जेल से जेल तक | आशा पाण्डेय
जेल से जेल तक | आशा पाण्डेय

जेल से जेल तक | आशा पाण्डेय – Jel Se Jel Tak

जेल से जेल तक | आशा पाण्डेय

नल से लगातार गिरते पानी की बेसुरी आवाज से जुम्मनभाई झुँझलाकर उठ बैठे। यूँ तो सुबह के पाँच बज रहे हैं किंतु अभी अँधेरा है और आँखों में नींद भी, पर चौके में पत्नी की खटर-पटर शुरू हो गई है। जिससे नींद में खलल पड़ रही है। जुम्मन भाई पत्नी को तेज आवाज में डाँटना चाहते हैं किंतु उन्होंने महसूस किया कि इधर कुछ दिनों से उनकी आवाज लगातार धीमी होती जा रही है। चाह कर भी तेज और तीखी आवाज में नहीं बोल पाते हैं। यह उनके अंदर की निराशा से उपजी विरक्ति है या स्वभाव में सरलता का समावेश हो रहा है, समझ नहीं पाते हैं। हाँ, आजकल उन्हें यह जरूर लगने लगा है कि वे लगातार बौने होते जा रहे हैं, और हर सुबह क्रोध और शांति के बीच जकड़ उठते हैं।

इस जकड़न से छुटकारा पाने के लिए जुम्मन भाई अब सुबह जल्दी उठने लगे हैं। पैर जमीन पर रखते ही कुछ देर उन्हें असह्य दर्द होता है। घिसट-घिसट कर स्नानघर में जाते हैं, गरम पानी से पंजों की सेंकाई करते हैं तब उन्हें कुछ राहत मिलती है।

नित्य की तरह आज भी जुम्मनभाई कुछ खा-पीकर नौ बजे तक बाहर निकल आए। घंटे दो घंटे चाय की दुकान पर बिताने के बाद निरुद्देश्य इधर से उधर भटकते रहे। जब वे घर से निकलते हैं तो पत्नी की उम्मीद बढ़ जाती है कि शायद आज कोई खुश खबर लेकर लौटेंगे और इसी उम्मीद में वह सुबह बड़ी फुर्ती से नाश्ता खाना बनाती है किंतु रात में जुम्मनभाई का लटका मुँह उसे निराश और दुखी कर देता है।

वैसे यह सच नहीं है कि जुम्मनभाई को नौकरी नहीं मिल रही है। बल्कि सच तो यह है कि जुम्मनभाई नौकरी की तलाश ही नहीं करते हैं। जब से ड्रायवरी छूटी है उनका मन विचलित रहने लगा है उन्हें कोई अन्य काम सुहाता ही नहीं है और दुबारा ड्रायवरी न करने की उन्होंने कसम खा ली है। वैसे एक सच यह भी है कि टूटे पंजे से वे ड्रायवरी कर भी नहीं सकते हैं।

शुरू-शुरू में जुम्मनभाई अपने पुराने मित्रों के बीच अपना समय बिताना चाहते थे किंतु वे सभी अपने-अपने काम-धंधों में व्यस्त हैं। उन सभी के पास जुम्मनभाई की तरह न वक्त है न ही वैसी बेचैनी। धीरे-धीरे वे मित्रों से कटने लगे और अकेले ही इधर-उधर घूम कर दिन बिताने लगे। उन्हें शाम होने का इंतजार भी नहीं रहता बल्कि आज-कल वे यह सोचने लगे हैं कि दिन खिंच कर थोड़ा बड़ा हो जाता तब कितना अच्छा होता। जुम्मनभाई भागने लगे हैं घर से। क्योंकि घर पहुँच कर पत्नी का चेहरा देखते ही उन्हें अपराधबोध घेर लेता है – बेचारी! दिन भर मनौती मानती होगी, उसे कहाँ पता है कि उसका पति नौकरी तलाशना तो दूर उसके बारे में सोचता तक नहीं है।

आज वे घूमते हुए पेट्रोलपंप की तरफ निकल आए हैं। ड्रायवरी के दिनों में वे अक्सर यहीं से अपनी गाड़ी में पेट्रोल डलवाते थे। पेट्रोलपंप के पास ही एक गराज है। गाड़ियों की हल्की-फुल्की खराबी में उन्हें सुधार कर चलने लायक कर लेना जुम्मनभाई के बाएँ हाथ का खेल था। दुपहिया गाड़ियों को भी खोल-खाल कर दुरुस्त कर लेने में वे माहिर थे। आज गराज देखकर उन्हें अपने इस हुनर से पैसा कमाने की युक्ति सूझी। इस गराज में सारे चेहरे उनके जाने-पहचाने हैं। मालिक भी उन्हें पहचानता है। उन्हें उम्मीद है कि एक बार कहते ही बात बन जाएगी।

वे गराज मालिक से बात करने के लिए खुद को तैयार करने लगे तभी झापड़ों की ताड़तड़ आवाज ने उन्हें चौंका दिया। गराज मालिक पंक्चर बनाने वाले लड़के को मार रहा है। मालिक के मुँह से भद्दी गालियाँ बड़ी फुर्ती से निकल रही हैं। लड़का हाथ जोड़कर माफ कर देने की विनती कर रहा है। उसकी गलती यह है कि एक दिन पहले उसने एक स्कूटी के टयूब का पंक्चर बनाया था वह आज दूसरे ही दिन खुल गया। ग्राहक की शिकायत पर मालिक उबल पड़ा और लड़के की धुनाई हो गई।

