इन कविताओं का कवि एक सपने में मारा गया | रविकांत
इन कविताओं का कवि एक सपने में मारा गया | रविकांत

इन कविताओं का कवि एक सपने में मारा गया | रविकांत

इन कविताओं का कवि एक सपने में मारा गया | रविकांत

दुर्भाग्य या जो कहिए
मेरी अब तक की सब विदेश यात्राएँ
किसी न किसी दुर्घटना के उपरांत आयोजित
शोक में
शरीक होने के लिए ही हुई हैं।
इसी तरह की
अपनी एक दुर्घटना जनित यात्रा के दौरान
जबकि मैं बेहद खिन्न था
और मुझे
न तो जर्मन टावर अच्छे लग रहे थे
और न ही ब्रिटिश गृह-शिल्प
मुझे ओटावा स्थित
एक यूरोपीय विश्व भाषा संस्थान ने
एक प्रतिष्ठित प्रवासी भारतीय कवि की याद में
उसकी कविताओं के काव्य-श्रवण हेतु बुलाया।

चूँकि! इस कवि की कविताओं का मैं कायल था
और हाल ही में अनेकशः पुरस्कृत
इस कवि के
समुद्र में कूद कर गुम हो जाने के कारण
अब इस विख्यात कवि पर आयोजित कार्यक्रम में
न जाना एक हिमाकत थी, और
अपने देश के प्रतिनिधित्व का भी सवाल था
इसीलिए मुझे इस कार्यक्रम के प्रति
कुछ महत्वाभासी भावनाओं के साथ
टैक्सी द्वारा तीन शहरों को लाँघ कर
खुशी-खुशी वहाँ जाना पड़ा।
मैं समय से पहुँच गया था
कार्यक्रम के शुरू होने में कुछ विलंब हो रहा था
मेरी उत्सुकता पर किन्हीं जापानी श्रीमान मा शुकोन ने बताया कि
सभागार के नियमों के अनुसार
कार्यक्रम शुरू होने से पहले
सभी दरवाजों को
बंद किए जाने की प्रतीक्षा हो रही है।
पर भीड़ बढ़ती जा रही थी।

बहरहाल, शेष साहित्य-प्रेमियों को
कॉरीडोर की दीवारों पर लगे
ध्वनि-प्रसारकों के भरोसे
बाहर ही रोक कर
कार्यक्रम शुरू हुआ।

आरंभ में ही
पर्दे के पीछे से नमूदार होकर
एक स्थानीय मंत्री
श्री बी.आर. शेरिफ ने
एक सनसनीखेज खबर से
सभा में खलबली मचा दी

उन्होंने बताया कि
एक बहुत ही भले और अविवादित ईश्वर ने
हमारे प्रिय कवि को समुद्र से बचा कर
पाताल स्थित
अपने जल-गृह में छुपा लिया था।
कुछ ही दिनों में
वहाँ के पिटे हुए ठाट से ऊब कर
जब कवि ने
पृथ्वी पर वापस जाने की आज्ञा माँग ली
तब जलाधिपति ने
जल-गणिकाओं में सबसे रूपवती कुमारी
अमान्या के साथ
उसे वापस भेज दिया।

श्री शेरिफ ने
कुछ तफरीह के साथ कहा –
मित्रो, अफसोस है कि
नॉरफॉक तट पर तैनात दो तट रक्षकों ने
कवि को छोड़ कर जाती हुई कुमारी
अमान्या को देख कर
उत्साह और जलन से विह्वल हो –
उसी रात समुद्र में उतर कर
अपनी जान गँवा दी।

आगे, अपनी आवाज को
कुछ रहस्यमय बनाते हुए
श्री शेरिफ ने यह खबर खोली –

”और अब, यहाँ
आपको जानकर हर्ष होगा कि
हमारा यह भोला-भाला कवि
इस सभागार में उपस्थित है
और मंच पर आने को उत्सुक भी
परंतु
यहूदियों के पक्ष में
एक
बयान दे देने के कारण
उसकी जान का खतरा हो गया है।
अतः मौके की नजाकत को देखते हुए
वे यहाँ, एक सुरक्षा-कवच की आड़ में ही
उपस्थित होंगे
और स्वयं अपनी कविताओं का वाचन करेंगे।”

