जमीन अपनी तो थी | चंदन पांडेय
जमीन अपनी तो थी | चंदन पांडेय

जमीन अपनी तो थी | चंदन पांडेय – Jamin Apani To Thi

जमीन अपनी तो थी | चंदन पांडेय

जून की कोई शाम थी जो चौतरफा घिर चुकी थी पर अगली सुबह अनिकेत को दिल्ली होना था। बठिंडा के होटल से निकलते हुए उसे बीते दिन की तपिश का एहसास हुआ। होटल का मीटिंग हॉल पाबंद था इस वजह से वहाँ लू और समाचार पूरे दिन नहीं पहुँच सके थे। अब सूर्य इस तरह डूब रहे थे कि अनिकेत की परछाईं बहुत लंबी हो कर होटल की दीवाल के सहारे टँगी हुई थी। दंगे के सबब मर्द मानुष कहीं नहीं थे वरना शाम के इस वक्त परछाइयाँ भरपूर कुचली जाती हैं। ऑफिस से खुश खुश निकले तो अनिकेत यह खेल अक्सर खेलता है। किसी की परछाईं पर खड़ा हो जाता है। खासपसंद, शाम पर पड़ती रितु की परछाइयाँ।

पंजाब हरियाणा की सेल्स रिव्यू मीटिंग खत्म हुई ही हुई थी। हिंदू होने की बिना पर होटल बिल जमा करते हुए भी वो दंगे की नहीं, दिन की गर्मी के बारे में सोचता रहा। दिखने सुनने में वह, सबकी तरह, दंगे के खिलाफ नजर आता था। जो सड़को पर घट रहा था उसका उसे रंज था पर दंगाई गतिविधियों से ज्यादा हैरान गर्मी कर रही थी। ऐसे मौसमों का आविष्कार अभी बाकी था जो आबादी देख और नारे सुन कर आया करें।

शाम का रंग कुछ ऐसा था कि रिक्शे कहीं नहीं थे। सड़क के मुहाने पर काँच के टुकड़े बिखरे हुए थे। सूरज जबकि छिप चुका था फिर भी हवा में बची हुई रोशनी और धरती से परावर्तित किरणें काँच के इन टुकड़ों से कई सारी रंगीनियाँ बिखेर रही थीं। रोशनी की तेज चौँध से आँखें चुराते हुए अनिकेत ने पश्चिम की ओर देखा; जली हुई बस खड़ी थी। बस देखने के बाद उसे चिरायँध महसूस हुई। जली हुई बस उसके लिए पुरानी पहेली सुलझा रही थी। हरदम से वह यह जानना चाहता था कि बसों का ढाँचा कैसे आखिर तैयार होता होगा? दो कुत्ते जली हुई बस के साए में आराम फरमा रहे थे।

अनिकेत को सड़क तक छोड़ने सुखपाल आया था जिसकी औपचारिकताएँ भी सहज लगती थी। उसने आज रात रुकने की बात सुझाई। कहा : आगरा और जयपुर टीम की मीटिंग बाद में भी हो लेगी। अनिकेत को ‘सेल्स मीट’ के बहाने रितु से मिलने के लिए जाना ही जाना था, इसलिए तय यह हुआ : यहाँ से किसी निजी वाहन पर टँग कर पटियाला जाना होगा, वहाँ से रात के दस बजे हरियाणा रोडवेज की एक बस पेहवा, इस्माइलाबाद होते हुए दिल्ली जाती है।

यह जगह शहर के बाहर थी। कैंचिया मोड़ पर पुलिस वाले जरूर थे पर शाम के नाते जरा सी आवाजाही बढ़ गई थी। दूध का एक टैंकर और खुली हुई एक जीप आई जिसमें कुछ औरतें और बहुत सारी बकरियाँ थी। अनिकेत को ऐसी सवारियाँ साधने से परहेज न था पर दोनों संगरूर तक ही जा रही थीं।

शाम चढ़ रही थी और इनका इंतजार बढ़ता जा रहा था। सुखपाल ने दिल्लगी की : सर क्यों मुश्किल में पड़ते हो? कुछ उल्टा सीधा हो गया तो? होनेवाली भाभी को हम क्या मुह दिखाएँगे? जैसा कि होता है, सेल्स टीम जल्द ही द्विअर्थी बातों पर उतर आती है, यहाँ भी अट्ठाईस वर्षीय अनिकेत को ले कर ‘डबल’ चलने लगा। तब तक एक कार आती हुई दिखी। हाथ दिया। कारचालक ने ऐसी तेज ब्रेक लगाई कि सड़क की चीख निकल गई। यह बूझते ही कि कार उनके ही हाथ देने से रुकी, दोनों दौड़ पड़े।

कार में दो जने थे। एक ड्राइवर साइड और दूसरा कंडक्टर साइड। सुखपाल ने उनसे बात की। उन्होने सुखपाल से पूछा; जाना कहाँ है? और क्या दोनों जा रहे हैं? जबाव में पटियाला सुन कर उन दोनों ने एक दूसरे को देखा और बताया कि वो भी पटियाले ही जा रहे हैं।

कार के भीतर आते ही अनिकेत ने अपनी आँखें बंद कर राहत की दो छोटी छोटी साँस ली। खुशी से उसकी मुट्ठी भिंच गई थी। आँखे खोल सामने देखा तो पाया – सामने जो आईना (रियर व्यू मिरर) था उसमें से दो जोड़ी आँखे उसे देखे जा रह थीं। अपलक। जब अनिकेत की निगाह आईने की उन नजरों से मिली तब तक कार चल पड़ी थी। बठिंडा छूट रहा था और अगली सुबह उसे दिल्ली होना था।

अनिकेत की नजर फिर फिर सामने उई तो पाया कि आईने से वो दो जोड़ी आँखे अब भी उसे देखे जा रही हैं। उनकी आँखों में गंभीरता और अपरिचय का गहरा भाव दिख रहा था। निगूढ़। अनिकेत को भारी बेचैनी होने लगी पर उसने आँखों ही से मुस्कुरा कर टाल दिया और खिड़की से बाहर देखने लगा। बाहर जो लाइलाज अँधेरा था वो सुबह की रोशनी के इंतजार में पसरा हुआ था।

सामने बैठे लोगों ने अपना परिचय दिया। मुझे लकी कह सकते हैं और इसे (कार चला रहे शख्स की ओर इशारा कर) मेजर कहा जाता है। और सर, आपका परिचय? अनिकेत : अनिकेत दीक्षित, रहने वाला गाँव बौली, जिला देवरिया का हूँ, रहता चंडीगढ़ हूँ। लकी : काम क्या करते हैं? यह लैपटॉप है? अनिकेत : जी हाँ। साथ में इंटरनेट भी। लकी : फोन भी होगा? अनिकेत : वह भी है। लकी : काम नहीं बताया? यह सवाल अनिकेत को खटका पर उसने जबाव में अपनी कंपनी का नाम बताया और अपना पद भी, जो हर छ: सात महीने में तबादलों के साथ बदलता रहता था।

मेजर : सर, आपका पहचान पत्र भी होगा? अनिकेत : हाँ। कई सारे हैं। मेजर : सर, बुरा ना माने तो आपका पहचान पत्र देख सकता हूँ? अनिकेत भला क्यों बुरा मानता। कार चल रही थी। सड़क पर शाम की गर्म हवा के बाद अब वातानुकूल से अनिकेत सुस्त हो रहा था। कार्ड निकाल ही रहा था कि उसका फोन बजा – सुखपाल था। कह रहा था, दिल्ली पहुँच कर खबर कर देना, बॉस। अनिकेत ने हँसी में लपेट कर कहा, पहले दिल्ली पहुँचने तो दो।

