हँसी और हिमनद | अर्पण कुमार
हँसी और हिमनद | अर्पण कुमार

हँसी और हिमनद | अर्पण कुमार

हँसी और हिमनद | अर्पण कुमार

एक लड़की हँसती है
जी भर हँसती है
शुरू में मंद-मंद
और बाद में पूरे जोर से
मगर यह क्या
उसकी हँसी एकदम से यूँ ध्वनिरहित
हँसते-हँसते वह लोटपोट हो जाएगी
मगर क्या मजाल
कोई सुन ले उसकी हँसी
वह तो गर्दन झुकाए
अपने अंदर फूटते
सूर्योदय की ऊर्जा से ही
चालित हो रही है
और हँसते हुए उसका बदन
पेड़ की किसी लचकती डाली सा
कंपायमान है
सुबह की क्रमशः तेज होती रोशनी
में उसका चेहरा नहा-नहा जाता है
वह हँस रही है, हँसे चले जा रही है
वह जितनी बार अपने होंठों के
युगल-पट बंद करना चाहती है
अंदर से हँसी का कोई नया झोंका
उसे बार-बार खोल देता है
वह परेशान हो-होकर खुद को ही कोसती है…
‘मुई मेरी यह हँसी किसी दिन
मेरी जान निकाल कर ही रहेगी
देखो तो कितनी बेलज्ज और ढीठ है
यह ख्याल तक नहीं करती कि
आस-पास बैठे लोग क्या सोचेंगे
बस कहीं भी किसी बात पर शुरू हो जाती है’
लड़की को याद आते हैं…
कैशोर्य के अपने वे खुले
और उन्मुक्त दिन
जब वह सुबह-सुबह
हुगली के तट पर
सैर को निकल जाती थी
तब माँ के
लाख ताकीद करने के बावजूद
ओढ़नी अपने स्थान पर
कहाँ टिक पाती थी
वह मेरी किसी दुष्ट
और दुस्साहसी सहेली की तरह
मेरे गले से लिपट अपने ही नशे में रहती
मैं आगे की ओर चली जा रही हूँ
और वह पीछे की ओर
अपनी दोनों बाँहें पसारे
जाने किससे क्या बतिया रही है
और जाने किसको क्यों मुँह चिढ़ा रही है
हवा में फड़फड़ाती ओढ़नी
मुझे भी किसी पक्षी सा
डैने रखने का आभास कराती
मगर तभी मुझे
अपने अगल-बगल के
लोगों का ध्यान आता
और मैं उसकी दोनों चोटियों को
अपनी मुट्ठी में ले
पहले तो उनका गठबंधन कराती
और फिर उन्हें अपने गर्दन से बाँध लेती
मानों अभी-अभी हवा को पूरे रफ्तार से
अपने फेफड़े में भरते
और भरपूर उड़ान भरते पक्षी ने
अचानक से अपने डैनों को
समेट लिया हो
मैं घर पहुँचती, उसके पहले
सुबह की मेरी इस उड़ान भरी सैर के
नमक-मिर्ची लगे किस्से
मेरे आँगन में
मेरी माँ और बहनों के साथ
मेरा इंतजार कर रहे होते
मैं अपनी माँ के नकली गुस्से का जवाब
उसकी ठोढ़ी पकड़ कर देती…
‘माँ तुम समझती क्यों नहीं
तुम्हारी बेटी मैं हूँ, यह ओढ़नी नहीं
मैं तो तुम्हारी हिदायतों का ध्यान रखती हूँ
मगर इसे कौन समझाए…’
और फिर मैं, मेरी माँ और
मेरी बहनें ठठाकर हँस पड़तीं
वह लड़की यहाँ दिल्ली में
मेरी बात पर यूँ चुपचाप हँसते हुए
जाने कब और कैसे
हुगली और हावड़ा से होकर आ जाती है
और कैसे-कैसे रंगों में
डूबती-उतराती चलती है
मैं ठिठक कर उसकी इस आवाजाही को
किसी मूकदर्शक सा
देखता भर चला जाता हूँ
वह लड़की किसी मँजे एथलीट सा
झट आज-कल और कल-आज के बीच
कूदती-फाँदती चलती है
तभी तो…
आज भी वह वैसे ही
खुद को मजबूर बताती है
जैसे हुगली के तट पर अपने सैर के
उन दिनों में बतलाया करती थी
बस जगह बदली है
मगर इस शोख लड़की के
बहाने बनाने के अंदाज नहीं बदले
घर की जगह होस्टल ने ले ली
और माँ की जगह
होस्टल के वार्डन ने
और दुपट्टे की जगह
एक लड़के ने…
‘मैडम मैं क्या करूँ
यह बात ही ऐसी करता है’

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इस तरह भावविभोर होकर
हँसती लड़की को
सिर्फ देखा भर जा सकता है
और इस देखने में
पूरा जीवन बिताया जा सकता है
कल्प को पलों में
बदलता हुआ
महसूस किया जा सकता है
पल-पल बनती-बदलती
इन आत्म-लीन लहरों को
मन भर पीया जा सकता है
उसके साथ रहकर
सुदूर दिल्ली में हुगली के नमक का स्वाद
चखा जा सकता है
उसमें खोया जा सकता है अपना वजूद भुलाकर,
अपनी खुदाई मिटाकर
हमेशा-हमेशा के लिए
कयामत की घड़ी तक

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उसी लड़की की अघोष हँसी को
सुन नहीं देख रहा हूँ मैं
जिसके निमित्त मेरे ही ढीठ शब्द हैं
मैं खुश होता हूँ
अमला-पगला-दीवाना सी मेरी बातों से
जोड़ी भर रक्तिम अधरों पर
निःशब्द मगर उजली हँसी की
रजत-आभा फैल जाती है
और एक गौरवर्णा
गंगोत्री बन जाती है सहज ही
देखते-देखते मेरी आँखों के सामने ही
और फूट पड़ती है उससे
एक प्रवहमान धारा
खुशियाँ बिखेरती अपने दोनों ओर
आगे बढ़ती, हर बाधा को पार करती
निवारण करती दुखों का
प्रक्षालन करती हर तरह के मैल का
हरती कैसी भी थकान
तरोताजा करती तन-मन को
और मैं बहे चला जा रहा हूँ
उसके पथ में,
उसकी गति बनकर
उलटता-पुलटता उसके साथ
ज्यों कोई हिमनद

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अपनी रेखाओं और कंपन में
यह हँसी विशिष्ट है
अम्लान है
और संभव है
हिमनद और गंगोत्री के बीच कोई
मूक संधि भी हो।

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