इस नाटकीय खुशी से उत्तेजित जनता की
देर तक चली हर्ष-ध्वनियों के बीच
काले आवरण के साथ
कवि की मानवकृति
मंच पर प्रकट हुई।

जनता के प्रेम को
अपने ह्दय-माथे से लगाते हुए
कवि ने
अपने प्रशंसकों से
समुद्र में कूदने की अपनी त्रासद मजबूरी का
सांद्र और मार्मिक उल्लेख करने के बाद
समयाभाव को देखते हुए
सीधे अपनी ताजा कविताओं का पाठ
आरंभ किया।

(सभागार की रोशनी बुझा दी गई
मंच पर
सिर्फ एक प्रकाश स्तंभ दिख रहा था
जो उस धनुषाकार
काले स्क्रीन के आगे पड़ रहा था
जिसके पीछे
कवि को बैठाया गया था)

कवि की
ओजस्वी वाणी एवं मंतव्य को
अपलक सुनने और अपनी अच्छी स्मृति के कारण
वैसे तो मुझे स्वयं भी उसकी ये कविताएँ पंक्तिशः याद हैं
परंतु यहाँ
उस कार्यक्रम के काव्य-कैसेट का
लिप्यं तरण ही प्रस्तुत है –

(एक क्रम विशेष में लिखी
अपनी इन शीर्षकहीन कविताओं को
कवि ने
अपने मूल स्वरों की रुखाई में, भरसक
विनम्रता और सहजता घोल कर पढ़ा)

1

”दिन बहुत बुरे बीत रहे थे
ऊब से भरे दिन
जो बात सोची थी
उसे कर नहीं सका था
इसीलिए और भी
उखड़े-उखड़े-से लग रहे थे दिन,
कि तभी
मैं सीढ़ियों से फिसलकर, अपना
हाथ तुड़ा बैठा।

यह एक इतनी रोचक घटना थी
कि क्या बताऊँ!
एक खिसियाई हुई ऊब में
इस तरह अचानक
अपने बाएँ हाथ का सम्मानित हो जाना
बहुत अच्छा लग रहा था।
लोगों से घिरकर
ऊर्जा और विनम्रता से भरकर
मेरे हृदय में
उस रोज से
न जाने कैसी भाव-पीड़ा शुरू हुई
कि आज तक मैं उसमें ही फँसा हूँ
कि मैं अपने सीने को
कभी तकिए, कभी हथेली से
दबाता ही जाता हूँ

आँखों में आते-जाते हैं आँसू
तो लगता है
बात तो कुछ और ही है
जिस पर
भावुक हो रहा हूँ इतना।
क्या बात है? सोचते हुए
चिटकनी लगा, मैं कमरे में टहलता हूँ,
धीरे-धीरे, रुक-रुक कर।
कभी मेज से टिक कर खड़ा होता हूँ
कभी दरवाजे पर पीठ टेक
और कभी
खूँटी पर टँगे कपड़े को
जोर से, मुठ्ठी में भींच कर छोड़ता हूँ।
क्यों दुखी हूँ मैं? क्यों, सोचता हूँ।

2

”विनम्रता और ज्ञान का भंडा-फोड़
आदर्शों का सत्यानाश
और कोई स्थानापन्न नहीं!
अधूरे-अधूरे-से मेरे
बनते-टूटते-से विचार
लोगों के बीच
केंद्र में आता-जाता-सा
आत्मकथा से बहुत बचते हुए
पर आत्मकथा के बिना अधूरा, मैं
बार-बार
समय के डस्टबिन में झाँकता हुआ
ढूँढ़-ढूँढ़ कर
चमकाता हुआ
कोई प्राण-रक्षी संदर्भ।

ऐसा हो रहा हूँ मैं।
इतना चतुर इतना चालाक
फिर भी दुखी और चुप।

3

”मैं कलम तोड़ दूँगा
अपना हाथ चीरकर उस पर पट्टी बाँध लूँगा।
फिर उसी हाथ से लिखूँगा तुम्हें एक पत्र
पत्र में बहुत-सी बातें होंगी, पर
मैं नहीं लिखूँगा उसमें
अपने इस बदल गए डेरे का मंत्र।