वैसे तो यह कोई अनहोनी घटना नहीं है। बचपन से अब तक हजारों बार जुम्मनभाई ऐसी घटनाओं को देख चुके हैं, न सिर्फ देख चुके हैं बल्कि स्वयं भी भुगत चुके हैं। किंतु आज न जाने क्यों उन्हें गहरी टीस उठ रही है। उन्हें इस बात का भी दुख हो रहा है कि वहाँ काम करने वाले किसी व्यक्ति के चेहरे पर इस घटना का दर्द नहीं उभरा है। क्या नौकरी छूट जाने का डर इन लोगों में इस हद तक समाया है कि चेहरे पर उतरने वाले भावों को भी सब मन ही मन में सोख ले रहे हैं? या दूसरों की पीड़ा इतनी पराई हो गई है कि आँखों तक में दर्द नहीं उतरता है। जुम्मनभाई को उबकाई-सी आने लगी।

लड़के की आँखों से आँसू बह रहे हैं जिसे वह शर्ट की बाँहों में पोछता जा रहा है और काम करता जा रहा है। जुम्मनभाई उस लड़के को एकटक देखने लगे। उन्हें लगा कि वह लड़का और कोई नहीं स्वयं जुम्मनभाई ही हैं तथा अभी-अभी वो सारे झापड़ उन्हीं के मुँह पर पड़े हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि वे इन झापड़ों को इस लड़के की तरह सहजता से सह न पाते-बोल पड़ते तथा अधिक नुकसान उठा लेते।

यही तो किए थे जुम्मनभाई।

चारबाग अड्डे पर इलाहाबाद-इलाहाबाद चिल्लाते हुए सूमो लगा दिए थे। एक सज्जन सफारी सूट पहने हाथ में अटैची थामे लखनऊ स्टेशन की तरफ से चले आ रहे थे। जुम्मनभाई आगे बढ़कर बोले –

‘साहब इलाहाबाद?’

‘हाँ, चलना तो है लेकिन बीच की सीट पर बैठूँगा।’

‘कोई बात नहीं साहब …आप आइए तो…’

बीच की सीट पर तीन सवारियाँ बैठ चुकी थीं। जुम्मनभाई उन सब को थोड़ा खिसकने के लिए कहे तब सफारी सूट पहने उस व्यक्ति ने कहा वह पूरी सीट उसे चाहिए। तीन-चार लोग और उसके साथ हैं जो अभी आते ही होंगे। बिना किसी मशक्कत के तीन-चार सवारियाँ मिलने की खुशी जुम्मनभाई के चेहरे पर झलक पड़ी। बीच की सीट पर पहले से ही बैठी उन तीनों सवारियों से बिनती कर जुम्मनभाई उन्हें पीछे बैठने के लिए राजी कर लिए और फिर से इलाहाबाद-इलाहाबाद चिल्लाने लगे। एक सवारी और मिल गई। अब जुम्मनभाई ड्राइवर सीट पर बैठ गए। टेप से कैसेट बदल कर दूसरी लगाए। गुटके का पाउच खोलकर मुँह में भर लिए फिर पीछे मोड़कर बीच की सीट पर बैठे उस व्यक्ति से पूछे – ‘साहब सवारियाँ कितनी देर में आ जाएँगी?’

‘बस आती ही होंगी …अभी तो पीछे कई सीट खाली है, क्या इतनी ही सवारी लेकर चलोगे?’

‘हाँ साहब जल्दी निकल चलूँगा, आजकल चेकिंग बहुत तेज हो गई है कहीं कोई पुलिस वाला आ गया तो लेने के देने पड़ जाएँगे …और हाँ भईया पीछेवालों, अगर कोई पूछे तो यह मत कह देना कि तुम लोग सवारी हो …बस हमारे रिश्तेदार हो समझे।’

‘समझ गया भईया, हमें क्या पड़ी है, हमें तो बस इलाहबाद पहुँचा दो।’ पीछे से किसी सवारी ने जवाब दिया।

जुम्मनभाई फिर से बीच वाली सीट पर बैठे व्यक्ति से बोले – ‘बस आपके साथी आ जाएँ तो जल्दी निकल चलूँ। क्या करूँ साहब आज राजा, मेरा लड़का है साहब, उसका जन्मदिन है। उससे वायदा किया था कि इस बार उसके जन्मदिन पर उसे आनंदभवन, तारामंडल आदि दिखाऊँगा। …इलाहाबाद पहुँचने में तीन से चार घंटे लगेंगे, निकल चलूँगा तो समय पर पहुँच जाऊँगा। पोलियो का मारा है साहब, इन्ही छोटी-छोटी खुशियों का तो उसे सहारा है।’

उस व्यक्ति को जुम्मनभाई की इन घरेलू बातों में कोई रुचि नहीं थी। वह बार-बार सामने से आती सड़क की तरफ देख रहा था। जनवरी का महीना था। सुबह के आठ बज रहे थे किंतु घने कोहरे के कारण दस-पंद्रह फीट के बाद साफ-साफ दिखाई नहीं पड़ रहा था। अचानक पुलिस की एक गाड़ी सूमो के सामने सड़क को घेरते हुए खड़ी हो गई जुम्मनभाई का माथा ठनका। वे सूमो का गेट खोल उतरने लगे किंतु बीच की सीट पर बैठा वह व्यक्ति पीछे से जुम्मनभाई का कालर पकड़कर सीट पर बैठा लिया, ठीक उसी समय एक सिपाही आकर जुम्मनभाई को दो-तीन हाथ जमा दिया। जुम्मनभाई तिलमिला गए। आवाज कुछ ऊँची हो गई – ‘क्यों मार रहे हो मुझे?’ ‘साले प्राइवेट गाड़ी पर सवारी बैठाते हो ऊपर से पूछ रहे हो कि क्यों मार रहा हूँ। पीछे देखो, …गाड़ी में इन्स्पेक्टर साहब बैठे हैं उन्होंने ही मोबाइल करके हम लोगों को बुलाया है।’

जुम्मनभाई ने इन्स्पेक्टर को घृणा से देखते हुए कहा, ‘बैठे होंगे इन्स्पेक्टर साहब, आप गाड़ी जब्त कर लीजिए, चालान कर दिलिए, लाइसेंस ले लीजिए, पर मार क्यों रहे हैं?’