फोन से ध्यान हटा तो पाया कि लकी उसकी ओर देख रहा है। अनिकेत ने विजिटिंग कार्ड थमा दिया। कार्ड निरखते हुए लकी ने पूछा : सर, आप दिल्ली जा रहे हैं? अनिकेत : जी। लकी (अनिकेत को प्रश्नवाची निगाह से देखते हुए): पर आपने तो हमें पटियाला बताया था? अनिकेत : मतलब? लकी : अरे! मतलब तो आप मुझे बताएँगे। अनिकेत अचंभे में पड़ गया। हँसने की अधूरी कोशिश करते हुए बताया : दरअसल पटियाला से दिल्ली के लिए रात के ग्यारह बजे की बस है। दंगे के कारण बठिंडा में कर्फ्यू था और वहाँ से बस सेवा आज ठप्प थी।

लकी : सर, इसमें हँसने की बात कहाँ थी? आप हमारी गाड़ी में बैठ हम पर ही हँसेंगे? अगर आपको दिल्ली जाना था तो हमें पूरी बात बतानी थी। अनिकेत (परेशान होते हुए) : जी। लकी : जी, क्या? बताना चाहिए था या नहीं? अनिकेत : हाँ। लकी : तो बताया क्यों नहीं? अनिकेत : हमें लगा पटियाला बताने से काम हो जाएगा। लकी : काम? कौन सा काम? आप हैं कौन? ये काम, दिल्ली, झूठ… ये सब क्या लगा रखा है आपने, मिस्टर अनिकेत? यह आपका वास्तविक नाम है या नहीं? अनिकेत(सँभाल कर बोलते हुए) : आप मेरा कार्ड देख लीजिए। अनिकेत (हँसते हुए) : आप तो पुलिसवालों सी हरकत करने लगे हैं।

फोन फिर बजने लगा। बॉस थे। यस सर, कल पहुँच रहा हूँ… हाँ… हाँ। एक कमरा मेरी खातिर बुक करा दीजिएगा। रात के दो ढाई बज ही जाएँगे। थैंक यू सर।

फोन से ध्यान हटा तो पाया कि लकी की गर्दन उसकी तरफ घूमी हुई है। अनिकेत ने आँखों से पूछा : क्या? लकी : सर, एक बात कहूँ? क्या आप सिस्टम में यकीन नहीं रखते? आप हमारे आगे फोन को तरजीह देंगे – यह हमारा अपमान नहीं है? या आपको नाफरमानी की आदत है? आप मुझे अपना पहचान पत्र नहीं देंगें?

अनिकेत : अभी मैंने अपना विजिटिंग कार्ड दिया तो था। लकी : कब? कब दिया, साहब? इसके मानी तो ये हुए कि मैं झूठ बोल रहा हूँ? मेजर, क्या मैं झूठा हूँ? अनिकेत उसे दुबारा अपना कार्ड देता है और जाने क्यों उसके मन मे ख्याल आता है कि रितु से बात हो ही जानी चाहिए। बेबात की उसकी नाराजगी अलग ही मुश्किल का सबब है।

लकी कार के भीतर बल्ब जलाता है पर उसकी हरकतों से अनिकेत समझता है कि उसे कुछ भी साफ दिखाई नही दे रहा है। लकी खिड़की का शीशा नीचे करता है, कहता है : मुझे रोशनी के बजाय अँधेरे में पढ़ना आसान लगता है। पर उसके हाथ से कार्ड छूट जाता है। लकी अपना हाथ अनिकेत की तरफ बढ़ा देता है। अनिकेत दिग्भ्रम की हालत में उस चौड़ी हथेली पर तीसरा कार्ड रख देता है।

लकी : मेजर, यह बिजनेस कार्ड है। यह तो कहीं भी छप सकता है। अनिकेत साहब, अगर यही आपका नाम है तो, हमें क्षमा करिएगा पर क्या आप हमें कोई ऐसा पहचान पत्र नहीं दिखा पाए जो सरकार की ओर से दिया हुआ हो। सरकार पर आप को यकीन तो होगा? हमें है।

अनिकेत की थकी समझ दगा दे रही है। ये क्या हो रहा है? वो लकी से कहता है : आप मुझ पर भरोसा रखें। लकी : भरोसा? उसे ही कायम रखने के लिए तो हम आपका कार्ड माँग रहे है, वीर जी। क्या आपको हम पर भरोसा नहीं है? देखने में आप हिंदू ही जान पड़ते हैं पर यह शर्तिया साबित हो जाए तो सफर सुहावना रहेगा। है ना ! और हाँ, जहाँ तक भरोसे का सवाल है, आपके लंबे जीवन की कामना करते हुए मैं आपको मूलमंत्र देता हूँ – भरोसा सिर्फ प्रेम में ही नहीं, व्यवसाय में भी घातक होता है।

अनिकेत कोई जबाव दिए बिना, अपना ड्राइविंग लाइसेंस निकाल कर दे देता है। हैंड ब्रेक के पास जो चबूतरेनुमा जगह है वहाँ काँच की दो ग्लास, रेड वाइन की बोतल और चिप्स पैकेट रखा हुआ है। अनिकेत के डी.एल. को अपनी जेब के हवाले करते हुए लकी तीसरा ग्लास निकालता है। क्या लेंगे, अनिकेत साहब? वाइन, व्हिस्की या दम? दम के लिए लकी उसे चिलम दिखाता है जो सामने रखी हुई है। बुझी हुई।

अनिकेत इंकार करता है। वो जिद करते हैं। अनिकेत दूनी जिद से मना करता है : मैं, दरअसल पीता ही नहीं हूँ। इस पर लकी ग्लास पीछे खींच लेता है। सामने के आईने से अनिकेत को देखते हुए पूछता है : अच्छा अनिकेत साहब, अगर यही आपका नाम है तो, क्योंकि अभी तक आप साबित नही कर पाए, व्यवस्था में आपका कितना यकीन है?

अनिकेत को इस नामाकूल प्रश्न का जवाब नहीं जँचता है। वजह कि सीधे सीधे वो किसी व्यवस्था में यकीन नहीं रखता है। जो है, वह इतना बुरा है कि यकीन संभव नही है, ग़ुजर भर हो रही है। जो नहीं है, उसमें यकीन क्या, वो तो है ही नहीं और उसके स्वप्न मात्र बिकते हैं। लकी पहली बार इससे कड़ाई से पेश आते हुए पूछता है : देश में यकीन तो होगा, बिरादर? अनिकेत को इस प्रश्न का जबाव नहीं सूझता। छोटी सी हुँकारी से काम चल सकता है। अनिकेत : हाँ। लकी : वाह रे खिलाड़ी! देश में यकीन है, और हमारी व्यवस्था में नहीं?

