जेल | मुंशी प्रेमचंद | हिंदी कहानी
जेल | मुंशी प्रेमचंद | हिंदी कहानी

मृदुला मैजिस्ट्रेट के इजलास से जनाने जेल में वापस आयी, तो उसका मुख प्रसन्न था। बरी हो जोने की गुलाबी आशा उसके कपोलों पर चमक रही थी। उसे देखते ही राजनैतिक कैदियों के एक गिरोह ने घेर लिया ओर पूछने लगीं, कितने दिन की हुई?


मृदुला ने विजय-गर्व से कहा – मैंने तो साफ-साफ कह दिया, मैने धरना नहीं दिया । यों आप जबर्दस्त हें, जो फैसला चाहें, करें । न मैंने किसी को रोक, न पकड़ा, न धक्का दिया, न किसी से आरजू-मिन्नत ही की। कोई गाहक मेरे सामने  आया ही नहीं । हॉँ, मै दूकान पर खड़ी जरूर थीं। वहॉ कई वालंटियर गिरफ्तार हो गये थे  । जनता  जामा हो गयी थी मैं भी खड़ी हो गयी । बस, थानेदार ने आ कर मुझे पकड़ लिया।


क्षमादेवी कुछ कानून जानती थीं। बोलीं – मैजिस्ट्रेट पुलिस के बयान पर फैसला करेगा। मैं ऐसे कितने  ही मुकदमे देख चुकी ।


मृदुला ने प्रतिवाद किया – पुलिसवालों को मैंने ऐसा रगड़ा कि वह भी याद करेंगे । मैं मुकदते की कार्रवाई में भाग न लेना चाहती थी; लेकिन जब मैंने उनके गवाहों सरासर झूठ बोलते देखा, तो मुझसे जब्त न हो सका। मैंने उनसे जिरह करनी शुरू की । मैंने भी इतने दिनों घास नहीं खोदी है। थोड़ा-सा कानून जानती हूं  पुलिस ने समझा होगा, यह कुछ बालेगी तो है नहीं, हम जो बयान चाहेंगे, देंगे । जब मैने जिरह शुरू की, तो सब बगलें झाँकने लगे। मैंने तीनों गवाहों को झूठा साबित कर दिया। उस समय जाने कैसे मुझे चोट सूझती गई। मैजिस्ट्रैट ने थानेदार को दो तीन बार फटकार भी बतायी । वह मेरे प्रश्नों का ऊल-जलूल जवाब देता था, तो मैजिस्ट्रेट बोल उठता था- वह जो कुछ पूछती हैं, उसका जवाब दो, फजूल की बातें क्यों करते हो । तब मियाँ जी का मुँह जरा–सा निकल आता था। मैंने सबों का मूँह बंद कर दिया । अभी साहब ने फैसला तो नहीं सुनाया, लेकिन मुझे विश्वास है, बरी हो जाऊँगी।  मैं जेंल से नहीं डरती; लेकिन बेवकूफ भी नहीं बनना चाहती । वहाँ हमारे मंत्री जी भी थे और बहुत-सी बहनें थीं। सब यही कहती थी, तुम छूट जाओगी।
महिलाऍ उसे द्वेष-भरी आंखों से देखती हुई चली गयी।  उनमें किसी की मियाद साल- भर की थीं, किसी की छह मास की। उन्होंने उदालत के सामने जबान ही न खोली थीं। उनकी नीति में यह अर्धम से कम न था। मृदुल पुलिस से जिरह करके उनकी नजरों में गिर गयी थी।  सजा हो जाने पर उसका व्यवहार क्षम्य हो सकता था, लेकिन बरी हो जाने में तो उसका कुछ प्रायश्चित ही न था।


दूर जा एक देवी ने काहा – इस तरह तो हम लोग भी छूट जाते।  हमें तो यह दिखाना है, नौकरशाही से हमें न्याय की कोई आशा ही नहीं।


दूसरी महिला बोली– यह तो क्षमा माँग लेने के बराबर हैं।  गयी तो थीं धरना देने, नहीं दुकान पर जाने का काम ही क्या था। वालंटियर गिरफ्तार हुए थे आपकी बला से। आप वहॉँ क्यों गयी; मगर अब कहती है, मैं धरना देने गयी ही नहीं। यह क्षमा माँगना हुआ, साफ!