पुलिस इन्स्पेक्टर ने सिपाहियों को मारने से मना किया तथा जुम्मनभाई को सवारी उतारकर गाड़ी लेकर थाने में आने का आदेश दिया। जुम्मनभाई सिपाहियों के साथ थाने पहुँचे उन्हें एक कमरे में बैठा दिया गया। एक-डेढ घंटे बाद उन्हें उसी इन्स्पेक्टर के सामने लाया गया। जुम्मनभाई को वह किसी घटिया फिल्म का घटिया खलनायक लग रहा था। उनका डर पहले ही कम हो गया था, उस इन्स्पेक्टर को सामने देख अकड़ भरी जिद भी सवार हो गई। इन्स्पेक्टर ने गरज कर पूछा –

‘नाम क्या है?’

‘कन्हैयालाल उर्फ जुम्मनभाई’ इन्स्पेक्टर इन विरोधाभासी नामों से चौंका। वह आगे कुछ पूछता उसके पहले जुम्मनभाई ही बोल पड़े, ‘बचपन में मैं हर समय जूमता रहता था। पढ़ना-लिखना, खाना-पीना सब जूमते हुए बस तभी से सब मुझे जुम्मन कहने लगे। जुम्मन से जुम्मनभाई कब बन गया यह मैं खुद भी न जान पाया। ‘साला’ कहते हुए इन्स्पेक्टर के चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान फैल गई। उसने अगला प्रश्न किया, ‘गाड़ी का सब पेपर है?’

‘हाँ, है। इन्स्पेक्टर की मुस्कान से जुम्मनभाई के मन में खीझ पैदा हो गई।’

‘मालिक तू है?’

‘नहीं, मैं ड्राइवर हूँ।’

‘तुम्हें पता तो है न कि बिना परमिट के कोई गाड़ी सवारी गाड़ी के रूप में नहीं चलाई जा सकती?’

‘पता है।’

‘साले जब पता है तब क्यों चला रहा था? और सवारियों को रिश्तेदार बताता है?’

जुम्मनभाई की अकड़ भरी आवाज इन्स्पेक्टर को अपमानित कर रही थी। उसने सिपाहियों को आदेश दिया, ‘बहुत अकड़ भरी है, लिटा कर साले को ठंडा कर दो।’ सिपाहियों ने जुम्मनभाई को धकियाते हुए गिरा दिया और आठ-दस लाठी जमा दिए। ठंडी का महीना था। जुम्मनभाई का पूरा शरीर सुन्न पड़ गया। चिल्लाते कराहते वे बेहोश हो गए। थोड़ी देर बाद जब उन्हें होश आया तब उन्हें गरम चाय पिलाई गई। दो सिपाही उन्हें पकड़ कर थोड़ी दूर तक चलाए फिर लाकप में डाल दिए। जुम्मनभाई दर्द से छटपटा रहे थे ठंड भी तेज थी। ठंड से बचने के लिए वे अपने हाथ-पैर सिकोड़ कर सीने और पेट के पास चिपकाना चाहते, किंतु लाठियों की मार से हाथ-पैर अकड़ गए थे। सिकोड़ना मुश्किल हो रहा था। अब तक कुछ खाने को भी नहीं मिला था। हाँ, चाय जरूर कई कप मिल गई थी। रात बारह बजे वही दोनों सिपाही फिर जुम्मनभाई के पास पहुँचे तथा उन्हें पकड़कर चलाते हुए इन्स्पेक्टर के सामने लाकर खड़ा कर दिए।

इन्स्पेक्टर ठंडी किंतु व्यंग्यभरी आवाज में पूछा, ‘हो गए ठंडे? साले तुम लोग बिना मार के ठीक ही नहीं होते। मैं तुझे अभी छोड़ दे रहा हूँ, गाड़ी यहीं रहेगी, अपने मालिक को भेजना वो आकर मुझसे मिलें। और सुन, फिर कभी इस रूट पर गाड़ी लेकर मत आना …समझे।’

‘गाड़ी लेकर तो आना ही पड़ेगा। बाल-बच्चों को क्या खिलाऊँगा? अगर आप पंद्रह-सत्रह सौ तक की नौकरी दिलवा दें तब फिर कभी गाड़ी को हाथ भी नहीं लगाऊँगा। नहीं तो पेट पालने के लिए गाड़ी तो चलाना ही पड़ेगा।’

इन्स्पेक्टर को उम्मीद थी कि जुम्मनभाई को छोड़कर उसने उनके ऊपर जो दया दिखाई है उससे वे द्रवित हो उसके पैरों पर लोट कर उसकी रहमदिली के प्रति कृतज्ञ हो जाएँगे। किंतु जुम्मनभाई ने उसकी दया की तनिक भी परवाह नहीं कि तथा अपनी हेठी बरकरार रखी, लिहाजा इन्स्पेक्टर अपनी रौ में आ गया।