लकी वाचाल मशीन में तब्दील होता जा रहा था। हमारा सिस्टम देखिए, हमने आपको टॉप क्लास गाड़ी मुहैया कराई, एअर कंडीशन, महँगी शराब, जो आप पी नहीं रहे। अब आप यह न कहना कि इसे पीना आपके बूते में नहीं। यह कहना दरअसल हमारा अपमान है। और इस देश की शिक्षा व्यवस्था का भी।

अनिकेत की समझ खुल नही पा रही थी और उसने मान लिया कि शराब ने इनका सर पकड़ लिया है। उसने अपनी आवाज नीचे की : लकी जी, बुरा ना माने तो एक बात कहूँ ? आपका सवाल इक्कीस आने सही है पर क्या हम थोड़ी देर बाद इस विषय पर बात करें? लकी : शौक से, मिस्टर।

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अगले दस मिनट फैसलाकुन बीते।

लकी ने एक पंजाबी गाना बजा दिया : इक खबर सुनी है वो सच्ची है या झूठी / पा के यारा दी झाँझरा गैरा दी डेरे नच्ची। अनिकेत को लगा कि कोई सुनसान है जो बज रहा है। उनके बीच जो यह तनाव बन आया था उस पर स्टीरियो की आवाज लोरीनुमा लगी थी। इस बीच अनिकेत के दो फोन आए। पहला फोन माँ का था। उसने कहा, माँ मैं थोड़ी देर में लगाता हूँ। हुआ यह कि अनिकेत के फोन बजते ही लकी ने स्टीरियो की आवाज तेज कर दी थी। बहुत तेज। जैसे शादियों के फूहड़ उत्सवों में होता है। लकी ने अनिकेत के फोन रखते ही आवाज मद्धिम कर दिया और ऊपर लगे आईने के रास्ते अनिकेत की तरफ एक तिरछी मुस्कान उछाली।

अगला फोन बॉस का था। लकी ने आवाज फिर ऊँची कर दी। इस बार अनिकेत से रहा नहीं गया। जब तक वो आवाज कम करने की दुहाई देता, फोन कट चुका था। लकी ने आवाज नीचे कर दी। अनिकेत ने दुबारा फोन मिलाया और जैसे ही बात का मिसरा उठाया कि लकी ने इस बार आवाज बेहद बेहद तेज कर दी। आजिज आ कर अनिकेत ने लकी को कंधे से पकड़ कर हिलाया, कहा : आप जानबूझ कर मुझे परेशान कर रहे हैं, मिस्टर।

लकी के आदेश पर मेजर ने काले सुनसान में गाड़ी रोक दी। दोनो चुपचाप अनिकेत को देखते रहे। सामने के आईने से नहीं, बाकायदा पीछे घूम कर। दो जोड़ी आँखों से लगातार घूरे जाना अनिकेत झेल नहीं पाया और वो खिड़की से बाहर झाँकने लगा। बाहर अँधेरा था, जो उसे बेबस कर रहा था। औचक ही बोल पड़ा : लकी साहब, लिफ्ट देने के लिए शुक्रिया। आप मुझे यहीं छोड़ दीजिए।

लकी कुछ कहे बिना गाड़ी से उतर गया। मेजर अलबत्ता इसे घूरता रहा। अनिकेत अपना सामान सहेजने लगा और लकी ने पीछे का दरवाजा खोल दिया। अनिकेत उतरने की तैयारी करने लगा। लैपटॉप बैग को आगे जैसे ही बढ़ाया लकी ने गाड़ी का दरवाजा जोर से बंद कर दिया। यह सब इतनी तेजी और कारीगरी से हुआ कि अनिकेत सारा कुछ समझ गया।

फाटक बंद होते ही मेजर ने सेंट्रल लॉक डाल दिया और उछलते हुए अनिकेत को गर्दन से जकड़ लिया। उन दोनों का संघर्ष तब तक चला जब तक कि लकी ने अनिकेत को पीछे की सीट में दबा कर तीन चार थप्पड़ नहीं लगा दिए। इस अपमान की वजह से वह निरा चुप हो कर इन दोनों को देखने लगा।

लकी : अनिकेत साहब, आपने खामखा मुद्दा बना दिया। चोट तो नहीं आई? मैने आपको गाड़ी से उतर जाने दिया होता पर आपका ड्राइविंग लाइसेंस मेरे पास था और उसे दिए बिना आपको जाने देना मुझे अच्छा नहीं लगता। फिर वह मेजर से मुखातिब हो गया : उन्होने मुझे कंधे से छुआ भर था और तुमने उनकी गर्दन तोड़ दी।

अनिकेत उसी कैफियत में गिरा पड़ा था। उसके चेहरे पर हजारो हजार भावों की आवाजाही मची थी। अगर वो आईना देख पाता तो एक नई पहेली सुलझा देता : उसका अपना चेहरे तब कैसा दिखता है जब वो डरा हुआ हो।

मस्तिष्क के उस हिस्से से, जहाँ प्रेम के सुनहले फूल मुर्झा रहे थे और टूट टूट कर गिर रहे थे, यह आभास उसे मिल रहा था कि एक आखिरी बार रितु से बात हो ही जाए। उसी मस्तिष्क का एक बड़ा हिस्सा जो माँ के फोन से अभी उबरा नहीं था, कह रहा था कि दरअसल लकी सही है, उससे ही कोई चूक हो गई और लकी ने वाकई डी.एल. देने के लिए ही दरवाजा बंद किया था।

वो सँभलने लगा। गीत गजल बंद हो चुके थे। कार की गति नहीं से नहीं थी तो 110 या 120 कि.मी. प्रति घंटे की थी। आस्ट्रिया में मारे गए संत के कारण जो दंगे हिन्दुस्तानी पंजाब में दुर्गंध की तरह फैले थे उसका सीधा असर इस कार की गति पर दिख रहा था कि यह कार सूटासूट भागे जा रही थी। प्रभाव का ऐसा नियम अनिकेत ने आज तक नहीं देखा था। संत की हत्या से कार की गति प्रभावित। वो खुद को दूसरे तीसरे ख्यालों में ले जाना चाहता था। इन दिनों सुखद जीवन का एक सूत्र यह भी था कि बार बार आप खुद ही में कोई गलती ढूँढ़ ताकि उसका निवारण भी अपने हाथ में हो।

लकी ने चिप्स का पैकेट पीछे बढ़ाया। अनिकेत ने चिप्स मुँह से लगाया ही था कि लकी हँस पड़ा : अनिकेत साहब, आपने हमारा नमक खा लिया है। अनिकेत भी हँसने लगा। अभी गाड़ी संगरूर से गुजर रही थी, हद से हद घंटे भर का सफर और था। लकी ने कुछ याद आने जैसी मुद्रा बनाई और कहा : चलिए, आपकी पहचान का सवाल भी हल कर लेते हैं। सच सच बताइए, आप हिंदू हैं या मुसलमान या ईसाई या कुछ और?

