‘हुजूर, अब बिलाल नाम होने से ही तो कोई हजरत बिलाल नहीं हो जाएगा। जैसे पंडित होने से ही तो कोई पंडित नहीं हो जाता। पंडित होना तो एक सिफत है, पंडित कोई नाम थोड़े ही होता है। देखिए, किसी ने क्या खूब कहा है –

‘मैं अपने आप को सैय्यद तो लिख नहीं सकता

अजान देने से कोई बिलाल होता है?’

सवार की बोलती बंद हो गई। आदमी की बोलती बंद होती है तो अलग से पता लग जाता है, है न? लगा कि सवार जरूर कोई पंडित ही है।

कठिन चढ़ाई शुरू हो रही थी।

‘बॉडी आगे – पैर पीछे’, बिलाल ने सवार को चलते समय बैठने का तरीका समझाया।

‘क्या’, सवार बिलाल के चार शब्दों के कूट निर्देश को नहीं समझ पाया। यों पहली बार बोले जाने पर कोई भी नहीं समझ पाता।

‘चढ़ाई के समय बॉडी का सारा बोझ आगे रखने के लिए काठी पर झुक जाइए और पैर पीछे इसके पेट से सटा दीजिए’, बिलाल ने विस्तार से बताया।

‘और उतराई के समय?’, सवार, ढलान को उतराई कह रहा था।

‘ढलान के समय बॉडी का वेट पीछे कर लीजिए और दोनों पैर आगे की ओर ताने रहिए’, बिलाल ने समझाया।

आपको मैं बताऊँ कि चढ़ाई के समय मुझे मयसवार अपना सारा बोझ उठाने में अपने पिछले पैरों की मदद लेनी होती है। मेरे पिछले पैर ही मेरे अपने शरीर और सवार के बोझ को ऊपर उठाने के काम आते हैं। ऐसे में अगर सवार अपना बोझ आगे की ओर कर देता है तो मेरे पिछले पैरों पर वजन कम हो जाता है और मैं आसानी से चढ़ाई चढ़ जाता हूँ। लेकिन जब ढलान होती है तो मुझे अपने शरीर को बहुत साधना होता है। ढलान के समय जरूरी होता है कि मेरे अगले पैरों पर वजन कम से कम हो ताकि मैं अपने शरीर को संतुलित रखते हुए इस तरह उतर सकूँ कि मेरे पैर न तो लड़खड़ाएँ और न बोझ की वजह से मुड़ें।

‘अरे नहीं जनाब, बॉडी आगे – पैर पीछे’, बिलाल झुँझला जाते हैं तो भी तहजीब का दामन नहीं छोड़ते। उनकी झुँझलाहट का हल्का सा साया ‘अरे नहीं जनाब’ से आगे कोई भाँप भी नहीं पाता। वह तो मैं हूँ जो बिलाल की साँस-साँस से बखूबी वाकिफ हूँ।

मैं भी बड़ी देर से महसूस कर रहा था कि मुझे चलने में बड़ी कठिनाई हो रही है। अभी जो चढ़ाई मैंने पूरी की है उसमें सवार ने अपनी बॉडी का सारा वेट पीछे डाल दिया था और पैर आगे की ओर तान दिए थे। ठीक इसका उल्टा काम उसने ढलान के समय किया था और बिलाल को उसे तब भी टोकना पड़ा था। तभी मुझे लगा था कि यह कैसा आदमी है कि जिसके भेजे में एक छोटी सी बात नहीं घुस रही।

चढ़ाई धीरे-धीरे कठिन होती जा रही थी।

‘अरे, इसका पैर फिसल जाएगा, इसको इतना किनारे क्यों चला रहे हो?’ सात-आठ हजार फुट की ऊँचाई पर पहुँच कर सवार ने डरी हुई आवाज में बिलाल से कहा।

करीब छः फुट चौड़े रास्ते पर मुझे भी चलना था,सामने से आ रहे मेरे साथियों को भी और पैदल चल रहे भक्तों को भी।

‘ये अपना रास्ता पहचानता है जनाब। इसी रास्ते पर इसी किनारे पर चलते हुए जा रहा है और इसी किनारे पर चलते हुए वापस भी लौटेगा। रास्ता बदल देने से इसके पैर रास्ते की पहचान खो देंगे’, बिलाल ने मेरी गरदन पर अँगुलियाँ फिराते हुए कहा।

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‘अच्छा अभी तो यह तुम्हारा आज का पहला फेरा है न?’ सवार ने एक बेतुका-सा सवाल किया।