‘स्साला, अभी अकड़ गई नहीं …नौकरी दिलवा दूँ तुझे? बस यही करने बैठा हूँ मैं? …गाँजा लगाकर जेल भेज दो साले को, दिमाग ठीक हो जाएगा। फिर यह तो क्या इसकी दो चार पुश्त गाड़ी नहीं चलाएगी। …तैयार करो पेपर …गाड़ी में गाँजा पकड़ा गया।’

सिपाही धकियाते हुए जुम्मनभाई को फिर लाकप में डाल दिए। दूसरे दिन जुम्मनभाई को कचहरी ले जाया गया। पुलिस इन्स्पेक्टर ने उनके मालिक का फोन नं. लिया था उन्हें उम्मीद थी मालिक जमानत के लिए कचहरी आएँगे किंतु वहाँ किसी को न देख वे निराश हो गए। मजिस्ट्रेट के सामने हाथ जोड़े ‘साहब, लखनऊ में मेरा कोई नहीं है, कौन जमानत लेगा? …दया करें माई-बाप। किंतु कानून-कानून होता है। जुम्मनभाई को ज्यूडिशियल रिमांड में ले लिया गया। उनके हाथों में हथकड़ी पहनाई गई तथा जेल ले जाने वाली गाड़ी में बैठा दिया गया।

जुम्मनभाई को अपने जेल जाने पर विश्वास नहीं हो रहा था। उन्होंने किसी का खून-कत्ल, जालसाजी या फिर चोरी-डाका नहीं डाला था। उन्हें जेल क्यों हो सकती है किंतु पुलिस की गाड़ी उन्हें लेकर जेलमार्ग की तरफ ही आगे बढ़ रही है।

जुम्मनभाई मन ही मन बुदबुदाए – मुझे जेल हो गई! फिर थोड़ा तेज बोलकर इस वाक्य को सुनना चाहे – मुझे जेल हो गई। दो बार, तीन बार, चार बर दोहराते-दोहराते उनका साहस भरभरा कर धराशाही हो गया और कभी किसी से न डरने वाले जुम्मनभाई जेल शब्द के उच्चारण मात्र से स्वयं को प्राणविहीन महसूस करने लगे। उनके हाथ-पैर की शक्ति निचुड़ रही थी। वे खुद पर रोना चाह रहे थे, रोना चाह रहे थे खुद की बेवकूफी पर, खुद की अकड़ पर जो समय के अनुकूल ढीली नहीं हो जाती। कह देना था पुलिस इन्स्पेक्टर से कि यहाँ से छूटने के बाद गाड़ी को हाथ भी नहीं लगाऊँगा। क्या बिगड़ जाता कम से कम जेल जाने से तो बच जाते।

जुम्मनभाई पैर को सीट के करीब खिसकाए, दर्द के मारे चेहरा बन गया किंतु सामने सिपाहियों को देख कराहे भी नहीं। उनके मन में एक अजीब-सी हलचल हुई। क्या जेल से बचने के लिए कुछ भी सुन लेते, अन्याय सह लेते। जिस इन्स्पेक्टर ने इतना जलील किया था, मरवाया था, उसके सामने दुम हिलाने लगते? नहीं, कभी नहीं। अधिक से अधिक क्या होगा, कई सालों की जेल बस न। यह सोचते ही जुम्मनभाई का तनाव जाता रहा।

गाड़ी की गति धीमी हुई। जेल आ गया था। जेल के मुख्य गेट के अतिरिक्त चार-पाँच गेट और थे। हर गेट पर जुम्मनभाई की चेकिंग हुई फिर उन्हें एक बैरक में डाल दिया गया। उस बैरक में पहले से ही कई कैदी थे। जुम्मनभाई एक वृद्ध कैदी के बगल में बैठ गए।

दोपहर के तीन बज रहे थे जुम्मनभाई दो दिन से कुछ खाए नहीं थे। भूख जोरों की लगी थी। जब नहीं रहा गया तो उन्होंने उस वृद्ध कैदी से पूछा – ‘दादा, यहाँ खाने-पीने को कुछ देते हैं या नहीं?’ अब तक चुपचाप एक कोने में बैठा वृद्ध, दादा शब्द के संबोधन से उचक गया। उसकी आँखें ममतामयी हो उठीं। बड़े अपनत्व भरे शब्दों में उसने जुम्मनभाई को बताया, ‘मिलता है बेटा, दो बार भोजन मिलता है। लेकिन तुम्हें आने में देर हो गई। …दोपहर के भोजन का वक्त निकल गया …अब तो रात को ही मिलेगा। …किस अपराध में लाए गए हो?’

‘अपराध तो बिना परमिट गाड़ी चलाने का था किंतु गाँजा लगाकर अंदर किए है।’

‘चिंता मत करो छूट जाओगे।’

‘तुम्हारे पास मिलने वाले गाँजे की मात्रा अधिक दिखाए हैं या कम?’

‘मुझे नहीं पता।’

‘कोर्ट में तुमसे पूछा तो होगा न?’

‘नहीं, कोर्ट में तो सिर्फ गाड़ी की ही बात हुई थी …फर्जी परमिट की बात कर रहे थे मजिस्ट्रेट।’

‘तुम्हारे पास फर्जी परमिट है?’

