झरबेर | केदारनाथ सिंह
झरबेर | केदारनाथ सिंह

झरबेर | केदारनाथ सिंह

झरबेर | केदारनाथ सिंह

प्रचंड धूप में
इतने दिनों बाद
(कितने दिनों बाद ?)
मैंने ट्रेन की खिड़की से देखे
कँटीली झाड़ियों पर
पीले-पीले फल

‘झरबेर हैं’ – मैंने अपनी स्मृति को कुरेदा
और कहीं गहरे
एक बहुत पुराने काँटे ने
फिर मुझे छेदा

केदारनाथ सिंह की रचनाये

होंठ | केदारनाथ सिंह

होंठ | केदारनाथ सिंह होंठ | केदारनाथ सिंह हर सुबहहोंठों को चाहिए कोई एक नामयानी एक खूब लाल और गाढ़ा-सा शहदजो सिर्फ मनुष्य की देह से टपकता है कई बारदेह से अलगजीना चाहते हैं होंठवे थरथराना-छटपटाना चाहते हैंदेह से अलगफिर यह जानकरकि यह संभव नहींवे पी लेते हैं अपना सारा गुस्साऔर गुनगुनाने लगते हैंअपनी जगह…

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सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए |केदारनाथ सिंह

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