यह पालगपन मैं करूँगा, क्योंकि
इस समूचेपन में बंद होकर
मेरा दम घुट रहा है
मेरे सपनों का जोश खत्म हो गया है
और मेरी लड़ाई किसी से भी नहीं रह गई है
संघर्ष करने के लिए भी
अब मुझे इश्तिहार देना पड़ता है।
मैं बदरंग हो चुका हूँ
और
लोग मेरे चढ़ाव का दिन याद कर
मुझे अब भी पत्र लिख रहे हैं।

सच मानो,
मैंने बहुत से पागलपन छोड़ दिए हैं
इसीलिए आज
‘चिकना’ हो गया हूँ।

4

”इस देश की विकल्पहीन राजनीति के खिलाफ
मैं सबसे हरामखोर प्यादा हूँ
मै, जो कि अपनी बंदूक पोंछ कर
उसे अपने मुहल्ले की धूप में चमकाता हूँ
हाँ, मैं ही, जो कि
शहर भर मैं मँडराते भूखे बच्चों को
महज संवेदना से देख कर
अपनी विचार धारा पर गर्व करता हूँ।

जनाब मैं ही वह दो-मुँहा नायक हूँ आपका
जिसके अघाए हुए याचक मुखों की संख्या
मुझे याद नहीं।

मैं चीख-चीख कर
लोगों से कहना चाहता हूँ
झिंझोड़-झिंझोड़ कर
आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ
कि मैंने अब तक जो कुछ भी कहा
सब सत्य था
आगे सत्य ही कहूँगा।

मैंने किस-किसको धोखा दिया
कहाँ-कहाँ मैंने झूठ बोला
जो आप नहीं सोच सकते
ऐसा मैंने क्या कर दिया
मैं बता रहा हूँ
आप धैर्य रखें।

कैसे मैंने बहुत जल्द
जवानी की सब सीढ़ियाँ पार कीं,
बचपने को फाँद कर, कैसे
मैं आया था गंभीर लोगों की दुनिया में
आज पहली बार
मैं सब कुछ बताने जा रहा हूँ।

भाषा को
अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने से पहले ही
मैंने किस तरह उसे
ढक्कन, चादर, लिहाफ और पर्दा बना दिया
धीरे-धीरे सब कह रहा हूँ

मैं एक ओजस्वी शक्ति ही था
किसी मजबूत युवक की हथेली-सा, आरक्त
टन्न-टन्न गूँजा करता था मेरा ज्ञान!
मनुष्य होने की मेरी संभावनाएँ
कैसे तिनका-तिनका हो बिखरीं
आपको क्या नहीं पता होगा!”
वैयक्तिक विडंबनाओं पर लिखी
अपनी इस कविता-श्रृंखला का पाठ करते हुए
कवि अचानक से चुप हो गया।
देर तक शांत रहे कवि को सुनने के लिए
सभागार का सन्नाटा बढ़ रहा था।

कवि की चुप्पी टूटती न देख
कुछ युवा श्रोताओं की
सहानुभूतिपूर्ण ललकार
मंच तक पहुँचने लगी।

कवि का हाल लेने के लिए
कार्यक्रम संचालक ने बढ़कर
धनुषाकार काले स्क्रीन में प्रवेश किया तो
वह दंग!
कवि है ही नहीं!
अभी तो थे
कहाँ गए!

तुरंत ही
आयोजकों ने यह तय किया कि
कवि के पुनः गुम हो जाने की खबर
यहाँ सार्वजनिक नहीं की जा सकती।

कवि के बीमार होने की
संक्षिप्त सूचना के साथ ही
मंच को आगे से
एक सफेद पर्दे ने ढक लिया।
‘कार्यक्रम संपन्न’ हो चुका था।
लोग कवि के बारे में बातें करते हुए
तमाम सारी सुगबुगाहटों के साथ
अपनी-अपनी राह हो लिए।

अगले दिन अखबारों में
कवि के अस्वस्थ होने की,
और उसके अगले दिन
कवि के रहस्यमय तरीके से
गुम होने की खबर छपी।