‘नहीं, मेरे पास तो परमिट ही नहीं है।’

‘मुझे लगता है तुम्हारी जमानत लेने वाला कोई आ जाएगा तब तुम जल्दी छूट जाओगे। कोई बहुत बड़ा केस तुम्हारे ऊपर नहीं बना होगा। बल्कि मुझे तो यह लग रहा है कि उस दिन कोर्ट में ही तुम्हे जमानत मिल जानी चाहिए थी।’

‘हाँ लेकिन लखनऊ में मेरा कोई रहता नहीं है …उस दिन मेरा कोई जमानतदार नहीं था कैसे छूटता? और पता नहीं कोई जमानतदार होने के बाद भी छूटता या नहीं?’

‘निराश मत हो बेटा, छूट जाओगे …मुझे देखो, मैं पाँच महीने से यहाँ हूँ। आगे भी छूटने की कोई उम्मीद नहीं है।’

‘आप यहाँ क्यों लाए गए हैं?’

‘मैंने कत्ल किया है, एक नहीं दो-दो।’

जुम्मनभाई चौंक-से गए। वृद्ध समझ गया, बोला – ‘डरो नहीं बच्चा, मैं कोई पेशेवर कातिल नहीं हूँ।’

‘पर आपने कत्ल क्यों किया?’

‘तुम कभी भूखे रहे हो?’

‘दो दिन से हूँ।’

‘अभी तुम्हें रोटी मिले और मैं छीन लूँ तब क्या करोगे?’

‘मैं भी आपसे छीनने का प्रयास करूँगा।’

‘अगर न छीन पाओ तब?’

‘तब मैं आपसे चिढ़ूँगा तथा दुबारा रोटी मिलने का इंतजार करूँगा।’

‘मैं दुबारा भी छीन लूँ तब?’

‘मैं आपसे नफरत करूँगा, आपसे हाथा-पाई करूँगा तथा फिर से रोटी मिलने का इंतजार करूँगा।’

‘वह भी छीन लूँ तब? …बार-बार छीन लूँ तब?’

जुम्मनभाई चुप हो गए। वृद्ध जुम्मन भाई को देखता रहा। कुछ कहने के लिए उसके होंठ खुले फिर पता नहीं क्या सोचकर वह भी चुप हो गया। किंतु चुप रहने का उसका प्रयास बेकार गया। वह तड़प कर बोल उठा, ‘तुम नहीं जानते हो, सुन लो, इस देश में अपराधी तैयार किए जाते हैं। कातिल बनाए जाते हैं। मुझे बनाया गया है, हाँ सही में, मेरी जमीन हड़प कर, एक बार नहीं, बार-बार हड़प कर। मेरे हक को, मेरे अधिकार को छीनकर। मुझे भूख के कुएँ में धकेल कर।’ वृद्ध उत्तेजना में हाँफने लगा था। उसके होंठो के किनारे से थूक की एक लकीर बह गई। जुम्मनभाई सहम गए। वृद्ध उनके डर को भाँप गया। वह जुम्मनभाई के मन में भय उत्पन्न करना नहीं चाहता था इसलिए स्वयं पर नियंत्रण रख चुप बैठ गया।

रात में जुम्मनभाई को भोजन मिला – दो रोटी तथा मूली की रसेदार सब्जी। एकदम बेस्वाद, किंतु भूख से छटपटाते जुम्मनभाई भोजन लेकर खाने लगे। दो दिन से भूखे जुम्मनभाई के लिए मात्र दो रोटी पर्याप्त नहीं थी किंतु कुछ राहत मिल गई। जेल में पीने के पानी का नल बस भोजन के समय ही आधे घंटे के लिए शुरू किया जाता था। सैकड़ों कैदियों के पानी पीने के लिए इतना समय कम था। हर कैदी पहले पानी पीना चाह रहा था इसलिए उनमें लड़ाई शुरू हो गई। धक्का-मुक्की के कारण जुम्मनभाई नल के पास तक पहुँच भी नहीं पा रहे थे। वह वृद्ध व्यक्ति देख रहा था। दौड़कर लड़ती-झगड़ती भीड़ में प्रवेश किया और अपनी अँजुली में भरकर एक अँजुली पानी ले आया। वृद्ध के स्नेह को देख जुम्मनभाई की आँखें गीली हो गई, उन्होंने मुँह खोल दिया, वृद्ध ने अँजुली उनके मुँह में उड़ेल दी। अब तक नल बंद हो गया। घूँट भर पानी से जुम्मनभाई की प्यास और बढ़ गई, जो कातिल वृद्ध की ममता से बुझी। न जाने क्यों वो अपने-से लगने लगे।

दूसरे दिन सुबह कैदियों को पंक्तिबद्ध खड़ा कर दिया गया तथा सबको एक-एक झाड़ू पकड़ा दी गई। जुम्मन भाई के पैर सूज आए थे दर्द भी तेज था किंतु घिसट-घिसट कर झाड़ू लगाते रहे। दोपहर बाद सबको एक बार फिर पंक्ति में बैठा दिया गया। रिहाई परवाना जिन कैदियों का रिहाई आर्डर लाया था उन्हें रिहा कर दिया बाकी कैदी अपने-अपने बैरक में आ गए।