अनिकेत : हिंदू हूँ, सर। लकी : सर कह कर शर्मिंदा ना करें। फिर भी, हिंदू हैं तो दंगे के दिन बाहर सड़क पर क्या कर रहे थे? अनिकेत : मैं हिंदू होने के साथ निजी ही सही पर एक संस्था का मुलाजिम भी हूँ। आज हमारे पंजाब टीम की मासिक बैठक थी और कल दिल्ली होना मेरे लिए अनिवार्य है। लकी : ऐसा!! कोई सबूत? कल की मीटिंग का? दिल्ली को तुम सबने आसान टार्गेट समझ रखा है और इस देश की जनता को मूर्ख। कहीं तुम बठिंडा इस खातिर तो नहीं आए थे कि पावर प्लांट उड़ाने की योजना बना सको। इतना कह कर लकी ने एक मझोली मुस्की मार दी। जस्ट किडिंग। डोंट माइंड। पर आप खुद बताइए, क्या मेरे सवाल गलत हैं? या गैर जरूरी हैं? अनिकेत ने सहमति जताई तो लकी खुश हुआ और राहत की साँस ली। कहा : प्रश्न स्थापित करना सर्वाधिक कठिन और महत्वपूर्ण होता है, मिस्टर और अब जब मेरा सवाल आपके अनुसार सही है तो कृपया जबाव दें। जल्द से भी जल्द।

अनिकेत बार बार खीझ रहा था और और हर बार कठिन प्रयत्नों से खुद को सँभाल रहा था। वो ऐसी चूक नहीं करना चाह रहा था जिससे सामनेवाले नाराज हो जाएँ। फिर भी बोल पड़ा : कैसा सवाल? लकी : आपकी पहचान का। संकट तो बस पहचान का ही होता है। अनिकेत : आपके पास मेरा ड्राइविंग लाइसेंस है, आप जाँच सकते हैं। लकी : पहचान की खातिर और क्या है आपके पास? अनिकेत : मतदाता पहचान पत्र है, पैन कार्ड है।

लकी (मेजर से) : मेजर, यार वो बांग्लादेशी तुझे याद है जिसकी लँगोट से दो मतदाता पहचान पत्र बरामद हुए थे? मेजर कोई जबाव नहीं देता, गाड़ी की रफ्तार जरूर बढ़ा देता है। लकी (अनिकेत से) : साहब, दिल पर मत लेना, आपने मतदाता पहचान पत्र का जिक्र किया तो बांग्लादेशी याद आ गए। वैसे आप कुछ और बताइए, कैसे साबित करेंगे कि आप अनिकेत हैं। कि आप हिंदू हैं। कि आप किसी प्राइवेट फर्म में मैनेजर हैं। कि आप दिल्ली किसी मीटिंग मे जा रहे हैं जो, अगर आप का कहा मानें तो, आतंकवादी संगठन की मीटिंग नहीं है। कैसे?

अनिकेत की साँस उखड़ चुकी थी। पूछा : आप लोग मुझसे क्या चाहते हैं? लकी : एक मामूली सवाल का जबाव। अनिकेत : सर, आपको इन कागजातों पर भरोसा करना चाहिए। यहाँ अनिकेत जरा ठहरा, आफत की साँस ले कर बोल पड़ा : आखिर यही सवाल आपसे हो तो आप क्या जबाव देंगे, आप बताइए, मैं भी वैसे ही साबित करने की कोशिश करूँ। लकी : पहली और आखिरी बात मिस्टर अनिकेत कि हमसे यह सवाल पूछा नहीं जा सकता। क्योंकि यह सिस्टम हमारा है। हमने इसे तैयार किया है। इतनी लंबी गाड़ी, शराब, संगीत, गति, मुफ्त का सफर… ये सब हमने आपको दिया है इसलिए हमसे कोई प्रश्न नहीं बनता।

इस देश से, जो दिन दहाड़े आपकी जमीन की जरा बढ़ी कीमत दे कर आपसे खरीद लेता है, आप उस लाखों रुपए में इस कदर डूबते उतराते हैं कि नशा उतरते ही आपके पास जीने का कोई साधन नहीं बचता, ऐसे सिस्टम से आप सवाल पूछ सकते हैं? नहीं पूछ सकते। अलबत्ता वो कभी भी आपको उठा ले जाएँगे और कुछ भी पूछेंगे। आप मेरी बात का अन्यथा ना लें, बंधु। गाड़ी के बाहर जो तंत्र है, वो जब चाहे तब आप से वह सब कहलवा सकता है जो वो चाहता है। जबकि हम तो इसके उलट, सारा जबाव आप पर छोड़े हुए हैं।

अनिकेत को इसकी समझदारी भली लगी। उसे लगा कि बात बन सकती है। आखिरी कोशिश में कहा : मैं अनिकेत हूँ। मैं अट्ठाईस साल का हूँ और मैं झूठ नहीं बोलता। मेरे पास सारे कागजात हैं जिसे हमारा देश पहचान पत्र के बतौर स्वीकार करता है। आप मेरे घर, मेरी माँ, मेरे दोस्तों से बात कर लें। लकी : पत्नी, बच्चे? अनिकेत : शादी नहीं हुई। लकी : प्रेमिका? अनिकेत : हाँ है। लकी : सुंदर है? अनिकेत ने इस शब्द को ऐसे ही लिया जैसे वो किसी गाली को लेता और कुछ भी कहने से खुद को रोक लिया। लकी : फिर, आपकी प्रेमिका से ही बात होगी। क्यों मेजर? मेजर : डी.एल., एलेक्ट्रोलर कार्ड, पैन कार्ड? लकी: ठीक, पहले उसे ही जाँच लेते हैं। लकी अपनी चौड़ी हथेली पसार देता है जिस पर अनिकेत एक एक कर सारे पहचान पत्र रख देता है।

लकी, उन्हें तौलने के अंदाज में उछालता है। हँस कर कहता है : आपकी पहचान का वजन कम है। सारे विजिटिंग कार्ड रख दें। अनिकेत चकित होते हुए सारे विजिटिंग कार्ड रख देता है। उसे तौलने के अंदाज को दुहराते हुए वो बाएँ हाथ से खिड़की का शीशा नीचे करने लगता है, फिर कार्ड्स को बाएँ हाथ में ले कर देखता है और सारे कार्ड्स खिड़की से बाहर उछाल देता है।

ये सब अनिकेत के सामने हो रहा है।

खिड़की का शीशा उतारते हुए देख कर ही वो समझ गया था पर कुछ कह नहीं पाया। पर जैसे ही उसने कार्ड्स फेकने का यह दुर्भाग्यपूर्ण दृश्य देखा, लगभग उछलते हुए पीछे से उसने लकी की गर्दन पकड़ ली। उसका हाथ लकी की गर्दन पर कसता जा रहा था पर भूल गया कि वे दो थे।

मेजर ने गाड़ी रोक दी। अपना जूता निकाला और उससे, अनिकेत के सर पर मारने लगा। दोनों ने उसे इस तरह खींच लिया था कि अनिकेत का पैर पिछली सीट और सर हैंड ब्रेक के पास था। मेजर अनिकेत को तब तक जूते से पीटता रहा जब तक कि लकी सँभल नही गया। उन दोनों ने पुन: अनिकेत को पिछली सीट पर बिठाया पर अब अनिकेत के दोनों पैर मजबूत रस्से से बँधे हुए थे। अनिकेत की खातिर इस सृष्टि की देह पर जो दृश्य बच रहा था वो यह कि अनिकेत का दायाँ हाथ मेजर के हाथ में था और बायाँ लकी के हाथ में। अनिकेत का चेहरा दु:ख के चिह्न में बदल चुका था और लकी अफसोस जता रहा था कि अनिकेत को कार्ड्स की बात दिल पर नहीं लेनी चाहिए थी।

लकी ने थोड़ा समय लिया और लहजे को नर्म करते हुए कहा : अनिकेत साहब, हम आपके किसी एक हाथ का अँगूठा तोड़नेवाले हैं। यह सुनना था कि अनिकेत ने पूरे जोर से अपना हाथ छुड़ाना चाहा। पर उन दोनों की पकड़ मजबूत थी। इतने कम समय में यह सब हो रहा था फिर भी अनिकेत ने सारी कोशिश कर ली : नाकाम जोर आजमाइश, सब कुछ न्योछावर कर देने की विनती। उसे लग रहा था कि शोर उसे बचा सकता है। पर लकी ऐंड कंपनी भी लामकसद नहीं थी : मेरी बात सुनो, अनिकेत। प्लीज। शांत बैठिए वरना हम आपके दोनो हाथ तोड़ देंगे।