‘हाँ हुजूर अभी तो पाँच-छः चक्कर लगेंगे’, बिलाल ने व्यंग्य से कहा जिसे सवार शायद पकड़ नहीं पाया।

जब बलतल से गुफा तक की दूरी पाँच-साढ़े पाँच घंटे में पूरी होती है और इतना ही समय वापसी में लगता है तो एक फेरे से ज्यादा की गुंजायश ही कहाँ है? मैं जान गया कि सवार को उस सफर की रत्ती भर जानकारी नहीं है जिस पर वह निकला हुआ है। मुझे बिलाल का चुटकी लेना अच्छा लगा।

‘इतने सारे लोग आने लगे… लगता है तफरीह करने निकले हों… बिना कोई तकलीफ उठाए सवाब कमाना चाहते हैं सब। ऊपर पंद्रह हजार फुट की ऊँचाई पर भी गैस के सिलिन्डर जलने लगे, कितनी गर्मी हो गई है यहाँ’, बिलाल ने बगल से गुजर रहे एक सवार की जेब से झाँक रहे टेपरिकार्डर से निकलती गाने की आवाज सुन कर पता नहीं सवार से कहा या अपने आप से।

‘अरे उतारो मुझे, मैं गिर जाऊँगा’ सवार अचानक परेशान हो कर बिलाल से विनती करने लगा कि वह उसे नीचे उतार दे।

‘कुछ नहीं होगा हुजूर। आप मजबूती से काठी पकड़े रहिए बस’, बिलाल ने सवार को हिम्मत बँधाई।

सवार की हालत पर मुझे दया हो आई। आदमी मौत से सबसे ज्यादा डरता है। जब तक वह सामने नहीं आती तब तक उसे यही लगता रहता है कि वह सामने आ जाएगी तो वह बड़ी दिलेरी से उसका सामना करने की कुव्वत रखता है लेकिन जब वह सचमुच सामने खड़ी दीख पड़ने लगती है तो आदमी को रोने के सिवाय और कुछ नहीं सूझता। बिलाल के बार-बार समझाने पर भी सवार लगातार एक ही रट लगाए जा रहा था। उसे लग रहा था कि मेरा पैर कहीं न कहीं जरूर फिसलेगा और वह इतनी गहरी खाई में जा गिरेगा कि उसकी लाश तक खोजे नहीं मिलेगी। ‘जय भोलेनाथ’ – पैदल चल रहे किसी श्रद्धालु ने शायद सवार को देख कर ही कहा। सवार ने उसका कोई उत्तर नहीं दिया जबकि अभी तक वह भी जवाब में बराबर ‘जय भोलेनाथ’ का जयकारा लगाता आ रहा था।

‘अपने भगवान पे भरोसा रखिए,जनाब’, बिलाल ने सवार को फिर हिम्मत दिलाई।

सवार की परेशानी कुछ कम हो गई लेकिन अब अपने डर पर काबू पाने के लिए वह ‘जय भोलेनाथ’, ‘जय शिवशंकर’ और ‘जय बर्फानी बाबा’ का जाप करने लगा। सवार के डर और उसकी परेशानी से माहौल कुछ अजीब चुप-सा हो गया था। अभी तक बिलाल और सवार के बीच जो बातचीत चल रही थी उसको सुनते हुए मुझे भी रास्ता काटना आसान लग रहा था लेकिन अब जब कि चढ़ाई और कठिन हो गई थी उस बातचीत की मुझे और भी ज्यादा जरूरत महसूस हो रही थी।

अचानक मेरी निगाह सड़क के नीचे खाई पर पड़ी और मैं काँप उठा। मेरा एक साथी वहाँ मरा पड़ा था। उसकी देह पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। उसकी आँखें खुली हुई थीं और दाँत बाहर निकल आए थे। उसके पैर अकड़े हुए थे और अपने को बचाने की नाकाम कोशिश के सबूत के तौर पर उसकी गरदन शरीर के बिलकुल उल्टी तरफ को घूमी हुई थी।

‘इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजिउन’, बिलाल जरा देर को रुके और उन्होंने कहा। एक क्षण वह मेरे मरे हुए साथी को देखते रहे फिर साँस छोड़ते हुए धीमे से बोले -‘चलो।’

‘क्या, क्या बोला तुमने बिलाल?’ सवार ने पूछा।

‘मैंने कुरान मजीद की जो आयत पढ़ी जनाब, उसका मतलब है कि हर वो चीज जो खुदा की तरफ से आई है उसे उसी तरफ जाना है’, बिलाल ने अपने कहे का मतलब बताया।

