हॉर्स रेस | अंजना वर्मा
हॉर्स रेस | अंजना वर्मा

हॉर्स रेस | अंजना वर्मा – Horse Race

हॉर्स रेस | अंजना वर्मा

शिखर बहुराष्ट्रीय कंपनी के वातानुकूलित कमरे में बैठा हुआ था। उम्र होगी यही कोई पैंतीस के आस-पास। चेहरे पर थकान ने अपना बसेरा बना लिया था, फिर भी गाल और ललाट आत्मविश्वास से दमक रहे थे। अभी वह थोड़ा रिलैक्सड महसूस कर रहा था, क्योंकि कंपनी के टारगेट पूरे हो चुके थे। जो बाकी थे उनके भी पूरे होने की पक्की उम्मीद थी।

तभी उसके ऑफिस का एक बंदा सौरभ घबराया हुआ उसके पास आया। बोला, “सर, माय वाइफ इज सफरिंग फ्रॉम हेवी फीवर। आइ विल हैव टू गो… राइट नाउ… सर।”

दो पलों के लिए शिखर भी घबराकर उसकी बातें सुनता रहा। फिर बोला, श्योर-श्योर’। प्लीज गो…। सौरभ! तुम फौरन उन्हें अस्पताल लेकर जाओ और डॉक्टर से मिलने के बाद मुझे फोन करना। किसी चीज की जरूरत हो तो हेजिटेड मत करना… और पैसे की चिंता मत करना।”

“यस सर…।”

“हाँ, अभी कोई है उनके साथ?”

“हाँ, मेरी माँ है। माँ का ही फोन आया था।”

“ओके! प्लीज गो… फास्ट। टेक केयर।”

“थैंक यू सर… थैंक यू…।”

यह कहता हुआ और मन ही मन अपने बॉस को दुआएँ देता हुआ सौरभ जिस तरह घबराया हुआ आया था, उसी तरह घबराया हुआ निकल गया। शिखर का चेहरा थोड़ा गंभीर हुआ जैसे वह कुछ सोच रहा हो। सौरभ की पत्नी अस्पताल में भर्ती हो गई। शेखर ने फोन करके उसका हालचाल पूछा और अस्पताल जाकर सौरभ की पत्नी को देख आया। उसके चले जाने के बाद सौरभ की माँ उसके व्यवहार की इतनी तारीफ करती रहीं और दुआएँ देती रहीं। सौरभ तो रात-दिन अपने बॉस की तारीफ करने लगा था। पर वह समझ नहीं पा रहा था कि इतने ऊँचे पद पर पहुँचकर भी शिखर को क्यों अभिमान छू तक नहीं गया है? अपने एम्प्लॉयों के प्रति इतना प्यार? यह कम ही देखने में आता है।

उसके बाद से सौरभ के दिल में शिखर के लिए बड़ी इज्जत हो गई। अक्सर उसके मुँह से शिखर के लिए तारीफ-भरे शब्द निकल ही जाते। पर ऑफिस में सिर्फ वही अकेला नहीं था तारीफ करने वाला, सभी उसकी तारीफ करते थे। शिखर अपने एम्प्लॉइज के बीच अपने रुतबे नहीं, बल्कि अपने सौम्य व्यवहार के कारण कद्र पा रहा था।

एक दिन ऑफिस की ओर से पार्टी थी। सौरभ अपने दोस्तों विवेक और अयाज के साथ ड्रिंक ले रहा था। तभी शिखर भी अपना ग्लास हाथ में थामे आया और उनके बीच बैठ गया।

शिखर ने सौरभ से पूछा, “सौरभ! बताओ कैसी है तुम्हारी वाइफ?”

“बिल्कुल ठीक सर! और आपने तो सुनते ही मुझे छुट्टी दे दी।”

“अरे कैसे नहीं देता? …मैं भी समझता हूँ फैमिली की अहयिमत…।”

यह कहने के बाद उसने आँखें बड़ी-बड़ी कर सौरभ को देखा। फिर अपने ग्लास से चुस्की ली। थोड़ी देर तक एक मौन छा गया। सौरभ और अयाज गौर से शिखर को देखते हुए सोचने लगे कि इन शब्दों के पीछे आखिर कुछ तो है।

तभी शिखर बोला, “एक बार मेरी भी वाइफ बीमार पड़ी थी, पर उस समय मेरी ही बेरुखी ने कोमल को मुझसे दूर कर दिया… कोमल… मेरी वाइफ। वह समय ऐसा था… ऐसा कि मैं कुछ समझता ही न था… आज सोचता हूँ तो बस सोचकर रह जाता हूँ। जो बीत गया उसके लिए क्या कर सकता हूँ?”