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अनिकेत पर शायद लकी की बात का असर हुआ या क्या हुआ कि वो स्थिर हो गया। उसके शरीर का नस नस किसी रस्सी की तरह तन चुका था और समय किसी अकुशल नट की तरह उस पर खड़ा था। अंग टूटने के अनुभव से वह सर्वथा अनजान था। लकी और मेजर आपसी बहस में उलझे थे कि कौन से अँगूठे पर जोर लगाया जाए। मेजर ने कहा कि आज उसका मंगलवार व्रत है। यह सुनना भर था कि लकी ने अनिकेत दीक्षित के बाएँ हाथ का अँगूठा मोड़ कर तोड़ दिया। फिर तो जो हुआ वो यह कि लगा, उसकी चीख से कार की छत फट जाएगी। उन दोनों ने अनिकेत का हाथ छोड़ दिया था और वो बीच की जगह में, बेहोश, गिरा हुआ था।

बाँस की खपच्चियाँ और क्रेप बैंडेज से अनिकेत का अँगूठा बाँधने के बाद लकी ने उसके सर पर धार फोड़ कर पानी गिराया। रोशनी इतनी नहीं थी कि कूल्हे की कोई नीली नस ढूँढ़ कर इंजेक्शन लगाया जाए इसलिए लकी ने न्यूरोवियान 500 एम.जी. से भरा पूरा एक इंजेक्शन अनिकेत की दाहिनीं बाँह में उड़ेल दिया।

आखिरश: अनिकेत को होश आया। दर्द इतना था कि हथेली से कंधे तक की सारे नसें फटी जा रही थीं पर उसकी कराह दर्द और अपमान दोनों के लिए थी। लकी ने अपने तईं अनिकेत का इलाज किया था। हालाँकि दाहिनी बाँह की सूजन बाईं के मुकाबिल कम थी फिर भी अनिकेत दाहिनी बाँह तक उठा नहीं पा रहा था।

दाहिनी बाँह के खयाल से यह अफसोस उसे उठा, कि काश, लकी के बजाय मेजर की गर्दन पकड़ी होती। ऐसा करने पर संभावना यह थी कि कार किसी पेड़ से टकरा गई होती या सड़क के किनारे गड्ढे में चली गई होती। वो पीछे बैठा था जिस कारण उसे चोट आने की संभावना कम कम ही थी। पर हिंसा उसके मूल भाव में नहीं थी इसलिए ही वो ऐसी गलतियाँ करता गया।

यह अफसोस अनिकेत के भीतर कहीं ऐसी गुम चोट कर गया कि वो रोने लगा। बेकल कर देनेवाली रुलाई। वह रोना इतना करुण था कि सामने बैठे सज्जन भी विचलित हो गए और लकी ने बचे हुए सारे अँगूठे तोड़ने की धमकी दे कर उसे चुप कराया।

अब उसे एहसास हो रहा था कि वो अपने जीवन, अपने लोगों को किस शिद्दत से चाहता है। अब तक वो अपने साथ कितनी लापरवाहियाँ करता रहा। अठाईस की औसत उम्र में वह अफसोस और गलतियों का कारखाना बन चुका था। वह बेतरह सोच रहा था कि रितु से ज्यादा उसे रितु की आजादी से प्रेम करना चाहिए था। जो झगड़े उनके बीच प्रेमिल शुरुआत थे अब जी का जंजाल बन गए थे। उसे समझ आ रही थी कि तानों से अपना काम निकालने का जो तरीका उसने अपनाया वो असफल रहा। उसे खुद से बहुत उम्मीदें थी और अब एक एक कर उसके मस्तिष्क के सभी कोने अँतरों से वे उम्मीदें अपनी अधूरेपन के अफसोस में फन उठा रही थीं।

माँ पर तो यह दाँव नहीं खेला जा सकता पर अनिकेत के चेहरे की जो हालत हो चुकी थी उसे देख कर उसकी माँ के अलावे कोई पहचान लेता इसकी संभावना कम थी। रोने से उसकी आँखे बाहर निकल आई थी। चेहरे का जो रंग हुआ था उस रंग की संज्ञा का आविष्कार अभी बाकी था। ललाट और बाकी के किनारे सरदर्द से सूज गए थे।

लकी : हमने तय किया है कि आपके लख्ते-जिगर से आपकी पहचान की पड़ताल करेंगे। इजाजत दें? अनिकेत की बाँहों में इतनी भी कुव्वत नहीं बची थी कि फोन उठा कर उन्हें दे दे इसलिए लकी ने पीछे पलट कर अनिकेत की जेब से फोन निकाल लिया। अनिकेत था कि लकी की आँखों में देखे जा रहा था। लकी ने हँसी बिखरते हुए मेजर से कहा : मेजर, मुझे डराया जा रहा है।

अनिकेत का फोन लकी स्कैन करने लगा। मैसेज बॉक्स में पहला ही संदेश रितु का था, जिसे लकी सस्वर पढ़ रहा था और अनिकेत चुप बैठा हुआ था। बेभाव। बे-शिकन। उन दोनों ने आपस ही में पढ़ना शुरु किया। पढ़ कर कभी मुस्कुराते, कभी ठठा पड़ते और कभी सिसकारियाँ भरने लगते। पाँचेक मिनट बीते होंगे कि लकी ने गुस्से में उबलते कहा, शर्म आती है मुझे इस देश की नौजवान पीढ़ी पर। ऐसी ही भाषा सिखाई गई है, आपके घर आँगन में। अनिकेत ने कुछ नहीं कहा। अपने भीतर कहीं, अपलक देखता रहा।

लकी : रिंग जा रही है पर कोई फोन उठा नहीं रहा। कहीं आपका प्रेम भी आपकी पहचान की तरह झूठा तो नहीं? लकी ने रितु का नंबर देखा और सोचने हुए कहा : नंबर तो भारत का ही लगता है। क्यों अनिकेत साहब, अब ? अनिकेत : ऑफिस में होगी। लकी : रात वाला व्यवसाय है क्या? यह कह कर दोनों हँस पड़े। अनिकेत : बी.पी.ओ. का नाम सुना होगा आप सबने? लकी : खूब सुना है। सॉरी, अगर हमारा मजाक अच्छा ना लगा हो तो। रियली सॉरी, पर आप हमें अपमानित करनेवाले सवाल पूछ कर बाएँ हाथ का अँगूठा सहलाने पर मजबूर न करें।

संयोग, या दुर्योग, एक भ्रम है जिस पर भरोसा इंसानियत और मस्लेहत, दोनों का तकाजा होता है। इसका असर यह हुआ कि अनिकेत ने समर्पण कर दिया। लकी, रितु को फोन पर फोन लगाए जा रहा था पर अनिकेत जानता था कि वो फोन क्यों नहीं उठा रही है? दो दिन पहले किसी मामूली बात पर इनके बीच झगड़ा हुआ था पर कोई अजनबी अगर प्रेम के होने या ना होने का सवाल पूछे तो उसे यह भर बताया जा सकता है – प्रेम है या नहीं है। प्रेमिका से झगड़ने की बात बताने का चलन नहीं है पर अब होना यह था कि लकी और मेजर यही मामूली सवाल उसकी पहचान के संदेह में लपेट कर पूछनेवाले थे। यहाँ अनिकेत ने गलती की और खुद ही अपने प्रेम की मुश्किल बता दिया।