समय बीतने लगा
कवि के यहूदी-विरोधियों द्वारा मारे जाने की
अफवाह गाढ़ी होने लगी।
यह भी कहा जाने लगा कि
आयोजक स्वयं भी
अपहरणकर्ताओं से मिले हुए थे।

किंतु
मेरा यह दृढ़ शक था कि
अपनी कविताओं से भी अधिक पैना होने के कारण
कवि निश्चित ही, कहीं न कहीं जीवित है
भूमिगत है।

और सच ही,
उस दिन, वह मध्यदेशीय परिधि की
एक थरथराती हुई शाम थी
जबकि देश का
मुख्य चुनाव अभी दूर था
अचानक न जाने किसके कत्ल से
या कि अपमान से
धरती फट गई
और उसमें से यह विवादास्पद कवि
बहुत ही शालीनता के साथ
अपनी हथेली में लगी
राख झाड़ते हुए
तनिक सकुचाया हुआ-सा निकला।

मैंने उसे देखते ही पहचान लिया
उसे अपना कत्थई चेक का रूमाल देते हुए
मैंने अपना परिचय दिया।
उसने अपने इस तरह
बिना किसी भय के
पहचान लिए जाने पर
आश्चर्य किया
तो मैंने कहा –

मैंने तो आपके बालों से आपको पहचाना।
आपके बालों की सफेदी
इतिहास में प्रसिद्ध
उस नायक सी हो गई है
जो अपने सबसे बुरे कामों के कारण
लोक में
अपने पूजे जाने की वकालत करता था
और इसके लिए वह
मूर्तिरहित
बड़े-बड़े मंदिर बनवाता था,
जिनमें
मूर्ति-स्थापना के
चौकोर स्तंभकार पीढ़ों के गिर्द लगे
बदरंग पत्थरों पर
अपनी बुराइयों को, अमिट
सुंदर शिल्प में खुदवाता था।”

मैंने यह भी कहा कि
”अब तो निकलते ही रहते हैं लोग
यहाँ-वहाँ
इसी तरह पृथ्वी के भीतर से
धरती नहीं समझ पाएगी हमारे समय को कभी
अब भी जब
मोटी नहीं हो सकी है उसकी त्वचा।”

मुझे चुपचाप सुनते हुए कवि ने
मेरी भाषा और पकड़ की तारीफ करते हुए
अपने लंबे और दुर्बल हाथों से
मेरे कंधों को थपथपाते हुए
स्वगत ही कहा –
मैं इसी आर्कषण में लौट आता हूँ।

मेरे साथ अपने
श्लथ पग बढ़ाते हुए, सखेद
उसने कहना शुरू किया –

”हालाँकि मैं उस तरह से
पुराना नहीं हुआ हूँ
पर मैंने एक लंबी अवधि में दोहरा-दोहरा कर
अपनी अपार चतुराई की
स्वाद छायाओं को भोग लिया है।

”कोई मुझे
अपनी सहानुभूति का आश्रय
दे-न दे
मैं अपने धर्म की ओर लोट रहा हूँ।

”कहीं कुछ नहीं है।
विजय का उन्माद है
प्राप्ति का अनुभव है
आह्लाद है
किंतु इस विजय का
प्राप्ति का, फल का
अनुभव का, स्वाद का
कोई भविष्य नहीं है।
इनसे हो कर भविष्य हैं
सिर्फ पछतावे का
पश्चात्ताप का
…संदेश का…।”

कब मैं संबोधित हूँ
कब कवि आत्मस्थ
यह फर्क मिट गया था।
मैंने गौर किया
उसका चेहरा एकदम ही झुका हुआ था।
उसकी आभा उस पर लौट रही थी।

मैं उसकी हथेली अपने हाथों में लेकर
परस्पर अंगुलियाँ फँसाए चल रहा था।

कुछ देर चुप चलते-चलते
उसने अपनी निगाह उठाई
भर नजर आसमान को देखा
और अपनी सब बासी साँस छोड़ दी।
कवि का यह साथ
मेरे लिए किसी भी लिहाज से महत्वपूर्ण था
और मैं इसे
इस भाव सघनता में ही नहीं जाने देना चाहता था

