जब लौटना संभव नहीं होता | प्रदीप जिलवाने
जब लौटना संभव नहीं होता | प्रदीप जिलवाने

जब लौटना संभव नहीं होता | प्रदीप जिलवाने

जब लौटना संभव नहीं होता | प्रदीप जिलवाने

रात अपने लिए थोड़ी सी नींद बचा रखेगी
और हम अपनी आँखों में पानी
इससे पहले कि चाँद नीमबेहोशी में चला जाए
हम अपने हिस्से के दुख उससे कह लें
ताकि कल जब वह जागे और फिर सामने हो
उसके पास हमें देने को कम-से-कम दो शब्द हो

मैं जानता हूँ, एक लौटने की प्रतीक्षा में
किसी पागल उदासी का अनशन भी शामिल होता है
मगर न लौट पाने की हताशा
बीमार शब्दों की शैय्या पर अपनी उखड़ी हुई साँसें
सँभालती है किसी तरह
और जिस तरह लौटा जाता है
ठीक उस तरह लौटना संभव नहीं होता

किसी सितम की तरह गुजरती हैं ख्वाबों से होकर मेरे
कहीं न पहुँच पाई मेरी सारी पीड़ाएँ
और मेरे होने को तहस-नहस करती हैं रोज
तसल्ली के जो दो शब्द मेरे पास हैं,
कभी कभी लगता है, उन्हें भी किसी कचरा-पेटी से
उठाकर धर गया है कोई मेरे पास

हम अपनी आँखों का पानी कभी सूखने नहीं देंगे
और जब कभी ऐसी कोई नौबत आई
तुम्हारी स्मृतियों के गहरे ताल में उतर जाएँगे

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