लकी : और कितने झूठ बोलोगे, भाई? तब तक अनिकेत की नजर बाहर गई और सड़क की ओर देखते हुए बेसाख्ता बोल पड़ा : यह लुधियाना है। मेजर : हाँ, है तो लुधियाना। आप सो चुके थे, इसलिए हमें रास्ता बताने वाला कोई नहीं था। सोचा कि आपको पुलिस के हवाले भी करते चलें। अनिकेत : आप लोग यह सब क्यों कर रहे हैं? हालाँकि इतना भर कहने में अनिकेत को अच्छी मशक्कत करनी पड़ रही थी।

हालात के आगे समर्पण कर देने के बाद, अनिकेत का मन-मस्तिष्क अलबत्ता खूब-खूब पीछे जा रहा था। वो पंजाब के सारे शहर कस्बे पहिचानने लगा था। कई रातें तो उसने पंजाब के गाँवों में ही निकाल दी थी। किसी ने पहचान की खातिर आज तक उससे कुछ नहीं पूछा था। पाश, बीबी नूरा, शिव कुमार बटालवी, सुरजीत पातर, गुरदयाल सिंह के गाँवों में गया था। पंजाब के धनी लोक संगीत में अनिकेत की रूचि गहरी थी और इन दिनों बीबी नूराँ के पोते, दिलबहार से उसकी अच्छी छन रही थी। दिलबहार जब भी मिले, बीबी नूराँ का गाया वह गीत जरूर सुनाता था – कुल्ली राह बिच पाई असा तेरे, कि औंदा जाँदा तकता रवीं ओ। ये दोनों एक बैंड स्थापित करने की बात बना चुके थे जो सिर्फ तफरीह नहीं थी।

गाड़ी स्टेट बैंक ए.टी.एम. के पास रुकी। लकी : अनिकेत साहब, पेट्रोल? अनिकेत : मतलब? मेजर : कितने क्रेडिट कार्ड्स हैं आपके पास? अनिकेत चुप रहता है। लकी और मेजर सामने के आईने से इसे देख रहे हैं। इस बीच उन्हें जैसे कुछ याद आया। मेजर : गाड़ी के कागज कहाँ हैं? लकी : दराज में। मेजर : देखो, हैं भी या नहीं। लकी सामने की दराज खोल, कागज ढूँढ़ने के क्रम में सारा सामान बाहर निकाल कर रख रहा है। सबसे पहले उसने बड़े फाल का चाकू निकाला है। मेजर : अनिकेत भाई, कितने क्रेडिट कार्ड्स हैं आपके पास? लकी, चाकू के बाद दो हाथ लंबी रस्सी निकालता है। फिर कुछेक कागज और अंत में एक रिवॉल्वर निकालता है जो शायद देशी कट्टा है।

कुछ देर की खामोशी और लकी आगे से उठ कर पीछे आ जाता है। सवाल अब भी वही है पर अब लकी, अनिकेत के बाएँ कंधे पर हाथ रखता है। उसका हाथ नीचे फिसलने लगा है। अनिकेत बोल पड़ता है : एक। मेजर : और डेबिट कार्ड्स? मेजर के इस प्रश्न और लकी की अगली हरकत के बीच खतरनाक लय सधी हुई थी। मेजर के इस सवाल तक लकी का हाथ, अनिकेत की बाँहों पर धीमी रफ्तार में फिसलते हुए, उसकी कुहनी तक आ चुका था। पर इस सवाल के बाद लकी ने फिसलने की गति इतनी तेज कर दी कि अनिकेत को जैसे कोई दौरा पड़ गया हो। वो बोले जा रहा था : दो, दो है, दो ए.टी.एम., मुझे माफ कर दीजिए, दो हैं, दो हैं, बस दो, प्लीज लीव मी, दो हैं, दो हैं…

उसकी साँस थी कि बस आ रही थी, अंदर जा नहीं पा रही थी। इस वजह से वो लुढ़क गया था। जब उसकी बची खुची साँस थमी तब उसने महसूस किया कि लकी का हाथ, उसके बाएँ हाथ की कलाई और अँगूठे के बीच कहीं, किसी रेल की तरह ठहरा हुआ है। लकी अपना हाथ बढ़ा कर अनिकेत के जींस से उसका वॉलेट निकाल लेता है। तीन हजार के करीब नगद है। दो ए.टी.एम. कार्ड, एक क्रेडिट कार्ड, कई सारे विजिटिंग कार्ड्स और एक बहुत छोटा रुद्राक्ष है। लकी : इसका इस्तेमाल कैसे होगा? अनिकेत की आँखों पर धुंध छाई है। दर्द इतना है कि वो कहता है : मुझे डॉक्टर के पास ले चलो। फिर उसे अपने अँगूठे का खयाल आता है और अब लकी के सवालों का जबाव देना चाहता है। पर रुद्राक्षवाली घटना की रील उसके मन में दौड़ जाती है।

अनिकेत को कंपनी ने पहली बार गाड़ी दी है और उसे सबसे पहले रितु को दिखाने दिल्ली आया हुआ है। रितु अपना ‘लवली कमेंट’ पेश करती है, जब तुम मैनेजर की तरह बन सँवर के आते हो तो जरा भी अच्छे नहीं लगते। अनिकेत : ओके, मेरी माँ, अभी गाड़ी देखो। टोयटा इन्नोवा, 2009 मॉडल। रितु : वो तुम्हारी ग्रीन टीशर्ट क्या हुई? क्लीन शेव हो कर क्यों आए हो? अनिकेत : अरे यार! अभी सिर्फ गाड़ी की बात। रितु : तुम्हारी पुरानी साइकिल से जरा ही अच्छी है और दोनों हँसते हैं। रितु खूब हँसती है। कहती है, मैं भी कार चलाना सीख रही हूँ।

रितु के घर से थोड़ी दूर आगे सिग्नल गहरा लाल हुआ पड़ा है कि एक फकीर गाड़ी की खिड़की पर दस्तक देता है। रितु, अपनी सहजता के अतिरेक में, ऐसे सभी लोगों को भिखमंगे की श्रेणी में रखती है और अक्सर भीख देती है पर उनकी उम्र तथा शरीर की बनावट के अनुसार उन्हें काम बताने लगती है। कभी कभी भिखमंगे इससे नाराज हो जाते हैं। एक ने तो रितु का सिक्का लौटा भी दिया था। खुद को दुनिया की सबसे होशियार जीव समझने वाली, बेहद भोली रितु समझ नहीं पाती कि उसकी समझाइशों में नाराज होनेवाली कौन सी बात है?