सो मैंने अपने जाने
कवि को छेड़ा –

”क्या हुआ,
क्या सोच रहे हैं, गुरुदेव!”
मेरे इस संबोधन पर
कवि के रोएँ सिहर कर बैठ गए।

उसने कुछ कहा नहीं।
देर से उमड़ रहे उसके आँसू
पलकों को छुए बिना ही
धूल में मिल गए।

मैं भी सहानुभूति की पीड़ा से भर आया
मन हुआ
कवि के गालों को अपने हाथों में ले लूँ
उसे गले लगा लूँ,
पर न तो इसकी जरूरत थी
और न ही इतनी हिम्मत!

मैं इस वक्त
उसकी आँखों में झाँकना चाहता था
मैंने गौर किया
उसका रंग खुल रहा है।

दूर तक
यूँ ही चलते-चलते, जब हम
एक पुराने पीपल की क्षैतिज फैली
मोटी जड़ों पर सुख से बैठे
कवि ने मेरी ओर देखते हुए
कुछ कहना चाहा,
पर उसका गल फँस कर, रुँध गया।
अपने आवेगों को कस कर
उसने इतना ही कहा –
”क्या अब मेरे लिए कोई उपाय नहीं?”

यह मेरे लिए
कचोट और शर्मिंदगी से भरा हुआ दृश्य था।
किसी भी व्यक्ति का यह क्षण
मेरे लिए असह्य था।
मैं एक मनुष्य को
मनुष्य होते हुए देख रहा था।

ऐसे में,
अजब बात है,
मुझे लग रहा था
मै भी उसी के इतिहास से छिटका
कोई गर्म तिनका हूँ,
तो क्यों न
अपनी चुहल-शांति के हित
उससे कह दूँ –

”आपकी आँखें तो जैसे अभी
यौवन के पहले ही पग पर हैं,
उनमें नए-पुरानों का मिश्र
यानी की
महाकाव्यों के नायक-चरित्रों का
लाभकारी सार चमक रहा है।”

दरअसल
मैं कवि से उसके अंतर्द्वंद्वों
और उलझावों पर बातें करना चाहता था
किंतु अब वह
भावुकता के जिस पत्थर पर खड़ा था
वह किसी तुरुप के इक्के के समान
उसे साफ-साफ बचाए लिए जा रहा था!

फिर भी
मैंने साहस कर उससे पूछा –
”क्या वैचारिक गुनाहों की सजा
अधिक कठोर नहीं होनी चाहिए?”

उसने पीपल पर मँडरा रहे कोलाहल की ओर देखा
और एक सधी हुई लापरवाही के साथ कहा –

”ऐसा तो होता ही आ रहा है।
ऐसे गुनाहगारों के अंडज-बीज सबके
समूल नाश का पुराना चलन है।
गुनाहगारों को सिर्फ
बड़े गुनाहगार ही सजा दे सकते हैं
सब लोकों की
यह सुप्त-विश्रृंखलित-अंतःमान्यता है।
समाज, जाति और कौम के
सब बड़े फैसले
आकस्मिक रूप से
ऐसी ही अदृश्यप्राय अंतःमान्यताओं से प्रेरित हो
स्वयं को निर्णायक बना कर लिए जाते हैं।
वैचारिक गुनाहों की बड़ी सजा मिलनी ही चाहिए
दुर्भाग्य से, मिलती ही है।”

चौपर्त की हुई एक हरी पत्ती को फेंकते हुए
जब कवि ने अपनी बात खत्म की
वह कुछ हरकत में आ चुका था
उसका अवसाद
उसके चेहरे के एक खास बिंदु पर
घना होकर सुनहरा हो गया था।

हम फिर चल पड़े थे
धुँधलके में
उसके कदम मुझसे तेज पड़ रहे थे
(जबकि हम तो
सिर्फ टहल रहे थे
या अधिक से अधिक
किसी रेस्टोरेंटनुमा ढाबे की ओर बढ़ रहे थे)

