इस तट पर कोई नहीं अब | आरती
इस तट पर कोई नहीं अब | आरती

इस तट पर कोई नहीं अब | आरती

इस तट पर कोई नहीं अब | आरती

मेरे मन में बहती है एक नदी
नदियों के स्तुतिगान में कहीं नहीं आता
उसका नाम 
प्रदेश और महिमा
कोई इतिहास नहीं 
कोई साहित्य नहीं
किसी संस्कृति का जन्म नहीं हुआ इस तट पर
जब भी सुनती हूँ कोई आयान
किसी नदी के जन्म को लेकर
या नदियों को मनाने रचे गए स्तोत्र
गंगा चैव जमुना कृष्णा कावेरी… जैसे कि
सात सुरों के आरोह अवरोह के बीच तब
मुझे सुनाई देता है सिर्फ तुम्हारा ही
धीरे धीरे ऊपर उठता आलाप
क्या होती हैं नदियाँ
क्यों होती हैं नदियाँ
कैसे बनती हैं नदियाँ?
क्रोध से बनती हैं तप से या ताप से
तृष्णा से पीड़ा से प्रार्थना से श्रम से
या समुद्र के खार को सोखने के लिए पैदा हुईं नदियाँ
ये रहस्य मुझे किताबों ने भी नहीं बताया
हाँ नदियों का जिक्र आते ही
कोई विशाल पर्वत सामने आ खड़ा होता है
हिमवर्णी केश छितराए
गाढ़े हरे रंग की चादर ओढ़े
वह हाथ फैलाए मेरी ही ओर आ रहा है
मैंने टटोला नदी को मन के भीतर
जब जब अँजुरी में भरा पानी तो लगा
जैसे स्त्री ही होती हैं नदियाँ
पाप छोनेवाली
शाप ढोनेवाली
शिव की जटा से लेकर
गगरी तुमडी मसक और कमंडल में ढल जानेवाली
बाढ़ भी होती हैं नदियाँ
मैंने देखा है धूसर पानी छूकर
धीरे धीरे निगलते किनारों को 
खजूर के पेड़ और भगवत की अमरूदों वाली बगिया को
और धुँधलके तक भी नहीं उतरी बाढ़ तो
बत्तख की तरह तैरतीं गाय बकरियों को भी देखा है
मैंने जाना है नदी के सुख को धार बीच बैठकर
जाना मौन को व्याकुलता को
उसकी प्रतीक्षा को हताशा को विश्वास को
नदी के क्रोध को भी जाना मैंने
मैंने जाना नदी के देह बदलते मौसमों को
बदलते रंगों को जाना
उल्लास से दमकती आँखों और
थकान से चूर चूर देह को भी
इन दिनों नदी मेरे सपनों में आती है
पर वैसी नहीं जैसी हरहराती आती थी
वह उदास दिख रही है
उसकी शुभ साड़ी का आँचल मलिन हो रहा है
रो रही है वह जार जार
वैसी ही, जैसी रोती थी
विदा होती हमारे गाँव की बेटियाँ
ठीक ऐसे ही रोई थी वह स्त्री
किसी लोकगीत की नायिका
सूनी गोद लिए, आँचल फैलाए
किसी नदी के तट पर
नदी न जाने कितने आँसुओं को पीकर
कृशकाय हो गई
गौरवर्णी धूमिल हो गई
पलट रही है वह स्मृतियों के पन्ने
शब्दों पर गिर रहे हैं आँसू
स्याही फैल रही है मेरे मन पर