वो फकीर इन दोनों की जोड़ी सलामत रहने जैसे आशीर्वाद देता है और मोर पंख से अनिकेत का सर भी सहलाता है। इस पर रितु हँस कर कहती है : अरे! मैनेजर साहब के बाल बिगड़ गए। अनिकेत फकीर की बातों से बेइंतिहा खुश हो कर उसे बीस रुपए देता है और बदले में फकीर अपनीवाली पर उतर आता है। फकीर, रितु के लिए एक रुद्राक्ष देता है, कहता है, इसे हर वक्त अपनी जेब में रखना। पर अपनी रितु किसी फकीर से कम तो नहीं। कहती है : जाओ बाबा, अपना काम करो। ये सब फंटूशगिरी किसी और पर निकालो। अनिकेत जैसे तैसे उसे मनाता है। फकीर को नहीं, रितु को। वही रुद्राक्ष यहाँ उसे कार में दिख रहा है, रितु ने जिसे रखने से मना कर दिया था।

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मेजर : ए.टी.एम. का पिन नंबर? अनिकेत : 2883। लकी : किसका? अनिकेत : दोनों का। हैरान मेजर ए.टी.एम. कार्ड्स ले कर नीचे उतर जाता है। अनिकेत इस कदर बिखर चुका है कि किसी खयाल के लिए भी वो खुद को एकाग्र नहीं कर पा रहा है। उसे भी लकी के अकेले होने का एहसास होता है और वो आखिरी कोशिश करता है। उसकी आवाज टूट रही है। शब्द बिखर बिखर जा रहे हैं। एक शब्द टूट कर दो हो जा रहे हैं और शब्द का दूसरा हिस्सा दूसरे शब्द से मिल, नया शब्द बनाता है, जिसका कोई अर्थ नहीं पर अपने तईं उसकी यह आखिरी कोशिश है : आप लोग ऐ साक्यों करर्र रहेहैं? मूजे डोक्ट रके पास ले चलेओ।

लकी अनिकेत की ओर देखता है। उसे शायद दया आती है या यह भी कोई अदा है कि वो कहता है : हम यह सब क्यों कर रहे हैं, यह कौन सा सवाल आप बाँधे हुए हो? कोई ना कोई कारण तो होगा ही। हो सकता है हम अस्पताल से भाग कर आए हों। क्योंकि जब हमें वहाँ ले जाया गया हो तब आपके जैसे हाड़ मांस के पुतलों से खूब मिन्नते की हों। यहाँ जब अनिकेत को लगने लगा कि वो विक्षिप्तों के बीच फँस गया है तब तक लकी ने दूसरी कहानी शुरु कर दी। हो सकता है, हमें पैसे चाहिए, जैसे हमारी माँ बीमार हो, उसे दवा दारू देनी हो, या हो सकता है हमारे भीतर क्रोध बहुत हो, जो कि आप देख रहे हैं।

हो यह भी सकता है – जब सरकार ने आपसे कहा हो कि उन्होने हमें डराए धमकाए बिना हमारी जमीनें खरीद ली या यह भी कि हमने खुशी खुशी अपनी जमीनें उन्हें दे दिया हो, आज से बीस साल पहले पचासों लाख रुपए जमीन के लिए मिलना, आप कल्पना भी नहीं कर सकते। कइयों को लगा हो कि इतना तो वो पूरे जनम की खेती से नहीं कमा सकते। जिन्होने अपने खेत बेचने में देर की या नहीं बेचा, हम उन्हें अपने पास भी नहीं फटकने देते हों।

खुद मेरी बारात हेलीकॉप्टर से गई हो। दुल्हन हेलीकॉप्टर की चमक से नीली पड़ जाए। पर इससे पहले कि हम होश में आते हम सड़क पर आ गए हों। उस आमदनी की का एकमात्र सबूत यह गाड़ी हो वरना हेलीकॉप्टर की तस्वीरें भी खो गईं। बताइए, आपकी सरकार हमारे साथ बेहतर सलूक नहीं कर सकती थी।

अनिकेत : मेरी सर कारन हीं है। इस रिरियाहट पर लकी का मन हुआ कि इनका अँगूठा दबा ही दिया जाए पर तब तक मेजर आता हुआ दिखा। कार के शीशे पर कोई कीड़ा चिपका हुआ था। उसे हटाते हुए ही लकी को बताया : स्टेट बैंक के अकाऊंट में सत्ताईस और आई.सी.आई.सी.आई. में पैंतीस है। लकी : मात्र? अनिकेत को लगा उसके लिए यह आखिरी मौका है, बता दिया कि पहली तारीख को मेरी तनख्वाह आ जाती है, आप उसे रख लेना, और क्रेडिट कार्ड भी है, लैपटॉप है, मोबाइल है, कपड़े हैं पर… अभी मुझे मार डालो न ना ना… मुझे डॉक्टर के पास ले चलो।

दोनों हँसते हैं। अनिकेत से लैपटॉप और बैग पैक ले कर पीछे डिग्गी में डाल देते हैं। इसका जूता उतार लेते हैं। मोजे भी। पैर का बंधन खोलते हैं, पैंट उतार कर फिर बाँध देते हैं। उसे लगता है कि शर्ट उतारते हुए वो लोग उसके दर्द का खयाल रखेंगे पर नहीं रखते और फिर जो अनिकेत की दशा होती है वो मरे हुए इंसान के बराबर है। अनिकेत की आवाज, जो किसी गूँज में तब्दील हो चुकी है, उसे खुद समझ में नहीं आती है पर वो कहता है : सारा कुछ तो ले चुके, अब मुझे यहीं छोड़ दो।

लकी कहता है : थैंक्स फोर योर मनी ऐंड एवरीथिंग पर अभी तो आपकी शिनाख्त बाकी है मेरे दोस्त। ये मुल्क हमारा है। कार दौड़ रही है और अनिकेत के भीतर सब कुछ सूख चुका है। डर और चिंता से अलग जीने भर के लिए जो मामूली साहस चाहिए, वो भी अनिकेत को छोड़ चुका है।

उम्मीद की लकीर धुआँ धुआँ दिख रही थी। उसका फोन लाऊडस्पीकर पर डाल कर लकी, रितु को फोन मिलाए जा रहा था, और कह रहा था : अनिकेत साहब, आपको प्रेम की बाबत झूठ नहीं बोलना चाहिए था। अनिकेत के पास इतनी भी क्षमता भी नहीं बची थी कि वो चुप रहने का भी निर्णय ले पर उसकी जबान नहीं फूटी।

फोन रितु नहीं उठा रही थी। सब कुछ ले चुकने बाद दोनों की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। कार अब जी.टी. रोड पर थी और दो सवारियाँ देख कर लकी ने फोन रख दिया, कहा : अनिकेत साहब अब बता भी दो कौन हो आप। पता नहीं किसका नंबर दिया है? और हम सच्ची पुलिस के पचड़ों में नहीं पड़ना चाहते। अनिकेत अब भी इनके इशारे नहीं समझ रहा था, कहने लगा : मेरा फोन नंबर देख वो नहीं उठाएगी। उसे एक एस.एम.एस. कर दो।

लकी मुस्कुराया। कहा : मान लो अभी हम तुम्हारी हत्या करें, उसके ठीक पहले तुम किससे बात करना चाहोगे। अपनी मृत्यु के बाबत विचार मात्र से वो चिहुँक गया। उसकी समझ ही में नहीं आया कि सामने वाला ऐसा क्यों कह रहा है? अब उनके कहे पर इसे भरोसा हो गया था। पहली बार उसने यह सोचा कि वह मर भी सकता है। उसने अपने स्वप्निल जीवन के कितने चंदोवे तान रखे थे। इस भय को आत्मसात करने में उसे कई मिनट लग गए।