तीसरी देवी मुहँ बनाकर बोली—जेल में रहने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए। उस वक्त तो वाह-वाह लूटने के लिए आ गयीं, अब रोना आ रहा हैं ऐसी स्त्रियों को तो राष्टीय कामों के  नगीच ही न आना चाहिए । आंदोलन को बदनाम करने से क्या फायदा।


केवल क्षमादेवी अब तक मृदुला के पास चिंता में डूबी खड़ी थीं। उन्होंने एक उद्दंड व्याख्यान देने के अपराध में साल- भर की सजा पायी थीं दूसरे जिले से एक महीना हुआ यहाँ आयी थीं।  अभी मियाद पूरी होने में आठ महीने बाकी थें। यहॉं की पंद्रह कैदियों में किसी से उनका दिल न मिलता था। जरा-जरा सी बातों के लिए उनका आपस में झगड़ना, बनाव-सिंगर की चीजों के लिये लेडीवार्डरों की खुशामदें करना,घरवालों से मिलने के लिए व्यग्रता दिखलाना उसे पंसद न था ।  वही कुत्सा और कनफुसकियॉ जेल के भीतर भी थी। वह आत्माभिमान, जो उसके विचार में एक पोलिटिकल कैदी में होना चाहिए,  किसी में भी न था । क्षमा उन सबों से दूर रहती थी।  उसके जाति-प्रेम का वारापार न था ।  इस रंग में पगी हुई थी; पर अन्य देवियॉं उसे घमंडिन समझती थीं और उपेक्षा का जवाब उपेक्षा से देती थीं मृदुला को हिरासत में आये आट दिन हुए थे। इतने ही दिनों में क्षामा को उससे विशेष स्नेह हो गया था।  मृदुल में वह संकीर्णत और ईर्ष्या न थी,  न निन्दा करने की आदत, न श्रृंगार की धुन, न भद्दी दिल्लगी का शौक । उसके  हृदय में करूणी थी, सेवा का भाव था : देश का अनुराग था क्षमा न सोचा था।  इसके साथ छह महीने आनन्द से कट जांऍगे; लेकिन दुर्भाग्य यहाँ भी उसके पीछे पड़ा हुआ था।  कल मृदृल यहाँ से चली जाएगी।  फिर अकेली हो जाएगी। यहॉँ ऐसा कौन है,  जिसके साथ घड़ी भर बैठकर अपना दु:ख –दर्द सुनयेगी, देश चर्चा करेगी; यहॉ तो सभी के मिजाज आसमान पर हैं ।

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मृदुला ने पूछा— तुम्हें तो अभी आठ महीने बाकी है, बहन!


क्षमा ने हसरत के साथ कहा— किसी-न- किसी तरह कट ही जाएँगे बहन ! पर तुम्हारी याद बराबर सताती रहेगी । इसी एक सप्ताह के अन्दर तुमने मुझे पर न जाने  से क्या जादू कर दिया । जब से तुम आयी हो, मुझे जेल जेल न मालूम होता था । कभी-कभी मिलती रहना ।


मृदुला ने देखा, क्षमा की आंखे डबडबायी हुई थीं। ढ़ाढसा देती हुई बोली- जरूर मिलूंगी दीदी ! मुझसे तो खुद न रहा जाएगा । भान को भी लाऊँगीं। कहूँगी— चल, तेरी मोसी आयी है, तुझे बुला रही है। दौड़ा हुआ आयेगा। अब तुमसे आज कहती हूँ बहन, मुझे यहाँ किसी की याद थी, तो भान की ।  बेचरा – रोया करता होगा । मुझे देखकर रूठ जायेगा । तुम काहाँ चलीं गयी ? मुझे छोड़कर क्यों चली गयी ? जाओ, मैं। तुमसे नहीं बोलता, तुम मेरे घर से निकल जाओ। बड़ा शैतान है बहन!  छन- भर निचला नहीं बैठता, सवेरे उठते ही गाता है—‘ झन्ना ऊँता लये अमाला’ ‘छोलाज का मन्दिर देल में है।’  जब एक झंडी कन्धे पर रखकर कहता है—‘ताली-छलाब पानी हलाम है’तो देखते ही बनता है।बाप को तो कहता है—तुम गुलाम हो । वह एक अँगरेजी कम्पनी में है, बार-बार इस्तीफा देने का विचार करके रह जाते हैं।  लेकिन गुजर –बसर के लिए कोई उद्यम करना ही पड़ेगा ।  कैसे छोड़े। वह तो छोड़ बैठे होते ।  तुमसे सच कहकती हूँ, गुलामी से उन्हें घृणा है, लेकिन में ही समझती रहती हूँ बेचारे कैसे दफ्तर जाते होंगे, कैसे भान को सॅभालते होंगे । सास जी के पास तो रहता ही नहीं । वह बेचारी बुढ़ी, उसके साथ काहॉँ-कहॉ दौड़ें! चाहती है कि मेरी गोद में  दबक कर बैठा रहे । और भान को गेद से चिढ़ है। अम्माँ मुझ पर बहुत बिगड़ेंती, बस यही डर लग रहा है। मुझे देखने एक बार भी नहीं आयें। कल अदालत में बाबू जी मुझसे कहते थे, तुमसे बहुत खफा है। तीन दिन तक तो दाना-पानी छोड़े रहीं । इस छोकरी ने कुल-मरजाद डूबा दी, खानदान में दाग लगा दिया, कलमुँही, न जाने क्या-क्या बकती रहीं मैं उनकी बातो को बुरा नहीं मानती । पुराने जमाने की हैं उन्हें।  कोई चाहै कि आकर इन लोगों में मिल जाएँ, तो उसका अन्यय है। चल कार मनाना पड़ेगा।बड़ी मिन्नतों से मानेंगी। कल ही कथा होगी, देख लेना। ब्राह्राण खायेंगे। बिरादरी जमा होगी। जेल प्रायश्चित तो करना ही पड़गा। तुम हमारे घर दो-चार दिन रह कर तब बहन ! मैं आकर तुम्हें ले जाऊँगी।