फिर वह कुछ देर के लिए चुप हो गया और उसने एक ही बार में अपना ग्लास खाली कर दिया। फिर कहना शुरू किया। आँखें कहीं अदृश्य में खो गई थीं।

वह बोलने लगा, “तब मेरी नई-नई शादी हुई थी। मैं उसे लेकर अपनी नौकरी पर आया था। एक दिन कोमल बीमार थी और बिस्तर से उठ भी नहीं पा रही थी। मैं ऑफिस के लिए जब निकलने लगा तो उसने कहा, कि आज मत जाओ। मेरी तबीयत ठीक नहीं है। पता नहीं मैं आज टायलेट तक भी कैसे जाऊँगी। शायद गिर जाऊँगी…। उसकी आवाज में कमजोरी साफ घुली हुई थी और वह रुक-रुककर बोल रही थी। आँखें पूरी तरह खुल भी नहीं रही थीं। इस पर मैंने कहा, “कोमल डार्लिंग! आज जाना बहुत जरूरी है। नहीं गया तो डील चौपट हो जाएगी…। कोई बात होगी तो तुम मुझे फोन कर देना।”

फिर कोमल कुछ बोली नहीं, वैसे ही चुपचाप आँखें बंद कर पड़ी रही। और मैं ऑफिस निकल गया। उसी रात जब मैं ऑफिस से लौटा तो देखा बुखार से उसका बदन तप रहा था और वह बेहोश थी – न जाने कब से। मैंने फिर एंबुलेंस बुलाई। इस घटना के बाद बहुत दिनों तक मैं अफसोस करता रहा कि यदि रुक ही जाता तो क्या होता?

See also  परमात्मा का कुत्ता | मोहन राकेश

मैं अब यह समझता हूँ कि जितना समय मुझे अपनी न्यूली वेड पत्नी को देना चाहिए था, उतना मैं नहीं दे पाता था। दफ्तर जाने के बाद अपने निपट अकेलेपन को कोमल कैसे काटती थी वह देख तो नहीं पाता था, परंतु अनुमान न लगा पाता हो ऐसा भी नहीं था। लेकिन मैं इस अकेलेपन की कल्पना करने से भी डरता था जबकि वह उसे झेल रही थी।

कोमल उस एक कमरे के फ्लैट में बिल्कुल बेचैन हो जाती। यह मैं जानता हूँ कि सन्नाटा अनाकौंडा की तरह मुँह फाड़े उसे निगलने की कोशिश में लगा रहता होगा। किसी-किसी तरह वह दिन काटती होगी। सवेरे की चाय वह नौ बजे पीती थी हाथ में कप लिए अपने माहौल से खीझी हुई। उसे लगता था कि वह कैद होकर रह गई है।

कभी-कभी हम बात करते तो वह यह सब बताती। कभी ही कभी… ऐसे बात भी कहाँ हो पाती थी? दो बातें करने के लिए फोन मिलाती तो मेरा फोन बिजी आता। कभी मैं बात करता तो कभी यह कहकर फोन बंद भी कर देता, अच्छा… अभी तुमसे बात करता हूँ। बस, थोड़ी ही देर में।

और वह थोड़ी देर बाद का समय कभी न आता। वह रात तक इंतजार करती रह जाती।

शायद वह अपने खाने के लिए कुछ नहीं बनाती थी। रात का बचा खा लेती थी और कभी-कभी तो सारे दिन बिस्तर में ही पड़ी रह जाती थी। किसी-किसी तरह उसका दिन कटता तो शाम होती और फिर शाम रात में बदल जाती। टीवी देखते-देखते आँखें थक जातीं, तो जाकर सो जाती थी रात को मैं आता तो मेरे साथ ही खाती। अक्सर ऐसा होता कि मैं अपनी डुप्लीकेट चाभी से लॉक खोकर घर में प्रवेश करता।

मेरी आहट सुनते ही वह जग पाती। उसके चेहरे पर मुस्कुराहट तैर जाती और वह चहकती हुई आवाज में पूछती, “आ गए?”

“हूँ… आज ऑफिस में इतना काम था।” मैं बोलता।

“छोड़ो… यह ऑफिस गाथा। पेट में खलबली हुई मची है। खाना गरम करती हूँ।”

“पर मैं तो…।” मुझे कहना ही पड़ता, क्योंकि ऐसा हो जाता था मुझसे।

“क्या मैं तो?” वह बोलती।

“मैं तो मीटिंग से खाकर आया हूँ।” एक अपराध भाव लिए मैं बोलता।

“तो तुमने मुझे बता क्यूँ नहीं दिया? एक कॉल तो कर देते?”