‘ये तुमने किसके लिए कहा?’ सवार ने पूछा।

बिलाल खामोश चलते रहे।

सवार जान गया था कि बिलाल ने वह बात किसके लिए कही थी। अपनी हँसी रोकने के लिए सवार की कोशिश से उसका सारा शरीर हिलने लगा। उसकी उठती और जबरदस्ती रोकी जा रही हँसी की लहर को मैंने अपने ऊपर लदी काठी के नीचे अपनी पीठ पर महसूस किया।

वैसे तो मैं गलती कम ही करता हूँ लेकिन बिलाल मेरी किसी गलती को यूँ ही गुजर नहीं जाने देते। किसी गलती पर या तो डाँट लगाते हैं या उल्टे हाथ से मुँह पर एक थप्पड़ मारते हैं। मुझे भी ध्यान रहता है कि गलती कहाँ हुई और आगे से वैसा न हो। इस समय मैंने कोई गलती नहीं की थी लेकिन बिलाल ने एक हल्की सी चपत मेरे मुँह पर मारी। मैं समझ गया कि मेरे मरे हुए साथी को देख कर बिलाल मेरे लिए परेशान हो उठे हैं। चपत मार कर मानो मेरे साथी की मौत के हादसे को मेरे लिए इबरतनाक बनाते हों।

‘आप क्या काम करते जनाब?’ ऐसा कम ही होता है कि बिलाल किसी सवार से खुद आगे बढ़ कर बातें करें। लेकिन, शायद मेरे मरे हुए साथी की तरफ से अपना ध्यान हटाने के लिए उन्होंने सवार से पूछा।

‘टेलीविजन देखते हो? मैं उसमें खबरें सुनाता हूँ’, सवार के जवाब में नुकीली सी नाक अलग से दीख पड़ने लगी जैसी कश्मीरियों के चेहरे पर होती है।

‘अच्छा जनाब, बहुत खूब। लेकिन मेरे घर में तो टेलीविजन है नहीं’, बिलाल ने कहा लेकिन उनकी आवाज में कोई उदासी जैसी चीज नहीं थी।

‘अरे’ सवार के इस ‘अरे’ में उदासी से अधिक आश्चर्य था।

‘तो जनाब कैसे सुनाते हैं खबरें? जरा बोल कर बताएँ हुजूर’, बिलाल ने सवार के ‘अरे’ से प्रभावित हुए बिना उत्सुकता से कहा।

‘अरे मत पूछो। बड़ी कठिन ड्यूटी होती है। चेहरे पर क्रीम-पाउडर लगाना पड़ता है, बड़ी तेज रोशनी के सामने बैठ कर खबरें सुनानी पड़ती हैं, चेहरा झुलसने लगता है’, सवार ने बताया।

‘आपका तो सिर्फ चेहरा झुलसता जनाब, वो पहाड़ियों पर आप देखते? हर दो मीटर पर मिलटरी का एक जवान अपनी पूरी जिन्दगी झुलसाता खड़ा रहता है। अकेला। मशीनगन के घोड़े पर उँगली रखे। दो कदम इधर और दो कदम उधर टहल कर अपनी टाँगों को आराम देता हुआ… खड़ा हो कर या तो घोड़ा सोता जनाब या ड्यूटी पर तैनात ये सिपाही… पता नही कब किधर से एक गोली आए और खेल खत्म… आपकी ड्यूटी क्या उससे भी कठिन है, जनाब?’ बिलाल शायद ड्यूटी शब्द को लेकर कुछ ज्यादा ही जज्बाती हो गए थे।

मैं भी इन रास्तों से पाँच सालों से आ-जा रहा हूँ। मैं भी सेना के इन जवानों को रोज खड़े देखता रहा हूँ लेकिन इनके बारे में ऐसे भी सोचा जा सकता है, कभी सोचा नहीं था।

‘अब यहाँ से आपको पैदल चलना होगा। थोड़ी चढ़ाई के बाद नीचे उतरिएगा तो संगम पुल आएगा। आप वहीं पहुँचिए, हम आपको वहीं मिलेंगे’, बिलाल इस जगह पर पहुँच कर सवार को उतार देते हैं और जब मुझे अपने साथ शामिल करते हुए ‘हम’ कहते हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। सवार मेरी पीठ से उतरा तो मैंने उसको देखा जो टेलीविजन पर खबरें सुनाता है और जिसकी ड्यूटी बड़ी कठिन होती है मिलटरी के जवान और मेरी अपनी ड्यूटी से भी ज्यादा कठिन। अब तक मैंने अपनी ड्यूटी के बारे में कभी नहीं सोचा था लेकिन बिलाल की बातें सुन कर मुझे भी लगा कि जवान की ड्यूटी से मेरी ड्यूटी जरूर ही कम है पर सवार की ड्यूटी से मेरी ड्यूटी पक्की तौर पर ज्यादा कठिन है।