जुम्मनभाई प्रतिदिन रिहाई आर्डर का इंतजार करते और शाम पाँच बजे पचासा लगते ही निराश हो जाते। जल्दी रिहा होने की उम्मीद अब धुँधलाने लगी थी। उन्हें अपने भीतर एक चीख निकलती सुनाई पड़ती। डरावनी, भयानक चीख! सूनापन उनके भीतर समाता जा रहा था, वे सूनेपन में समाते जा रहे थे। उन्हें लगता वे चक्रव्यूह में फँस गए हैं जहाँ से कभी निकल नहीं पाएँगे। निकलेंगे भी तो रिक्त हुए-से। वे रिक्त हो रहे हैं। पल-पल रिक्त हो रहे हैं। दस दिन बीत गए। दस दिन बहुत होते हैं कुछ जानने समझने के लिए। वो कुछ जानने लगे हैं, अपराध को समझने लगे हैं। वह वृद्ध अपराधी है, हत्या का। हृदय में इतना प्रेम और हत्या! अपराध जन्मजात नहीं होता वह कुछ मिनटों का होता है। वे शोध करेंगे – मनोवृत्ति पर। अपराधियों की मनोवृत्ति पर। कितना नया अनुभव है यह, गाड़ी की रफ्तार से अधिक तेज चल रहा है दिमाग। शोध? अकबका गए वे। उन्होंने अपने आप को समेटा। वे स्वयं जेल में है अपराधी के रूप में। हाँ उनमें और वृद्ध में कोई अंतर नहीं है। दोनों अपराधी हैं। सुधारने के लिए यहाँ जेल में लाया गया है। जेल में नहीं सुधार गृह में! वे सुधर रहे हैं रिक्त होकर। दस दिन से पैर सूजकर हाथी पाँव बन गया है। मलहम पट्टी सब हो जाती है यहाँ, पर पैर है कि सुधर नहीं रहा। वे सुधर रहे हैं, अपनी अंतिम परिणति के लिए तैयार होना है उन्हें।

ग्यारहवाँ दिन रिहाई का समय बीतने ही वाला था कि अनाउन्स हुआ – ‘कन्हैयालाल उर्फ जुम्मनभाई पिता गंगाधर सिंह का रिहाई आर्डर आ गया है।’

अनाउन्स दो-तीन बार हुआ किंतु जुम्मनभाई को उनके हृदय से निकलती आवाजों ने इस तरह से जकड़ लिया था कि वे इस बाहर की आवाज को न सुन सके। वृद्ध व्यक्ति ने उन्हें झकझोरा, ‘क्या हो गया है तुम्हें? सुन नहीं रहे हो? तुम्हारा नाम पुकारा जा रहा है। जुम्मनभाई ने घुटने से सिर ऊपर उठाया। आवाज एक बार फिर सुनाई दी। वे अपना कंबल फेंक बाहर की तरफ भागना चाहे किंतु उनके पैर लड़खड़ा गए। वे गिर पड़े। उस वृद्ध व्यक्ति ने उन्हें उठाया। तथा सहारा देते हुए बाहर लाया। बाहर आने में खासी देर हो गई थी अनाउन्सर गरज पड़ा किंतु जुम्मनभाई निर्लिप्त रहे। वृद्ध ने अनाउन्सर को घूरा जैसे घूरने में ही शब्द हो जो उसे बता रहे हों कि देखते नहीं पैर कितना सूजा है, कैसे आता जल्दी? अनाउन्सर चुप हो गया न जाने वृद्ध की आँखें देखकर या जुम्मनभाई का सूजा पैर।’

वहाँ से निकलने के पहले जुम्मनभाई वृद्ध व्यक्ति के पैर छुए। वृद्ध ने उन्हें गले से लगा लिया उसकी आँखें गीली हो गई। प्रेम आदमी को कहीं भी बाँधें रखने में समर्थ है। इतने दिनों से रिहाई का इंतजार करते जुम्मनभाई बड़े बोझिल मन से बाहर निकले। वृद्ध की नम आँखें उन्हें रोक रही थीं।

जुम्मनभाई को विश्वास था कि उनके जेल में होने की बात मालिक ने उनके घर वालों को बता दी होगी किंतु जब उन्हें पता चला कि मालिक ने किसी प्रकार की कोई खबर उनके घर नहीं भेजवाई। शंका-कुशंका से घिर उनका परिवार आँसू बहाते तथा मन्नतें मानते हुए उनका इंतजार कर रहा था। तब उनकी आंतरिक सोच में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। एक तो यह कि अमीर और सुविधा संपन्न हर व्यक्ति से उन्हें स्थायी तौर पर घृणा हो गई, दूसरी यह कि पत्नी को अपनी दुनिया से अनभिज्ञ रखकर उसकी नजर में अपना महत्व बढ़ा लेने की अपनी सोच पर पहली बार तरस आया। माँ बूढ़ी थीं, बेटा अपाहिज था किंतु पत्नी को तो वे अपने मालिक का घर या किसी मित्र का घर दिखा सकते थे। उन्हें यह बात बड़ी शिद्दत से चोट पहुँचा रही थी कि जिस मालिक की गाड़ी को वे बिना परमिट चला-चला कर फायदा देते रहे, शरीर पर लाठियों और डंडों की मार झेले, पैर तुड़वा लिए, वह उन्हें और उनके परिवार को कीड़ा-मकोड़ा समझता था। उस दिन से ही जुम्मनभाई ने तय कर लिया कि अब कभी वे किसी दूसरे की गाड़ी नहीं चलाएँगे किंतु खुद की गाड़ी का होना जागते में स्वप्न देखने जैसा था।