अरे, इस कदर बिजी था कि भूल गया। अच्छा, अब से ख्याल रखूँगा। सॉरी…।”

और मैं उसे मनाने की पूरी कोशिश करने लगता। जब ऐसा एक बार नहीं कितनी बार हुआ तब अंत में कोमल ने खाने पर मेरा इंतजार करना छोड़ दिया था।

शुरू-शुरू में मेरे देर से आने पर कोमल इंतजार करते-करते थककर सो जाया करती थी। बाद में यह इंतजार भी खत्म हो गया था। मैं कब जाकर सो जाता था, उसे मालूम नहीं होता। रोज की यही कहानी हो चली थी।

और मैं उसे मनाने की पूरी कोशिश करता। पर मैं पूरी तरह जान नहीं पाता था कि उसके दिल पर क्या बीतती होगी? वैसे औरतें अधिक भावुक होती हैं। वह नहीं थी ऐसी बात नहीं है। वह भी थी। ज्यादा तो नहीं कहूँगा, क्योंकि ज्यादती मेरी ओर से उसके प्रति हो रही थी। उसे सिर्फ सहना पड़ रहा था।

उसका रात का खाना मेरी ही वजह से अनियमित हो गया। अकेलेपन के कारण वह खाने के प्रति अपनी रुचि ही खो बैठी थी। शायद उसे गहरी उदासी घेरने लगी थी। वह भीतर-ही-भीतर बीमार रहने लगी थी… शायद! शायद वह डिप्रेशन की शिकार हो गई थी। और मैं भी उसकी ओर ध्यान नहीं दे पा रहा था। मुझे चाहिए था कि मैं उसे कहीं घुमाने ले जाता। आध-एक घंटे भी अंतरंगता के साथ उससे बातें करता। उसे भीतर से समझने की कोशिश करता कि वह क्या चाहती है? उसे क्या अच्छा लगता है? एक बड़ी कॉमन-सी बात है कि अपने पति के साथ घूमना, सैर-सपाटा, रेस्तराँ में खाना और यदि पैसे न भी हो तो कम से कम साथ में हँस-बोलकर समय बिता लेना सभी औरतों को अच्छा लगता है। पर मैं उसके साथ समय भी तो नहीं दे पा रहा था?

See also  शब्द | बसंत त्रिपाठी

मैं उसके साथ अपराध कर रहा था… अन्याय… सौरभ! पर तब मेरे पास इतनी चेतना ही न थी कि मैं अपने किए का विश्लेषण करता। जिंदगी जैसे एक हॉर्स रेस थी और मैं उसका घुड़सवार। अपनी महत्वाकांक्षा के घोड़े को बेतहाशा दौड़ा रहा था… दौड़… दौड़… दौड़। मेरी आँखें फिनिश लाइन पर फिक्सड थीं। मुझे किसी तरह यह दौड़ जीतनी थी… बस। वही मेरा गोल था। इधर-उधर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था मुझे।

जानते हो सौरभ? अब जब तुमसे कह रहा हूँ तो कह ही दूँ। आज तुमसे सब कह देना चाहता हूँ। क्यों रखूँ दिल में? क्यों? मुझे दिल पर इसे झेलना बहुत भारी लगता है।

वह चाहती थी कि हमारे बच्चे हों और हमारे बीच का खालीपन भरे। उसका अकेलापन दूर हो। पर मैं टाल देता था। उसकी यह माँग नाजायज थी क्या? कतई नहीं। वह प्यारे-प्यारे बच्चों के सपने देखने लगी थी। एक दिन अपने सपने मुझे सुनाने लगी तो मैं बोला, नहीं कोमल, अभी नहीं। देखो, अभी हमारे पास क्या है? न अपना मकान है, न अपनी गाड़ी है। वह इस दुनिया में आएगा तो हम क्या दे सकेंगे उसे? न अच्छे खिलौने, न महँगे स्कूलों में एडमिशन – कुछ भी तो नहीं हो सकेगा। यही अगर वह कुछ साल बाद हमारी गोद में आए तो कितना कुछ मिलेगा उसे?” …और जानते हो यह सुनकर उसकी आँखों में आँसू आ गए थे। उसने अपनी बड़ी-बड़ी सजल आँखों से देखते हुए कहा था, “शिखर! तुम नहीं जानते कि बच्चे अपने माता-पिता से यदि सच में कुछ चाहते हैं तो वो है प्यार-दुलार, उनकी ममता-भरी निगाहें। बाकी चीजें तो दिखावे की होती हैं। और फिर जब तक वह यह सब समझने लायक होगा तब तक तो हमारे पास सब कुछ हो जाएगा न? फिर चिंता क्यों करते हो? फिर देर क्यूँ?”