‘ये तो बड़ी सीधी चढ़ाई है, पैदल क्यों चलवा रहे हो?’, सवार ने उस सीधी चढ़ाई को देखते हुए अपने दम-खम का अंदाजा लगाते हुए कहा।

‘हुजूर, मेरे इस साथी की भी जान है। इतनी सीधी चढ़ाई नहीं चढ़ पाएगा ये’, बिलाल ने कहा और प्यार से मेरी गरदन पर अपनी हथेली फिराई।

बिलाल की हर छुअन में इतना प्यार और अपनापन होता है कि मेरी सारी थकान मिट जाती है। इस जगह पर आ कर जब बिलाल सवार को मेरी पीठ से उतार देते हैं तो मैं अपने आप को उनके हाथों में बहुत सुरक्षित महसूस करता हूँ। मैंने देखा सवार को चढ़ाई पार कराने के लिए मिलटरी के एक जवान ने अपनी एक बाँह थमा दी थी जिसको पकड़ कर सवार लिथर-लिथर कर किसी तरह चल रहा था। सवार दो-तीन कदम चलने के बाद सुस्ताने के लिए रुक जाता,मिलटरी का जवान भी उसके दम में दम आने तक उसके पास खड़ा रहता। लगभग तेरह हजार फुट की ऊँचाई पर आक्सीजन की कमी थी और सवार के हाँफने में उसका हल्का-हल्का कराहना भी सुनाई दे रहा था।

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करीब दस मिनट बाद संगम पुल पर जब सवार मिला तो वह बुरी तरह से पस्त हो चुका था। उसके पैर थरथरा रहे थे और वह ठीक से खड़ा भी नहीं हो पा रहा था। उसमें इतनी भी ताकत नहीं बच रही थी कि वह अपना एक पैर उठा कर मुझ पर सवार हो सके। उसने एक रकाब पर एक पैर रखा और दूसरे पैर को हवा में लहरा कर मेरी पीठ के उस पार जाना चाहा लेकिन चढ़ाई पार करने और चलने के कारण उसके पैर इतने भर गए थे कि वह असंतुलित होकर मेरी काठी पकड़ कर झूल गया।

‘तुम घोड़ेवाले अपनी हरामजदगी से बाज नहीं आओगे?’, सवार को इस तरह झूलते देख पास खड़े मिलटरी के जवान ने बिलाल को गाली दी।

आप तो शुरू से हमारे साथ हैं, आप ही इंसाफ कीजिए। इसमें बिलाल की क्या गलती थी जो उसके लिए इतनी गंदी जबान का इस्तेमाल किया गया? सवार के पैरों में अगर एक-सवा किलोमीटर पैदल चलने की भी ताकत नहीं है तो इसमें बेचारे बिलाल का क्या कुसूर? इतनी ही नाजुकमिजाजी है तो घर बैठते, यहाँ आने पर तो थोड़ी-बहुत जहमत तो उठानी ही पड़ती है। बिलाल ने पास में खड़े एक दूसरे घोड़ेवाले की मदद से सवार को मेरी पीठ पर लाद दिया और आगे की यात्रा शुरू हुई।

‘ बॉडी आगे – वेट पीछे’ और ‘बॉडी पीछे – वेट आगे’ करते-करते किसी तरह एक का सफर पूरा हुआ। जहाँ से अमरनाथ की गुफा की सीढ़ियाँ शुरू होती हैं, सवार को वहाँ उतार कर बिलाल मुझे जरा नीचे उतार लाए। मेरे पैरों के नीचे बर्फ का विस्तार था। बिलाल ने मेरी पीठ पर बँधा झोला खोला और मेरा मुँह झोले में डाल कर झोले के दोनों कान मेरी गरदन पर बाँध दिए। बिलाल बलतल से गुफा तक की यात्रा की तैयारी करते हैं तो एक झोले में मेरे लिए चने बाँध लेते हैं। झोला काठी के पिछले हिस्से से बाँध दिया जाता है जो चलते समय मेरे पिछले एक पैर के ऊपर पूँछवाले हिस्से के किनारे टकराता रहता है और याद दिलाता रहता है कि यात्रा पूरी होने के बाद मुझे खाने को मिलेगा। मेहनत के बाद इनाम की उम्मीद हो तो जोश दोगुना हो जाता है। मैं चने खाने लगा और बिलाल बीड़ी सुलगा कर किनारे बैठ गए। नाल ठुँकी होने की वजह से बर्फ की सीधी ठंडक मैं महसूस नहीं कर सकता था लेकिन इतनी लम्बी यात्रा के बाद मेरा बदन गर्म हो गया था और बर्फ की हल्की ठंडक मैं महसूस कर रहा था जो बहुत भली लग रही थी।