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क्षमा आनन्द के इन प्रसंगो से वंचित है। विधवा है, अकेली है। जलियानवाला बाग में उसका सर्वस्व लुट चुका है, पति और पुत्र दोनों ही की आहुति जा चुकी है। अब कोई ऐसा नहीं, जिसे वह अपना कह सके। अभी उसका हृदय इतना विशाल नहीं हुआ है कि प्राणी- मात्र को अपना समझ सके। इन दस बरसों से उसका व्यथित हृदय जाति सेवा में धैर्य और शांति खोज रहा हैं जिन कारणें ने उसके बसे हुए घर को उजाड़ दिया, उसकी गोद सूनी कर दी,  उन कारणें का अन्त करने— उनको मिटाने- में वह जी-जान से लगी हुई थीं। बड़े-से-बड़े बलिदान तो वह पहले ही कर चुकी थी। अब अपने हृदय के सिवाय उसके पास होम करने को और क्या रह गया था? औरों के लिए जाति-सेवा सभ्यता का एक संस्कार हो, या यशोपार्जन का एक साधन; क्षमा के लिए तो यह तपस्या थी और वह नारीत्व की सारी शक्ति और श्रद्धा के साथ उससी साधना में लगी हुई थी। लेकिन आकशा में उड़ने वाले पक्षी को भी तो अपने बसेरे की याद आती ही है क्षमा के लिए वह आश्रय कहाँ था? यही वह अवसर थे, जब क्षमा भी आत्म-समवेदना के लिए आकुल हो जाती थी। यहॉँ मृदुल को पाकर वह अपने को धन्य मान रही थी; पर यह छाँह भी इतनी जल्दी हट गयी !


क्षमा ने व्यथित कंठ से कहा – यहाँ से जाकर भूल जाओगी मृदुला। तुम्हारे लिए तो रेलगाड़ी का परिचय है और मेरे लिए तुम्हारे वादे उसी परिचय के वादे हैं। कभी भेंट हो जाएगी तो या तो पहचानोगी ही नहीं, या जरा मुस्कराकर नमस्ते  करती  हुई अपनी राह चली जाओगी। यही दुनिया का दस्तूर है। अपने रोने से छुट्टी ही नहीं मिलती, दूसरों के लिए कोई क्योंकर राये। तुम्हारे लिए तो में कुछ नहीं थी, मेरे लिए तुम बहुत अच्छी थी। मगर अपने प्रियजनों में बैठकर कभी-कभी इस अभागिनी को जरूर याद कर लिया करना। भिखारी के लिए चुटकी भर आटा ही बहुत है।


दूसरे दिन मैजिस्ट़्रेट ने फैसला सुना दिया। मृदुल बरी हो गयी। संध्या समय वह सब बहनों से गले मिलकर, रोकर-रुलाकर चली गयी, मानो मैके से विदा हुई हो ।

तीन महिने बीत गये: पर मृदुल एक बार भी न आयी। और कैदियों से मिलनेवाले आते रहते थे किसी-किसी के घर से खाने-पीने की चीजें और सोगाते आ जाती थी; लेकिन क्षमा का पूछने वाला कौन बैठा था? हर महिने के  अन्तिम रविवार को प्रात: काल से ही मृदुल की बाट जोहने लगती। जब मुलाकात का समय निकल जाता, तो जरा देर रोकर मन को समझा लेती—जमाने का यही दस्तूर है
एक दिन शाम को क्षमा संध्या करके उठी थी कि देखा, मृदुला सामने चली आ रही है। न वह रूप–रंग है, न वह कांति। दौड़कर उसके गले से लिपट गयी ओर रोती हुई बोली- यह तेरी क्या दशा है मृदुला ! सूरत ही बदल गयी। क्या, बीमार है क्या?