जुम्मनभाई के पैर की सूजन जब दवाइयों से थोड़ी कम हुई तो तीन महीने तक के लिए प्लास्टर लग गया। माँ और चौदह साल के अपाहिज बेटे के साथ वे भी एक कोने में पड़ गए। जुम्मनभाई ने अपनी चारपाई माँ की चारपाई के बगल ही लगवा लिया। इस तरह वर्षों बाद वे माँ के अधिक करीब चले आए, माँ की बूढ़ी उँगलियाँ उनके सिर पर फिसलती चोट को सहलाती और इतनी बेरहमी से मारने वाले हाथों में कोढ़ हो जाने की बद्दुआ देती। पत्नी तीन-तीन जन की सेवा-टहल करती। थक जाने पर खीझ उठती। अपनी किस्मत पर बड़बड़ाने लगती। जुम्मनभाई से उसकी बेबसी न देखी जाती।

प्लास्टर कटते ही लंगड़ाते हुए जुम्मनभाई इधर-उधर घूमने लगे। डॉक्टर ने आराम की सलाह दी थी किंतु घर में उनका मन नहीं लगता था। पैरों पर जोर पड़ता रहा, पंजों में असह्य वेदना होती रही, जुम्मनभाई इधर-उधर घूमते रहे …सब कुछ झुठलाते हुए। डॉक्टर ऑपरेशन के लिए कहते, जुम्मनभाई टाल जाते। डॉक्टर समझाते, बिना ऑपरेशन के पैर ठीक नहीं होंगे, लंगड़ाते ही रहोगे। जुम्मनभाई हँसते, लंगड़ा तो बचपन से रहा हूँ, कभी सीधे चलना आया ही नहीं।

पत्नी चिंतित होती। जुम्मनभाई उसे समझा देते, हड्डी का मामला है ठीक होने में समय तो लगेगा ही।

अब तक जुम्मनभाई स्वयं से लड़ते रहे, किंतु अब उन्हें अपनी मुश्किलें अधिक गंभीर होती दिख रही हैं। क्योंकि अब उनकी अंतरात्मा में परिवर्तन हो रहा है। परिणामस्वरूप उनके मुखर व्यक्तित्व में चुप्पी समाती जा रही है। यह चुप्पी उन्हें उदासी के नजदीक खींच लाई है। वे खासे निर्लिप्त और भावना शून्य होते जा रहे हैं। प्रतिदिन की हताशा उनकी आंतरिक सहजता को मिटा रही है। घर में पोलियोग्रस्त बेटा, खाँसती माँ तथा अभावों से जूझती पत्नी को देख उन्हें शुरू-शुरू में जो बेचैनी होती थी वैसी अब नहीं होती।

जुम्मनभाई के पैरों में जब प्लास्टर लगा था उस दौरान उनकी दोस्ती उस कुत्ते से हुई जो उनके घर के सामने बैठा करता था। जुम्मनभाई उठते तब वह उचक कर उन्हें देखने लगता, बैठते तब वह भी एक कोने में शांत बैठ जाता था। यह कुत्ता पहले भी उनके घर के सामने बैठता था या अब बैठने लगा है इसका उन्हें ध्यान नहीं है। शायद पहले भी बैठता रहा हो किंतु तब वे इन बातों पर ध्यान नहीं देते थे। कोई कारण नहीं था कुत्ते पर ध्यान देने का। अब है, क्योंकि इधर जुम्मनभाई को महसूस होने लगा है कि घर के लोग अब उनसे किसी खुशखबर की उम्मीद छोड़ दिए हैं इसलिए घर में अब उनका इंतजार उस अपनेपन से नहीं किया जाता है जिसकी जुम्मनभाई को आदत लग गई थी।

किंतु वह कुत्ता उनके घर से बाहर जाते समय या बाहर से घर आने पर अपने कानों को खड़ा करके पीछे कर लेता है तथा मुँह ऊपर उठा कर पूँ-पूँ करने लगता है। इस बीच उसकी पूँछ लगातार दाएँ-बाएँ घूमती रहती है। जुम्मनभाई उसके माथे को सहला देते हैं। उस कुत्ते की ये हरकतें जुम्मनभाई को अपने होने का एहसास दिलाती हैं और आगे भी बने रहने की इच्छा जगाती हैं।

शाम धुँधला रही है। जुम्मनभाई अभी तक पेट्रोलपंप पर ही बैठे हैं। लड़के की आँखें लाल हो गई है, गाल सूज आए हैं किंतु वह बड़ी तत्परता से पंक्चर ठीक करने में लगा है। एक बेबस आह छोड़कर जुम्मनभाई उस लड़के को देखते हैं तथा घर आने के लिए उठ खड़े होते हैं।

घर के सामने कुत्ता पूँछ हिलाते हुए बैठा है। पत्नी रसोई में व्यस्त है। माँ अपने बिस्तर पर बैठी है तथा रुक-रुक कर खाँस रही है। सीने पर ठाँय-ठाँय की चोट देकर निकलता खाँसी का स्वर जुम्मनभाई को व्याकुल किए है। बगल के कमरे में राजा सो रहा है। लगता है उसकी गर्दन टेढ़ी हो गई है वह तेज-तेज खर्राटे ले रहा है। इतनी छोटी उम्र में इतने जोरदार खर्राटें! डॉक्टर कहते हैं कि सोते समय इसे साँस लेने में तकलीफ होती है इसलिए इसे खर्राटे आते हैं।

