इस गृहस्थी में | जितेंद्र श्रीवास्तव | हिंदी कविता
इस गृहस्थी में | जितेंद्र श्रीवास्तव | हिंदी कविता

देखो तो कहाँ गुम हो गई रसीद!

देखो न
तुम तो बैठी हो चुपचाप
अब हँसो नहीं खोजो
बहुत जरूरी है रसीदों को बचाकर रखना

हम कोई धन्ना सेठ तो नहीं
जो खराब हो जाएँ हाल-फिलहाल की खरीदी चीजें
तो बिसरा दें उन्हें
खरीद लाएँ दूसरी-तीसरी

हमारे लिए तो हर नई चीज
किसी न किसी सपने का सच होना है
हमारे सपनों में कई जरूरी-जरूरी चीजें हैं
और खरीदी गई चीजों में बसे हैं कुछ पुराने सपने

उठो, देखो न कहाँ गुम हो गई रसीद!

उसे महज एक कागज का टुकड़ा मानकर
भुलाना अच्छा नहीं होगा
वह रहेगी तभी पहचानेगा शो-रूम का मैनेजर
कुछ पुराने-धुराने हो गए कपड़ों के बावजूद
उन्हें बदलना पड़ेगा सामान

अभी बहुत कम है वेतन
मैं नहीं ले सकता क्रेडिट-कार्ड
उपयोगी चीजों के लिए भी नहीं हैं पैसे
मैं नहीं खरीद सकता सजावट के सामान

वैसे अच्छा है
तुम मुझसे ज्यादा समझती हो यह-सब
बड़े हिसाब-किताब से चलाती हो घर
लेकिन इस समय जब मैं हूँ बहुत परेशान
तुम बैठी हो चुपचाप

उठो, देखो न कहाँ गुम हो गई रसीद!
 

अरे, यह क्या
अब तो तुम्हारे होठों पर आ गई है शोख हँसी
लगता है जरूर तुमने सहेज कर रखा है उसे
अपने लॉकर वाले पर्स में
चलो इसी बात पर खुश होकर
मैं भी हँस लेता हूँ थोड़ा-सा

यह अच्छा है इस गृहस्थी में
जो चीजें गुम हो जाती हैं मुझसे
उन्हें ढूँढ़कर सहेज देती हो तुम

मैंने अब तक किए हैं आधे-अधूरे ही काम
जो हो सके पूरे या दिखते हैं लोगों को पूरे
उनका सारा श्रेय तुम्हारा है।

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