मृदुला की आँखों से आँसुओं की झाड़ी लगी थी । बोली– बीमार तो नहीं हूँ बहन; विपत्ति से बिंधी हुई हूँ । तुम मुझे खूब कोस रही होगी।  उन सारी निठुराइयों का प्रायश्चित करने आयी हूँ। और सब चिंताओं से मुक्त होकर आया हूँ ।

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क्षमा काँप उठी। अंतस्तल की गहराइयों से एक लहर–सी उठती हुई जान पड़ी, जिसमें उनका अपना अंतींत जीवन टूटी हुई नौकाओं की भांति उतराता हुआ दिखायी दिया। रूँधे हुए कंठ से बोली – कुशल तो है बहन, इतनी जल्दी तुम यहाँ फिर क्यों आ गयीं ? अभी तो तीन महीने भी नहीं हुए।


मृदुल मुस्करायी; पर उसकी मुस्कराहट में रुदन छिपा हुआ था।  फिर बोली – अब सब कुशल है। बहन, सदा के लिए कुशल है। कोई चिंता ही नहीं रही।अब यहॉँ जीवन पर्यन्त रहने को तैयार हूँ। तुम्हारे स्नेह और कृपा का मूल्य अब समझ रही हूँ ।


उसने एक ठंडी साँस ली और सजल नेत्रों से बोली– तुम्हें बाहर की खबरे क्या मिली होंगी! परसों शहरों मे गोलियों चली। देहातों में आजकल संगीनों की नोक पर लगान वसूल किया जा रहा है। किसानों के पास रूपये हैं नहीं, दें तो कहाँ से दें। अनाज का भाव दिन-दिन गिरता जाता है। पौने दो रूपये में मन भर गेहूँ आता है।  मेरी उम्र ही अभी क्या है, अम्माँ जी भी कहती है कि अनाज इतना सस्ता कभी नहीं था। खेत की उपज से बीजों तक के दाम नहीं आते। मेहनत और  सिंचाई इसके ऊपर। गरीब किसान लगान कहाँ से दें ? उस पर सरकार का हुक्म है कि लगान कड़ाई के साथ वसूल किया जाए। किसान इस पर भी राजी हैं कि हमारी जमा–जथा नीलाम कर लो, घर कुर्क कर लो, अपन जमीन ले लो; मगर यहाँ तो अधिकारियों को अपनी  कारगुजारी दिखाने की फिक्र पड़ी हुई है। वह चाहे प्रजा को चक्की में पीस ही क्यों न डालें; सरकार उन्हें मना न करेगी। मैंने सुना है कि वह उलटे और शाह देती है। सरकार को तो अपने कर से मतलब हैं प्रजा मरे या जिये, उससे कोई प्रयोजन नहीं। अकसर जमींनदारों ने तो लगान वसूल करने से इन्कार कर दिया है। अब पुलिस उनकी मदद पर भेजी गयी है। भैरोगंज का सारा इलाका लूटा जा रहा है। मरता क्या न करता, किसान भी घर-बार छोड़-छोड़कर भागे जा रहे हैं। एक किसान के घर में घूसकर कई कांस्टेबलोंने उसे पीटना शुरू किया। बेचारा बैठा मार खाता रहा। उसकी स्त्री से न रहा गया। शामत की मारी कांस्टेबलों का कुवचन कहने लगी। बस, एक सिपाही ने उसे नंगा कर दिया। क्या कहूँ बहन, कहते शर्म आती है। हमारा ही भाई इतनी निर्दयता करें, इससे ज्यादा दु:ख और ल्ज्जा की और क्या बात होगी ? किसान से जब्त न हुआ। कभी पेट भर गरीबों को खाने को तो मिलता ही नहीं, इस पर इतना कठिर परिश्रम, न देह में बल है, न दिल में हिम्मत, पर मनुष्य का हृदय ही तो ठहरा। बेचारा बेदम पड़ा हुआ था। स्त्री का चिल्लाना सु    नकर उठ बैठा और उस द़ुष्ठ सिपाही को धक्का देकर जमीन पर गिरा दिया। फिर दोनों में कुश्तम-कुश्ती होने लगी। एक किसान किसी पुलिस के आदमी के साथ इतनी बेअदबी करे, इसे भला वह कहीं बरदाश्त कर सकती है। सब कांस्टेबलों ने गरीब को इतना मारा कि वह मर गया ।
क्षमा ने कहा – गॉँव के और लोग तमाश देखते रहे होंगे?

मृदुल तीव्र कंठ से बोली— बहन , प्रजा की तो हर तरह से मरन हैं अगर दस- बीस आदमी जमा हो जाते, तो पुलिस कहती, हमसे लड़ने आये हैं। ड़ड़े चलाने शुरू करती और अगर कोई आदमी क्रोध में आकर एकाध कंकड़ फेंक देता, तो गोलियाँ चला देती। दस–बीस आदमी भुन जाते।इसलिए

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