जुम्मनभाई राजा की गर्दन को सीधी कर देना चाहे, थोड़ा उसे हिला-डुला देना चाहे जिससे कुछ देर के लिए उसके खर्राटे कम हो जाएँ। किंतु बस सोचते ही रहे, उठे नहीं। बल्कि अब वह यह सोचने लगे कि मेरे मन में राजा की गर्दन हिलाने-डुलाने की इच्छा राजा की अच्छी नींद के लिए उठी थी या मैं इन भयावह खर्राटों से बचना चाहता हूँ। जुम्मनभाई अपने अंदर घर कर रही भावशून्यता से कभी-कभी घबरा जाते, तथा अपने इस भाव को छुपाने की गरज से उसे अलग-अलग ढंग से परिभाषित करते और अपराधबोध में कैद हो जाते। छटपटाते खूब छटपटाते, इससे बाहर निकलने की कोशिश करते किंतु निकलते तो निचुड़े हुए ही निकलते।

जुम्मनभाई को आया देख पत्नी चाय बना लाई है। उसके पास उनसे बताने के लिए कुछ अच्छी कुछ खराब कई बातें हैं। माँ की बातें, राजा की बातें, पड़ोसियों की बातें। वह बताना चाह रही है, बता रही है पर जुम्मनभाई बिस्तर पर अधलेटे हो छत निहार रहे हैं। माँ के खाँसने की धीमी आवाज फिर से कानों में गूँजती है! जुम्मनभाई जानते हैं कि माँ खाँसी को अंदर ही अंदर रोकने के लिए अपने गले को कितना दबाती होगी किंतु जब नहीं रहा जाता होगा तब धीरे से खाँस उठती है।

जब जुम्मनभाई छोटे थे तब भी माँ को खाँसी आती थी। जुम्मनभाई पूछते, ‘तुम्हें इतनी खाँसी क्यों आती है माँ? क्या ये कभी ठीक नहीं होगी?’

माँ कहती, ‘जब तुम बड़े होकर ढेर सारा पैसा कमाओगे तब किसी अच्छे डॉक्टर से मैं अपना इलाज करवाऊँगी, देखना ये खाँसी ऐसे भागेगी कि कभी फिर पलट कर मेरी तरफ देखेगी भी नहीं।’ माँ के जवाब से जुम्मनभाई खुश हो जाते। किंतु अब जब वे माँ से कहते हैं, ‘माँ तुम्हें कितनी तकलीफ है, रात भर सो नहीं पाती हो।’ तब माँ कहती हैं, ‘दिन में खूब सो लेती हूँ बेटा इसलिए रात में नींद नहीं आती …अस्थमा है मुआ दवा से ठीक भी तो नहीं होगा…।’ और माँ दूसरी बात करने लग जाती हैं। जुम्मनभाई कहना चाहते हैं कि – माँ, दवा तुझे मिली ही कहाँ? पर कहते कुछ नहीं बल्कि माँ के पास से जल्दी ही हट जाते हैं ताकि माँ खुलकर खाँस सके।

पत्नी भोजन की थाली रख गई है। जुम्मनभाई को अभी भूख नहीं है। पत्नी भोजन करने के लिए दो-चार बार कहती है किंतु जुम्मनभाई छत निहार रहे हैं। पत्नी झुँझला जाती है, ‘तुम्हें जब भूख हो तब खा लेना, मैं तो दिन भर खटते-खटते थक गई हूँ, अब खा-पीकर आराम करूँगी, तुम निहारो छत।’ जुम्मनभाई पत्नी की तरफ देख कर मुस्कुरा देते हैं किंतु न जाने कैसे मुस्कराते ही उन्हें गराज मालिक के थप्पड़ों की आवाज सुनाई पड़ने लगती है। छोड़ देने की विनती करता वह लड़का दिखाई पड़ता है। अपने ऊपर पड़ी पुलिस की लाठियों की आवाजें भी कानों में गूँजने लगती है।’

जुम्मनभाई को लगता है कि इस कमरे में हवा नहीं है वो साँस नहीं ले पा रहे हैं। उठकर बरामदे में चले आते हैं। कुत्ता अलसाया-सा बरामदे में बैठा है। उन्हें देखते ही वह पूँछ हिलाने लगता है। जुम्मनभाई बाहर कुछ दूर तक जाना चाहते हैं किंतु उनका पैर साथ नहीं दे रहा है। वहीं पास के मैदान में घंटे दो घंटे बैठकर वापस लौट आते हैं।

पत्नी लेट चुकी है। शायद सो भी गई हो। राजा के खर्राटे में गूँ-गूँ की अजीब आवाज शामिल हो गई है। धीमी लय में रुक-रुक कर माँ के खाँसने की आवाज अब भी आ रही है। गोरखा अपने डंडे को सड़क पर पटकते हुए पहरा दे रहा है, बीच-बीच में सीटी भी बजा देता है। जुम्मनभाई को लगता है कि वे अभी भी सलाखों के पीछे ही तो हैं। उनका यह घर जेल ही तो है। जिसमें अलग-अलग कोठरियों में अलग-अलग तरह के कैदी पड़े हैं – माँ, राजा, पत्नी, वो स्वयं। फर्क सिर्फ यह है कि जेल में घर पहुँचने की छटपटाहट थी। यादें थीं। किंतु यहाँ? यहाँ से वे कहाँ निकल कर जाना चाहते हैं उन्हें खुद नहीं पता।

पत्नी जो भोजन उनके लिए रखी थी वह अब भी वैसे ही पड़ा है। रात काफी बीत चुकी है, बाहर भरपूर सन्नाटा है। किसी की आहट पाकर कुत्ता भौंकता है। जुम्मनभाई भोजन पर एक नजर डालते हैं; फिर बत्ती बुझाकर चादर ओढ़ लेते हैं।

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जेल से जेल तक – Jel Se Jel Tak

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