बर्फ के भगवान की पूजा करके सवार, माथे पर जो लाल रंग का तिलक लगा कर लौटा था वह उसके गोरे रंग पर बहुत सुन्दर लग रहा था, बिलाल की पेशानी पर सजदा करने के कारण पेशानी पर पड़े काले दाग की तरह। मैं आराम करके वापसी यात्रा के लिए फिर ताजादम हो चुका था।

गुफा की ओर आते समय जो ढलानें मिली थीं वहाँ अब चढ़ाइयाँ मिलनेवाली थीं और जहाँ चढ़ाइयाँ थीं वहाँ ढलानें मेरा इन्तजार कर रही थीं। ढलानों की तुलना में चढ़ाई ज्यादा मुश्किल होती है। आप भी जानते होंगे कि नीचे उतरने के लिए आपको कुछ नहीं करना पड़ता लेकिन किसी ऊँचाई पर पहुँचने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। अभी एक-डेढ़ किलोमीटर ही चले होंगे कि मेरे आगे चल रहे एक सवार को शायद चक्कर आने लगा और वह चिल्लाने लगा। ‘घोड़ा रोको-घोड़ा रोको’ की उसकी आवाजों ने एकदम से दहशत-सी फैला दी। घोड़ेवाले ने मयसवार घोड़ा किनारे लगा लिया। फिर वही डाँट-फटकार, गाली-गलौज। ये तो बड़ी अजीब बात है। जरा सा भी कुछ हो जाए, बस घोड़ेवाले की खबर लेना शुरू कर दो। क्या तमाशा है।

अब तुमसे ऊँचाई बर्दाश्त नहीं होती तो इसमें घोड़ेवाला क्या करे? ऊपर पहुँच गए हो तो अल्लाह का नाम लो और सामने देखते हुए खामोशी से चलते रहो। मगर नहीं, तुम लगोगे नीचे देखने। दिमाग तो चकराएगा ही। ऊँचाई पर पहुँच कर दिमाग को गड़बड़ाने से बचाए रखना बड़ा मुश्किल होता है।

मैं तो फिर रूका नहीं। सामनेवाले घोड़े के किनारे लगते ही फिर चल पड़ा।

‘तुम भी ‘बम भोले’ बोला करो बिलाल, इससे थकान नहीं आती’, सवार ने किसी बम भोले के जवाब में ‘बम भोले’ बोलने के बाद बिलाल से कहा तो मेरा ध्यान टूटा।

बिलाल ने कोई जवाब नहीं दिया, चुपचाप चलते रहे। मुझे सवार की यह बात पसंद नहीं आई। बिलाल क्यों बम भोले बोलें? आदमी की परेशानी या थकान ही कह लो, उसको अपने अकीदे की ही तरफ खींचती है। जिस पर हमारा विश्वास ही नहीं उसे हम कैसे पुकारें? सवार ही क्यों नहीं ‘बम भोले’ की जगह ‘या अल्लाह’ पुकारता? आदमी बोलने से पहले सोचता नहीं है।

‘ये हेलीकाप्टर तो दिमाग खराब कर देते हैं’, बिलाल ने हर दस-पंद्रह मिनट पर आने-जाने वाले हेलीकाप्टरों को देख कर कहा।

किराये के ये हेलीकाप्टर बलतल से गुफा तक तीर्थयात्रियों को ढोते रहते हैं। जिनके पास समय और कुव्वत कम लेकिन पैसा खूब होता है वे बलतल से हेलीकाप्टर पर सवार होते हैं और पाँच घंटों की कठिन यात्रा पाँच मिनट में पूरी कर लेते हैं।

‘ हर दस मिनट पर भड़भड़-भड़भड़… अल्लाह मेरी तौबा। इतना सुकून देनेवाली जगह पर कितना शोर भर गया है’, बिलाल की आवाज में उकताहट थी।

‘हेलीकाप्टर की वजह से तुम्हारी रोजी पर भी तो असर पड़ता होगा’, सवार ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा।

‘रोजी तो अल्लाह देता है जनाब, उसकी फिक्र हम क्यों करें? बात रोजी की नहीं है’, बिलाल ने सवार की बात का जवाब झपटती-सी आवाज में दिया। लगा, जैसे ‘बम भोले’ वाली बात का जवाब देते हों।