हालाँकि, कवि
मेरे प्रश्नों को विस्तृत फलक पर फेंककर
मुझे हैरान ही कर रहा था
किंतु जहाँ पहले मैं
कवि की कविताओं का ही कायल था
अब उसकी बात-चीत और
उसके नाक-नक्श भी
मुझे लुभा रहे थे।
इसके चलते
वह मुझसे असावधान हो रहा था
यानी कि
मैं उसे पा रहा था।

कुछ दिन हम यूँ ही मिलते रहे
इन कुछ दिनों के मेल-मिलाप के बाद
हमें अपने-अपने कामों से अलग होना था
हमने अपने संपर्कों को ताजा रखने जैसी
सदाशयतापूर्ण बातों के साथ
कवि के अगले जन्म-दिवस पर
उसकी जन्मस्थली
कास्माबाद में मिलने का कार्यक्रम बनाया;
और पाँच माह के
दीर्घ असंपर्क के बाद
हम पुनः मिले।

यह स्थान
जहाँ हम
(अपना वचन निभाने आए थे)
मिल रहे थे,
कास्माबाद के पहले पक्के मकान का खंडहर था
जिसकी एक मात्र सुरक्षित छत
शायद हमारी ही प्रतीक्षा में अटकी थी;
नहीं, केवल कवि की
– यह बात मुझे बहुत बाद में पता चली।

इसी छत के नीचे
देर रात लेटे-लेटे
कवि ने मुझसे
मानो तारे देखते हुए
अपने मन की बातें कहीं –
”मेरे पास सपने बहुत कम थे
मेरी विगत उम्र से बहुत कम;
वे सब लगभग एक ही से थे
जैसे एक ही सपने के कई अंग
– मुँह, नाक, कान, पैर;

”जैसे भी थे
छोटे-बड़े, दुर्बल, रंगीन
धवल या मलिन सपने वे
सब पूरे हुए।

आज मेरे पास
सिर्फ हकीकतें हैं
– मेरे सच हो गए सपनों की
निष्ठुर हकीकतें;
उनके ढाँचे तो वैसे ही हैं
जैसे कि मैंने चाहे थे
पर रंग जाने किन-किन के हैं।”

कवि कुछ-कुछ कहता ही जा रहा था
उसमें मेरा आकर्षण कम हो गया था।
जन्म-दिवस की शाम
इस खंडहर में मची रौनक ने
मुझे हद तरीके से जकड़ लिया था।

गाँव के पुख्त लोगों का जमघट था
आपसी लोगों की गर्म बुराइयों और
गाँव के एक विशेष हिस्से से आईं
युवा कुमारियों की नृत्याग्नि में पकी
सेउर मछलियों के बादामी कोफ्तों
और महामहँगे द्रासव के असर से
मेरी पाँचों स्वादेंद्रियों के
एकीकृत आयतन में
अधमुँदी चेतना के झरने बह रहे थे।

मैं कवि के साथ था
उसका प्रशंसक बनकर
उसे सहानुभूति देता हुआ
उसके सुख में सुखी और
शरीक-ए-बयान-ए-दुख
पर
मेरी आँखें ढप-ढप जा रही थीं।

कवि के साथ गुजारी वह मेरी अंतिम रात थी।

मैं कवि की ओर तभी सजग हो पाता था
जब बाहर से
हवा के झोंके आने बिल्कुल बंद हो जाते थे
और मैं सावन की इस घुटन से
तड़प उठता था।

जबकि
तीन ही दिन बाद
सावन को बीत जाना था,
इस वर्ष जन्मे बच्चों को अभी तक
जन्मभूमि के सबसे पवित्र सांस्कृतिक-अंग
मृदा-गंध संस्कार में नहलाया नहीं जा सका था;
ठेठ लोग इसे
पाप की घनघोर बारिश मान रह थे;
कवि
अपने अंतर्मन को
भीज गया-सा बता रहा था।

उस रात सोकर
जब मैं उठा
तो मैंने पाया कि
यह कई वर्ष पहले-सी एक सुबह है
तारों के छोटे-छोटे बच्चों से घिरी
लाल गालों वाली सुबह!

कवि अपने पूर्व-मुखी घर के
दालान में बैठा
अपने पूर्वजों की, आ रही
कड़क यादों में सँभलता
सामने के खेतों में तैयार खड़ी
फसलों के आगे सिहर रहा था।

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