इतवार की एक सुबह | मणि मोहन
इतवार की एक सुबह | मणि मोहन

इतवार की एक सुबह | मणि मोहन

इतवार की एक सुबह | मणि मोहन

यह एक अलग तरह की सुबह है
और सुबहों से एकदम अलग
देसी गुलाब की तरह खिली हुई
इतवार की सुबह

काँव-काँव करता हुआ एक कौआ
अभी-अभी उड़ा है किसी दरख्त से
एक पल के लिए
मैं अपने अधिकारी के बारे में सोचता हूँ
और खिलखिलाकर हँस पड़ता हूँ
यह कल्पनाओं की सुबह है

बगीचे की बाउंड्रीवाल पर
दौड़ती हुई निकल जाती हैं
दो नन्हीं गिलहरियाँ…
उफ्फ ! मैं तो भूल ही गया उनसे पूछना
सेतु-समुद्रम की कथा –
भूलने से याद आया
यह तो भूलने की सुबह है

एक-एक कर बुहारना है अभी
सप्ताह के बाकी तमाम दिन
और फिर बगीचे में गिरे हुए
सूखे पत्तों के साथ
उनमे आग लगानी है –
हालाँकि मुझे पता है
वे फिर पैदा होंगे
अपनी ही राख से
फिनिक्स की तरह…

बहरहाल
फिलवक्त मुझे
सिर्फ इस सुबह के बारे में सोचना है
जो खिली हुई है
अपराजिता की लता में
नीले रंग की तितली बनकर।

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