“तुम नहीं समझती” मैं कहता, “उसे समय भी तो देना होगा। कहाँ है हमारे पास समय?”

“तुम्हारे पास नहीं है, मेरे पास तो है न?”

“क्या अकेले कर लोगी सब? क्या मेरी थोड़ी भी जरूरत नहीं पड़ेगी?” तब वह चुप हो जाती।

वह सब समझती थी, पर मैं ही नहीं समझता था। मैं नहीं समझ पाया था उसकी भावनाओं को और मैं कितना कठोर बना रहा, वह कितनी बेबस कि मुझसे एक बच्चा भी न पा सकी।”

यह कहने के बाद शिखर की आँखें भर आई। कुछ सोचकर उसने फिर कहना शुरू किया,

“मुझसे वह अक्सर शिकायत करती थी कि मैं उसे घुमाने नहीं ले जाता हूँ। वह ठीक ही तो कहती थी कि “अगर तुम्हारे पास मेरे लिए समय नहीं है तो तुमने शादी ही क्यूँ की?”

मैं कहता, “माँ-बाप का दबाव था कि शादी कर लो, इसीलिए की।”

तो वह कहती, “तो आज भुगत तो मैं रही हूँ न? तुम तो चले जाते हो बाहर… ऑफिस… होटल… पार्टी… हँसना-बोलना। और मैं?”

तो मैं कहता, “तुम्हें किसी ने मना किया है? तुम भी बाहर जाओ। बाजार में घूमो… कपड़े खरीदो।”

हाँ-हाँ… मैं अकेली घूमती रहूँ बाजार में? कपड़े खरीदूँ और पहनूँ… किसलिए?” वह कहती।

वह ठीक ही तो कहती थी, कि तुम हफ्ता में एक दिन भी मेरे लिए नहीं निकाल सकते, एक दिन भी मुझे नहीं दे सकते शिखर! …सैटरडे को भी निकल जाते हो।”

सच, मैं तो अपने कामों की धुन में शनिवार को भी व्यस्त हो जाता था। फिर उसके दूसरे दिन रविवार को भी उससे बात करने की फुर्सत नहीं होती, क्योंकि उस दिन मुझे अपने कपड़े साफ करने की जरूरत पड़ती और उन्हें प्रेस करने की। सप्ताह-भर की प्लानिंग करता। घर पर भी रहकर लैपटॉप पर व्यस्त रहता। सोचो सौरभ… वह किस टेंशन से गुजर रही होगी?

मुझे याद है वह हमारे बीच का अंतिम वाकया था। उस दिन शनिवार था और शनिवार के दिन भी मैं तैयार होने लगा तो कोमल ने कहा था, “शिखर! याद है आज क्या दिन है?”

“हाँ, शनिवार है। तुम यही न कहोगी कि आज मैं क्यूँ काम के लिए निकल रहा हूँ?”

“नहीं शिखर! आज कुछ और भी है। जरा याद तो करो?”

“क्या है कोमल? लेट हो रही है। पहेलियाँ मत बुझाओ। बहुत बड़ी डील है। मैं इसे ले सका तो मालूम है मेरी सैलेरी में कितना हाइक हो जाएगा और मैं कहाँ पहुँच जाऊँगा?”

“क्या तुम्हारी जिंदगी में डील और सैलरी हाइक के अलावे किसी और चीज के लिए कोई जगह नहीं?”

See also  गरजत-बरसत अध्याय 3 | असग़र वजाहत

“है क्यों नहीं? पर सब कुछ तो उसके बाद ही है न?”

“उसके बाद?” उसने दोहराया था।

“हाँ! ऑबवियसली!” मैंने भी अपनी बात पर जोर दिया।

वह मुझे घूरने लगी। जब मैं उसकी आँखों को बर्दाश्त नहीं कर पाया तो बोला, “किसके लिए कर रहा हूँ यह सब? अपने लिए क्या?”

“मुझे नहीं चाहिए यह सब। बस मुझे अपना थोड़ा-सा समय दे दो।” उसकी आँखों में अब एक सच्ची याचना थी।

“तब मैंने कहा, “कोमल! प्लीज… इमोशनल बातें बंद करो। बताओ आज क्या है?”