कोई नहीं आता अब इस तट पर
जहाँ होते थे मिलाप विलाप
शिकवे शिकायत
हास परिहास
अनुराग विराग
अर्पण तर्पण और विजर्सन तक
पाँच पाँच गगरियों का रहस्य
सिर पर सजाए
चाल की ताल से संगत बिठाती
वे पनिहारिनें अब नहीं आतीं
वे कोलिनें भी नहीं आतीं
जो रेत पर पटक लकड़ियों के गट्ठर
चुरुआ भर भर पानी पीती थीं
नहाती थीं घंटों
फटी एड़ियाँ रगड़ती थीं
एक एक छोर लुगरी का सुखातीं वे
अब नहीं आतीं
नहीं आतीं पीसन धोवन वाली
काँदा कोदोवाली
चार चिंरौंजीवाली
नहीं सूखती रंग बिरंगी साड़ियाँ रेत पर
नदी नहीं बन पाती अब
किसी युवती की लाज का आँचल
हरितालिका की भोर का शोर गायब है अब
बालू के शिव पार्वती कोई नहीं बनाता
नदी अब भूल चुकी है
सरमनी ऋषिपंचमी और महालक्ष्मी पर्वों की तिथियाँ
अर्धचेतना में सोई हुई वह
गाहेबगाहे आवाज दो तो
घंटों बाद आँखें खोलती है
अब नदी परंपराओं का अक्स नहीं है
मुलाकाती ठौर भी नहीं
अब नदी के प्रसंग में नवीन नियमावली तैयार हो चुकी है
कि अच्छे घरों की बहू बेटियाँ
यूँ नदियों में नहीं नहाया करतीं
नदी अब एक दलित धारा है
अश्पृश्य सूतक की प्रतीक
नदी का एक एक आँसू कैनवास वन
दिखा रहा है रंगीन वृत्तचित्र
मैं चेहरे पर हाथ रखे एक टक देखे जा रही
मेरी आँखों के सामने से गुजर रहा मेरा बचपन
मैं बालों में झागवाला साबुन लगा कौतुक कर रही
इस रेतीली नदी का रेत हाथों से हटाकर
ओर गहरा किए जा रही
कितने मंदिर और घरोंदे बनाए हैं सहेलियों के साथ
अब जिस तरह नदी जा रही हमारे जीवन से
जरूरी हो गया कि उसका भी एक चित्र बनाकर
सहेज लिया जाय
स्वाद की तरह बसा लिया जाय जीभ में
जैसे कि सहेजे थे वर्षों पहले
आंमला नौवी के खट्टे मीठे स्वाद
बढ़ रहा है सन्नाटा किनारों पर
और ईंट भट्टों की संख्या भी बढ़ रही है
पानी गायब हो चुका है लगभग और 
पुल निर्माणाधीन है

अब यहाँ आते हैं रोजाना
नदी का अर्थतंत्र टटोलने
धूल उड़ाते ट्रक ट्रालियाँ
और दिन में देखे सपनों की मानिंद 
ग्राम विकास के एजेंडे
नदी को सारे रहस्य पता हैं शायद
कि लुटेरे बढ़ आए हैं गंगा-महानदी के कछारों तक
इसीलिए तो वह अगस्त मुनि की तरह
खुद ही सुड़कती जा रही है धीरे धीरे
अपना पानी
रोज ही रोज सिकुड़ती जाती जलधार
ज्यों तन से मज्जा
पेड़ से पत्ते
काया से उमर
चिड़िया की एक आँख वह और
बाण साधे खड़े हजारों शिकारी
अब नदी बाँध है समझौता है
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा है
योजना है परियोजना है
सेमिनार एनजीओ वर्कशाप है
करोड़ों का निविदा प्रपत्र है नदी
अब नदी के मायने गाँव के पार एक निर्जन स्थान है
दऱतों का दर्पण नहीं है नदी
अपनी पीठ पर लादे वह लोकगीतों की
उत्सवों और परंपराओं की गठरी चली जा रही
या धँसती ही जा रही किसी अटल लोक में
अब नदी अहसासों के पार कौंधता एक शद है
पानी नहीं है
पंचायती राज है अब गाँव में
घर घर नल लग चुके हैं
हर मुहल्ले में नलकूप खुदे हैं
और जलसंरक्षण योजना ने 
दसियों बीसियों बड़े बड़े गड्डे खुदवा लिए हैं
सरकारी कागज इन्हें तालाब कहते हैं
कहीं नहीं बचा पानी
प्यासे जीव जंतु
प्यासे गाछ पात
कुएँ बावड़ियाँ भी प्यास से मर रहे हैं
नदी अपने पीछे छोड़े जा रही अमिट प्यास का सिलसिला
अवसान की देहरी पर बैठी वह
घर की सबसे बूढ़ी जैसी
अपने मोटे चश्मे को बार बार पोंछती
पल्लू में बँधी मीठी गोली हर एक को बुला बुलाकर खिलाती
कभी कभार कोई पास बैठ जाए तो
यादों की जंग खाई संदूकची टटोलने लगती है
तुम्हारी उँगली पकड़ चलना सीखे
भीतर गहरे धँसकर तैरना सीखे
बच्चे गाँव के
खूब पढ़ लिख गए
शासक प्रशासक कवि चित्रकार बन गए
वे दूर समंदरों की सैर कर आए
अब नदी उनके लैपटाप के स्क्रीन पर झिलमिलाती है
वे मोबाइलों और टेबलेटों के साथ गुनगुनाते हैं नदी का गीत
दुनियादारी का गणित जान बूझ चुके वे
समझदार माँ बाप बन गए
उनके नौनिहाल और भी समझदार
उन्हें पता है बोतल बंद पानी कीटाणु मुक्त है
वे नहीं आएँगे तुम्हारे पास
मुझे भी कहाँ फुरसत है
तुम रोओ नदी
बेशक दिन रात रोओ
और रोते रोते एक दिन रेत हो जाओ

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