सवार चुप हो गया। बिलाल भी।

‘बॉडी आगे – पैर पीछे’, बिलाल ने सवार को याद दिलाया।

बहुत सीधी चढ़ाइयाँ थी। मैं दस-पंद्रह कदम चलता और साँस लेने के लिए रुक जाता। ऐसी हालत में बिलाल भी मुझे कभी चलने के लिए मजबूर नहीं करते। वह साथ ही खड़े रह कर तब तक प्रतीक्षा करते हैं जब तक कि मैं खुद चलना शुरू न कर दूँ।

‘बहुत थक गया है बेचारा’, एक बार जब मैं रूका हुआ था, मैंने सवार को कहते हुए सुना। इसी के साथ मैंने अपनी गरदन पर अजनबी अँगुलियों की छुअन महसूस की। बिलाल को छोड़ यह अकेला आदमी था जो मुझे प्यार कर रहा था।

‘जब ये रुक कर साँस लेता है तो इसके पेट से सटे मेरे पैर महसूस करते हैं कि इसकी साँस कितनी तेज चलती है’, सवार ने बिलाल से कहा।

मैं साँसे भर चुका था और चल सकता था। लेकिन सवार के मुँह से यह सब सुनना अच्छा लग रहा था। मैं कुछ और सुनने की प्रतीक्षा में खड़ा रहा।

‘चलो’, बिलाल ने हमेशा की तरह धीमे से कहा।

‘जरा देर रुक जाओ भाई, बहुत थक गया होगा ये’ सवार ने बिलाल से प्रार्थना-सी की।

‘अच्छा अब चलो, बहुत दिमाग न खराब हो तुम्हारा’, बिलाल ने लाड़ से कहा और हाथ में पकड़ी रास को हल्के से झटका दिया। मैं चल पड़ा। सवार की हथेली मेरी गरदन पर सीधाई से खड़े बालों को सहलाती रही।

बिलाल कोई मेरे दुश्मन नहीं हैं, लेकिन रास्ते में जरूरत से ज्यादा रुक कर आराम करने की आदत न तो बिलाल की है और न ऐसी आदत उन्होंने मुझमें पड़ने दी।

‘अभी और कितनी दूर है भइया’, सामने से लाठी टेकती चली आ रही एक बूढ़ी माता ने उखड़ती साँसों के बीच पूछा। वह थकान के मारे रोने-रोने को हो रही थी।

‘अभी तो बहुत दूर है माई’, सवार ने कहा तो बूढ़ी माता हम लोगों की पेशाब और लीद से गंदी हो गई जमीन की कोई परवाह न करते हुए वहीं धम्म से बैठ गईं।

‘कहीं ऐसे कहा जाता है जनाब? ये तो हिम्मत तोड़नेवाली बात हुई। माई से कहना चाहिए था कि, बस जरा दूर चलते ही गुफा की सीढ़ियाँ दिखाई देने लगेंगी’, बिलाल ने सवार को किसी अभिभावक की तरह सीख दी।

बिलाल हमेशा यही करते हैं। रास्ते में जब भी कोई उनसे पूछता है कि अभी कितनी दूर है, तो वह यही कहते हैं कि बस जरा दूर और… और उनके ऐसा कहते ही मैंने देखा है थकान से चकनाचूर हो चुके आदमी में उत्साह और ताकत का संचार हो जाता है और वह दोगुने जोश के साथ चलने लगता है। लेकिन बूढ़ी माता के मामले में इससे पहले कि बिलाल जवाब देते सवार ही बोल पड़ा।

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‘बॉडी पीछे – पैर आगे’, बिलाल ने सवार को याद दिलाया क्योंकि अब मुझे सत्तर-अस्सी डिग्री की सीधी ढलान उतरनी थी। वहाँ रास्ता भी कुछ ज्यादा ही सँकरा हो गया था। लगभग चार फुट चौड़ा रास्ता, रास्ते पर पड़े हुए छोटे-बड़े आकार के पत्थर। उसी रास्ते पर मुझे, बिलाल और सामने से आ रहे लोगों को गुजरना था – अपने लिए रास्ता बनाते हुए और दूसरों को रास्ता देते हुए। नीचे बारह हजार फुट की गहराई में हरीतिमा और नीली आभा लिए फेन उठाती नदी अपनी गति से बह रही थी।

‘बॉडी पीछे – पैर आगे’, बिलाल ने ढलान शुरू होने से पहले सवार को एक बार फिर याद दिलाया।