“आज हमारी शादी की तीसरी एनीवर्सरी है।” वह बोली।

उसे लगा कि यह सुनकर मैं चौंक जाऊँगा, खुश हो जाऊँगा, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। उल्टे मैं सुनकर भी उदासीन बना रहा।

मैं काम के बोझ से, जो कि मेरा ही अपना ओढ़ा हुआ था – आसमान छूने की मेरी अपनी ही जिद का परिणाम था, इस तरह दबा हुआ था कि उसकी आँखों में प्यार न देख पाया। ऊपर के मन से बोला “हाँ, ओह! मैं तो भूल ही गया। आज शाम को जल्दी लौटता हूँ। तुम तैयार रहना। हम टॉप रेस्तराँ में डिनर लेने चलेंगे।”

यह कहकर मैंने उसे चूम लिया और ओके… बाय कहता हुआ निकल गया। मैंने महसूस किया कि मैं नाटक कर रहा हूँ।

फिर उसके बाद तो… कौन मुझे बताता कि उसने क्या किया? पर जब ऑफिस से लौटा तो देखा।

मैंने रात के आठ बजे का समय उसे दिया था और ठीक आठ बजे उसका फोन आया, “कब आ रहे हो?”

“तुम तैयार होओ, मैं निकलूँगा आधे घंटे में।”

फिर उसका फोन नहीं आया। मैं इधर क्लायंट के चक्कर में फँस गया था। क्लायंट बोला कि वह एक मीटिंग से निकलकर मुझसे मिलेगा। 6 बजे की मीटिंग 7.30 बजे शुरू हुई। वह घंटे-भर चली। फिर क्लाइंट ने कहा कि मैं मैंनेजिंग डायरेक्टर शमशाद से मिल लूँ। फिर उनके आने में देर हुई। जब वे आए तो नौ बज चुके थे। वे आधे घंटे तक मेरा दिमाग चाटते रहे। इस बीच मैं सोच रहा था कि कोमल का फोन क्यों नहीं आ रहा? तभी आधे-अधूरे दिमाग से सुनता हूँ कि वे मुझसे हाथ मिलाते हुए कह रहे हैं “सो कोंग्रेचुलेशन! दिस डील गोज टू यू शिखर!”

डील तो मुझे मिल गई, पर तब तक साढ़े नौ बज चुके थे और मुझे घर पहुँचते-पहुँचते कम-से-कम साढ़े दस या ग्यारह बज ही जाना था। मुझे डील मिलने की कोई खुशी नहीं थी।

कोमल से मैं बहुत ही प्यार करता था और उसे दुख देकर मुझे भी दुख होता था, सौरभ! पर मैंने जान-बूझकर यह सब नहीं किया। पर क्या होता जा रहा था? …मुझे? वक्त को? लगता था कि अपना कोई जोर नहीं, बस मैं भागा जा रहा हूँ। भागा जा रहा हूँ। कभी मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ था कि घर पहुँचने के पहले घबराहट हो। पर उस दिन लिफ्ट में कदम रखते ही दिल धक-धक करने लगा था। पर उस दिन शायद मेरे दिल को पूर्वानुमान हो गया था – मेरा दिल शायद जान रहा था कि बहुत अजीब घटेगा मेरे साथ।

मैं अंदर गया और सीधे बेडरूम में चला गया यह सोचते हुए कि वह गुस्सा कर सो गई होगी। रूठी होगी तो उसे मना लूँगा। पर देख रहा हूँ कि बिछावन पर एक खूबसूरत सलवार सूट निकालकर रखा हुआ है। उसी के साथ उसी रंग की चूड़ियाँ, खुले डब्बे से बाहर झाँकती नई सुनहली सैंडिलें!

यह सब देखकर अचानक सारा माजरा समझ में आ गया। लगा मुझे बिजली का झटका लगा है। और मैं समझ गया कि वह चली गई है, क्योंकि वहीं पर डब्बे से दबाकर रखा गया एक कागज था जिस पर लिखा था… “मैं जा रही हूँ। मैं समझ गई तुम्हें मेरी जरूरत नहीं है।” हाँ, वह चली गई थी। मैंने उसे बहुत बुलाया पर वह नहीं आई।

सौरभ! डील तो मुझे मिली… मैं अपने मकाम पर तो पहुँचा, पर मैंने अपनी वाइफ खो दी, वाइफ क्या अपनी लाइफ ही खो दी। व्हाट आइ पेड फॉर इट… नो बडी विल पे…। मैं जानता हूँ कि इसको पाने के लिए मैंने क्या खोया है। मेरी तरह कोई न खोए।”

शिखर का चेहरा अजीब हो गया था… रुआँसा और पराजित। सौरभ ने अपने बॉस का ऐसा चेहरा कभी नहीं देखा था।

Download PDF (हॉर्स रेस)

पहॉर्स रेस – Horse Race

Download PDF: Horse Race in Hindi PDF

Leave a comment

Leave a Reply