जब पहली बार छोड़ रहा था गाँव | प्रदीप त्रिपाठी
जब पहली बार छोड़ रहा था गाँव | प्रदीप त्रिपाठी

जब पहली बार छोड़ रहा था गाँव | प्रदीप त्रिपाठी

जब पहली बार छोड़ रहा था गाँव | प्रदीप त्रिपाठी

सोचा भी न था
छोड़ना होगा मुझे भी अपना गाँव
जब
पहली बार छोड़ रहा था गाँव।

दो कदम आगे बढ़ा ही था कि
मेरी निगाहें माँ के उन आँचल से लिपटी ही रह गई थी
जिनसे लिपटने के बाद
मुझे क्षण भर में ही मिल जाता था सुकून
मुझे याद नहीं,
कितनी देर तक नहीं उठा सका था
वहाँ से अपनी पलकों को,
शायद फिर से याद आ गया था
मुझे, खेलता-कूदता हुआ अपना बचपन
जब
पहली बार छोड़ रहा था गाँव।

अचानक खिंची चली गई थी मेरी निगाहें
मलदहवा आम की तरफ
जिनकी डालियों को हल्के हाथों से थामे
सिसकते नजर आ गए थे मेरे पिता जी
जब
पहली बार छोड़ रहा था गाँव।

बहन को देखते ही याद आ गए थे
बचपन से अब तक के सारे किस्से
झलक रही थी उसकी नम आँखों में
मन की सारी उत्कंठाएँ
मानों, माँग रही थी
मेरे रक्षाबंधन के हाथ
जब
पहली बार छोड़ रहा था गाँव।

भाभी को देखते ही
उनसे कहीं ज्यादा याद आ गए थे
उनके हाथ का बनाया हुआ ठेकुआ, गुजिया
छोटका भाई और भतीजे की आँखों को भी
झाँका था उस वक्त
जैसे मैं सौंप रहा था अपनी सारी संवेदनाएँ, जिम्मेदारियाँ
अब भाई के ऊपर
जब
पहली बार छोड़ रहा था गाँव।

बुढ़िया गाय ने भी अपलक देखा था एक बार
सिर भी हिलाया था, जैसे मुझे रोक-रोक दे रही थी इजाजत
जब
पहली बार छोड़ रहा था गाँव।

चलते-चलते तोड़ लिए थे सरसो के कुछ पीले फूल
हरी मटर के कुछ दाने, दूधिया गेहूँ की बालें भी
जब
पहली बार छोड़ रहा था गाँव।
भूल गया था पिता के हाथ के दिए हुए छुटकन पैसे
जब पहली बार छोड़ रहा था गाँव

सोचा भी न था,
मुझे भी छोड़ना होगा अपना गाँव
जब
पहली बार छोड़ रहा था गाँव ।

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