सवार ने दोनों पैर आगे की ओर ताने। उसके पैर मेरे अगले पैरों से टकराए। मैं जरा सा लड़खड़ाया फिर तुरन्त ही अपने को सँभाल ले गया। बिलाल ने उल्टे हाथ से एक झन्नाटेदार झापड़ मेरे मुँह पर मारा और चलना जरा देर के लिए रोक दिया। मैंने आपको बताया न कि बिलाल मेरी गलतियों को कभी माफ नहीं करते। और इस समय की यह लड़खड़ाहट तो गजब ढा सकती थी। आगे अभी कई ऐसी ढलानें मिलनेवाली थीं जहाँ मुझे बहुत सँभल कर एक-एक पैर रखते हुए आगे बढ़ना था। मैं झापड़ को याद रखूँ और अपने आप को दिमागी तौर पर चौकस बना लूँ, इसीलिए बिलाल ने मेरा चलना जरा देर के लिए रोक दिया था। लेकिन बिलाल क्या जाने कि मैं इतनी देर से चलने में किस तरह की परेशानी उठा रहा हूँ। सवार जाने कैसे बैठता है। पैर पीछे रखता है तो उसके जूते का अगला हिस्सा मेरे पीछे के घुटनों से टकराता है और जब आगे तानता है तो उसके जूतों की एड़ियाँ अगले पैरों से टकराती हैं। इस सवार ने तो मेरा चलना दूभर कर दिया है।

अपनी कोई गलती न होने पर भी बिलाल से मुझे मार खानी पड़ी। ‘मार खानी पड़ी’ इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि वह थप्पड़ आमतौर पर तम्बीह के लिए लगाई जाने वाली चपत नहीं था। वह अपनी पूरी ताकत के साथ मारा गया झापड़ था जिसमें बिलाल की चिंता, आशंका और झुँझलाहट शामिल थीं। मुझे सवार पर बेतरह गुस्सा आ रहा था। मैंने चलना शुरू किया और दो कदम बाद ही रुक गया। मेरा मन करने लगा कि सवार का पैर ही चबा जाऊँ। मैंने अपना मुँह खोला और सवार के पैर को अपने दाँतों के बीच में ले लिया। मगर फिर मुझे अपने खयाल पर गुस्सा आया और हैरानी हुई कि मैं भला ऐसा काम करने के बारे में सोच भी कैसे सका? सवार ने अपना पैर तेजी से पीछे खींचा और मैंने भी अपने जबड़े खोल कर पैर को बाहर जाने का रास्ता दे दिया।

‘ये ऐसा क्यों कर रहा है?’ सवार ने बेहद डरी हुई आवाज में बिलाल से पूछा।

‘क्या कर रहा है?’

‘ये अभी मेरा पैर काटने की कोशिश कर रहा था’, सवार ने मेरी शिकायत की।

‘आपका पैर क्या इसके पैर से टकरा रहा था?’

‘हो सकता है।’

‘तभी। इसे गुस्सा आ रहा होगा। पैर ऐसे रखिए जनाब, कि इसके पैरों से टकराएँ नहीं’, बिलाल ने सवार को समझाया। मैंने चलना फिर शुरू कर दिया।

‘अच्छा, एक बात बताओ।’

‘जी हुजूर।’

‘लोग बताते हैं कि ये अगर अपने मुँह में कोई चीज दबा ले तो उसे छुड़ाना मुश्किल होता है’, सवार की आवाज से डर अभी गया नहीं था। मुझे उस पर दया आ रही थी। उसने अपने पैर सँभाले हुए थे।

‘मुश्किल क्या जनाब नामुमकिन कहिए। इसके इतने बड़े-बड़े तो दाँत होते हैं’, बिलाल ने अपनी अँगुली के डेढ़ पोर पर अँगूठा रखते हुए बताया।

‘ओ’, सवार के मुँह से निकला। अब उसका पूरा ध्यान इस बात पर था कि उसके पैर भूल से भी मेरे पैरों से न टकराएँ।

आप ही जरा सोचिए कि मेरे ऊपर कितनी जिम्मेदारी होती है। बिलाल और उसके परिवार की जिम्मेदारी, सवार को सुरक्षित पहुँचाने की जिम्मेदारी और जाहिर है अपने को महफूज रखने की जिम्मेदारी क्योंकि मैं नहीं रहा तो बिलाल के परिवार का क्या होगा?