मृत्यु के खौफ से उसकी लुटी हुई चैतन्यता वापस आ रही थी। सड़क और अँधेरा, सब साफ साफ दिख रहे थे। अब जितना भी उसका जीवन बचा था, वह समझ नहीं पा रहा था कि उस मामूली समय में वो क्या क्या कर डाले? क्या क्या सोच डाले? उधर जैसे ही लकी ने इसके बाएँ हाथ पर अपना हाथ रखा, वो बोल पड़ा : रितु से। लकी : गुड ब्वाय। जानते हो मेजर, ये पहला शिकार है जिसे मारने का मन नहीं हो रहा। अनिकेत ने फिर रितु को फोन मिलाया पर रितु थी कि फोन नहीं उठा रही थी।

अनिकेत यही चाहता था।

यह फोन कॉल अँधेरे की छत में आखिरी सुराख थी। अनिकेत जानता था कि रितु उससे नाराज है और उसका फोन नहीं उठाने वाली है। अब जब तक वो किसी बहाने से उसे मना न लेगा, दिल्ली जा कर, उदास मेल लिख कर, पैर की चोट उभरने की बात का बहाना ले कर (इस बहाने पर वो अनिकेत को देखने चंडीगढ़ चली आई थी और पाया था कि महाशय आराम से घूम रहे हैं, जो डाँट लगाई थी कि पूछिए मत। मान मनौवल की शर्त इस पर टूटी थी कि रितु को सेक्टर सतरह के बुक स्टाल से जेम्स जॉइस की फिन्नेगंस वेक, यियुन ली की थाउजेंड ईयर्स ऑफ गुड प्रेयर्स और जोनाथन को की द टेरिबल प्राईवेसी ऑफ मेक्स्वेल सिम दिलाई जाए)बुलाया जाए वरना तब तक वो नाराज रहेगी और अब यही खासियत अनिकेत की जान बचा सकती थी।

अगर इसी तरह, सुबह हो गई तो? यह इनके संबंध का सबसे बुरा हिस्सा था जो इतना कारगर साबित हो सकता था, तो सोचो जरा, अच्छा कितना अच्छा होगा? अनिकेत को जब यह सिहरता हुआ खयाल आया तो उसने अपने आप को समेट कर कहा : लकी, तुम जो कहो, मैं करने के लिए तैयार हूँ, जो माँगों, मेरी सारी जमीन, जायदाद… मैं अपने शरीर का जूता बना कर आप लोगों के पैरों मे पहनाऊँगा पर प्लीज, मुझे जिंदा कहीं उतार दो। तुम्हारा बहुत एहसान होगा। मैं पुलिस में नहीं जाऊँगा। मेरा भरोसा करो।

रितु के फोन नहीं उठाने की खीझ लकी के चेहरे पर दिख रही थी। लकी, अनिकेत से : तुम्हारे जैसे नामुराद, जीवन के आखिरी मौके पर माँ पिता को छोड़ प्रेमिका से बात करना चाहते हैं, और तुम जिंदा रहना चाहते हो? ये बताओ, दिल्ली में क्या उड़ाने का इरादा है? बठिंडा पॉवर प्लांट क्यों आए थे? क्या चाहते हो तुम लोग? अनिकेत की खीझ झलक आती है, लकी से कहता है : मैं भी उतना ही इस देश का हूँ, जितना तुम हो। मैं लुटेरा नहीं हूँ।

अनिकेत का बायाँ हाथ लकी, धीरे से अपने हाथ में ले लेता है। इतने मात्र से अनिकेत का चेहरा विद्रूप हो गया। लकी, अनिकेत से : हम लुटेरे हैं? अनिकेत : नहीं। लकी : कौन लुटेरा है? लकी, मेजर से : गाड़ी कच्ची पर उतार… लकी, अनिकेत से : लुटेरा कौन है? अनिकेत मन ही मन यह भाँपता है कि लकी ने रितु को फोन मिलाना बंद कर दिया है और उसने अपनी साँस रोक ली है। लकी, अनिकेत के अँगूठे को छूना शुरु करता है, पूछता है : बठिंदा क्यों आए थे? दंगे के दिन बाहर क्या कर रहे थे? अनिकेत अपनी बात [सेल्स मीट में आया था…] पूरी भी नहीं कर पाता कि लकी उसका अँगूठा खींच देता है। चीख-रुलाई तो दरकिनार करिए, अनिकेत वहीं के वहीं गिर जाता है। होश बाकी है। लकी, अनिकेत से : बठिंडा क्यों आए थे? अनिकेत के शब्द नहीं फूट रहे हैं। पायदान की धूल उसके मुँह पर चहलकदमी कर रही है। लकी के हाथ में वो बाँह अब भी है।

अनिकेत, लकी से : बठिंडा ही क्यों? अनिकेत समर्पण कर देता है, कहता है : पॉवर प्लांट के लिए। लकी उसका हाथ जोर से फर्श पर पटक देता है। मेजर से गालिबन अंदाज में कहता है, क्यों मैं न कहता था। मेजर की कलाई घड़ी में मंगलवार बीत चुका है, इसलिए खुद रस्सी उठाता है। लकी गाड़ी के अंदर है और मेजर उधर का दरवाजा खोलता है, जिधर अनिकेत की गर्दन पड़ी है जबकि रितु के फोन का रिंगटोन बज रहा है।

पंजाब में गन्ने की खेती कम होने तथा मेजर के गलत जगह के चुनाव की वजह से लकी चिढ़ा रहता है। इसलिए मुख्य सड़क पर आते ही वो मेजर को गालियाँ देने लगा। गोबिंदगढ़ मंडी तक आते आते उसकी गालियाँ सूख चुकी थी और नींद भी घेर घेर कर मार रही थी कि तभी एक सरदार जी दिखे। उनके साथ एक महिला थी और दोनों कार के पीछे आ रही बस को देख खड़े हो गए। मेजर ने रेस दबा दिया।

मेजर, लकी से : दो हैं। लकी: किराए की बात करना, मुफ्त बैठाओगे तो नहीं आएँगे।

मेजर : दिल्ली? सरदार : नहीं, अंबाला। मेजर : चालीस रुपए। तब तक बस आ पहुँचती है और सरदारनी बस से चलने की जिद करती है। सरदारनी कहती है, बस छूट जाएगी। सरदार सोचता है, बस रुकते रुकते जाएगी। समय ज्यादा लग जाएगा। लकी इनके हाँ, ना का मूड भाँप रहा है। कहता है; वो जी, बस तो आपको अंबाला कैंट पर ही छोड़ देगी। हम शहर तक ले चलेंगे। सरदार, सरदारनी की ओर हँस के देखता है।

दरअसल, अंबाला कैंट से अंबाला शहर आठ किलोमीटर दूर है। कैंट से ऑटोरिक्शा रात दिन मिलते हैं, पर रात में वे रिजर्व ही जाते हैं और मनचीती कीमत वसूलते हैं। जितना सरदार को पता है उसके मुताबिक रात में ऑटोरिक्शा से सफर असुरक्षित है। दूसरी तरकीब यह है कि अंबाला छावनी पर उन बसों का इंतजार किया जाए, जो शहर की तरफ ले जाएँ। अपने करीब के बस स्टेशन से घर के लिए रिक्शे का इंतजार लंबा हमेशा नहीं होता पर अक्सर बहुत समय जाया जाता है, क्योंकि कालका चौक से आगे बढ़ते ही आप पाएँगे कि सड़क की मरम्मत चल रही है और महीनों से चलती आ रही है।

(कथा शीर्षक : जगदीशचंद्र के उपन्यास ‘जमीन अपनी तो थी’ से)

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जमीन अपनी तो थी – Jamin Apani To Thi

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