मैं जब चलने के लिए पैर आगे बढ़ाता हूँ तो मुझे पता होता है कि मुझे पैर कहाँ रखना है। इतने पत्थर,कभी-कभी होनेवाली बारिश और हमारी पेशाब और लीद से पैदा होने वाली फिसलन, ऊपर से इतने ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर क्या मजाल कि चारों पैरों को उठाने-रखने में कभी कोई गलती होती हो। लेकिन ऐसा तभी मुमकिन हो सकता है जब मुझे अपने हिसाब से चलने दिया जाए।

देखिए, मैं आपको समझाने की कोशिश करता हूँ। जैसे मैं अपना अगला पैर उठा रहा हूँ तो इस हिसाब से कि उसे एक फुट आगे रखना है और उसे अपना पैर टकरा कर कोई छः या सात इंच पर ही रखने पर मुझे मजबूर कर दे तो अपनी चाल के हिसाब से मैं जानता हूँ कि अगले पैर के एक फुट रखने पर मेरे पिछले पैरों को कितना आगे बढ़ना है लेकिन अचानक एक फुट के बजाय मेरा अगला पैर छः या सात इंच पर ही रुक जाए तो पिछले पैर तो एक फुट के हिसाब से आगे बढ़ चुके होते हैं उन्हें मैं पीछे कैसे करूँ? पता नहीं आप भी मेरी मजबूरी समझे या नहीं लेकिन ढलान पर मेरे लड़खड़ा जाने की, यही वजह थी जिसके कारण बिलाल ने मुझे मारा था।

उस जगह पर अगर मैं अपनी लडखड़ाहट पर काबू न कर पाता तो आप सोच ही सकते हैं कि क्या हो जाता। मैं सवार सहित बारह-तेरह हजार फुट की गहरी खाई में गिर चुका होता और बिलाल बेचारे ऊपर रह जाते लोगों की गालियाँ और लात-जूते खाने के लिए। कोई यह थोड़ी ही जानता कि मैं गिरा क्यों? सब यही समझते कि घोड़ेवाले की लापरवाही रही होगी। जैसा कि होता है, हर बात में घोड़ेवाला ही पकड़ा जाता है। अब जाहिर है कि मैं गिरता तो बिलाल तो मेरे साथ नीचे कूद नहीं पड़ते। और उनको कूद पड़ना भी नहीं चाहिए। मरनेवाले के साथ कोई मर थोड़े ही जाता है। मेरे लिए तो मौत एक छुटकारे की ही तरह आती लेकिन बिलाल तो अपने घर के अकेले कमानेवाले हैं, उनको मरना भी नहीं चाहिए। मेरे जैसे खच्चर तो पचासों मिल जाएँगे, लेकिन घरवालों को दूसरा बिलाल कहाँ से मिलता? हाँ मरते-मरते मुझे भी सवार का जरूर दुःख रहता कि यह पता नहीं कहाँ से आया था, कौन है और इसके न रहने पर इसके घर-परिवार पर कैसी आफत टूट पड़ेगी। सवार कितना प्यारा इंसान है उसे अभी संसार में रहना चाहिए। अच्छे इंसान इस दुनिया में बहुत कम रह गए हैं।

‘लीजिए जनाब, हम वापस बलतल पहुँच गए’, बिलाल ने कहा तो मेरा ध्यान टूटा।

सवार ने उतर कर अपने पैर सीधे किए और बटुआ निकाल कर रूपये बिलाल को दिए।

‘हुजूर, इसके दाने के लिए दस-बीस और मिल जाते तो’, बिलाल ने सवार से अनुरोध किया।

‘क्यों? जितना तय हुआ था उतना दे तो दिया। अब एक पैसा नहीं दूंगा’, सवार की आवाज में गुर्राहट आ गई।

‘अरे कुछ दे दीजिए हुजूर, मेरा ये साथी आपको दुआएँ देगा’, बिलाल ने अजीब रिरिया कर कहा जो मुझे जरा भी पसंद नहीं आया।

‘कौन तुम्हारा साथी? ये खच्चर? ये जानवर? मुझे दुआएँ देगा? भक्तों की जेब से पैसा खींचने के लिए तुम लोगों की ये नई हरामजदगी है’, सवार ने ठठा कर हँसते हुए कहा। सवार के मन को मिलटरी के जवान से सुनी गाली बहुत भा गई थी।

सवार ने पाँच रूपये का एक सिक्का बिलाल की ओर उछाला जिसे बिलाल ने लपक लिया। सवार की गाली से भी खराब लगा मुझे बिलाल का इस तरह पैसे माँगना और उससे भी शर्मनाक लगा सवार के फेंके गए सिक्के के लिए बिलाल का हाथ बढ़ाना। मन मसोस कर रह जाना पड़ा। यही सोच कर मन को समझा लिया कि बिलाल कुछ भी हों, हैं तो आखिर इंसान ही।

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झूठी-सच्ची हथेलियाँ – Jhoothee-Sachchee Hatheliyaan

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